आधुनिकता के दौर में विलुप्त हो गई शादी, ब्याह से डोली की परम्परा

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कभी शादी, ब्याह में शाही सवारी मानी जाने वाली डोली आज आधुनिकता के दौर में विलुप्त होती जा रही है और आज के नवयुवक अब डोली को इतिहास के पन्नों से समझने का प्रयास करते दिख रहे हैं।

वैसे तो पूरे देश से ही डोली का नाता रहा है लेकिन डोली का नाता बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से यह संबंध और विशेष रहा है। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलो में 80 के दशक तक शादी ब्याह में डोली से जाने की परम्परा कायम रही। लेकिन उसके बाद धीरे-धीरे समाज में डोली अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष करती दिखी। इसका कारण धीरे-धीरे समाज में आधुनिकता का पैर पसारना और डोली के स्थान पर शादी ब्याह में मोटर गाड़ियों का चलन आ जाना माना गया। आज के वर्तमान परिवेश में डोली की परम्परा करीब-करीब विलुप्त के कगार पर पहुँच चुकी है और कहार भी डोली उठाने के अपने पुश्तैनी व्यवसाय को छोड़ने को मजबूर हो गए हैं।

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इस सम्बन्ध में 80 वर्षीय डा. रविन्द्र द्विवेदीने कहा कहा कि एक जमाना था जब, शादी ब्याह में बारात के वक्त में डोली का अहम रोल माना जाता था।इसके बिना दरवाजा यानी बारात नहीं लगती थी, लेकिन बदलते दौर के इस वक्त में डोली की प्रथा अब धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रही है। उन्होंने कहा कि इस रोजगार से जुड़े कई लोग बेरोजगार हो गए हैं। उनका कहना है अब तो क्षेत्र जवाब में इक्का-दुक्का डोली दिख जाए तो यह बड़ी बात है।

डा. रविन्द्र द्विवेदी का कहना है कि आज की युवा पीढ़ी को यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिर डोली क्या होती है, डोली प्रथा क्या थी। उन्होंने कहा कि डोली की प्रथा बहुत ही प्राचीन प्रथा रही है। लेकिन बदलते जमाने ने डोली के स्थान पर शादी ब्याह में लग्जरी गाड़ियों ने स्थान ले लिया है। उन्होंने कहा कि डोली प्रथा का इतिहास काफी पुराना है। उन्होंने कहा कि एक जमाना वो था जब डोली राजाओं और उनकी रानियों के लिए यात्रा का प्रमुख साधन हुआ करती थी। इसे ढोने वालों को कहार कहा जाता था।

उन्होंने बताया कि शादी के लिए बारात निकलने से पूर्व दूल्हे की सगी संबंधी महिलाएं बारी-बारी से दूल्हे के साथ डोली में बैठती थी। इसके बदले कहारों को यथाशक्ति दान देते हुए शादी करने जाते दूल्हे को आशीर्वाद देकर भेजती थी। दूल्हे को लेकर कहार उसकी ससुराल तक जाते थे। विदा हुई दुल्हन अपने ससुराल डोली में ही जाती थी। इस दौरान जब डोली गांवों से होकर गुजरती थी, तो महिलाएं और बच्चे कौतूहलवश डोली रुकवा देते थे तथा कहांरो को पानी पिलाकर ही जाने देते थे। जिसमें अपनेपन के साथ मानवता और प्रेम भरी भारतीय संस्कृति के दर्शन होते थे लेकिन आज डोली प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है।

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