साधना का पथ: अवचेतन मस्तिष्क में बीज रूप में पड़ी हुई वासनाएं

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जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पाना जीव के जीवन का लक्ष्य होता है। साधना पथ पर बहुतेरे मनुष्य चलने का प्रयास करते है, लेकिन वह अपने विकारों पर विजय नहीं प्राप्त कर पाते हैं। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह व मत्सर जैसे विकार मनुष्य को घ्ोरे रहते हैं। उनसे मुक्ति पाए बिना साधना पथ पर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। मनुष्य की कामनाएं असीम है, वह अंतहीन है, एक कामना समाप्त होती है तो दूसरी कामना मनुष्य के मन में घर कर लेती है। इन्हीं कामनाओं के वशीभूत होकर मनुष्य नित नई चेष्ठाएं करता है। व्याकुल होता है और साधना पथ से भटक जाता है। कामनाएं अंतहीन है, व्यक्ति का जीवन समाप्त हो जाता है, लेकिन कामनाएं समाप्त नहीं होती है, इससे इससे मुक्ति उसे मिलती है, जिसका मन प्रभु की भक्ति में लीन हो जाता है। उसकी कामनाएं प्रभु पूर्ण कर देते हैं। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह व मत्सर आदि विकारों का वेग अत्यन्त प्रबल होता है। इसके प्रभाव में मति का नाश होता है और विवेक ही हानि होती है।

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दृढ़ निश्चय को धारक प्रभु का सुमिरन करने से इन विकारों पर विजय प्राप्त होती है और जीव साधना पथ पर निरंतर बढ़ता जाता है। काम एक ऐसा विकार है, जिस पर नियंत्रण पाना बहुत ही कठित होता है। साधना के पथ में यह सबसे बड़ी बाधा होता है। काम का नाश नहीं होता है, क्योकि यह सृष्टि का मूल कारण है। राख के नीचे दबी चिंगारी की तरह यह अनुकूल परिस्थिति पाकर जग जाता है, अपने को प्रभु में लगा तो इसका परिष्कार संभव है। तत्व प्राप्ति होने पर इसका नाश संभव नहीं है।

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भतर्ृहरि कहते हैं कि जो लोग वायु भक्षण करके, जल पीकर और सूख्ो पत्ते का सेवन करते रहे है, वे विश्वामित्र, पराशर आदि भी सुंदर स्त्रियों के मुख को देखकर मोह को प्राप्त हो गए, फिर घी-दूघ आदि अन्य व्यंजन खाने वाले अगर अपनी इंद्रियों का निग्रह कर सकें तो मानों विन्ध्याचल पर्वत समुद्र पर तैरने लगा हो, कहने का आशय यह है कि यह उनके लिए असंभव है। साधना पथ में यह प्रबल शत्रु के समान है। काम और क्रोध बड़े ही क्रूर है, इनमें दया का नाम नहीं होता है। इन्हें काल के तुल्य ही मानना चाहिए। यह ज्ञान निधि के साँप, विषय कन्दरा के बाघ और भजन मार्ग के भ्ोड़िया है। ये बिना ही जल के डुबो देते है। बिना ही आग के जला देते हैं और बिना ही शस्त्र के मार डालते हैं। यह अत्यन्त प्रबल होते है, साधना पथ में इन्हें बहुत बड़ी बाधा के रूप में जानना चाहिए। कामरूपी प्रेत जब व्यक्ति के मन में प्रवेश करता है तो उससे सहज मुक्त नहीं हो सकते हैं। वह तरह-तरह की यातनाएं देता है और व्यक्ति के बल बुद्धि का हरण कर लेता है।

तीव्र वैराग्य के अस्त्र से ही इससे पीछा छुड़ाया जा पाना संभव है। जीव में जब भी वासना का उदय होता है तो बुद्धि मन में, मन इंद्रियों में और इंद्रियां विषयों में विलीन होती है। यह जीव को भोग की प्राप्ति की ओर आगे ले जाता है, जोकि साधक को साधना पथ से डिगाने वाला है। इसके विपरीत जब वासना से निवृत्ति हो जाती है तो सुख भोग योग में बदल जाता है, जिसके फलस्वरूप स्वाधीनता या मुक्ति होती है।
वृद्धावस्था में काम और क्रोध शांत हो जाते है, लेकिन लोभ बढ़ता जाता है। लोभ पाप का जनक है। पाप बढ़ेंगे तो जीव निश्चित रूप से दुखी ही होगा। लोभ को मात्र संतोष से ही जीता जा सकता है। यानी ईश्वर यानी परमसत्ता ने जो कुछ दिया है। उसमें संतोष भाव रख्ों। लोभ रूपी शत्रु जिसके हृदय में डेरा डाल लेते हैं, उससे सच्चाई और शील आदि गुण विदा हो जाते हैं। लोभ के बंधन में फंसा व्यक्ति झूठ और छल कपट का आश्रय लेकर प्रत्येक कार्य करने लगता है।

काम और क्रोध एक ही हैं, लेकिन आते दो रूपों में हैं। कभी तो वह मीठा जहर बनकर आते हैं और कभी कड़ुवा जहर बनकर आता है। दोनों से जीव का पतन होता है। इस शत्रु का नाश विवेक से ही संभव है। विवेक की प्राप्ति ईश्वरीय समर्पण के बिना संभव नहीं है। पूर्ण समर्पण के साथ साधना में लीन होने से ही विकारों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य के अवचेतन मस्तिष्क में बीज रूप में पड़ी हुई वासनाएं अनुकूल परिस्थितियां पाकर अंकुरित हो जाती है, फलने-फूलने लगती है। प्रबल होकर अपने अधीन कर लेती है। इसलिए साधक को सदैव ही शुभ भावों की सरिता बहने दें। यह तभी संभव है, जब पूर्ण श्रद्धा व विश्वास के साथ साधक साधना में लीन हो, सदैव सावधान रहें, तनिक भी विचलित नहीं हो।

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