दुखों से मुक्ति देता है भगवान केदारनाथ धाम

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भूतभावन भगवान शिव का केदारनाथ धाम उत्तराखंड में अवस्थित है। यह अत्यन्त दिव्य और अलौकित धाम है। हिमालय की गोद में अवस्थित ज्योतिर्लिंग के दर्शन छह महीने होते है। बैशाख से लेकर अश्विन माह तक के कालखंड में यहां यात्रा की जा सकती है। शेष समय अत्यधिक ठंड होने से यह क्षेत्र श्रद्धालुओं के लिए बंद रहता है।

कार्तिक माह में हिमवृष्टि तेज हो जाने पर इस मंदिर में घी का नंदादीप जलाकर श्री केदारेश्वर को भोग सिंहासन बाहर लाया जाता है और मंदिर के पट बंद कर दिये जाते हैं। कार्तिक से चैत्र तक श्री केदारेश्वर महादेव का निवास नीचे उरवी मठ में रहता है। बैशाख में जब बर्फ पिघल जाती है तो केदारधाम के पट फिर खोल दिये जाते हैं। जब इस मंदिर के पट खोले जाते हैं तो कार्तिक माह में जलाया हुआ दीपक नंदादीप ज्यों का त्यों जलता हुआ दिखता है।

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हरिद्बार को मोक्षदायिनी मायापुरी माना जाता है। हरिद्बार से ऋषिकेश, देव प्रयाग, रुद्र प्रयाग, सोन प्रयाग, त्रियुगी नारायणी व गौरी कुंड के मार्ग से श्री केंदारनाथ के धाम को जाते हैं। यात्री यहां गौरी कुंड स्थान पर पहुंचने के बाद यहां गर्म कुंड के पानी से स्नान करते हैं और मस्तकहीन गणेश जी का दर्शन-पूजन करते हैं। गौरी कुंड का स्थान गणेश जी का जन्म स्थल माना जाता है। भगवान शंकर ने इसी स्थल पर गौरी पुत्र गणेश जी को मस्तक हीन बनाया था। गौरी कुंड से कुछ कोस दूर पर मंदाकिनी नदी की घाटी में भगवान शंकर का केदारनाथ धाम दिखाई देता है। यहीं कैलाश है, जो भगवान शिव का आद्य निवास स्थान हिमालय में है, लेकिन यहां भगवान शिव का कोई लिंग या मूर्ति नहीं है, बल्कि एक त्रिकोण की ऊंचाई वाला स्थान है। यह महेश का पृष्ठभाग बताया जाता है।

इस त्रिकोण स्थान को लेकर कथा है, जिसके अनुसार महाभारत युद्ध समाप्ति पर पांडव पापों के शमन के लिए काशी पहुंचे, लेकिन उस समय भगवान शिव हिमालय के कैलाश पर गए हुए थे। इसकी जानकारी पांडवों को हुई तो वे भी हिमालय क्षेत्र में पहुंचे। कुछ दूरी से उन्हें भगवान शिव के दर्शन हुए, लेकिन पांडवों को देखकर भगवान वहीं अंतर्ध्यान हो गए। यह देखकर धर्मराज युधिष्ठिर बोल कि हम पापियों को देखकर प्रभु आप अंतर्ध्यान हुए है। हमे आपके दर्शन की चाहत है, इसलिए हम आपको ढूंढेगे। हमे देखकर आप अंतर्ध्यान हुए हैं, इसलिए गुप्तकाशी के रूप में पवित्र तीर्थ यहां बनेगा। फिर पांडव गुप्त काशी रुद्र प्रयाग से आगे निकल कर हिमालय के कैलाश, गौरीकुंड आदि स्थानों पर घूमते रहें। इतने में नकुल सहदेव को एक भैसा दिखाई दिया।

उसका दिव्य रूप देखकर धर्मराज ने कहा कि भगवान शंकर ने ही इस भैसा का रूप धारण किया है, वह हमारी परीक्षा ले रहे हैं। इस पर भीम भैसे की ओर दौड़ा तो भैसा उछल पड़ा और भीम के हाथ नहीं लगा। अंत में भीम थक कर हार गए और उन्होंने भैसे पर गदा से प्रहार कर दिया। घायल भैसा धरती में मुह दबाकर बैठ गया। भीम से उसकी पूछ को खींचा। इस खींचतानी में भैसे मुंह सीधा नेपाल में जा पहुंचा। भैसे का पार्श्व भाग केदारनाथ धाम में ही रहा। नेपाल में वह पशुपति नाथ के नाम से जाना जाने लगा।

महेश के उस पार्श्वभाग से एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई। दिव्य ज्योति मेंसे शंकर भगवान प्रकट हुए। तब पांडवों को उन्होंने दर्शन दिए। इससे पांडवों का पाप हरण हुआ। तब भगवान शिव ने पांडवों से कहा कि मैं अब यहां इसी त्रिकोणाकार में ज्योतिर्लिंग के रूप में सदैव रहूंगा। केदारनाथ के दर्शन से भक्त पावन होंगे। केदारधाम में पांडवों कई स्मृतियां जागृत रही है। राजा पांडु इस वन में माद्री के विहार करते समय मर गए थे। वह स्थान आज पांडुकेश्वर के नाम से विख्यात है। जिस स्थान पर पांडव स्वर्ग सिधारे थे, उस ऊंची चोटी को स्वर्ग रोहिणी कहते हैं।

धर्मराज जब स्वर्ग सिधार रहे थे, तब उनके शरीर का एक अंगूठा अलग होकर धरती पर गिरा था। उस स्थान पर धर्मराज ने अंगुष्ठामात्र शिवलिंग की स्थापना की थी। महेश के रूप में भगवान शंकर पर भीम ने गदा का प्रहार किया था इसलिए भीम को बहुत पछतावा हुआ, वह महेश के शरीर पर घी से मलने लगे। उस स्मृति के रूप में आज भी त्रिकोणाकार दिव्य ज्योतिर्लिंग केदारनाथ की घी से मालिश करते है। इसी विधि से भगवान शंकर की पूजा अर्चना की जाती है। यहां पानी और बेल पत्र से अभिषेक नहीं किया जाता है, फूल भी नहीं चढ़ाये जाते हैं।

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केदारनाथ धाम की पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार नर-नारायण जब बद्रिका ग्राम में पहुंचकर पार्थिव पूजा करने लगे। उन्होंने कठोर तप किया, उनके कठोर तप के फलस्वरूप पार्थिव शिवजी वहां प्रकट हुए। फिर एक दिन शिव जी ने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने को कहा। तब नर-नारायण ने लोककल्याण के निहित यहां सदा-सर्वदा के लिए स्थिर रहने की प्रार्थना की। नर-नारायण की दोनों की प्रार्थना पर हिमाच्छादित केदार नाम के स्थान पर साक्षात महेश्वर ज्योति स्वरूप स्वयं स्थित हुए और उनका वहां केदारेश्वर नाम प्रसिद्ध हुआ।

मुख्य मंदिर श्री केदारेश्वर यानी केदारनाथ धाम में अनेक पवित्र स्थान हैं, मंदिर के पिछवाड़े शंकराचार्य की समाधि है। दूर की ऊंचाई पर भृगपतन यानी भैरव उड़ान नाम की एक भयानक खडत्री कगार है। वहां पहुंचने के लिए साक्षात मृत्यु का सामना करना पड़ता है। इसे मृत्यु नहीं, बल्कि मोक्ष कहिए, क्योंकि मंदिर की आठ दिशाओं में अष्टतीर्थ हैं।

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