पितृपक्ष, जिसे श्राद्ध पक्ष या महालय पक्ष के नाम से भी जाना जाता है, हिंदू धर्म में सोलह दिनों की एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवधि होती है। यह भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आरंभ होकर आश्विन मास की अमावस्या को समाप्त होती है । यह सम्पूर्ण कालखंड हमारे दिवंगत पूर्वजों, जिन्हें पितर कहा जाता है, को समर्पित है। इस दौरान, वंशज अपने पितरों की आत्मा की शांति और संतुष्टि के लिए विशेष अनुष्ठान, श्राद्ध और तर्पण करते हैं । यह एक धार्मिक कर्मकांड मात्र नहीं है, बल्कि यह हमें अपनी जड़ों से जुड़ने और उन पूर्वजों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने का एक पावन अवसर प्रदान करता है, जिन्होंने हमें जीवन, पालन-पोषण और संस्कार दिए ।
यह माना जाता है कि जब सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करता है, तो सभी पितर सूक्ष्म रूप में अपने वंशजों के घर धरती पर आते हैं। यह १६ दिनों की अवधि उनके श्राद्ध और तर्पण को स्वीकार करने के लिए निर्धारित होती है । इन दिनों में, उनके प्रति श्रद्धापूर्वक किए गए कर्मों से वे तृप्त होकर अपने वंशजों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं, जिससे जीवन की बाधाएँ दूर होती हैं और परिवार में सुख-समृद्धि आती है । यदि श्राद्ध नहीं किया जाता है, तो माना जाता है कि पितर अतृप्त रह जाते हैं और वंशजों को श्राप देकर वापस चले जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप जीवन में विभिन्न प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं ।
पितृपक्ष का पर्व केवल एक वार्षिक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह एक गहरा सामाजिक और आध्यात्मिक दर्शन प्रस्तुत करता है। यह हमें यह सिखाता है कि जीवन केवल वर्तमान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूर्वजों द्वारा स्थापित नींव पर टिका हुआ है। श्राद्ध कर्म और तर्पण का विधि-विधान पितृ ऋण को चुकाने का एक माध्यम है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर कर सकता है और सुख-समृद्धि प्राप्त कर सकता है । धर्मशास्त्रों में श्राद्ध न करने से होने वाले पितृ दोष का उल्लेख इसी कार्य-कारण सिद्धांत पर आधारित है, जहाँ अतृप्त आत्माएँ वंशजों के जीवन में कष्टों का कारण बन सकती हैं ।
यह पर्व व्यक्तिगत मोक्ष की यात्रा में परिवार और वंश के महत्व को भी रेखांकित करता है। यह पारिवारिक बंधनों को मजबूत करता है और दान व सामाजिक सेवा के माध्यम से व्यक्ति को व्यापक समाज से जोड़ता है । लोक कथाएँ, जैसे जोगे और भोगे की कहानी, यह दर्शाती हैं कि पितर धन-संपत्ति या आडंबर से नहीं, बल्कि सच्ची भावना और श्रद्धा से प्रसन्न होते हैं ।
अतः, पितृपक्ष एक ऐसा पर्व है जो हमें कृतज्ञता, स्मरण और कर्तव्य का पाठ पढ़ाता है। यह बताता है कि हमारे पूर्वजों का सम्मान करना हमारे अपने और आने वाली पीढ़ियों के लिए कितना आवश्यक है, क्योंकि उनकी मेहनत और संस्कार ही हमारी आज की पहचान का आधार हैं । यह श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म ही हमारी जीवन की हर रुकावट को दूर कर सकता है और परिवार में शांति और सद्भाव ला सकता है।
पितृ ऋण की संकल्पना
हिन्दू धर्मशास्त्रों में व्यक्ति के जीवन पर तीन प्रकार के ऋणों का उल्लेख किया गया है: देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। देव ऋण देवताओं के प्रति कृतज्ञता है, जो यज्ञ और पूजा-पाठ से चुकाया जाता है। ऋषि ऋण गुरुओं के प्रति सम्मान और उनके ज्ञान को आगे बढ़ाकर चुकाया जाता है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण पितृ ऋण है, जो हमारे पूर्वजों और माता-पिता के प्रति होता है । हमारे जीवन, पालन-पोषण, शिक्षा और संस्कारों का आधार हमारे पितर ही होते हैं। उन्होंने हमें एक वंश परंपरा से जोड़ा है। इस अमूल्य योगदान के कारण हम उनके ऋणी होते हैं। पितृ पक्ष इस ऋण को श्रद्धापूर्वक चुकाने का एक अद्वितीय अवसर है, जहाँ वंशज अपने पूर्वजों को भोजन, जल, और सम्मान अर्पित कर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।
श्राद्ध का शाब्दिक अर्थ ही ‘श्रद्धा से किया गया कर्म’ है । यह इस बात पर बल देता है कि कर्मकांड की भव्यता से अधिक उसमें निहित भावना और श्रद्धा महत्वपूर्ण है। शास्त्रों में यहाँ तक कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति आर्थिक रूप से असमर्थ है और श्राद्ध कर्म करने में असमर्थ है, तो वह केवल जल में तिल मिलाकर तर्पण कर सकता है, या गौओं को घास अर्पित कर सकता है । यह दर्शन इस बात का प्रमाण है कि पितरों की संतुष्टि का आधार धन-संपत्ति नहीं, बल्कि वंशजों के हृदय में बसी सच्ची श्रद्धा और सम्मान की भावना है।
पितृपक्ष में आचरण: नियम और वर्जनाएँ (क्या करें और क्या न करें)
पितृपक्ष की अवधि एक विशेष आध्यात्मिक अनुशासन और संयम की मांग करती है। इस दौरान किए गए कार्य और टाले गए कर्म पितरों को प्रसन्न या अप्रसन्न कर सकते हैं। यह पर्व न केवल बाहरी अनुष्ठानों, बल्कि आंतरिक शुद्धता और सात्विक आचरण पर भी केंद्रित है।
पितृपक्ष के दौरान क्या करना चाहिए
- सात्विक जीवनशैली: पितृपक्ष के दौरान सात्विक जीवनशैली अपनाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसका अर्थ है ब्रह्मचर्य का पालन करना और मन को शांत व शुद्ध रखना ।
- तर्पण और दान: पितरों को जल और काले तिल अर्पित करना (तर्पण) प्रमुख कर्म है। इसके साथ ही ब्राह्मणों, गरीबों और जरूरतमंदों को भोजन कराना और उन्हें दान देना पुण्यकारी माना गया है । ब्राह्मणों को दिए गए दान का फल सीधे पितरों को मिलता है । दान में अन्न, वस्त्र, जूते और अन्य उपयोगी वस्तुएँ दी जा सकती हैं । गायों को हरा चारा और कुत्तों-कौवों को भोजन कराने से भी पितर प्रसन्न होते हैं ।
- आध्यात्मिक कर्म: इस अवधि में धार्मिक ग्रंथों जैसे गीता, गरुड़ पुराण और विष्णु सहस्रनाम का पाठ करना अत्यंत शुभ माना गया है । गायत्री मंत्र का जाप भी मन को शांति प्रदान करता है ।
- दक्षिणमुखी क्रियाएँ: पितरों के निमित्त कोई भी कार्य दक्षिण दिशा की ओर मुख करके करने का विधान है, क्योंकि यह पितरों की दिशा मानी जाती है। पितरों के लिए दक्षिण दिशा में दीपक जलाना भी शुभ माना गया है ।
पितृपक्ष के दौरान क्या नहीं करना चाहिए
- वर्जित भोजन: पितृपक्ष में तामसिक भोजन, विशेष रूप से मांस-मदिरा, लहसुन और प्याज का सेवन पूरी तरह से निषेध है। ऐसे भोजन से पितरों की आत्मा को दुख पहुँच सकता है ।
- शुभ और मांगलिक कार्य: यह अवधि शोक और स्मरण की होती है, इसलिए इस दौरान कोई भी शुभ या मांगलिक कार्य जैसे विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश या नई वस्तु की खरीददारी नहीं करनी चाहिए । हालाँकि, कुछ विद्वानों का मानना है कि पितरों का आगमन ही शुभ होता है, और शुभ कार्यों के आरंभ में किए जाने वाले ‘नान्दी मुख श्राद्ध’ की परंपरा भी यही दर्शाती है । यह विरोधाभास संभवतः इस पर्व के प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण और क्षेत्रीय मान्यताओं पर निर्भर करता है।
- व्यक्तिगत वर्जनाएँ: श्राद्ध पक्ष में दाढ़ी, बाल या नाखून नहीं कटवाने चाहिए ।
- नकारात्मक आचरण: किसी पर क्रोध करने, झूठ बोलने, चोरी करने या किसी जीव को कष्ट पहुँचाने से बचना चाहिए। ऐसे पाप कर्म करने से पितर नाराज़ हो सकते हैं और श्राद्ध-तर्पण को अस्वीकार कर सकते हैं ।
यह ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि पितृपक्ष में मंदिर जाना वर्जित नहीं है; आप हमेशा की तरह अपने आराध्य की पूजा-अर्चना कर सकते हैं ।
सारणी: पितृपक्ष के नियम: क्या करें और क्या नहीं
| क्या करें | क्या न करें |
| तर्पण और पिंडदान करें | तामसिक भोजन, मांस-मदिरा, लहसुन-प्याज का सेवन न करें |
| ब्राह्मणों, गरीबों और पशुओं को भोजन कराएँ | कोई शुभ या मांगलिक कार्य न करें |
| दान करें (अन्न, वस्त्र, दक्षिणा) | दाढ़ी-बाल न कटवाएँ |
| गायत्री मंत्र और धार्मिक ग्रंथों का पाठ करें | किसी पर क्रोध न करें, झूठ न बोलें, जीव हत्या न करें |
| दक्षिण दिशा की ओर मुख करके दीपक जलाएँ | लोहे के बर्तनों का प्रयोग न करें |
श्राद्ध और तर्पण का विस्तृत पूजन विधान: एक चरण-दर-चरण मार्गदर्शिका
श्राद्ध और तर्पण एक विस्तृत पूजन विधि है, जिसमें हर क्रिया का एक विशिष्ट उद्देश्य और प्रतीकात्मक अर्थ होता है। इस प्रक्रिया को सही ढंग से करने के लिए निम्नलिखित चरणों का पालन करें:
चरण 1: पूजन की तैयारी
- स्थान और समय: श्राद्ध कर्म करने के लिए दोपहर का समय सबसे उत्तम माना गया है । यह किसी पवित्र नदी के तट पर या घर के आंगन में किया जा सकता है ।
- पवित्रता: सबसे पहले पवित्र स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करें । इसके बाद, अनामिका उँगली में कुश की अंगूठी (पवित्री) पहनें ।
- दिशा: पूजन के लिए हमेशा दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बैठें, क्योंकि यह पितरों की दिशा मानी जाती है ।
- सामग्री: पूजन से पहले आवश्यक सामग्री, जैसे कुश, काले तिल, जौ, चावल, गाय का दूध, घी, तांबे का पात्र, फूल (सफेद), दीपक और अगरबत्ती एकत्रित कर लें ।
चरण 2: संकल्प और पवित्रीकरण
- आचमन और पवित्रीकरण: कुश के आसन पर बैठकर तीन बार आचमन करें और अपने आप पर जल छिड़ककर स्वयं को पवित्र करें ।
- संकल्प: इसके बाद, हाथ में जल, सुपारी, सिक्का और फूल लेकर अपना नाम और गोत्र बोलते हुए संकल्प लें । संकल्प का मंत्र है:
अथ् श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थ देवर्षिमनुष्यपितृतर्पणम करिष्ये।
चरण 3: पितरों का आह्वान और तर्पण
- आह्वान: पितरों को पृथ्वी पर आमंत्रित करने के लिए इस मंत्र का उच्चारण करें:
ॐ आगच्छन्तु मे पितर एवं गृह्णन्तु जलान्जलिम्। - तर्पण: तर्पण के लिए एक तांबे के पात्र में पवित्र जल, काले तिल और थोड़ा कच्चा दूध मिलाएँ । दक्षिण दिशा की ओर मुख करके, अपने सीधे हाथ के अंगूठे और तर्जनी उँगली के बीच से जल को प्रवाहित करें । शास्त्रों में अंगूठे को ‘पितृ तीर्थ’ कहा गया है। यह माना जाता है कि इस विशिष्ट मुद्रा से जल अर्पित करने पर पितरों को सीधे तृप्ति मिलती है ।
- पिता के लिए:
अस्मत्पिता (पिता) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। - दादा के लिए:
अस्मत्पितामह (दादा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो रुद्ररूपस्तृप्यताम्। - परदादा के लिए:
अस्मत्प्रपितामहः (परदादा) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। - माता के लिए:
अस्मन्माता (माता) अमुकी देवी दा अमुक सगोत्रा गायत्रीरूपा तृप्यताम्। - सामान्य मंत्र:
ॐ पितृभ्यः स्वधा नमःऔरॐ सर्वपितृभ्यः स्वधा नमःका जाप भी करें, जिससे सभी पितरों की कृपा प्राप्त होती है ।
- पिता के लिए:
चरण 4: पिंडदान और पंचबलि
- पिंडदान: श्राद्ध के लिए तैयार किए गए भोजन (आमतौर पर चावल और जौ) से छोटे-छोटे पिंड बनाएँ और उन्हें पितरों को अर्पित करें । पिंड दान पितरों को भोजन और संतुष्टि देने का एक प्रतीकात्मक तरीका है ।
- पंचबलि: ब्राह्मणों को भोजन कराने से पहले पाँच बलि निकालना अनिवार्य है । ये पाँच बलि देवता, गाय, कुत्ता, कौआ और चींटी के लिए होती हैं । इन जीवों को भोजन कराने के बाद ही मुख्य श्राद्ध कर्म आगे बढ़ता है।
चरण 5: ब्राह्मण भोजन और दान
- ब्राह्मण भोजन: अंत में, ब्राह्मणों को आदरपूर्वक घर पर आमंत्रित कर, उनके पैर धोकर भोजन कराएँ ।
- दान: भोजन के बाद उन्हें दक्षिणा, वस्त्र, अनाज, तिल, स्वर्ण, घी, गुड़, चांदी या फिर नमक का दान देना चाहिए । यह माना जाता है कि ब्राह्मणों को दिया गया दान सीधे पितरों तक पहुँचता है ।
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