प्रकृति: मैं थी एक निमोली

1
1049

रवरी का महीना था, हवाएं चल रही थीं। घूमते-घूमते नीम के पेड़ के नीचे जैसे ही पहुंचा, दिल धक से रह गया। पेड़ जो कुछ दिन पहले हरी-भरी पत्तियों से भरा हुआ था,आज विधवा के सूने हाथों की तरह खड़ा था और उस पेड़ की पत्तियां टूटी हुई चूड़ियों की तरह जमीन पर बिखरी थीं। कुछ देर खड़े रहने के बाद लौटा, लेकिन मन बोझल सा था और काफी देर तक किसी कार्य में मन नहीं लग रहा था। मगर दुनियादारी का कुछ असूल ही अलग है। आदमी उसमें उलझ कर सबकुछ भूल जाता है। उसी तरह मैं भी भूल गया।

कुछ दिन बाद उसी पेड़ की तरफ से गुजरने का मौका मिला, यकायक आंख्ो पेड़ की तरफ उठ गईं और देखता क्या हूं? कि वह पेड़ जो सूना हो गया था, अब उस पर नई-नई कोपलें फूट रही थीं। देखा तो देखता ही रह गया। अब लौटते समय काफी खुश था और एक नई उमंग थी कि पेड़ हरी-हरी पत्तियों से भरा देखने को मिलेगा।

Advertisment

अब जैसे ही घर से निकलता मेरे कदम खुद ब खुद उस नींम के पेड़ की तरफ मुड़ जाते और मैं उन्हें रोक नहीं पाता। यह प्राय: रोज का नियम सा बन गया था। हर रोज पेड़ में एक नई फिजा देखन को मिलती और मुझे काफी देर तक पेड़ के पास रुकने के लिए बाध्य होना पड़ता। पेड़ हरी-हरी पत्तियों से भर गया। यह देख मुझे बड़ा सुकून मिलता था। कुछ दिन बाद क्या देखता हूं? कि हरे पत्तों में छोटे-छोटे सफेद फल दिखाई दे रहे थ्ो, जो पेड़ की शोभा को चार चांद लगा रहे थ्ो।
उसके बाद मुझे कई दिनों तक पेड़ के पास जाने का मौका नहीं मिला। आज जब उस ओर गया तो देखा, पेड़ के छोटे-छोटे सफेद फूल अब हरे-हरे छोटे दानों में बदल गए हैं। दानें देखकर बहुत अच्छा लगा और पेड़ के नीचे रुकने को मजबूर होना पड़ा। पेड़ पर लग हजारों निमोलियों के गुच्छों को देखता रह गया। हटने का मन ही नहीं हो रहा था। सभी निमोनियां मानों कुछ कह रहीं होंं। सब हवा के झोंकों के साथ इधर-उधर झूल रहे थ्ो। सब से ऊपर वाली डाल पर कई गुच्छे थ्ो और ऐसे लग रहे थ्ो, मानों आपस में बातें कह रहे हों, समझ पाना मुश्किल था।

आज सुबह मेरे कदम नीम के पेड़ की ओर चल दिए, वहां क्या देखता हूं कि कुछ टहनियां टूट कर जमीन पर बिखरी पड़ी है। तभी मेरी निगाहें ऊपर की डाल के गुच्छों पर पड़ी, देखकर सुकून मिला कि वह गुच्छ अपनी जगह सही सलामत है। और इसी तरह रोज सुबह आता और कच्ची निमोलियों के गुच्छों को जमीन पर बिखरें देखता, बड़ा दुख होता, मगर खुशी इस बात की थी कि ऊपर वाली डाल की निमोलियों के गुच्छे सुरक्षित हैं।

यह क्रम चल रहा था, कि क्या देखता हूं? कि कुछ निमोलियों का रंग पीला हो रहा है और उन्हें कौवे व तोते कुतर-कुतर कर नीचे गिरा रहे थ्ो। हर रोज हजारों निमोनियां का यही हाल हो रहा था। ….और कुछ पक वैसे ही जमीन पर गिर रही थीं। मगर पेड़ के ऊपर वाली डाल के गुच्छे सही- सलामत थ्ो, मगर उन्हें भी जैसे डर था कि उनका हाल भी किसी दिन ऐसा ही होगा।

पेड़ के नीेचे बैठ कर उन्हीं गुच्छों के बारे में सोच रहा था कि हवा का एक तेज झोंका आया और ऊपर की डाल की सभी निमोनियां मेरे ऊपर आ कर गिरी। ऊपर की डाल की सभी निमोलियां नीचे गिर चुकी थीं। बहुत दुख हुआ। सभी निमोलियों को इकTा कर अपने साथ लेकर चल दिया। सभी निमोलियां एक झोले में भर ली गईं। रात हो गई, मैं सोने की पूरी कोशिश कर रहा था, मगर रह-रह कर मेरा ध्यान निमोलियों की तरफ खिंचा चला जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि झोले में रखी निमोलियां कुछ कह रही हो, कि झोले में हमारा दम घुट रहा है। हमें खुले में निकालों। मैं तुरन्त ही उठा और उन्हें झोले से निकालकर जमीन में फैला दिया तो लगा मानों वह सब बाहर खुली हवा में निकल कर बड़ी खुश हैं। यह खुशी दूसरे दिन उस समय काफूर हो गई, जब उन्हें ले जाकर एक क्यारी में फैलाकर मिट्टी में दबा दिया गया और उसके ऊपर हल्का पानी का छिड़काव करवा दिया गया। अब मानों वह सभी कह रही हो, अब उन्हें कभी खुली हवा नहीं मिलेगी और वह इसी मिट्टी के नीचे अपनी अंतिम सांसे पूरी करेंगी।

एक सप्तात बाद क्या देखता हूं कि क्यारी की जमीन कई स्थानों से फूल सी गई है और निमोलियों में से अंकुरन हो रहा है। देखकर बड़ी खुशी हुई और देखते ही देखते निमोलियों का अंकुरन बढ़ने लगा और उसमें से कुछ नई कोपले भी निकल आईं, वह बहुत खुश थीं कि उन्हें नया जीवन मिला और देखते ही देखते कुछ दिनों बाद निमोली से पौधा तैयार हो गया, फिर उस पौधे को निकालकर दूसरे स्थान पर लगा दिया गया।

कल की निमोली आज पौध्ो के रूप में बड़ी खुश थी और सोच रही थी कि उस के अन्य हजारों भाई-बहन जिन्हें लोग एकत्र करके ले गए थ्ो, उनमें से अधिकतर का तेल निकालकर दुनिया से नामोनिशान मिटा दिया। धीरे-धीरे जो निमोली पौधा बन गई थी। वह अपनी असलियत भूलती जा रही थी। कुछ वर्षों बाद जब मुझे उस लगाए गए पौध्ो को देखने का मौका मिला तो देखा कि वह एक पेड़ की शक्ल ले चुका है और उस पर हजारों की तदाद में निमोलियां लगी हुई थी। ठंडी हवाएं चल रही थीं और निमोलियां झूम-झूम कर खुशी से झूल रही थी।

संस्मरण व लेखन: अश्वनी कुमार नागर

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here