अहिंसा सर्वोच्च धर्म, पर धर्म रक्षा हेतु हिंसा भी धर्म

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सनातन धर्म में अहिंसा और धर्मरक्षा के लिए हिंसा का औचित्य

नातन धर्म, जिसे अक्सर विश्व के प्राचीनतम जीवित धर्मों में से एक माना जाता है, अपने नैतिक और दार्शनिक सिद्धांतों की गहराई और व्यापकता के लिए प्रसिद्ध है। इन सिद्धांतों में ‘अहिंसा’ (अहिंसा) का स्थान सर्वोपरि है, जिसे ‘परम धर्म’ के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। यह अवधारणा न केवल आध्यात्मिक साधना का आधार है, बल्कि सामाजिक और व्यक्तिगत आचरण का भी मार्गदर्शन करती है। हालाँकि, सनातन परंपरा में एक और महत्वपूर्ण पहलू भी है, जो धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश के लिए ‘हिंसा’ के औचित्य को स्वीकार करता है। यह द्वंद्व, या यों कहें कि संतुलन, “अहिंसा परमो धर्मः” और “धर्म हिंसा तथैव च” जैसे सूत्रों में परिलक्षित होता है। यह रिपोर्ट सनातन धर्म में अहिंसा के व्यापक अर्थ, उसकी सीमाओं और धर्मरक्षा के लिए हिंसा के सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक औचित्य का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है, जिसमें रामायण, महाभारत और भगवद गीता जैसे प्रमुख धर्मग्रंथों से उदाहरण दिए गए हैं।

आधुनिक काल में, विशेषकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी द्वारा अहिंसा के सिद्धांतों के व्यापक प्रयोग ने इस अवधारणा को वैश्विक स्तर पर एक विशेष पहचान दी । गांधीजी ने अहिंसा को सत्य की प्राप्ति का एक अमोघ साधन माना, जिसमें श्रद्धा, प्रेम और विश्वास का बल निहित था । उनके अनुसार, अहिंसा केवल निष्क्रियता नहीं, बल्कि एक सक्रिय शक्ति थी जो भयमुक्त होकर अन्याय का प्रतिरोध करती है । इस प्रकार, अहिंसा को एक नैतिक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया, जिसने लाखों लोगों को प्रेरित किया।   

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परंतु, सनातन धर्म के प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि अहिंसा की अवधारणा जितनी गहरी है, उतनी ही उसकी व्यावहारिक व्याख्याएँ भी विविध हैं। “अहिंसा परमो धर्मः” का अर्थ केवल शारीरिक क्षति न पहुँचाना नहीं है, बल्कि मन, वाणी और कर्म से किसी भी प्राणी के प्रति द्रोह का अभाव रखना है । यह आंतरिक शुद्धता का एक आदर्श प्रस्तुत करता है, जहाँ किसी के प्रति दुर्भावना का अभाव ही परम धर्म है। यदि अहिंसा का तात्पर्य मुख्य रूप से आंतरिक द्वेष के अभाव से है, तो बाहरी हिंसा, यदि वह दुर्भावना से रहित हो और धर्म की स्थापना के लिए की गई हो, तो वह अहिंसा के इस गहरे अर्थ का उल्लंघन नहीं करती। यह आंतरिक पवित्रता का विचार ही धर्मरक्षा के लिए हिंसा के औचित्य का मार्ग प्रशस्त करता है।   

इसके अतिरिक्त, अहिंसा को ‘निडरता’ (अभय) के रूप में भी परिभाषित किया गया है । एक निडर व्यक्ति वह नहीं होता जो संघर्ष से भागता है, बल्कि वह होता है जो धर्म और न्याय की रक्षा के लिए आवश्यक होने पर बल प्रयोग करने से भी नहीं डरता। इस प्रकार, अहिंसा को कायरता या निष्क्रियता के रूप में नहीं देखा जा सकता, बल्कि यह वीर पुरुष का गुण है जो अन्याय के विरुद्ध खड़ा होने का साहस रखता है । यह अहिंसा की निष्क्रिय व्याख्या को चुनौती देता है और आत्मरक्षा या धर्मरक्षा के लिए बल प्रयोग को वास्तविक अहिंसा के अनुरूप मानता है।   

सनातन धर्म में यह स्पष्ट किया गया है कि जहाँ अहिंसा परम धर्म है, वहीं धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना भी परम धर्म है: “अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च” । यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि जब धर्म पर संकट आता है, तो शस्त्र उठाना और अधर्म का नाश करना एक अनिवार्य कर्तव्य बन जाता है । हिंसा का उद्देश्य केवल किसी को हानि पहुँचाना नहीं, बल्कि अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना करना है । यह समाज के हित और शांति स्थापना के लिए एक अंतिम उपाय के रूप में स्वीकार्य है । यह विरोधाभासी लगने वाले दो सिद्धांतों का सह-अस्तित्व सनातन धर्म के नैतिक ढाँचे की एक महत्वपूर्ण विशेषता को दर्शाता है: प्रासंगिक नैतिकता। क्रियाएँ अपने आप में अच्छी या बुरी नहीं होतीं; उनकी धार्मिकता उनके इरादे, उद्देश्य और प्रचलित परिस्थितियों (देश, काल, पात्र) पर निर्भर करती है। अहिंसा आदर्श स्थिति है, लेकिन जब धर्म पर अधर्म का संकट आता है, तो उस धर्म की रक्षा करना सर्वोपरि कर्तव्य बन जाता है, भले ही उसमें हिंसा का प्रयोग करना पड़े। यह दृष्टिकोण सनातन धर्म को एक लचीली और व्यावहारिक नैतिकता प्रदान करता है, जो कठोर नियमों के बजाय व्यापक धर्म के सिद्धांतों पर आधारित है।   

यह रिपोर्ट सनातन धर्म के इन गूढ़ सिद्धांतों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करेगी, जिसमें अहिंसा के महत्व के साथ-साथ धर्मरक्षा के लिए शस्त्र उठाने के औचित्य को धर्मग्रंथों के उदाहरणों से सिद्ध किया जाएगा। विशेष रूप से, रामायण और महाभारत के प्रसंगों, भगवद गीता के उपदेशों, और धर्मशास्त्रों के विधानों का गहराई से अध्ययन किया जाएगा। अंत में, आधुनिक काल में अहिंसा की व्याख्याओं की तुलना पारंपरिक सनातन दृष्टिकोण से की जाएगी।

सनातन धर्म में अहिंसा की अवधारणा: गहन विश्लेषण

सनातन धर्म में अहिंसा एक मूलभूत सिद्धांत है, जिसकी व्याख्या विभिन्न शास्त्रों में व्यापक रूप से की गई है। यह केवल शारीरिक हिंसा से परहेज करने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका एक गहरा और व्यापक अर्थ है।

अहिंसा का मूल अर्थ और विभिन्न शास्त्रों में व्याख्या

अहिंसा का अर्थ है मन, वाणी और कर्म से सभी जीवों के प्रति द्रोह का अभाव । यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ व्यक्ति किसी भी प्राणी के प्रति दुर्भावना नहीं रखता। योगसूत्र में अहिंसा को ‘अंहिसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोह:’ के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसका अर्थ है सभी समय और सभी परिस्थितियों में सभी प्राणियों के प्रति शत्रुता का अभाव । यह परिभाषा इस बात पर बल देती है कि अहिंसा केवल बाहरी क्रिया नहीं है, बल्कि एक आंतरिक मानसिक स्थिति भी है। यदि मन में द्वेष या शत्रुता का भाव है, तो व्यक्ति पूर्ण रूप से अहिंसक नहीं हो सकता।   

विभिन्न पुराणों में भी अहिंसा के महत्व को रेखांकित किया गया है। वायु पुराण का मत है कि मन, वाणी और कर्म से सभी जीवों के प्रति अहिंसा का पालन करना चाहिए । अग्नि पुराण में अहिंसा को सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संग्रह न करना) के साथ मुक्ति प्रदान करने वाले पाँच ‘यमों’ में से एक बताया गया है । ये यम योग साधना के महत्वपूर्ण अंग हैं, जो यह दर्शाते हैं कि अहिंसा आध्यात्मिक उन्नति के लिए एक अनिवार्य शर्त है। ब्रह्मपुराण, शिवपुराण, वृहद्वर्मपुराण, कूर्मपुराण और भागवत पुराण जैसे ग्रंथों में भी अहिंसा को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है । नारद पुराण में कहा गया है कि सभ्य वचन वे हैं जिनसे किसी का विरोध न हो और किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचे, जो अहिंसा के वाचिक पहलू को उजागर करता है ।   

अहिंसा को अन्य सभी गुणों के लिए एक आधार के रूप में देखा जाता है । यदि अहिंसा को अन्य सभी सद्गुणों का ‘आधार’ माना जाता है, तो इसका अर्थ यह है कि अहिंसा केवल एक गुण नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक और नैतिक प्रगति के लिए एक पूर्व शर्त है। यदि किसी का मन द्वेष से भरा है, तो अन्य गुण केवल सतही रह जाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति का इरादा दूसरों को नुकसान पहुँचाना है, तो वह ईमानदारी से सत्य का पालन कैसे कर सकता है, या यदि उसका मन दूसरों के प्रति लालच और ईर्ष्या से भरा है, तो वह अपरिग्रह का अभ्यास कैसे कर सकता है? यह दर्शाता है कि अहिंसा का सच्चा पालन आंतरिक शुद्धि की ओर ले जाता है, जिससे अन्य सभी अच्छे कार्य स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होते हैं। यह अहिंसा के आंतरिक पहलू को सुदृढ़ करता है। यह केवल नुकसान से बचने के बारे में नहीं है, बल्कि एक ऐसी स्थिति पैदा करने के बारे में है जो स्वाभाविक रूप से हानिकारक नहीं है, जो तब धर्म की रक्षा के लिए बल के उपयोग सहित धर्मी कार्यों की अनुमति देता है।   

अहिंसा के प्रकार: महाव्रत और अणुव्रत

सनातन धर्म, विशेषकर योगशास्त्र, अहिंसा को व्यवहारिक रूप से दो मुख्य प्रकारों में विभाजित करता है: ‘महाव्रत’ और ‘अणुव्रत’ । यह विभाजन धर्म के व्यावहारिक और यथार्थवादी दृष्टिकोण को दर्शाता है, जो विभिन्न आध्यात्मिक स्तरों और जीवन भूमिकाओं के लिए अलग-अलग अपेक्षाएँ निर्धारित करता है।   

‘महाव्रत’ पूर्ण अहिंसा को संदर्भित करता है, जिसका पालन ऋषि-मुनियों और संन्यासियों द्वारा किया जाता है । इस स्तर पर, व्यक्ति मन, वाणी और कर्म से किसी भी प्रकार की हिंसा से पूरी तरह विरत रहता है। यह एक आदर्श स्थिति है जो गहन आध्यात्मिक साधना और संसार से पूर्ण विरक्ति के माध्यम से प्राप्त होती है। मुनि की अहिंसा को पूर्ण माना गया है, जैसे 20 बिस्वा (पूर्णता का माप) ।   

इसके विपरीत, ‘अणुव्रत’ सामान्य गृहस्थों के लिए है । गृहस्थ जीवन में रहते हुए व्यक्ति को अनेक ऐसी क्रियाएँ करनी पड़ती हैं जिनमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा निहित होती है, जैसे कृषि कार्य (जिसमें सूक्ष्म जीवों की हिंसा हो सकती है) या आत्मरक्षा । इसलिए, गृहस्थ के लिए पूर्ण अहिंसा का पालन व्यावहारिक रूप से संभव नहीं होता। अणुव्रत में व्यक्ति संकल्पपूर्वक की गई हिंसा का त्याग करता है, लेकिन ‘आरंभजा हिंसा’ (जैसे दैनिक जीवन की अनिवार्य क्रियाओं में होने वाली हिंसा) से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकता । श्रावक की अहिंसा को मुनि की तुलना में कम परिमाण (जैसे सवा बिस्वा) का बताया गया है, क्योंकि वह सभी जीवों की हिंसा से मुक्त नहीं रह सकता ।  

महाव्रत और अणुव्रत के बीच का यह अंतर सनातन धर्म के व्यावहारिक दृष्टिकोण को दर्शाता है। यह स्वीकार करता है कि पूर्ण अहिंसा एक उच्च आध्यात्मिक आदर्श है, लेकिन सांसारिक जीवन में लगे लोगों के लिए कुछ प्रकार की हिंसा अपरिहार्य हो सकती है। यह विभाजन किसी एक सिद्धांत के प्रति अव्यावहारिक और कट्टरपंथी पालन को रोकता है। यह बताता है कि धर्म एक कठोर, एक-आकार-फिट-सभी संहिता नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक विकास के विभिन्न चरणों और विभिन्न जीवन भूमिकाओं के अनुकूल है। एक संन्यासी के लिए अपेक्षाएँ एक गृहस्थ या एक राजा से भिन्न होती हैं। यह व्यावहारिक दृष्टिकोण धर्मयुद्ध जैसी विशिष्ट परिस्थितियों में हिंसा के औचित्य को स्वीकार करता है, बिना अहिंसा के सर्वोच्च मूल्य को एक आदर्श के रूप में कम किए। यह दर्शाता है कि सनातन धर्म एक निरपेक्ष दर्शन नहीं है, बल्कि एक सूक्ष्म दर्शन है जो मानवीय अस्तित्व और सामाजिक आवश्यकताओं की जटिलताओं को समझता है। यह सीधे तौर पर धर्मरक्षा के लिए हिंसा के औचित्य का समर्थन करता है। यदि एक गृहस्थ भी पूर्ण अहिंसा का पालन नहीं कर सकता, तो एक राजा या योद्धा, जिसका कर्तव्य रक्षा करना है, निश्चित रूप से नहीं कर सकता। यह धर्मयुद्ध की अवधारणा के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करता है।

अहिंसा और सत्य का संबंध

सनातन धर्म में सत्य को भी एक परम गुण माना गया है, लेकिन इसका पालन भी अहिंसा के दायरे में ही होना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि सत्य की महिमा सर्वत्र प्रतिपादित है, परंतु यदि कहीं अहिंसा के साथ सत्य का संघर्ष होता है, तो वहाँ सत्य को ‘सत्याभास’ माना जाता है । इसका अर्थ यह है कि यदि कोई सत्य वचन किसी प्राणी को अनावश्यक रूप से अत्यधिक कष्ट पहुँचाता है या उसका उपघात करता है, तो वह वास्तविक धर्मसम्मत सत्य नहीं है। वाणी का प्रयोग सभी प्राणियों के उपकार (लाभ) के लिए होना चाहिए, न कि उनके उपघात (हानि) के लिए ।   

यह सिद्धांत दर्शाता है कि अहिंसा सत्य की कसौटी है। सत्य भी अहिंसा पर ही प्रतिष्ठित है । यह इस विचार को पुष्ट करता है कि अहिंसा सर्वोच्च नैतिक सिद्धांत है जो सत्य जैसे अन्य उच्च गुणों को भी नियंत्रित करता है। इसका तात्पर्य यह है कि बिना किसी उच्च उद्देश्य के अनावश्यक रूप से नुकसान पहुँचाने वाला सत्य, वास्तविक ‘सत्य’ नहीं माना जाता। नैतिक आचरण का अंतिम लक्ष्य सभी प्राणियों का कल्याण (सर्वभूतहितम्) है। इसलिए, कोई भी कार्य, यहाँ तक कि सत्य बोलने जैसा प्रतीत होने वाला गुण भी, अंततः अहिंसा और कल्याण के इस बड़े उद्देश्य की पूर्ति करना चाहिए। यह इस विचार को पुष्ट करता है कि धर्म नियमों के कठोर पालन के बारे में नहीं है, बल्कि एक समग्र समझ के बारे में है जहाँ अहिंसा की भावना सभी कार्यों में व्याप्त होती है और उनका मार्गदर्शन करती है। यदि एक सत्य अनावश्यक नुकसान पहुँचाता है, तो वह ‘धार्मिक सत्य’ नहीं है। यह कार्यों का मूल्यांकन करने के लिए एक मजबूत नैतिक ढाँचा प्रदान करता है, जिसमें हिंसा से जुड़े कार्य भी शामिल हैं – यदि हिंसा धर्म और प्राणियों के अंतिम लाभ और सुरक्षा के लिए है, तो यह इस गहरे सिद्धांत के अनुरूप है। यह धर्मयुद्ध के औचित्य का और समर्थन करता है। यदि एक “सत्य” जो नुकसान पहुँचाता है, वह सच्चा सत्य नहीं है, तो एक “अहिंसा” जो अधर्म को पनपने और अधिक नुकसान पहुँचाने की अनुमति देती है, वह सच्ची अहिंसा नहीं है। धर्म और कल्याण की रक्षा का उच्च सिद्धांत बल के उपयोग को उचित ठहराता है।

धर्मरक्षा के लिए हिंसा का सैद्धांतिक आधार

सनातन धर्म में अहिंसा के महत्व के बावजूद, धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश के लिए हिंसा का प्रयोग न केवल स्वीकार्य है, बल्कि कुछ परिस्थितियों में अनिवार्य भी माना गया है। यह ‘धर्मयुद्ध’ के सिद्धांत में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।

धर्मयुद्ध की अवधारणा और उसका महत्व

‘धर्मयुद्ध’ वह युद्ध है जो व्यक्तिगत लाभ, प्रतिशोध या सत्ता की लालसा के लिए नहीं, बल्कि धर्म की स्थापना और अधर्म के उन्मूलन के लिए लड़ा जाता है । महाभारत के युद्ध को ‘धर्मयुद्ध’ की संज्ञा दी गई है क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य धर्म की स्थापना और अधर्मियों का नाश करना था, न कि केवल पांडवों को उनका राज्य दिलाना । क्षत्रिय वर्ण के लिए, धर्म के अनुसार युद्ध करना (धर्मयुद्ध) सबसे बड़ा कल्याणकारी कार्य है, और इससे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं माना गया है ।   

अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना का उद्देश्य

धर्मयुद्ध का प्राथमिक उद्देश्य अधर्म का नाश और धर्म की पुनर्स्थापना है । भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कंस और अन्य अधर्मी राजाओं का विनाश किया ताकि धर्म की स्थापना हो सके । भगवद गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट करते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब वे स्वयं को प्रकट करते हैं ताकि धर्म की स्थापना हो सके ।   

“यदा यदा हि धर्मस्य” श्लोक केवल दैवीय हस्तक्षेप का कथन नहीं है, बल्कि समान परिस्थितियों में मानवीय कार्रवाई के लिए एक दार्शनिक औचित्य भी है। यदि ईश्वर अधर्म को नष्ट करने के लिए अवतार लेते हैं, तो इसका तात्पर्य यह है कि मानव अभिकर्ता, विशेष रूप से सुरक्षा के स्वधर्म (क्षत्रिय) वाले लोग, अधर्म के विरुद्ध कार्य करने के लिए नैतिक रूप से बाध्य हैं, भले ही इसमें हिंसा शामिल हो, क्योंकि वे इस दैवीय इच्छा के उपकरण हैं। यह इस बात का संकेत देता है कि मनुष्य, विशेष रूप से नेतृत्व या सुरक्षा की भूमिकाओं में (जैसे क्षत्रिय), इस दैवीय इच्छा के साधन बन सकते हैं। उनके कार्य, जब बिना आसक्ति (निष्काम कर्म) के और केवल धर्म की बहाली के लिए किए जाते हैं, तो वे हिंसा की सामान्य धारणाओं से परे होकर पवित्र कार्य बन जाते हैं। यह अंतर्दृष्टि धर्मयुद्ध के लिए एक मजबूत धार्मिक और दार्शनिक आधार प्रदान करती है, इसे अधर्म के खिलाफ लौकिक संघर्ष में भागीदारी के रूप में प्रस्तुत करती है, न कि केवल मानवीय संघर्ष के रूप में।   

दुष्टों को दंड देने का सिद्धांत

सनातन धर्म में दुष्टों और अत्याचारियों को दंड देना धर्म का एक अनिवार्य अंग माना गया है। जब हिंसा का उद्देश्य दुष्टों को दंड देना और समाज में शांति स्थापित करना हो, तो यह धर्म का पालन है । किसी निर्दोष प्राणी को कष्ट देना अधर्म है, लेकिन दुष्टों और अत्याचारियों को दंड देना धर्म है । मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अपराधी को दंड देना आवश्यक है, चाहे वह कोई भी हो । दंड ही सबका रक्षक है और राष्ट्र को जागृत रखता है, इसलिए विद्वान उसे ‘धर्म’ कहते हैं ।   

यह विचार कि ‘दंड’ स्वयं ‘धर्म’ है , एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह दंड को प्रतिशोध के एक नकारात्मक कार्य से बदलकर सामाजिक व्यवस्था और धार्मिकता को बनाए रखने के एक सकारात्मक कार्य में बदल देता है। इसका तात्पर्य यह है कि राज्य (राजा/क्षत्रिय द्वारा प्रतिनिधित्व) का न्याय बनाए रखने के लिए बल का उपयोग करने का एक धार्मिक कर्तव्य है। यदि दंड धर्म है, तो इसका अर्थ है कि यह केवल व्यवस्था के लिए एक व्यावहारिक आवश्यकता नहीं है, बल्कि एक नैतिक अनिवार्यता है। यह धर्म का एक सक्रिय रूप है जो असंतुलन को ठीक करता है और धर्मी लोगों की रक्षा करता है। यह बताता है कि जो समाज अधर्म को दंडित करने में विफल रहता है, वह स्वयं अपने धर्म में विफल रहता है। गलत काम करने वालों के खिलाफ, जब उचित हो, बल का उपयोग करने से इनकार करना कर्तव्य का परित्याग है। यह किसी भी निरपेक्ष शांतिवादी व्याख्या का सीधे तौर पर खंडन करता है, क्योंकि यह स्थापित करता है कि न्याय के लिए सक्रिय, यहाँ तक कि बलपूर्वक हस्तक्षेप, धर्म की अवधारणा का अभिन्न अंग है।  

करुणा और कर्तव्य के बीच संतुलन

सनातन धर्म करुणा (दया) और कर्तव्य (दायित्व) दोनों को समान महत्व देता है । यह एक जटिल संतुलन है जो नैतिक दुविधाओं को हल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। करुणा के कारण हिंसा से बचा जाना चाहिए, लेकिन जब कर्तव्य की माँग हो, तो धर्म की रक्षा के लिए उचित कदम उठाने चाहिए ।  

यह संतुलन इस बात पर बल देता है कि यद्यपि करुणा एक मार्गदर्शक सिद्धांत है, यह धर्म के खतरे में होने पर निष्क्रियता का कारण नहीं बन सकती। धर्म-रक्षा के लिए उठाए गए “उचित कदम”, भले ही वे हिंसक हों, तब उन्हें बड़े समाज या धर्म के भविष्य के प्रति करुणा का एक उच्च रूप माना जाता है। यह सुझाव देता है कि कार्य, यद्यपि हिंसक, आदर्श रूप से व्यक्तिगत घृणा या दुर्भावना से रहित होना चाहिए (जो अहिंसा के गहरे अर्थ – आंतरिक पवित्रता – से जुड़ा है)। हिंसा एक शल्य चिकित्सा जैसा कार्य है, न कि भावनात्मक। यह अर्जुन की दुविधा और गीता में कृष्ण के समाधान को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। यह ढाँचा आवश्यक हिंसा के औचित्य को स्वीकार करता है, जबकि अभी भी करुणा के आध्यात्मिक आदर्श को बनाए रखता है, जिससे यह अनियंत्रित विनाश में नहीं बदलता।

आपद्धर्म का सिद्धांत: संकटकाल में धर्म के नियमों में परिवर्तन

‘आपद्धर्म’ का सिद्धांत सनातन धर्म के व्यावहारिक और लचीलेपन का एक और महत्वपूर्ण पहलू है। आपद्धर्म का अर्थ है आपदा या संकट की स्थिति में धर्म के नियमों में किया गया व्यावहारिक परिवर्तन । यह वह आचरण है जिसे व्यक्ति आपातकाल (आपत्ति, संकट, युद्ध, भुखमरी आदि) में परिस्थितियों के अनुसार अपनाता है, भले ही वह सामान्य धर्म से भिन्न क्यों न हो ।  

शास्त्रों की दृष्टि में आपद्धर्म, धर्म ही है क्योंकि यह जीवनरक्षा, समाजरक्षा, धर्मरक्षा जैसे उच्च उद्देश्यों के लिए किया गया कार्य होता है । उदाहरण के लिए, छांदोग्य उपनिषद में उषस्ति की कथा है, जहाँ अकाल के दौरान भूख से बचने के लिए उषस्ति को जूठे उड़द खाने पड़े, जो सामान्यतः वर्जित था । इसी प्रकार, भूख और जीविका के संकट में ब्राह्मण का व्यापार करना भी आपद्धर्म के अंतर्गत आता है, जो सामान्यतः धर्म के अनुसार वर्जित है । युद्धकाल में अपनी रक्षा के लिए हिंसा करना, जो सामान्य जीवन में वर्जित है, आपद्धर्म माना जाता है । महाभारत काल में युधिष्ठिर जैसे धर्मराज ने भी संकट की स्थिति में कुछ ऐसे निर्णय लिए जो आपद्धर्म के अंतर्गत आते हैं, जैसे द्रौपदी का वनवास में साथ आना और अश्वत्थामा की हत्या से संबंधित झूठ का सहारा लेना । ये निर्णय सामान्य धर्म से भिन्न थे, लेकिन आपत्ति की परिस्थिति में धर्मरक्षा हेतु आवश्यक थे ।  

आपद्धर्म का सिद्धांत सनातन धर्म की अनुकूलनशीलता और बड़ी व्यवस्था के संरक्षण पर उसके ध्यान का एक गहरा उदाहरण है। यह स्वीकार करता है कि नियमों का कड़ाई से पालन कभी-कभी अधिक नुकसान या स्वयं धर्म के विनाश का कारण बन सकता है। यह दर्शाता है कि धर्म एक कठोर, अपरिवर्तनीय संहिता नहीं है, बल्कि एक गतिशील ढाँचा है जो जीवन की जटिलताओं और अप्रत्याशित चुनौतियों का सामना करने के लिए लचीलापन प्रदान करता है। यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि धर्म अपने मूल मूल्यों को बनाए रखते हुए भी अस्तित्व में बना रहे और विकसित हो सके। इस प्रकार, आपद्धर्म केवल नियमों का उल्लंघन नहीं है, बल्कि एक उच्च उद्देश्य के लिए धर्म का एक आवश्यक, प्रासंगिक अनुप्रयोग है।

धर्मयुद्ध के ऐतिहासिक उदाहरण: रामायण और महाभारत

सनातन धर्म के महाकाव्य, रामायण और महाभारत, धर्मरक्षा के लिए हिंसा के औचित्य को सिद्ध करने वाले अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। ये कथाएँ न केवल मनोरंजन करती हैं, बल्कि धर्म के जटिल सिद्धांतों को व्यावहारिक संदर्भ में भी समझाती हैं।

रामायण में धर्मयुद्ध के उदाहरण और औचित्य

भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पूजा जाता है, जिन्होंने धर्म के उच्चतम आदर्शों का पालन किया। उनके जीवन में कई ऐसे प्रसंग आते हैं जहाँ उन्होंने अधर्म के नाश के लिए हिंसा का प्रयोग किया:

  • ताड़का वध: विश्वामित्र ऋषि के यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान राम ने ताड़का नामक राक्षसी का वध किया । ताड़का एक ऐसी राक्षसी थी जो ऋषियों के यज्ञों में बाधा डालती थी और निर्दोषों को परेशान करती थी। एक राजकुमार के रूप में, राम का कर्तव्य ऋषियों और धर्म की रक्षा करना था। यह हिंसा व्यक्तिगत प्रतिशोध के लिए नहीं, बल्कि धर्म की स्थापना और निर्दोषों की सुरक्षा के लिए थी।   
  • खर-दूषण वध: शूर्पणखा के अपमान के बाद, खर और दूषण के नेतृत्व में चौदह हज़ार राक्षसों की सेना ने राम और लक्ष्मण पर आक्रमण किया । राम ने अकेले ही इस विशाल सेना का संहार किया, जिसमें खर और दूषण जैसे शक्तिशाली राक्षस भी शामिल थे । यह आक्रमण अधर्मी शक्तियों द्वारा धर्मपरायण व्यक्तियों पर किया गया था, और राम का कार्य आत्मरक्षा तथा धर्म की रक्षा का प्रत्यक्ष उदाहरण था ।   
  • बाली वध: भगवान राम ने बाली का वध छिपकर किया, जो नैतिक रूप से कुछ लोगों द्वारा विवादास्पद माना जाता है । हालाँकि, शास्त्रों में इसके कई औचित्य दिए गए हैं। बाली ने अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी रुमा को बलपूर्वक अपनी पत्नी बना लिया था, जो धर्म के विरुद्ध था । उसने सुग्रीव को राज्य से निष्कासित कर दिया था। राम ने बाली को यह भी बताया कि उसने एक राजा के रूप में मर्यादा का पालन नहीं किया। राम ने स्पष्ट किया कि ऐसे अधर्मी को मारने में कोई पाप नहीं है । कुछ कथाओं के अनुसार, बाली को एक ऋषि का श्राप था कि अगले जन्म में उसे भी इसी तरह छिपकर मारा जाएगा, जिससे यह उसके कर्मों का फल भी था । राम का यह कार्य अधर्म को समाप्त करने और न्याय स्थापित करने के लिए एक आवश्यक कदम था । यह अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना के व्यापक उद्देश्य के अंतर्गत आता है।   
  • रावण वध: रामायण का केंद्रीय युद्ध रावण के अधर्म, विशेषकर सीता हरण, के कारण हुआ । रावण एक अत्यंत शक्तिशाली और ज्ञानी राजा था, परंतु उसका अहंकार, अन्याय और अत्याचार चरम पर पहुँच गया था । राम ने रावण का वध केवल सीता को बचाने के लिए नहीं किया, बल्कि अधर्म और अन्याय को समाप्त करने और धर्म की स्थापना के लिए किया । यह युद्ध बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है, जहाँ धर्म की रक्षा के लिए अंतिम उपाय के रूप में हिंसा का प्रयोग किया गया ।  

महाभारत में धर्मयुद्ध के सिद्धांत और उल्लंघन

महाभारत का युद्ध, कुरुक्षेत्र में लड़ा गया, धर्मयुद्ध का सबसे बड़ा उदाहरण है। यह युद्ध धर्म की स्थापना के लिए लड़ा गया था, जहाँ अधर्मियों को दंडित करना अनिवार्य हो गया था । हालाँकि, महाभारत के युद्ध में कई बार स्थापित युद्ध नियमों का उल्लंघन भी हुआ, जो मानवीय त्रुटियों और अधर्म के बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है।   

महाभारत युद्ध के लिए कुछ नियम निर्धारित किए गए थे, जैसे:

  • सूर्योदय से पहले युद्ध आरंभ नहीं होना चाहिए और सूर्यास्त होते ही समाप्त हो जाना चाहिए ।   
  • एक योद्धा के साथ अनेक योद्धा नहीं लड़ने चाहिए ।   
  • दो योद्धा आपस में तभी लड़ सकते हैं यदि उनके पास एक जैसे अस्त्र-शस्त्र हों और वे एक ही तरह की सवारी पर हों ।   
  • आत्मसमर्पण करने वाले को नहीं मारा जाएगा ।   
  • कोई भी योद्धा किसी निःशस्त्र योद्धा को नहीं मारेगा ।   
  • किसी अचेत योद्धा को नहीं मारा जाएगा ।   
  • युद्ध में भाग न लेने वाले मनुष्य या पशु की हत्या नहीं की जाएगी ।   
  • जिसकी पीठ सामने हो, उसे नहीं मारा जाएगा ।   

इन नियमों का कई बार उल्लंघन हुआ, विशेषकर कौरव पक्ष द्वारा, जिसने युद्ध को ‘धर्मयुद्ध’ के आदर्श से भटका दिया:

  • अभिमन्यु वध: तेरहवें दिन अभिमन्यु को घेरकर कई महारथियों ने एक साथ मार डाला, जो ‘एक योद्धा के साथ अनेक योद्धा नहीं लड़ने चाहिए’ के नियम का घोर उल्लंघन था । यह अधर्म का स्पष्ट उदाहरण था।   
  • कर्ण वध: अर्जुन ने कर्ण का वध तब किया जब कर्ण अपने रथ का पहिया निकाल रहा था और निःशस्त्र था, जो ‘निःशस्त्र योद्धा को न मारने’ के नियम का उल्लंघन था । हालाँकि, यह भी अधर्मियों को दंडित करने के व्यापक संदर्भ में देखा गया, क्योंकि कर्ण ने द्रौपदी का अपमान किया था और अधर्म का साथ दिया था ।   
  • भूरिश्रवा की हत्या: सत्यकी ने निःशस्त्र भूरिश्रवा की हत्या की, जो आत्मसमर्पण के नियम का उल्लंघन था ।   
  • अन्य उल्लंघन: जयद्रथ का वध सूर्यास्त के बाद हुआ, और कई योद्धाओं ने शत्रु के घोड़ों या सारथियों की हत्या की, जो नियमों का उल्लंघन था ।   

इन उल्लंघनों के बावजूद, महाभारत युद्ध को ‘धर्मयुद्ध’ कहा गया क्योंकि इसका मूल उद्देश्य धर्म की स्थापना था। भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन और दुशासन जैसे पात्रों ने अपने-अपने तरीके से नैतिक धर्म का उल्लंघन किया था, जिससे अधर्म का बोलबाला हो गया था । दुर्योधन ने पांडवों का हक छीनकर भ्रातृ धर्म का उल्लंघन किया, और दुशासन ने द्रौपदी का चीरहरण करके नैतिक, भ्रातृ और सामाजिक धर्म का उल्लंघन किया । इन अधर्मों को ठीक करने के लिए ही युद्ध अनिवार्य हो गया था । यह दर्शाता है कि जब अधर्म चरम पर पहुँच जाए और उसे ठीक करने के अन्य सभी उपाय विफल हो जाएँ, तो बल का प्रयोग धर्म की पुनर्स्थापना के लिए आवश्यक हो जाता है।   

भगवद गीता में धर्मयुद्ध और कर्तव्य का दर्शन

भगवद गीता, महाभारत का एक अभिन्न अंग, धर्मयुद्ध के सिद्धांतों और कर्तव्य के दर्शन पर सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह युद्धभूमि में अर्जुन की दुविधा और भगवान कृष्ण के उसे दिए गए उपदेशों के माध्यम से इन जटिल अवधारणाओं को स्पष्ट करती है।

अर्जुन की दुविधा और कृष्ण के उपदेश

कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में, अर्जुन अपने सामने अपने गुरुजनों, सगे-संबंधियों और मित्रों को देखकर मोहग्रस्त हो जाता है । वह हिंसा से विमुख होकर कहता है कि वह अपने ही कुल का संहार नहीं कर सकता, अपने ही भाइयों का वध नहीं कर सकता, और तीन लोकों का राज्य भी उसे स्वीकार्य नहीं है यदि उसे अपनों का वध करना पड़े । उसे लगता है कि अपनों को मारकर केवल पाप ही मिलेगा, पुण्य नहीं । यह अर्जुन की करुणा और मोह के बीच की दुविधा थी, जहाँ वह अपने क्षत्रिय धर्म से विमुख हो रहा था।  

भगवान कृष्ण, अर्जुन के सारथी के रूप में, उसे इस मोह से बाहर निकालते हैं और उसे उसके स्वधर्म का बोध कराते हैं। कृष्ण के उपदेश कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर केंद्रित थे:

  • आत्मा की अमरता: कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मा अमर है और शरीर नश्वर है । “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः” (आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और अग्नि जला नहीं सकती)। इसलिए, शारीरिक मृत्यु केवल आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन है, और इसके लिए शोक करना व्यर्थ है। यह ज्ञान अर्जुन को मोह से मुक्त होने और अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है।   
  • स्वधर्म का पालन: कृष्ण अर्जुन को उसके ‘स्वधर्म’ (अपने वर्ण के स्वाभाविक कर्तव्य) का स्मरण कराते हैं । अर्जुन एक क्षत्रिय है, और क्षत्रिय का धर्म प्रजा की रक्षा और अधर्मियों का नाश करने के लिए युद्ध करना है । भगवद गीता के अध्याय 2, श्लोक 31 में कृष्ण कहते हैं: “स्वधर्मम् अपि च अवेक्ष्य न विकम्पितुम् अर्हसि। धर्म्यात् हि युद्धात् श्रेयः अन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते॥” (अपने स्वधर्म का विचार करते हुए, तुम्हें संकोच नहीं करना चाहिए। क्योंकि धर्म के अनुसार युद्ध करना (धर्मयुद्ध) एक क्षत्रिय के लिए सबसे बड़ा कल्याणकारी कार्य है, और इससे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है) । युद्ध से पलायन करना क्षत्रिय के लिए अकीर्ति और अधर्म होगा। 
  • निष्काम कर्मयोग: कृष्ण अर्जुन को ‘निष्काम कर्म’ का उपदेश देते हैं, जिसका अर्थ है फल की इच्छा के बिना कर्तव्य का पालन करना । अर्जुन को कर्म करने का अधिकार है, फल पर नहीं । सुख-दुःख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान समझकर युद्ध में प्रवृत्त होने से पाप नहीं लगता । यह कर्मयोग व्यक्ति को अहंकार से मुक्त करता है और उसे अपने कर्तव्य को ईश्वर को समर्पित करने की प्रेरणा देता है ।  
  • दैवीय विधान के साधन: कृष्ण अर्जुन को यह भी बताते हैं कि वे (कृष्ण) स्वयं ही उन सभी को पहले ही मार चुके हैं, और अर्जुन तो केवल एक माध्यम मात्र है । यह दर्शाता है कि युद्ध एक बड़े दैवीय विधान का हिस्सा है जहाँ अधर्म का नाश होना निश्चित है, और अर्जुन उस विधान को पूरा करने का एक उपकरण है। यह दैवीय अनुमोदन हिंसा को एक उच्च उद्देश्य प्रदान करता है।   

अर्जुन की दुविधा और कृष्ण के उपदेशों का यह संवाद सनातन धर्म में हिंसा के औचित्य को गहराई से स्थापित करता है। यह सिखाता है कि जब अधर्म चरम पर हो और धर्म की रक्षा के लिए कोई अन्य मार्ग न बचे, तो बल का प्रयोग करना न केवल स्वीकार्य है, बल्कि एक नैतिक और धार्मिक कर्तव्य भी है, बशर्ते वह निष्काम भाव से और धर्म की स्थापना के लिए किया गया हो। यह एक क्षत्रिय के लिए उसके स्वधर्म का पालन है, जो उसे मोक्ष और कीर्ति की ओर ले जाता है ।   

आपद्धर्म: संकटकाल में धर्म के नियमों का लचीलापन

सनातन धर्म की एक और महत्वपूर्ण अवधारणा ‘आपद्धर्म’ है, जो यह स्वीकार करती है कि विशेष संकटकाल में धर्म के सामान्य नियमों में कुछ व्यावहारिक परिवर्तन किए जा सकते हैं। यह सिद्धांत धर्म के लचीलेपन और जीवन एवं मूल्यों के संरक्षण पर उसके ध्यान को दर्शाता है।

आपद्धर्म का अर्थ और उदाहरण

‘आपद्धर्म’ शब्द ‘आपद्’ (आपदा या संकट) और ‘धर्म’ (कर्तव्य या नियम) से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है संकटकाल में अपनाया जाने वाला धर्म या विशेष परिस्थितियों में अपनाया जाने वाला आचरण । यह वह कर्तव्य या आचरण है जिसे व्यक्ति आपातकाल (जैसे आपत्ति, संकट, युद्ध, भुखमरी, विपत्ति आदि) में परिस्थितियों के अनुसार अपनाता है, भले ही वह सामान्य धर्म से भिन्न क्यों न हो।  

प्राचीन ग्रंथों जैसे मनुस्मृति, महाभारत और धर्मशास्त्रों में आपद्धर्म का उल्लेख मिलता है । यह सिद्धांत इस बात को स्वीकार करता है कि कभी-कभी नियमों का कड़ाई से पालन करने से स्वयं धर्म या जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। आपद्धर्म का उद्देश्य किसी उच्च उद्देश्य जैसे जीवनरक्षा, समाजरक्षा या धर्मरक्षा के लिए कार्य करना होता है ।  

आपद्धर्म के कुछ प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित हैं:

  • भूख और जीविका का संकट: छांदोग्य उपनिषद में ‘उषस्ति की कथा’ इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण है । अकाल के दौरान, जब उषस्ति नामक व्यक्ति को दो दिन तक खाने को कुछ नहीं मिला, तो उसे जूठे उड़द खाने पड़े । सामान्यतः जूठा भोजन करना वर्जित माना जाता है, परंतु जीवन बचाने के लिए यह आपद्धर्म था। उषस्ति ने जूठे उड़द खाए, लेकिन जूठा पानी पीने से मना कर दिया क्योंकि उसके पास अब थोड़ी शक्ति आ गई थी और वह स्वच्छ पानी ढूंढ सकता था । यह दर्शाता है कि आपद्धर्म का पालन केवल तब तक करना चाहिए जब तक संकट हो, और उसे नियमित धर्म नहीं बनाना चाहिए । इसी प्रकार, सामान्यतः ब्राह्मण के लिए व्यापार करना वर्जित है, परंतु भूख और जीविका के संकट में वह व्यापार कर सकता है ।   
  • युद्धकाल में हिंसा: युद्धकाल में अपनी रक्षा के लिए हिंसा करना, जो सामान्य जीवन में वर्जित है, आपद्धर्म माना जाता है । एक सैनिक या क्षत्रिय के लिए युद्ध में शत्रु का वध करना उसका धर्म है, क्योंकि यह राष्ट्र और प्रजा की रक्षा के लिए आवश्यक है। यह हिंसा व्यक्तिगत द्वेष से प्रेरित नहीं होती, बल्कि कर्तव्य के निर्वहन के लिए होती है।   
  • महाभारत काल में युधिष्ठिर के निर्णय: धर्मराज युधिष्ठिर ने भी संकट की स्थिति में कुछ ऐसे निर्णय लिए जो आपद्धर्म के अंतर्गत आते हैं । उदाहरण के लिए, द्रौपदी का वनवास में साथ आना और अश्वत्थामा की मृत्यु से संबंधित झूठ का सहारा लेना (जब उन्होंने कहा “नरो वा कुञ्जरो वा” – मनुष्य मरा है या हाथी) । ये निर्णय सामान्य धर्म से भिन्न थे, लेकिन आपत्ति की परिस्थिति में धर्मरक्षा हेतु आवश्यक थे ।   

आपद्धर्म का सिद्धांत सनातन धर्म की अनुकूलनशीलता और बड़ी व्यवस्था के संरक्षण पर उसके ध्यान का एक गहरा उदाहरण है। यह स्वीकार करता है कि नियमों का कड़ाई से पालन कभी-कभी अधिक नुकसान या स्वयं धर्म के विनाश का कारण बन सकता है। यह दर्शाता है कि धर्म एक कठोर, अपरिवर्तनीय संहिता नहीं है, बल्कि एक गतिशील ढाँचा है जो जीवन की जटिलताओं और अप्रत्याशित चुनौतियों का सामना करने के लिए लचीलापन प्रदान करता है। यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि धर्म अपने मूल मूल्यों को बनाए रखते हुए भी अस्तित्व में बना रहे और विकसित हो सके। इस प्रकार, आपद्धर्म केवल नियमों का उल्लंघन नहीं है, बल्कि एक उच्च उद्देश्य के लिए धर्म का एक आवश्यक, प्रासंगिक अनुप्रयोग है।

आधुनिक संदर्भ में अहिंसा की व्याख्या और सनातन दृष्टिकोण

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी द्वारा अहिंसा के सिद्धांत को एक शक्तिशाली राजनीतिक और सामाजिक हथियार के रूप में प्रयोग किया गया। उनकी अहिंसा की अवधारणा ने देश और दुनिया को गहराई से प्रभावित किया, लेकिन इसकी व्याख्या पारंपरिक सनातन दृष्टिकोण से कुछ भिन्न थी।

महात्मा गांधी की अहिंसा की अवधारणा

गांधीजी ने अहिंसा को सत्य को चरितार्थ करने का साधन माना । उनके अनुसार, निरंतर अहिंसा का पालन अंततः सत्य की प्राप्ति की ओर ले जाता है । गांधीजी के लिए अहिंसा केवल नकारात्मक शब्द (हिंसा न करना) नहीं थी, बल्कि एक सकारात्मक शक्ति थी जो प्रेम, श्रद्धा और विश्वास पर आधारित थी । उन्होंने इसे एक अमोघ हथियार बताया जिससे विश्व शांति स्थापित की जा सकती है, और उनका मानना था कि हिंसा और युद्धों से यह महान कार्य कभी नहीं होगा । गांधीजी की अहिंसा का मुख्य उद्देश्य आत्म-कल्याण, प्राणीमात्र का हित साधना और समाज का पुनर्निर्माण था । उन्होंने अहिंसा को निर्भयता का दूसरा नाम बताया, जो प्रतिपक्षी की कमजोरी पर नहीं, बल्कि अपनी निर्भयता पर आधारित होती है ।   

सनातन धर्म में हिंसा का स्थान और तुलना

गांधीजी की अहिंसा की अवधारणा, हालांकि सनातन मूल्यों से प्रेरित थी, लेकिन इसकी पूर्णता और सार्वभौमिक अनुप्रयोग पर उनका जोर पारंपरिक सनातन दृष्टिकोण से कुछ भिन्न था। पारंपरिक सनातन धर्म में अहिंसा को एक परम आदर्श माना जाता है, लेकिन यह एक निरपेक्ष सिद्धांत नहीं है जो सभी परिस्थितियों में बिना किसी अपवाद के लागू हो।

  • अहिंसा की पूर्णता बनाम व्यावहारिकता: गांधीजी ने अहिंसा को एक पूर्ण और सार्वभौमिक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया, जिसका पालन हर स्थिति में किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, सनातन धर्म में अहिंसा को ‘महाव्रत’ (मुनियों के लिए पूर्ण अहिंसा) और ‘अणुव्रत’ (गृहस्थों के लिए सीमित अहिंसा) में विभाजित किया गया है । यह विभाजन इस बात को स्वीकार करता है कि व्यावहारिक जीवन में पूर्ण अहिंसा का पालन हमेशा संभव नहीं होता, और कुछ प्रकार की हिंसा (जैसे आत्मरक्षा, कृषि कार्य में निहित हिंसा) अपरिहार्य होती है ।   
  • भयहीनता बनाम निष्क्रियता: जहाँ गांधीजी ने अहिंसा को निर्भयता से जोड़ा, वहीं उनके आंदोलन में ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ का पहलू भी प्रमुख था। सनातन दृष्टिकोण में, अहिंसा का वास्तविक अर्थ ‘अभय’ (निडरता) है, और यह कायरता से दूर भागती है । इसका अर्थ यह है कि धर्म की रक्षा के लिए या अन्याय के विरुद्ध खड़ा होने के लिए बल प्रयोग करना, यदि आवश्यक हो, तो वह कायरता नहीं, बल्कि वीरता का कार्य है। एक भयभीत व्यक्ति अहिंसा का पालन नहीं कर सकता ।   
  • धर्मरक्षा के लिए हिंसा का औचित्य: सनातन धर्म में “अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च” का सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना भी परम धर्म है । रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में भगवान राम और भगवान कृष्ण द्वारा अधर्मियों के नाश के लिए युद्ध करना इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । यह हिंसा व्यक्तिगत लाभ या द्वेष के लिए नहीं, बल्कि समाज में धर्म और न्याय की स्थापना के लिए की जाती है । गांधीजी ने हिंसा को कभी भी सत्य प्राप्त करने का साधन नहीं माना , जबकि सनातन धर्म में, कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में, धर्म की स्थापना के लिए हिंसा को एक आवश्यक उपकरण के रूप में देखा गया।   
  • आपद्धर्म का सिद्धांत: सनातन धर्म का आपद्धर्म का सिद्धांत यह अनुमति देता है कि संकटकाल में धर्म के सामान्य नियमों में परिवर्तन किया जा सकता है । युद्धकाल में अपनी रक्षा और धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना आपद्धर्म के अंतर्गत आता है । यह दर्शाता है कि सनातन धर्म एक कठोर, अपरिवर्तनीय संहिता नहीं है, बल्कि एक गतिशील ढाँचा है जो जीवन की जटिलताओं को समझता है।   

आजादी के समय कुछ नेताओं द्वारा सिर्फ अहिंसा को सनातन से जोड़कर देखे जाने की बात पर विचार करना महत्वपूर्ण है। यह संभव है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, महात्मा गांधी के नेतृत्व में, अहिंसा को एक प्रभावी राजनीतिक रणनीति के रूप में अपनाया गया, और इसे सनातन धर्म के एक प्रमुख सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया गया। हालाँकि, यह व्याख्या सनातन धर्म के व्यापक और संतुलित दृष्टिकोण के केवल एक पहलू पर केंद्रित थी, और इसने धर्मरक्षा के लिए हिंसा के औचित्य जैसे अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं को शायद कम महत्व दिया। यह एक “साजिश” से अधिक, एक विशेष ऐतिहासिक और राजनीतिक संदर्भ में एक विशिष्ट दार्शनिक पहलू पर ध्यान केंद्रित करने का मामला हो सकता है, जिससे सनातन धर्म की समग्रता का एक अधूरा चित्र प्रस्तुत हुआ। सनातन धर्म में, अहिंसा का भाव रखना तो आवश्यक है, लेकिन जब धर्मरक्षा के लिए हिंसा करनी पड़े, यानी धर्मयुद्ध करना हो, तो वह धर्म संगत है। आजादी के बाद सिर्फ अहिंसा का पाठ पढ़ाकर हिंदुओं यानी सनातनियों को भ्रमित किया गया, यह एक दृष्टिकोण है जो सनातन धर्म के व्यापक नैतिक ढाँचे को समझने की आवश्यकता पर बल देता है, जहाँ करुणा और कर्तव्य, अहिंसा और धर्मरक्षा के बीच एक सूक्ष्म संतुलन होता है।

निष्कर्ष

सनातन धर्म में अहिंसा और धर्मरक्षा के लिए हिंसा का संबंध एक जटिल और सूक्ष्म विषय है, जिसे केवल सतही तौर पर देखकर नहीं समझा जा सकता। “अहिंसा परमो धर्मः” का सिद्धांत सनातन धर्म का एक केंद्रीय स्तंभ है, जो मन, वाणी और कर्म से सभी जीवों के प्रति द्रोह के अभाव और आंतरिक पवित्रता पर बल देता है। यह अहिंसा को कायरता नहीं, बल्कि निडरता और वीरता का प्रतीक मानता है, जो व्यक्ति को भयमुक्त होकर धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

हालाँकि, सनातन धर्म एक व्यावहारिक और यथार्थवादी दर्शन भी है। यह स्वीकार करता है कि संसार में अधर्म और अन्याय का अस्तित्व है, और जब धर्म पर संकट आता है, तो उसकी रक्षा करना एक परम कर्तव्य बन जाता है। “धर्म हिंसा तथैव च” का सिद्धांत इसी आवश्यकता को रेखांकित करता है, जहाँ अधर्म के नाश और धर्म की स्थापना के लिए बल प्रयोग को उचित ठहराया जाता है। रामायण में भगवान राम द्वारा ताड़का, खर-दूषण, बाली और रावण का वध, तथा महाभारत में धर्मयुद्ध का औचित्य, इस सिद्धांत के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। भगवद गीता में भगवान कृष्ण का अर्जुन को स्वधर्म, निष्काम कर्म और आत्मा की अमरता का उपदेश, धर्मयुद्ध को एक नैतिक अनिवार्यता के रूप में स्थापित करता है, बशर्ते वह व्यक्तिगत मोह या द्वेष से रहित होकर धर्म की स्थापना के लिए किया गया हो।

आपद्धर्म का सिद्धांत सनातन धर्म के लचीलेपन को दर्शाता है, जो संकटकाल में सामान्य धर्म नियमों में व्यावहारिक परिवर्तनों की अनुमति देता है ताकि जीवन और मूल्यों की रक्षा की जा सके। यह दर्शाता है कि धर्म एक कठोर, अपरिवर्तनीय संहिता नहीं है, बल्कि एक गतिशील ढाँचा है जो जीवन की जटिलताओं को समझता है।

आधुनिक संदर्भ में, महात्मा गांधी द्वारा अहिंसा की व्याख्या, यद्यपि प्रेरणादायक थी, सनातन धर्म के व्यापक दृष्टिकोण के केवल एक पहलू पर केंद्रित थी। पारंपरिक सनातन धर्म, अहिंसा को एक आदर्श मानते हुए भी, धर्मरक्षा के लिए हिंसा के औचित्य को स्वीकार करता है, जब अन्य सभी उपाय विफल हो जाएँ। यह एक संतुलित दृष्टिकोण है जो करुणा और कर्तव्य, अहिंसा और धर्मरक्षा के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। सनातन धर्म हमें सिखाता है कि हिंसा केवल आवश्यकता और धर्म के अधीन ही स्वीकार्य है, और इसका उद्देश्य कभी भी व्यक्तिगत प्रतिशोध या अनावश्यक हानि पहुँचाना नहीं होना चाहिए, बल्कि अधर्म का उन्मूलन और समाज में शांति व न्याय की पुनर्स्थापना होना चाहिए। इस प्रकार, सनातन धर्म में शस्त्र उठाना अधर्म नहीं, बल्कि धर्म का ही एक आवश्यक अंग है, जब धर्म स्वयं खतरे में हो।

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