श्री माता मनसा देवी की अमर गाथा, सर्पो को भी बचाया

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माता मनसा देवी की पौराणिक कथा

ऋषि के श्राप के कारण राजा परीक्षित को तक्षक नाग ने डस लिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। उसके बाद राज्य के पुरोहित और मंत्रियों ने राजा परीक्षित के पुत्र राजकुमार जन्मेजय को राज्य सिंहासन पर बिठाया। बाद में जन्मेजय को पता चला कि मेरे पिता की तक्षक सर्प के डसने से मृत्यु हुई थी। वह स्वाभाविक मृत्यु को नहीं प्राप्त हुए थे। यह जानकर उन्हें महान दुख हुआ और उसी समय जन्मेजय ने प्रण किया कि मैं संपूर्ण सर्प जाति को नष्ट कर दूंगा। सर्पो का विनाश करने के लिए राजा जनमेजय ने विशाल संपदा यज्ञ किया, जिसमें विषयों के मंत्रसे बंध कर एक-एक करके सर्प पर आकर हवन कुंड में गिरकर भस्म में होने लगे। इस तरह सर्प जाति का विनाश होने लगा।
कश्यप ऋषि की मानसी कन्या होने के कारण तथा आत्मा में निवास करने वाली सिद्ध योगिनी इस देवी ने तीन युगों तक परम ब्रम्ह श्री कृष्ण की घोर तपस्या की और अपने शरीर को जीर्ण बना डाला। गोपीनाथ प्रभु श्री कृष्ण ने इसके वस्त्र और शरीर को जीर्ण (क्षीर्ण) देखकर जरत्कारु नाम रख दिया| यह देवी जन्मेजय द्वारा किए जाने वाले सर्प दाह को रोकने वाले महाज्ञानी पुत्र आस्तिक की जन्मदात्री हुई, जिससे आस्तिक माता, नागेश्वरी आदि कहलायी। इन्हें विषहारी भी कहते हैं।


मुनिवर जरत्कारु बड़े महात्मा पुरुष थे। उन्होंने जरत्कारु को अपनी पत्नी के रुप में स्वीकार किया, जिसकी कथा इस तरह है-
राजा जन्मेजय द्वारा किए जा रहे यज्ञ के भय से भयभीत होकर वासुकी आदि सर्प पितामह ब्रह्मा के पास गए और बोले हे पितामह! निरंतर चल रहे महान सर्पदाह यज्ञ में सभी सर्प गिर गिर कर भस्म में हो रहे हैं। यदि यह यज्ञ बंद नहीं हुआ तो समस्त सर्प जाति नष्ट हो जाएगी। हे ब्रह्मा! आपकी रची हुई सृष्टि सर्पहीन हो जाएगी। तब ब्रह्मा जी ने वासुकी को समझाते हुए कहा हे वासुके! जरत्कारु नामक एक महान तेज वाले श्रेष्ठ मुनि है, तुम  अपनी बहन जरत्कारु को उन्हें सौंप दो। जरत्कारु के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा वही तुम लोगों की रक्षा करेगा। जरत्कारु ऋषि पूर्वत वन में तप करने हेतु उचित स्थान के लिए विचरण कर रहे थे। एक स्थान पर देखा कि उनके पितर लोग एक गड्ढे में एक पेड़ के सहारे उल्टे लटक रहे हैं और उस तृण को चूहा काट रहा है। पितरों को गड्ढे में उल्टा लटका देखकर जरत्कारु मुनि को महान कष्ट हुआ। उसी समय पितरों के निकट जाकर बोले हे पूजनीय! मैंने इतना तप किया ब्रम्हचर्य का पालन किया फिर आप सब की यह दशा क्यों हो रही है? कृपया हम पर उपकार करते हुए कारण स्पष्ट करें। तब उनके पितरो ने कहा हे वत्स! तपस्या करने से कुछ नहीं होगा क्योंकि वंश हीन होने के कारण हम स्वर्ग से निकालकर नर्क में डाल दिए गए हैं। अतः तुम विवाह करके संतान उत्पन्न करो तभी हमारा कल्याण होगा।

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तुम सदाचारी पुत्र के पुण्य प्रभाव से हम पुनः स्वर्ग के अधिकारी होंगे। इतना कहकर उनके पितरो ने मौन धारण कर लिया। तब जरत्कारु ऋषि बोले हे पूजनीय पूर्वजों! यदि मेरे समान नाम वाली कन्या बिना मांगे मुझे मिल जाए और मेरी अधीनता स्वीकार करें तो मैं विवाह कर लूंगा। मेरी बात को पूर्ण रुप से सत्य जाने। इस तरह पूर्वजों से कहकर वे तीर्थों का भ्रमण करने के लिए चल पड़े।मार्ग में वासुकी सर्प पर मिला, उसने ऋषि से अपनी बहन जरत्कारु को स्वीकार करने का निवेदन किया। वासुकी का निवेदन सुनकर ऋषि ने कहा हे महाभाग! तुम्हारी बहन मेरे नाम वाली है अतः मैं तुम्हारी बहन को पत्नी रूप में स्वीकार करता हूं लेकिन कोई अप्रिय कार्य करेगी अर्थात मेरी इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य करेगी उसी पर मैं इसे त्याग दूंगा। इस तरह वचनबद्ध करके जरत्कारु ऋषि ने उस कन्या को स्वीकार किया। कन्या को सौंप कर अपने घर लौटा। विवाह के पश्चात जरत्कारु मुनि अपने ही नाम वाली अर्थात जरत्कारु नामक स्त्री के साथ वन में सुखमय जीवन व्यतीत करने लगे। कुछ दिन इसी तरह बीत गए। एक दिन ऋषि राज संध्या के समय सो रहे थे। उस समय वासुकि नाग की बहन उनके निकट बैठी थी। भगवान भास्कर सूर्य को अस्ताचल की ओर प्रस्थान करते देखकर वह मन ही मन विचार करने लगी की संध्या वंदन का समय होने लगा और ऋषि राज अभी तक सो रहे हैं। यदि इन्हें जगाती नहीं हूं तो धर्म लोप होगा और पाप की भागी मैं बनूंगी और जगाती हूं तो पूर्व कथा के अनुसार उनकी आज्ञा के विरुद्ध कार्य होगा और मुझे त्याग देंगे। इस तरह उचित-अनुचित का विचार करती हुई वह इस निष्कर्ष पर पहुंची कि ऋषिराज भले ही मुझे त्याग दें परंतु मैं धर्म लोप होने जैसा कार्य नहीं करूंगी। ऋषि राज को जगाना ही उचित है- तब वह अत्यधिक विनम्र भाव से उन्हें जगाकर बोली है स्वामी! भगवान सूर्यदेव स्ताचल की ओर जा रहे हैं तथा संध्या वंदन का समय हो गया है किंतु ऋषि राज ने उनके वचनों को सुनकर कहा- मेरी निद्रा में विघ्न डालने वाली स्त्री! मैं तुझे इसी क्षण त्यागता हूं। अतः तू अपने भाई के घर चली जा। तब जरत्कारु कहने लगे हे तेजस्वी प्रभो! मेरे भाई ने जिस कार्य को पूर्ण करने के लिए मुझे अपनी सेवा में सौंपा है वह कार्य कैसे पूर्ण होगा? तब जरत्कारु ऋषि ने शांत स्वर में कहा हे वासुकि की बहन! यह कार्य पूर्ण हो चुका है। मैं कभी मिथ्या झूठ वचन नहीं करता।
ऋषि राज द्वारा त्यागे जाने पर वह अपने भाई के घर आई और ऋषि के द्वारा कहे वचनों को यथावत वर्णन किया। जिससे उसके भाई को पूर्ण विश्वास हो गया कि जरत्कारु गर्भ धारण कर चुकी है।

समयानुसार उसके गर्भ से एक दिव्य कुमार की उत्पत्ति हुई, जिससे मातृ एवं पितृ पक्ष का भय समाप्त हो गया। बड़ा होने पर उस बालक ने च्यवन मुनि से वेदों का सांगोपांग अध्ययन किया और आस्तिक नाम से जगत विख्यात हुआ। आस्तिक ने कुल की रक्षा हेतु राजाजन्मेजय द्वारा किए जा रहे सर्पदाह यज्ञ को बंद कराया। इसी बालक ने जरत्कारु ऋषि के पितरो को नर्क से मुक्ति दिलाई। इसी बालक को जन्म देने वाली जरत्कारु ऋषि पत्नी वासुकि नाग की बहन ने सबकी मंशापूर्ण की और मनसा देवी के नाम से संसार में पूजनीय हुई। हे माता के भक्तों! महामाया स्वरूपिणी भगवती जगदंबा की जो प्राणी आराधना नहीं करता उसे घोर नरक में जाना होता है और निरंतर चिंतन करने वाले को मुक्ति होती है। अतः सच्चे मन और सच्ची श्रद्धा से मां के चरणों में सिर झुका कर अपने पापों का प्रायश्चित करके भवबंधन से मुक्ति पा लो।

मनसा देवी की एक अन्य कथा

श्री माता मनसा देवी की एक अन्य कथा भी प्रचलित है। इस कथा के मुताबिक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में एक बार चंडीगढ़ के निकट मनी माजरा नामक स्थान जहां इस समय मनसा देवी का मंदिर स्थित है। यह जागीर एक जागीरदार के अधीन थी। अकबर ने किसानों से लगान वसूल करने का नियम लागू कर दिया। एक साल वर्षा न हुई जिस कारण किसानों की फसल अच्छी न हुई। प्रकृति के प्रकोप से ग्रस्त किसानों ने अकबर के दरबार में जाकर लगान माफ करने की गुजारिश की। किसानों की दुहाई सुनकर बादशाह अकबर अपने जागीरदारों पर क्रोधित होकर कैद खाने में डलवा दिया। उनकी गिरफ्तारी की खबर शीघ्र ही चारों ओर फैल गई। इस समय मां दुर्गा के एक अनन्य भक्त गरीबदास थे। उन्होंने माता की पूजा और हवन आदि करके प्रसन्न किया। मां गरीबदास के सम्मुख साक्षात प्रकटहोकर बोली हे भक्त! तुम्हारी क्या अभिलाषा है। यथाशीघ्र व्यक्त करो| मां की ओजपूर्ण वाणी सुनकर भक्त गरीबदास ने सूर्य की तरह देदीप्यमाना दुर्गा जी के मुख्य मंडल की ओर देखकर कहा हे माता! जागीरदार पूर्णतया निर्दोष हैं। उन सभी ने वही किया जो उन्हें पूर्व समय आदेश प्राप्त था। हे जगत जननी! अपनी कृपा रूपी छत्रछाया प्रदान करके निर्दोष जागीरदारों को मुक्त करा दो। यह मेरी प्रार्थना है। गरीब दास के वचन सुनकर मां ने उसे आशीर्वाद दिया और तत्क्षण अंतर्ध्यान हो गई। कहा जाता है कि जगदंबे के आशीर्वाद से जागीरदार मुकदमा जीत गए और काजी द्वारा उस वर्ष का लगान माफ कर दिया गया।
कैद खाने से छूटकर सभी जागीरदार प्रसन्न होकर अपने-अपने घरों को आए और उन सभी ने मिलकर मनसा पूर्ण करने वाली देवी का एक भव्य मंदिर बनवाया जो मनसा देवी के नाम से विख्यात हुआ।

 

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