ब्राह्मणतत्त्व का सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण से विश्लेषण

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आज के भौतिकवादी युग में अनेक लोग यह सोचने लगे हैं कि आचार्य, ब्राह्मण या पंडित केवल कुछ मंत्र बोलकर दक्षिणा (पैसा) लेकर चले जाते हैं। यह सोच न केवल अज्ञानजन्य है, बल्कि हमारे सांस्कृतिक मूल्यों, वेद-शास्त्र परंपरा और तपस्वी जीवन को न समझ पाने की त्रासदी का परिणाम भी है। “ब्राह्मणतत्त्व ही हिंदुत्व है” – यह कथन मात्र कोई वाक्य नहीं, बल्कि सनातन धर्म की आत्मा का उद्घोष है।


ब्राह्मण का अर्थ केवल जाति नहीं, एक तपस्वी जीवनशैली है:

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ब्राह्मण शब्द का मूल संस्कृत व्युत्पत्ति से आता है – “ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मण:”, अर्थात् “जो ब्रह्म (परम सत्य) को जानता है वही ब्राह्मण है”। यह पदवी जन्म से नहीं, बल्कि कर्म, त्याग, अभ्यास और आत्मानुशासन से प्राप्त होती है। एक सच्चा ब्राह्मण वह है जो वेदों का ज्ञान अर्जित करता है, तप करता है, और समाज के लिए ज्ञान, संस्कार और चेतना का वाहक बनता है।


9 वर्ष की आयु से प्रारंभ होता है तपस्वी जीवन:

जब सामान्य बच्चे मोबाइल, गेम्स और पिकनिक में रमे रहते हैं, तब एक ब्राह्मण बालक मात्र 9 वर्ष की आयु में उपनयन संस्कार के पश्चात गुरुकुल में प्रवेश करता है। वहाँ वह प्रातः 4 बजे उठकर शीतकाल में भी ठंडे जल से स्नान करता है, फिर वैदिक पाठ, व्याकरण, छंद, निरुक्त, दर्शन, तर्कशास्त्र आदि का अध्ययन करता है। यह क्रम वर्षों तक बिना किसी अवकाश, मनोरंजन, या घर की गोद में लौटे बिना चलता है। यह कोई साधारण तप नहीं, एक सम्पूर्ण जीवनशैली है, जो सेवा और ज्ञान के लिए समर्पित है।


संस्कारों के वाहक:

हिंदू समाज में 16 प्रमुख संस्कारों का विधान है – गर्भाधान से लेकर अंतिम संस्कार तक। इन सभी संस्कारों का संचालन ब्राह्मण ही करता है – क्योंकि वह उन वैदिक विधियों का ज्ञाता है जो आत्मा की शुद्धि और जीवन की दिशा तय करती हैं। यह मात्र कर्मकांड नहीं है, यह आत्मा और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित करने की विधियाँ हैं।

जो यह सोचते हैं कि पंडित जी आए, दो मंत्र बोले और दक्षिणा ले गए – वे यह नहीं देखते कि उन दो मंत्रों को सिद्ध करने में उन्होंने कितना कठिन अभ्यास किया है। किसी भी वैदिक मंत्र के उच्चारण में स्वर, मात्रा, ताल, उच्चारण और भाव का जो संयोजन होता है, वह वर्षों की तपस्या के बिना संभव ही नहीं।


ब्राह्मण समाज – समाज का दिशा निर्देशक:

ब्राह्मण न कभी शासक रहा, न व्यापारी, न सैनिक। फिर भी वह सर्वाधिक सम्मानित रहा क्योंकि वह समाज का नैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मार्गदर्शक था। उसका उद्देश्य केवल आत्मकल्याण नहीं, अपितु सम्पूर्ण समाज की आध्यात्मिक उन्नति रहा है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है –
“शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्राह्मकर्म स्वभावजम्॥”

अर्थात ब्राह्मण का स्वभाव ही है – शांति, संयम, तप, पवित्रता, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता।


ब्राह्मण की सेवा = संस्कृति की सेवा:

किसी भी ब्राह्मण के मंत्रों या पूजा के कार्य का मूल्य रुपए से नहीं आँका जा सकता, क्योंकि वह सेवा नहीं है – वह ज्ञान और तप का प्रसाद है। जो सोचते हैं कि ब्राह्मण फ्री में खा रहे हैं, वे एक बार अपने ही बच्चे को एक संस्कृत पाठशाला में एक हफ्ते के लिए छोड़ कर देखें, उन्हें समझ में आ जाएगा कि यह जीवन कितना कठिन, त्यागमय और अनुशासित होता है।

ब्राह्मण न केवल वैदिक पूजा करता है, बल्कि वह समय आने पर समाज में शिक्षा, चिकित्सा, ग्रह-नक्षत्रों का अध्ययन, शांति पाठ, मंत्र चिकित्सा आदि अनेक क्षेत्रों में सेवाएं देता है। जो ब्राह्मण गुरुकुल में 10-15 साल बिना वेतन के दिन-रात सेवा करता है, वह वास्तव में राष्ट्र की रीढ़ है।


ब्राह्मण से हाथ नहीं, चरण छूने की परंपरा क्यों?

हिंदू संस्कृति में ब्राह्मण को देवताओं के तुल्य माना गया है, क्योंकि वह ब्रह्मलोक से ज्ञान लाकर धरती पर वितरित करता है। उससे हाथ नहीं मिलाया जाता, उसके चरण छुए जाते हैं – क्योंकि उसके चरणों में ज्ञान की ऊर्जा, तप की अग्नि और धर्म का प्रवाह होता है। चरण स्पर्श कर हम उसका आशीर्वाद नहीं, बल्कि तप से उत्पन्न ऊर्जा ग्रहण करते हैं।


ब्राह्मणतत्त्व ही हिंदुत्व की आत्मा क्यों है?

हिंदुत्व केवल मूर्तिपूजा या धार्मिक आचरण नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण जीवनपद्धति है – और उसकी आत्मा है ब्राह्मणतत्त्व। अगर समाज में ब्राह्मण नहीं होंगे तो वेदों का संरक्षण नहीं होगा, धर्म का प्रचार नहीं होगा, संस्कारों की शिक्षा नहीं मिलेगी, यज्ञ-हवन समाप्त हो जाएंगे, और अंततः सनातन परंपरा ही लुप्त हो जाएगी।

ब्राह्मण – यज्ञीय है, त्यागमयी है, ज्ञानरूपी है और संस्कृति का स्तंभ है।


निष्कर्ष:

आज जब सनातन संस्कृति को तोड़ने के अनेक प्रयास हो रहे हैं, ब्राह्मणों को मजाक बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है, तब यह समझना आवश्यक है कि यदि ब्राह्मण समाप्त हुआ तो हिंदुत्व की आत्मा निष्प्राण हो जाएगी। ब्राह्मण का सम्मान करना मात्र किसी जाति का सम्मान नहीं, अपितु हिंदू धर्म की आत्मा का सम्मान है।

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