वैदिक प्रसंग: भगवती की ब्रह्म रूपता ,सृष्टि की आधारभूत शक्ति

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उन भगवती दुर्गा की महिमा को भला कौन जान सकता है, जिन्होंने सम्पूर्ण चराचर जगत को उपजाया है। उनकी माया के प्रभाव से जगत का संचालन हो रहा है। उन भगवती की माया तो समझ पाना संभव नहीं है। उनकी माया के प्रभाव से संसार के सभी प्राणी बंध्ो हुए हैं। उनकी माया का ही प्रभाव है कि जीव आत्मतत्व को बिसरा कर यह भी भूल जाते हैं, वह जगत में क्यों जन्में है? इसके उलट सत्य व मिथ्या के भ्ोद को भूलकर जन्म-मृत्यु के अंधकूप में भटकते रहते हैं।

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धर्म शास्त्रों में उन देवी महिमा का बखान किया गया है, उनके महिमा का गान बह्वृचोपनिषद में मिलता है। जो इस प्रकार है- एकमात्र भगवती देवी ही सृष्टि से पूर्व थीं, उन्होंने ब्रह्मांड की रचना की है। वे कामकला के नाम से भी विख्यात हैं। वे ही श्रृंगारकला कहलाती हैं। उन्हीं से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, विष्णु प्रकट हुए और रुद्र का प्रादुर्भूत हुआ है। उन्होंने सभी मरुदगण उत्पन्न किए हैं। उन्हीं से गाने वाले गंधर्व, नाचने वाली अप्सराएं और वाद्य बजाने वाले किन्नर हर ओर पैदा हुए हैं। उन्हीं से ही भोग सामग्री उत्पन्न हुई है, सब कुछ उन्हीं शक्ति से ही उत्पन्न हुआ है। अंडज, स्वेदज, उद्भिज्ज और जरायुज, जितने भी स्थावर व जंगम प्राणी है। उनकी व मनुष्यों की सृष्टि उन्हीें से हुई है। वे ही जगत की अपार शक्ति हैं। वे ही ये शाम्भवी विद्या, कादि विद्या, हादि विद्या व सादि विद्या कहलाती हैं। वे ही जगत में रहस्य रूपा हैं। वे प्रणव वाच्य अक्षर तत्व हैं। ओम यानी सच्चिदानंद स्वरूपा वे वाणी मात्र में प्रतिष्ठित हैं। वे ही जाग्रह, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों पुरो व स्थूल,शूक्ष्म व कारण इन तीनों तरह के शरीरों को व्याप्त कर बाहर व भीतर प्रकाश फैला रही हैं। देश, काल और वस्तु के भीतर असंग होकर रहती हुई वे महात्रिपुरसुंदरी प्रत्यक्चेतना है। वे ही आत्मा है, उनके अतिरिक्त सभी कुछ असत्य और अनात्मा है। वे ब्रह्म विद्या हैं।

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भावाभाव कला से विनिर्मुक्त चिन्मयी विद्या शक्ति हैं और अद्बितीय ब्रह्म को बोध कराने वाली है। वे सत, चित और आनंद रूप लहरों वाली श्री महात्रिपुर सुंदरी बाहर व भीतर प्रविष्ट होकर स्वयं अकेली ही विद्यमान हो रही हैं। उनके अस्ति, भाति व प्रिय इन तीनों रूपों में जो अस्ति है, वह सन्मात्र का बोध है। जो भाति है, वह चिन्मात्र है। जो प्रिय है, वह आनंद है। इस तरह से सभी आकारों में श्री महात्रिपुरसुंदरी ही विराजमान हैं। तुम और मै, सारा विश्व व सारे देवता और अन्यत्र सर्वस्य श्री महात्रिपुरसुंदरी ही हैं। ललिता नाम की वस्तु ही एकमात्र सत्य है, वही अद्बितीय व अखंड परमब्रह्मतत्व हैं। पांचों रूप यानी अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूप के परित्याग से और अपने स्वरूप के परित्याग से अधिष्ठान रूप जो एक सत्ता बची रहती है, वही महान परमतत्व हैं। उसी को… प्रज्ञान ब्रह्म है या फिर मैं ब्रह्म हूं… आदि वाक्यों से प्रकट किया जाता है। वह तू है…आदि वाक्यों से उसी का कथन किया जाता है। यह आत्मा ब्रह्म है…, ब्रह्म ही मै हूं…, जो मैं हूं…, वह मैं हूं…, जो वह है…, सो मै हूं…आदि श्रुति वाक्यों से जिनका निरूपण होता है। वे ही यही षोडशी श्री विद्या हैं।

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वहीं पंचदशाक्षर मंत्र वाली श्रीमहात्रिपुरसुंदरी, अम्बिका, बाला, मातंगी, बगला, स्ययंवर कल्याणी, भुवनेश्वरी, चंडा, चामुंडा, वाराही, तिरस्करिणी, राजमातंगी, शुकश्यामला, लघुश्यामला, अश्वारुढा, प्रत्यंगिरा, धूमावती, सरस्वती, सावित्री, ब्रह्मानंदकला आदि नामों से अभिहित हैं। ऋचाएं एक अविनाशी परम आकाश में प्रतिष्ठित हैं, जिसमें सभी देवता भलीभांति निवास करते हैं। उनको जानने का प्रय‘ जिसने नहीं किया, वह ऋचाओं के अध्ययन से भला क्या कर सकता है?निश्चित तौर पर उनको जो जान लेते है, वे ही उनमें सदा के लिए स्थित हो जाते है। उन परमब्रह्म परेश्वरी की माया अनंत है, इसलिए उनकी माया और गाथा को शब्दों में पिरोकर भला कौन कहने में समर्थ होगा?

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