सोलह संस्कार क्या हैं, जानिए महत्व व उम्र

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सनातन यानी हिंदू धर्म में संस्कारों का विशेष महत्व है। मानव के आध्यात्मिक अभ्युदय के लिए संस्कार किए जाते हैं। आध्यात्मिक अभ्युदय का सीध-सीधा सम्बन्ध संस्कारों से है। विशेष तौर पर आध्यात्मिक अभ्युदय और वस्तुओं की शुद्धता के लिए समय पर जो प्रमुख 16 अनुष्ठान किए जाते हैं। वही संस्कार हैं।

हिंदू धर्म में प्रमुख 16 संस्कार हैं, जो जन्म से लेकर मृत्यु तक होते हैं। जिनका महत्व हमारे लौकिक व परालौकिक कल्याण के निहितार्थ है। सनातन परम्परा में जीव के आध्यत्मिक अभ्युदय और वस्तुओं की शुद्धि के लिए समय-समय पर किये जाने वाले अनुष्ठान प्रमुख ही संस्कार है, जिनके माध्यम से शरीर व अंतकरण शुद्ध होते हैं। पवित्र होते हैं। मनुस्मृति के अनुसार मनुष्य के जीवन में 16 संस्कार बताये गए हैं।

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विभिन्न धर्म शास्त्रों में संस्कारों के महत्व को उद्घाटित किया गया है। ये संस्कार सर्वमान्य है। यह सोलह संस्कार है, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकर्म, निष्कृमण, अन्नप्राशन, मुण्डन या चूड़ाकर्म, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, सन्यास व अत्त्येष्टि संस्कार। आज मुख्य रूप से नामकरण, विवाह व अन्त्येष्टि संस्कार प्रचलित रह गए हैं, जबकि कुछ परिवारों में अब भी अन्नप्राशन, मुण्डन व उपनयन को मनाया जाता है।

गर्भाधान संस्कार-

गर्भाधान संस्कार का धार्मिक दृष्टि से महत्व है। गर्भाधान संस्कार धार्मिक पक्ष में विवाह की पूर्णता की अभिव्यक्ति करता है। स्त्री का गर्भधारण प्रत्येक परिवार में सुखद होता है, क्योंकि नारी की महत्ता मातृत्व से है। सृष्टि की निरंतरता बनाये रखने वाले इस संस्कार की पवित्रता की पुष्टि करने की दृष्टि से शास्त्र में निर्देश किया गया है कि-

ऋतुकाले दाराभिगमनं कार्यम्
अर्थ- ऋतु स्नान के बाद पति को पत्नी से सम्बन्ध जोड़ना आवश्यक है।
शास्त्रों में गर्भाधान के लिए समय और आयु भी निश्चित की है। सुश्रुत ग्रंथ के अनुसार पच्चीस वर्ष का पुरुष और 16 वर्ष की नारी रजोदर्शन की चार रात्रियों के बाद आगे की 12 रात्रियों में, लेकिन निषिद्ध समय को छोड़कर गर्भाधान के आशय से सम्बन्ध बनाये। धर्मग्रंथों ने गर्भाधान से पूर्व कुछ नियम बताये गए हैं। मनु के मतानुसार अमावस्या, पौर्णमासी, अष्टमी, चतुदर्शी और रजोदर्शन के बाद की ग्यारहवीं व तेरहवी रात्रि को छोड़ देना चाहिए।

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गृहस्थ जीवन में प्रवेश के बाद प्रथम दायित्व के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए।

पुंसवन संस्कार-
स्त्री में गर्भाधान के चिन्ह प्रकट होने पर दूसरे तीसरे मास में शुद्धिकरण सम्बन्धित वह संस्कार है, जो पुत्रोत्पत्ति के उद्देश्य से किया जाता है। पुंसवन कहलाता है, वास्तव में यह संस्कार भ्रूण पुष्टि के लिए किया जाता है।

हमारे ऋषि-मनीषियों ने सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को अनिवार्य माना है। गर्भस्थ शिशु से सम्बन्धित इस संस्कार को शुभ नक्षत्र में किया जाता है। पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ और उत्तम संतति को जन्म देना है। विशेष तिथि और ग्रहों की गणना के आधार पर ही गर्भधान करना उचित माना गया है।

सीमन्तोन्नयन संस्कार-
गर्भिषी स्त्री के मन को संतुष्ट करने शरीर के आरोग्य व गर्भ की स्थिरता और उत्कृष्टता के निमित्त सीमन्नोन्यन नाम का तीसरा संस्कार चौथ्ो व छठे मास में किया जाता है। इस संस्कार में पति गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य की कामना करते हुए अपनी पत्नी के बालों को संवारता है। सौभाग्यवती, वृद्धा और कुलीन स्त्रियां गर्भवती को आर्शीवाद देती है। इस अवसर पर कहीं-कहीं खिचड़ी को खाने की भी प्रथा है।

जातकर्म संस्कार-
यह संस्कार शिशु के जन्म के बाद नाल काटने से पहले का है। मंत्रों को पढ़ते हुए असमान मात्रा में घी शहद को मिलाकर सोने की शलाका से शिशु को चटाया जाता है। उसी शलाका से बालक की जीभ पर शहद व घी से मिश्रण से ओम लिखना चाहिए और उसके बाये कान में तेरा गुप्त नाम वेद… है। ऐसा कहे, इस संस्कार में पिता नाल  छेदन करता है, शिशु को आर्शीवाद देता है।

नामकरण संस्कार-
जन्म से यानी अशौच निवृत्ति के बाद दसवें, बारहवे या किसी भी शुभ दिन में बालक का नामकरण संस्कार किया जाता है।

निष्क्रमण संस्कार-
जन्म से कुछ मास तक बालक को घर से बाहर नहीं निकाला जाता है, इसलिए जन्म से दूसरे व चौथ्ो मास में बालक को पहली बार सूर्य दर्शन के लिए घर से बाहर निकालते है। इस हेतु आयोजन को निष्क्रमण संस्कार कहते है। इस संस्कार में बड़ों का आर्शीवाद मिलता है।

दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े और ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे । यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान् भास्कर के तेज और  चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे ऋषि-मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी।

उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन और उनसे शिशु के दीर्घ व यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो। वैज्ञानिक भी प्रतीत होता है।

अन्नप्राशन संस्कार-
पांचवें से आठवें महीने के मध्य जब बालक को पहली बार अन्न युक्त भोजन कराया जाता है। उस समय हुए आयोजन को अन्नप्राशन संस्कार कहते हैं। महर्षि अश्वलायन छठे महीने में दही, शहद और घी मिश्रित भोजन खिलाने की बात कहते हैं।

अन्नप्राशन का स्पष्ट अर्थ है कि शिशु जो अब तक पेय पदार्थो विशेषकर दूध पर आधारित था अब अन्न जिसे शास्त्रों में प्राण कहा गया है,  उसको ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए। तन और मन को सुदृढ़ बनाने में अन्न का सर्वाधिक योगदान है। शुद्ध, सात्विक एवं पौष्टिक आहार से ही तन स्वस्थ रहता है और स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। आहार शुद्ध होने पर ही अन्त:करण शुद्ध होता है तथा मन, बुद्धि, आत्मा सबका पोषण होता है। इसलिये इस संस्कार का हमारे जीवन में विशेष महत्व है।

मुण्डन या चूड़ाकरण संस्कार-
प्रथम व तीसरे वर्ष में बालक के प्रथम बार सिर के बाल उतारने के अनुष्ठान को चूड़ाकर्म संस्कार कहते हैं। इसे किसी देवी, देवता के स्थान या पवित्र नदियों के तट पर सम्पन्न करने की परम्परा है।

मान्यता यह भी है कि शिशु के मस्तिष्क को पुष्ट करने, बुद्धि में वृद्धि करने और गर्भगत मलिन संस्कारों को निकालकर मानवतावादी आदर्शों को प्रतिष्ठापित करने के लिए चूडाकर्म-संस्कार किया जाता है। इसका फल बुद्धि, बल, आयु और तेज़ की वृद्धि करना है। इसे किसी देवस्थल या तीर्थस्थान पर इसलिए कराया जाता है, ताकि वहां के दिव्य वातावरण का भी लाभ शिशु को मिले और उतारे गए बालों के साथ बच्चे के मन में कुसंस्कारों का शमन हो सके और साथ ही सुसंस्कारों की स्थापना हो सके।

तेन ते आयुषे वपामि सुश्लोकाय स्वस्त्ये।

अर्थात् चूडाकर्म से दीर्घ आयु प्राप्त होती है। शिशु सुंदर तथा कल्याणकारी कार्यों की और प्रवृत्त होने वाला बनता है।  वेदों में चूडाकर्म-संस्कार का विस्तार से उल्लेख मिलता है।

यजुर्वेद में लिखा है –

नि वर्त्तयाम्यायुषेड्न्नाद्याय प्रजननाय।
रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय।।

अर्थ-हे बालक! मैं तेरी दीर्घायु के लिए, तुझे अन्न-ग्रहण करने में समर्थ बनाने के लिए, उत्पादन शाक्ति प्राप्ति के लिए, ऐश्वर्य वृद्धि के लिए, सुंदर संतान के लिए व बल तथा पराक्रम प्राप्ति के योग्य होने के लिए तेरा चूडाकर्म संस्कार (मूडंन) करता हूं।

उल्लेखनीय है की चूडाकर्म वस्तुतः मस्तिष्क की पूजा या अभिवंदना है। मस्तिष्क का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करना ही बुद्धिमत्ता है। शुभ विचारों की धारण करने वाला व्यक्ति परोपकार या पुण्यलाभ पाता है और अशुभ विचारों को मन में भरे रहने वाला व्यक्ति पापी बनकर ईश्वरीय दंड और कोप का भागी बनता है। यहां तक की अपनी जीवन-प्रक्रिया को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। अतः मस्तिष्क का सार्थक सदुपयोग ही चूडाकर्म का वास्तविक उद्देश्य है।

कर्णवेध या कर्णछेदन संस्कार-
इस संस्कार में बालकों के कान और बालिकाओं के नासिका व कान का वेधन किया जाता है। यह संस्कार तीसरे व पांचवें वर्ष में किया जाता है।

उपनयन या यज्ञोपवीत संस्कार-
उपनयन शब्द का अर्थ समीप ले जाना है। जब बालक को गुरु के समीप ले जाते थ्ो। तब गुरु उनका उपनयन संस्कार करते थ्ो। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बालक का क्रमश: आठवें, ग्यारहवें व बारहवें वर्ष में यह संस्कार होना चाहिए। यह समय गर्भाधान और जन्म दोनों में से किसी से भी गिना जा सकता है। मनु पांच से चौबीस वर्ष की अवस्था तक इस संस्कार का हो जाना आवश्यक मानते हैं। तदन्तर उसकी ब्राह्म संज्ञा होती है।

वेदारम्भ संस्कार-
गुरु के पास बैठकर वेदों का अध्ययन प्रारम्भ करने का कार्य ही इस संस्कार का प्रयोजन है।

केशान्त संस्कार-
मनु के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रीय व वैश्य को क्रमश: सोलहवें, बाइसवें और चौबीसवें वर्ष में केशान्त कर्म या झौर यानी मुंडन कराना चाहिए।

समावर्तन संस्कार-
विद्याध्ययन के उपरांत विद्यार्थी के घर लौटते समय यह संस्कार आचार्य के घर या गुरुकुल में ही होता था। इसके बाद शिष्य को गृहस्थाश्रम में जाने की अनुमति मिल जाती है। इस समय शिष्य गुरु को अपनी सामथ्र्य के अनुसार दक्षिणा दे।

विवाह संस्कार-

पच्चीस वर्ष की आयु होने के बाद गृहस्थाश्रम में जाने के लिए स्त्री व पुरुष के सम्बन्धों को धार्मिक व सामाजिक वैधता प्रदान करने वाले संस्कार को विवाह कहते है। विवाह के बाद गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए संतानोत्पत्ति करना शास्त्रीय विधान है। भारतीय परम्परा में ब्राह्म आदि आठ प्रकार के विवाह बताये गए हैं।

हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाह का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस व  पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया।

अन्त्येष्टि संस्कार-

यह मानव जीवन का अंतिम संस्कार है। मृत व्यक्ति की दाहक्रिया से लेकर तेरहवें दिन तक की समस्त क्रियायें इसी संस्कार के अंतर्गत आती हैं। प्रारम्भिक संस्कार जहां ऐहिक जीवन को पवित्र व सुखी बनाने के लिए निमित्त किया जाता है। वहीं यह अंतिम संस्कार परलोक सुधार के लिए किया जाता है।

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