तो इसलिए है, भगवान शिव को बिल्व पत्र अति प्रिय

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गवान शिव को बिल्व पत्र प्रिय है। यह सभी जानते है। पूजन में बिल्व पत्र का प्रयोग भी करते हैं, लेकिन क्यों करते हैं, यह नहीं जानते हैं। यह जिज्ञास तो होती है, लेकिन अज्ञानतावश नहीं जान पाते है। अधिकांश जानकार लोग भी इस जिज्ञासा को शांत करने में असमर्थ होते हैं, ऐसे में हम इसे परम्परा और पूजन विधि के रूप में स्वीकार इसका प्रयोग कर शिव अर्चन में इस्तेमाल करते है, लेकिन हम आज आपको बताने जा रहे है, आखिर क्यों बिल्व पत्र का प्रयोग किया जाता है? भगवान भोलेशंकर शिव जी को आखिर बेलपत्र इतने प्रिय क्यों हैं? इसका जवाब हमे एक पौराणिक कथा में मिलता है, जो नारद जी और भगवान शिव और भगवान शिव व पार्वती के संवाद के जरिए मिलता है। इन संवाद के माध्यम से हम यह जान सकते हैं कि आखिर बिल्व पत्र भगवान शिव को प्रिय क्यों है। बेल पत्र भगवान को इतने प्रिय है कि जो भक्त भक्तिभाव से बेल पत्र भगवान शिव को अर्पित करता है, उसके सभी संकटों को भूतभावन भगवान शिव स्वयं हर लेते है। जिस व्यक्ति की मृत्यु बेल के वृक्ष के नीचे होती है। वह शिव लोक को प्राप्त करता है। उस पर भगवान की असीम कृपा होती है।
भगवान ब्रह्मा जी के पुत्र व मुनि नारद जी ने एक बार भोलेनाथ की स्तुति कर पूछा कि प्रभु आपको प्रसन्न करने के लिए सबसे उत्तम और सुलभ साधन क्या है। हे त्रिलोकीनाथ आप तो निर्विकार और निष्काम हैं, आप सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं। फिर भी मेरी जानने की इच्छा है कि आपको क्या प्रिय है ?

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शिवजी बोले- मुनि नारद जी वैसे तो मुझे भक्त के भाव सबसे प्रिय हैं, फिर भी आपने पूछा है तो बताता हूं। मुझे जल के साथ-साथ बिल्वपत्र बहुत प्रिय है, जो अखंड बिल्वपत्र मुझे श्रद्धा से अर्पित करते हैं, मैं उन्हें अपने लोक में स्थान देता हूं।
नारद जी भगवान शंकर औऱ माता पार्वती की वंदना कर अपने लोक को चले गए। उनके जाने के पश्चात पार्वती जी ने शिव जी से पूछा- हे प्रभु मेरी यह जानने की बड़ी उत्कट इच्छा हो रही है कि आपको बेलपत्र इतने प्रिय क्यों है। कृपा करके मेरी जिज्ञासा शांत करें।
शिव जी बोले- हे शिवे ! बिल्व के पत्ते मेरी जटा के समान हैं। उसका त्रिपत्र यानी तीन पत्ते, ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद हैं। शाखाएं समस्त शास्त्र का स्वरूप हैं। विल्ववृक्ष को आप पृथ्वी का कल्पवृक्ष समझें, जो ब्रह्मा-विष्णु-शिव स्वरूप है। स्वयं महालक्ष्मी ने शैल पर्वत पर विल्ववृक्ष रूप में जन्म लिया था।
यह सुनकर पार्वती जी कौतूहल में पड़ गईं। उन्होंने पूछा- देवी लक्ष्मी ने आखिर विल्ववृक्ष का रूप क्यों लिया ? आप यह कथा विस्तार से कहें। भोलेनाथ ने देवी पार्वती को कथा सुनानी शुरू की।
हे देवी, सत्ययुग में ज्योतिरूप में मेरे अंश का रामेश्वर लिग था। ब्रह्मा आदि देवों ने उसका विधिवत पूजन-अर्चन किया था। फलत: मेरे अनुग्रह से वाग्देवी सबकी प्रिया हो गईं। वह भगवान विष्णु को सतत प्रिय हो गईं।
मेरे प्रभाव से भगवान केशव के मन में वाग्देवी के लिए जितनी प्रीति हुई। वह स्वयं लक्ष्मी को नहीं भाई।अत: लक्ष्मी देवी चितित और रूष्ट होकर परम उत्तम श्री शैल पर्वत पर चली गईं।
वहां उन्होंने मेरे लिग विग्रह की उग्र तपस्या प्रारम्भ कर दी। हे परमेश्वरी कुछ समय बाद महालक्ष्मी जी ने मेरे लिग विग्रह से थोड़ा उध्र्व में एक वृक्ष का रूप धारण कर लिया और अपने पत्र पुष्प द्बारा निरंतर मेरा पूजन करने लगी।

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इस तरह उन्होंने कोटि वर्ष ( एक करोड़ वर्ष) तक आराधना की। अंतत: उन्हें मेरा अनुग्रह प्राप्त हुआ। महालक्ष्मी ने मांगा कि श्री हरि के हृदय में मेरे प्रभाव से वाग्देवी के लिए जो स्नेह हुआ है वह समाप्त हो जाए।
शिवजी बोले- मैंने महालक्ष्मी को समझाया कि श्री हरि के हृदय में आपके अतिरिक्त किसी और के लिए कोई प्रेम नहीं है। वाग्देवी के प्रति तो उनकी श्रद्धा है। यह सुनकर लक्ष्मी जी प्रसन्न हो गईं और पुन: श्री विष्णु के ह्रदय में स्थित होकर निरंतर उनके साथ विहार करने लगी।
हे पार्वती ! महालक्ष्मी के हृदय का एक बड़ा विकार इस प्रकार दूर हुआ था. इस कारन हरिप्रिया उसी वृक्षरूपं में सर्वदा अतिशय भक्ति से भरकर यत्न पूर्वक मेरी पूजा करने लगी। बिल्व इस कारण मुझे बहुत प्रिय है और मैं विल्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहता हूं।
बिल्ववृक्ष को सदा सर्व तीर्थमय एवं सर्व देवमय मानना चाहिए। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। बिल्वपत्र, बिल्वफूल, विल्ववृक्ष या बिल्व काष्ठ के चन्दन से जो मेरा पूजन करता है वह भक्त मेरा प्रिय है। विल्ववृक्ष को शिव के समान ही समझो। वह मेरा शरीर है।
जो बिल्व पर चंदन से मेरा नाम अंकित करके मुझे अर्पण करता है मैं उसे सभी पापों से मुक्त करके अपने लोक में स्थान देता हूं। उस व्यक्ति को स्वयं लक्ष्मी जी भी नमस्कार करती हैं। जो विल्वमूल में प्राण छोड़ता है, उसको रूद्र देह प्राप्त होता है। इस पावन लेख को पढ़कर आपकी जिज्ञासा शांत हो गई होगी। विल्व पत्रों का बखान धर्म शास्त्रों में विस्तार से किया गया है। यहीं वजह है कि भगवान शिव को शीघ्र प्रसन्न करने के लिए बिल्व पत्र का अर्पण किया जाता है। फिलवक्त कलयुग चल रहा है, ऐसे में यदि पूर्ण श्रद्धाभाव से भगवान शिव शंकर को विल्व पत्र अर्पित किया जाये तो सतयुग, त्रेता व द्बापर की तुलना में कई गुना फल की प्राप्ति होती है।

शास्त्रोक्त मान्यता है कि जिस देश में बिल्व पत्र आसानी से मिलते है। उस स्थान पर हमेशा ही शिव पूजन में ताजा बिल्व पत्र प्रयोग करें, जरूरी यह भी होता है कि बिल्व पत्र छिद्र युक्त या कटा-फटा न होना चाहिए। छिद्रयुक्त या अपूर्ण पत्र से पूजा करना भी निष्फल व पुण्यहीन है और दोष भी लगता है, इसलिए छिद्रयुक्त या कटे बिल्व पत्र से पूजन नहीं करना चाहिए। स्वच्छ व ताजे बिल्व पत्र से पूजन श्रेयस्कर होता है। बिल्व पत्रों को शिव पूजन के समय शुद्ध जल से धोकर अच्छी तरह से साफ कर ले और उस पत्र पर चंदन से ओम नम: शिवाय……. इस पंचाक्षर मंत्र को लिखकर इस मंत्र का उच्चारण करते हुए शिव पूजा करनी चाहिए। इससे मनुष्य पापों से मुक्त होता है और शिवलोक की प्राप्ति होती है।

उसका कल्याण होता है। पापों से मुक्ति मिलती है। मान्यता है कि भगवान शिव सहज प्रसन्न होने वाले देव है। देवों के देव महादेव है। यदि भक्त सच्चे हृदय से भगवान शिव को बेल पत्र अर्पित करता है। उस पर भगवान शिव जल्द प्रसन्न होते है। पूर्ण आस्था के साथ भगवान शिव को जल व बेल पत्र अर्पित करना पुण्यकारी होता है

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