व्यास पूर्णिमा या गुरु पूर्णिमा आषाढ़ की शुक्ल पूर्णिमा में मनायी जाती है। वैसे को व्यास नाम के कई विद्बान हुए हैं, लेकिन व्यास ऋषि, जिन्होंने चारों वेदों व अन्य सनातन धर्मग्रंथों को जनश्रुति के आधार पर लिपिबद्ध किया था। इन धर्म ग्रंथों को भगवान गणपति ने अपने दंत से लिखा था। ऐसे ऋषि व्यास की आज पूजा की जाती है। उनकी स्मृति को संजोकर रखने के लिए हम अपने-अपने गुरुओं को व्यास जी का अंश मानकर उनकी पूजा करते हैं। यही परम्परा चली आ रही है।
प्राचीनकाल में जब आश्रम व्यवस्था थी और तब गुरु-शिष्य का सम्बन्ध अत्यन्त ही पावन माना जाता था। तब से गुरु पूर्णिमा मनाने का प्रचलन रहा है। गुरु पूजा के दिन स्नान, पूजादि से निवृत्त होकर उत्तम वस्त्र पहन कर गुरु के पास जाना चाहिए। वस्त्र, फूल, फल व माला अर्पण कर गुरु को प्रसन्न करना चाहिए। उनसे आर्शीवाद लेना चाहिए। इस पर्व को श्रद्धा व पूर्ण विश्वास के साथ मनाने की परम्परा है।
धर्म शास्त्रों में गुरु की महिमा का बखान कुछ इस प्रकार किया गया है-
ॐ गुरुब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर :।
गुरु साक्षात् परब्रहम तस्मे श्री गुरवे नमः ।।
अर्थात गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरु की महेश्वर हैं। वे ही परब्रह्म हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के श्री चरणों में मेरा बारम्बार नमस्कार है।
ध्यान मुलं गुरुर्मुर्ती:, पूजा मुलं गुरुर्पदम ।
मंत्र मुलं गुरुर्वाक्यमं, मोक्ष मुलं गुरुर्कृपा ।।
अर्थात परम पूज्य गुरुदेव की भावमयी मूर्ति ध्यान का मूल है । उनके चरण कमल पूजा का मूल हैं । उनके द्वारा कहे गए वाक्य मूल मंत्र हैं । उनकी कृपा ही मोक्ष का मूल है ॥
अंत में एक बात कहना उचित प्रतीत होता है, जो कि आज के दौर में प्रासंगिक है, क्योंकि अभी कलयुग चल रहा है, ऐसे में गुरु के चयन में अत्यन्त सावधानी बरतनी चाहिए। गुरु वही होना चाहिए, जो ब्रह्म का ज्ञान दें, मुक्ति का मार्ग बताये। उसमें स्वयं में भी त्याग की भावना और ज्ञान का स्रोत होना चाहिए। उसका स्वयं का चरित्र भी श्रेष्ठ होना चाहिए। इंद्रिय विकारों से मुक्त होना चाहिए, सनातन धर्म शास्त्रों के अनुकूल उसका आचरण भी होना चाहिए, ऐसे में सुपात्र गुरु के चयन में ही कल्याण निहित है। ऐसे में अच्छे सद्चरित्र गुरु के लिए चयन में सावधानी बरतने आवश्यक है, ताकि आपका जीवन भ्रमित न हो।
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