कैलाश मानसरोवर की यात्रा का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है। मानसरोवर यात्रा सनातन परम्परा का अभिन्न अंग है। कैलाश सर्वश्रेष्ठ हिमशिवलिंग है, जो साक्षात शिव-सदृश है और मानसरोवर उत्कृष्ट शक्तिपीठ है, यहां पर सती के दाहिने हाथ की हथेली गिरी थी। यहां के शक्तिपीठ की देवी का नाम ‘कुमुदा है- ‘मानसे कुमुदा प्रोक्ता।
वैज्ञानिकों का मानना है कि यह स्थान धरती का केंद्र है। धरती के एक ओर उत्तरी ध्रुव है, तो दूसरी ओर दक्षिणी ध्रुव। दोनों के मध्य में है हिमालय। हिमालय का केंद्र है कैलाश पर्वत और मानसरोवर। वैज्ञानिक यह भी धारणा रखते हैं कि भारतीय उपमहाद्बीप के चारों ओर पहले समुद्र हुआ करता था। इसके रशिया से टकराने से हिमालय का निर्माण हुआ। यह घटना अनुमानत: 1० करोड़ वर्ष पूर्व घटी थी। यह एक ऐसा केंद्र है, जिसे एक्सिस मुंडी कहा जाता है। एक्सिस मुंडी का अर्थ है, दुनिया की नाभि या आकाशीय ध्रुव और भौगोलिक ध्रुव का केंद्र। यह आकाश और पृथ्वी के मध्य संबंध का एक बिदु है, जहां दसों दिशाएं मिल जाती हैं। रशिया के वैज्ञानिकों के मुताबिक एक्सिस मुंडी वह स्थान है, जहां अलौकिक शक्ति का प्रवाह होता है और आप उन शक्तियों के साथ संपर्क कर सकते हैं। शक्तिपीठों के प्रादुर्भाव के विषय में वैदिक धर्म शास्त्रों में उल्लेख किया गया है। देवीपुराण, ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और तंत्रग्रन्थों में विस्तार से मानवसरोवर सम्बन्धित गाथाएं है। इन गाथाओं के अनुसार, भगवान विष्णु द्बारा सुदर्शन चक्र से सती के मृतदेह को काटने पर जहां-जहां पर भी वे अंग गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ का प्रादुर्भाव हुआ। देवी पुराण में इस विषय पर विस्तार से उल्लेख किया गया है। उल्लेख किया गया है कि सती शव की अनेकानेक मूर्तियां इन स्थानों पर आविर्भूत हो गयीं। सती के अंग पृथ्वी पर 51 स्थानों में गिरे, वहां-वहां पर शक्तिपीठ का प्रादुर्भाव हुआ। कुछ ग्रन्थों में 1०8 शक्तिपीठों की संख्या लिखी गई है। हर शक्तिपीठ में एक ‘शक्ति’ और एक ‘भैरव’ विभिन्न रूप और विभिन्न नाम धारण कर निवास करते हैं। इन स्थानों को महाशक्तिपीठ भी कहा गया है।
देवी भागवत, शिवचरित्र (मराठी), तंत्रचूडामणि आदि ग्रन्थों में इन शक्तिपीठों का विस्तृत उल्लेख है। ये शक्तिपीठ परम पवित्र और त्वरित फलदायक माने गये हैं। शाक्तसम्प्रदाय के साधक इन शक्तिपीठों की यात्रा, देव-देवी के दर्शन वहां-वहां पर साधना कर शक्ति के दर्शन और कृपा प्राप्त करते हैं-
‘तेषां मंत्रा: प्रसिध्यन्ति मायाबीजविशेषत:।।’
हिन्दू, बौद्घ एवं जैन धर्मग्रन्थों में कैलास शक्तिपीठ मानसरोवर का गौरवमय वर्णन पाया जाता है। हिन्दू धर्मग्रन्थ मानसरोवर का मानस-सर, बिन्दुसर, मानसरोवर इत्यादि नामों से वर्णन करते हैं और उसके प्रति अटूट-श्रद्घा-भक्ति रखते हैं। सृष्टिर्किर्ता ब्रह्मा के मन द्बारा निर्मित होने से इस सरोवर का नाम ‘मानससर किवा’ ‘मानसरोवर’ पड़ा। इस बात का समर्थन करते हुए महर्षि विश्वामित्र अयोध्यापति रामभद्र से कहते हैं कि-
कैलासपर्वते राम मनसा निर्मितं परम।
ब्रह्मणा नरशार्दूल तेनेदं मानसं सर:।
(वाल्मीकीय रामायण)
इसी ग्रन्थ में अत्यत्र कहा गया है कि राजा मान्धाताने इस सरोवर तट पर दीर्घकालपर्यन्त उत्कट तपस्या की थी, अत: इसका नाम मान्धाता नाम से ‘मानसरोवर’ पड़ा। तंत्रचूडामणि, दाक्षायणीतंत्र, योनिनीतंत्र, देवीभागवत इत्यादि ग्रन्थों में मानससर का महाशक्तिपीठ के रूप में उल्लेख है। उसमें देवी कुमुदा का निवास कहा गया है।
‘तंत्रचूडामणि’ नामक ग्रन्थ में कहा है कि –
मानसे दक्षहस्तो मे देवी दाक्षायणी हर:।
अमरो भैरवस्तत्र सर्वसिद्घिविधायक:।।
भावार्थ- मानसरोवर की पवित्र भूमि पर सती के देह की दाहिने हाथ की हथेली गिरी थी, अत: वहां सर्वसिद्घिप्रदा भगवती ‘दाक्षायणी’ और भैरव ‘अमर’ विराजमान हैं।
ऐसी भी जनश्रुति है कि द्बापरयुग में एक चक्रवर्ती राजा ने कैलास के समीप महायज्ञ का भव्य आयोजन करवाया था। मानसरोवर की भूमि में यज्ञकुण्ड था। उसमें पूर्णाहुति के बाद जल का फव्वारा फूटा और कुछ दिनों में वहां पर विशाल जलभण्डार ‘मानसरोवर’ बन गया।
महाभारत ‘नवपर्व’ में ऐसा कहा गया है कि मानसरोवर उत्तम तीर्थ है और उसमें अवगाहन करने वाला रुद्रलोक में जाता है-
ततो गच्छेत राजेन्द्र मानसं तीर्थमुत्तमम।
तत्र ·ात्वा नरो राजन रुद्रलोके महीयते?
रामायण में भी कहा गया है कि मानसरोवर में शिव हंसरूप में बिहार करते रहते हैं। पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि ब्रह्मा के मन से निर्मित मानसरोवर के दर्शन मात्र से भक्त के पापों का क्षालन हो जाता है और उसमे स्नान और उसके पवित्र जल का पान करने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। उसके सुरम्य तट पर निवास कर मंत्र साधना करने पर मंत्रसिद्घि होती है तथा भगवती महाशक्ति कुमुदा की असीम अनुकंपा प्राप्त होती है और उसका आवागमन मिट जाता है।
यहां निवास करने वाले साधक को युग के अन्त में पार्षदों और पार्वती सहित इच्छानुसार रूप धारण करने वाले भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। इस सरोवर के तट पर चैत्रमास में कल्याणकामी याजक पुरुष अनेक प्रकार के यज्ञों द्बारा परिवार सहित पिनाकधारी भगवान शिव की आराधना करते हैं। इस सरोवर में श्रद्घापूर्वक स्नान और आचमन करके पापमुक्त हुआ जितेन्द्रिय पुरुष शुभ लोकों में जाता है, इसमें संशय नहीं है-
क्षीणे युगे तु कौन्तेय शर्वस्य सह पार्षदै:?
सहोमया च भवति दर्शनं कामरुपिण:।
अस्मिन सरसि सत्रैर्वै चैत्रे मासि पिनाकिनम?
यजन्ते याजका: सम्यक परिवारं शुभार्थिन:।
अत्रोपस्पृश्य सरसि श्रद्दधानों जितेन्द्रिय:।।
क्षीणपाप: शुभांल्लोकान प्रापु्रते नात्र संशय।
(महाभारत, वनपर्व)
मानसरोवर की पवित्रतम भूमि शक्तिशाली सूक्ष्म आंदोलनों से सतत विकम्पित रहती है, जो प्रतीति कराती है कि इस स्थान पर अवश्य महाशक्तिपीठ है। मानसरोवर अत्यन्त सुंदर, शान्त और आनन्द से परिपूर्ण है। उसका जल स्फटिक सा स्वच्छ, मधुरतर, स्त्रिग्ध और सुपाच्य है।
मानसरोवर विषयक एक कथा कुछ यूं कही गई है, जिसके मुताबिक जब तारकासुर देवों और मानवों को अत्यन्त त्रास देने लगा, तब उसका वध करने के लिए देवों ने भगवान शिव से महापराक्रमी सुपुत्र उत्पन्न करने हेतु प्रार्थना की। शिव ने ‘तथास्तु’ कहा। उसी दिन जब भगवती शिवा (पार्वती) मानसरोवर के तट पर भ्रमण करने के लिए गयीं, तब उन्होंने देखा कि छह दिव्य स्त्रियां कमलपत्र के द्रोण में मानसरोवर का पवित्रतम जल भरकर ले जा रही थीं। पार्वती ने उनका परिचय और जल ले जाने का प्रयोजन पूछा। उनसे प्रत्युत्तर मिला कि आज शुभ दिन में जो कोई पतिव्रता स्त्री इस पवित्रतम जल का पान करेगी, उसके उदरसे देवसेनानायक-जैसा महापराक्रमी पुत्र उत्पन्न होगा। यह सुनकर पार्वती ने उस द्रोण में भरा भवित्रतम जल पीने की इच्छा व्यक्ति की। उन स्त्रियों (कृत्तिकाओं) ने कहा कि हम यह पवित्रतम जल आपको देंगी, लेकिन इस जल के प्रभाव से होने वाले आपके महापराक्रमी सुपुत्र का नाम हमारे (कृत्तिकाओं के) नाम पर ही ‘कार्तिकेय’ रहेगा। पार्वती ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर उस दिव्य जल का पान किया, फलत: भगवान कार्तिकेय का जन्म हुआ। देवसेनानायक बनकर युद्घ में उन्होंने तारकासुर का वध किया और देव-मानवों को त्रासमुक्त कर दिया।
जैन-धर्म-ग्रन्थों में कैलास को अष्टापद कहा गया है और मानसरोवर ‘पद्मह्रद’ बताया है। इस पवित्रतम सरोवर में कतिपय तीर्थंकरों ने स्नान किया था और उसके सुरम्य तटपर निवास कर तपस्या की थी। एक जैन-ग्रन्थ में ऐसा लिखा है कि लंकापति रावण लंका से अपने पुष्पक-विमान में बैठकर एक दिन अष्टापद (कैलास) और पद्मह्रद-मानसरोवर की यात्रा और दोनों ही तीर्थों की प्रदक्षिणा करने के लिये आया था। लंकेश रावण शक्ति का भी उपासक था, अत: उसने महाशक्तिपीठ मानसरोवर में स्नान करना चाहा, लेकिन देवताओं ने स्नान करने से रोका। यह देखकर महाबली रावण ने अपने सामथ्र्य से मानसरोवर के समीप ही एक बड़े सरोवर का निर्माण किया और उसमें स्नान किया। उस सरोवर का नाम ‘रावणह्रद’ पड़ा। पवित्रतम मानसरोवर का जल जिस छोटी-सी नदी द्बारा (राक्षसताल) में जाता है, उस दी को लंगक-स्तु (लंगक-राक्षस, त्सु-नदी) गंगा-छु कहते हैं। राक्षसताल से पवित्र ‘सरयूगंगा’ निकलती है। यह दिव्य शक्तिपीठ मानसरोवर समुद्र तल से 14-15० फुट की ऊंचाई पर है।
बौद्घ-धर्मग्रन्थों ने भी मानसरोवर का अत्यन्त महत्व दर्शाया है। भगवान बुद्घ के जन्म के साथ मानसरोवर का घनिष्ठ संबंध कहा गया है।
पालि भाषा में लिखे हुए बौद्घ-ग्रन्थों में मानसरोवर का ‘अनो-तारा-सर’ अर्थात पवित्रता काा सरोवर कहा है। बुद्घ देव के समय से ही बौद्घ लोक पश्चिम-तिब्बतस्थित महातीर्थ कैलास एवं मानसरोवर की यात्रा और परिक्रमा करते आये हैं। वैदिक काल में भी ऋषि-मुनिलोग कैलास एवं मानसरोवर की यात्रा और प्रदक्षिणा करते थे, ऐसा प्रमाण प्राचीन धर्मग्रन्थों से प्राप्त होता है।
तिब्बती धर्मग्रन्थ कंगरीकरछक में मानसरोवर को देवी दोर्जे फांग्मो (बज्रवाराही)-का निवासस्थान माना है। इस पवित्र सरोवर में भगवान देमचोग (दे=सुख, मचोग=महा) भगवती दोर्जे फांग्मो के साथ पर्व दिन में विहार करते हैं। इस धर्म-ग्रन्थ में मानसरोवर को ‘त्सो-मफम’ कहा है और बताया है कि भारतदेश से एक बड़ी मछली ने आकर मानसरोवर में मफम (छब आवाज) करते हुए प्रवेश किया था, अत: इस मधुर जल के महासरोवर का नाम ‘त्सो-मफम’ पड़ गया।
मानसरोवर यात्रा कैसे करें-
मानसरोवर की यात्रा में उत्तराखंड के काठगोदाम रेलवे-स्टेशन से बस द्बारा अल्मोड़ा और वहां से पिथौरागढ़ पहुंचा जा सकता है। काठगोदाम से दूसरा बस मार्ग वैजनाथ, बागेश्वर, डीडीहाटा होकर पिथौरागढ़ जाता है या सीधे टनकपुर रेलवे-स्टेशन से पिथौरागढ़ जाया जा सकता है। पिथौरागढ़ से अस्कोट, धारचूला, तवाघाट होते हुए थानीधार (पांगु), सोसा, नारायण-आश्रम होकर सिरदंग सिरखा, जिप्ती, मालपा, बुड्डर्ीि होकर गरब्यांग से गुंजी जाना होता है। गुंजी से कालापानी, नवीडांग होकर हिमाच्छादित लिपु-ला (17,9०० फुट ऊंचाई) पार करके पश्चिम-तिब्बत होते हुए तकलाकोट नामक मंडी पहुंचा जाता है। वहां से टोयो, रिगुंग, बलढक होकर पवित्रतम मानससर (मानसरोवर) के दर्शन होते हैं।