आश्विन मास में आने वाला श्राद्ध पक्ष, जिसे पितृ पक्ष या महालया पक्ष भी कहा जाता है, हमारे दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त करने का एक महापर्व है । यह 16 दिनों की एक विशेष अवधि है जो भाद्रपद की पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन अमावस्या तक चलती है । ‘श्राद्ध’ शब्द संस्कृत के ‘श्रद्धा’ से बना है, जिसका अर्थ है ‘श्रद्धापूर्वक किया गया कार्य’ । यह एक ऐसा धार्मिक अनुष्ठान है जो केवल कर्मकांड तक सीमित नहीं है, बल्कि पितरों की आत्मा की शांति और उनकी तृप्ति के लिए किया जाता है । इस दौरान किया गया हर एक कर्म हमारे पूर्वजों के प्रति हमारे सम्मान, प्रेम और ऋण को चुकाने का एक माध्यम होता है ।
सनातन धर्म में ‘पितर’ उन पूर्वजों को कहा जाता है जिनकी मृत्यु हो चुकी है और जो पितृलोक में निवास करते हैं। शास्त्रों के अनुसार, श्राद्ध पक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के और तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों को ‘पितर’ की श्रेणी में रखा गया है । यह मान्यता है कि इस विशेष काल में पितर सूक्ष्म रूप में अपने वंशजों के घर आते हैं और वे यह देखते हैं कि उनकी संतानें किस स्थिति में हैं । वे अपने वंशजों द्वारा किए गए तर्पण और पिंडदान को स्वीकार करने के लिए पृथ्वी पर आते हैं और उन्हें सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं ।
1. धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व
श्राद्ध पक्ष का महत्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि इसमें गहन वैज्ञानिक और ऊर्जागत पहलू भी निहित हैं । धार्मिक दृष्टि से, यह एक ऐसा पर्व है जो पितृ ऋण चुकाने का अवसर प्रदान करता है। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि इस दौरान किए गए श्राद्ध कर्म से पूर्वजों को मोक्ष प्राप्त होता है और वे अपने वंशजों को लंबी आयु, स्वास्थ्य, सुख-समृद्धि और धन-धान्य का आशीर्वाद देते हैं ।
इसके वैज्ञानिक पहलू पर विचार किया जाए तो ज्योतिष के जानकार बताते हैं कि पितृ पक्ष के दौरान पृथ्वी सूर्यमंडल के निकट आ जाती है। यह खगोलीय स्थिति एक ऊर्जात्मक संबंध स्थापित करती है, जिससे श्राद्धकर्ता द्वारा श्रद्धापूर्वक अर्पित किए गए तर्पण और भोजन सीधे सूर्यमंडल के माध्यम से पितरों तक पहुँचते हैं । यह एक महत्वपूर्ण दार्शनिक अवधारणा का प्रतीक है। यह कर्मकांड और खगोलीय गति का एक अनूठा संगम है, जहाँ हमारी श्रद्धा ऊर्जा के रूप में ब्रह्मांडीय शक्तियों के साथ मिलकर कार्य करती है। इस तरह, यह पर्व केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एक समग्र अनुष्ठान है जो आध्यात्मिक और भौतिक जगत के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह पितरों के तृप्त होने पर न केवल उनकी आत्मा को शांति देता है, बल्कि हमारे आसपास की वायु और वातावरण को भी शुद्ध और सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है ।
2. पौराणिक संदर्भ: श्राद्ध का ऐतिहासिक आधार
श्राद्ध पक्ष की परंपरा को समझने के लिए, दो प्रमुख पौराणिक कथाएं विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं जो इस पर्व के मूल सार को स्पष्ट करती हैं।
2.1 कर्ण और इंद्र की कथा
महाभारत के महायोद्धा कर्ण की एक प्रसिद्ध कथा इस पर्व के महत्व को बताती है । कर्ण की मृत्यु के बाद जब उनकी आत्मा स्वर्ग पहुंची, तो उन्हें भोजन के बजाय ढेर सारा सोना और आभूषण प्रदान किए गए। भूखे कर्ण ने जब इसका कारण पूछा तो देवराज इंद्र ने उन्हें बताया कि उन्होंने अपने जीवनकाल में केवल सोने का ही दान किया, लेकिन अपने पूर्वजों को कभी भोजन नहीं दिया। कर्ण ने अपनी अनभिज्ञता व्यक्त की कि उन्हें अपने पूर्वजों के बारे में जानकारी नहीं थी, इस कारण वे उन्हें कुछ भी दान नहीं कर सके । कर्ण की इस दुविधा को समझते हुए, इंद्र ने उन्हें अपनी गलती सुधारने का मौका दिया। कर्ण को 16 दिनों के लिए वापस पृथ्वी पर भेजा गया, जहाँ उन्होंने अपने पूर्वजों को याद करते हुए उनका श्राद्ध किया और उन्हें भोजन दान किया । इन्हीं 16 दिनों की अवधि को ‘पितृ पक्ष’ कहा गया। इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि जीवन में धन-संपत्ति का दान तो पुण्यकारी है, लेकिन पूर्वजों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना और उन्हें भोजन रूपी श्रद्धा अर्पित करना उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है।
2.2 जोगे और भोगे की कथा
एक अन्य कथा धन और सच्ची श्रद्धा के बीच के अंतर को स्पष्ट करती है । जोगे और भोगे दो भाई थे। जोगे धनी था, जबकि भोगे निर्धन। पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे श्राद्ध करने के लिए कहा, लेकिन वह इसे एक बेकार का काम समझकर टालने लगा । दूसरी ओर, निर्धन भोगे की पत्नी ने अपने पास कुछ न होते हुए भी, सच्ची श्रद्धा से पितरों के नाम पर ‘अगियारी’ (अग्नि में भोजन का अंश) दे दी। दोपहर के समय जब पितर पृथ्वी पर उतरे, तो वे पहले धनी जोगे के घर गए । उन्होंने देखा कि वहाँ स्वादिष्ट पकवान तो बने थे, लेकिन जोगे के ससुराल वाले पहले से ही भोजन कर रहे थे। इस कर्मकांड में श्रद्धा का अभाव था। अंत में वे भोगे के घर गए जहाँ उन्होंने अगियारी की राख को चाटकर ही स्वयं को तृप्त कर लिया । यह कथा इस बात को स्थापित करती है कि श्राद्ध कर्म की सफलता भौतिक वस्तुओं की बहुतायत पर नहीं, बल्कि उस पवित्र भावना और सच्ची श्रद्धा पर निर्भर करती है जिसके साथ वह कर्म किया जाता है। एक भव्य अनुष्ठान भी बिना श्रद्धा के व्यर्थ हो सकता है, जबकि एक छोटा सा कर्म भी पवित्र भावना के साथ किया जाए तो पितरों को परम शांति दे सकता है। ये दोनों कथाएं हमें सिखाती हैं कि हमारा आचरण, नैतिकता और कृतज्ञता की भावना हमारे कर्मकांड से अधिक मूल्यवान है।
3. श्राद्ध पक्ष में क्या करें (करणीय कार्य)
श्राद्ध पक्ष के दौरान कुछ विशेष कर्मकांड और नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक माना गया है।
3.1 श्राद्ध कर्म का विधान
- तिथि का चुनाव: मृत पूर्वज का श्राद्ध उसी तिथि पर किया जाता है, जिस तिथि पर उनका निधन हुआ हो। यदि किसी कारणवश तिथि की जानकारी न हो, तो सर्वपितृ अमावस्या के दिन श्राद्ध करना सबसे शुभ माना जाता है, क्योंकि इस दिन सभी ज्ञात और अज्ञात पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है ।
- मुख्य क्रियाएं: श्राद्ध कर्म में प्रमुख रूप से तर्पण (जल अर्पण), पिंडदान (पिंड का दान), ब्राह्मण भोजन, और दान-दक्षिणा शामिल होते हैं ।
3.2 तर्पण विधि: पितरों को जल अर्पण
- क्या होता है तर्पण: श्राद्ध के समय गंगाजल में दूध, काले तिल और कुशा मिलाकर पितरों के निमित्त अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं ।
- सही विधि: तर्पण के लिए किसी पवित्र नदी के घाट पर दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बैठें। अपने पितरों का नाम और गोत्र का उच्चारण करते हुए अपने दाहिने हाथ से दूध, तिल और कुशा मिश्रित गंगाजल को धीरे-धीरे एक बर्तन में गिराएं ।
- हस्त मुद्रा का महत्व: तर्पण करते समय हाथ की एक विशिष्ट मुद्रा का प्रयोग किया जाता है। हथेली पर अंगूठे और तर्जनी अंगुली के बीच का हिस्सा ‘पितृ तीर्थ’ कहलाता है । इसी स्थान से जल को अर्पित करना चाहिए, क्योंकि यह माना जाता है कि यहाँ से चढ़ाया गया जल सीधे पितरों तक पहुँचता है । यह मुद्रा देवताओं को अर्पण करने वाली ‘देव तीर्थ’ (अंगुलियों के अग्र भाग) और ऋषियों को अर्पण करने वाली ‘ऋषि तीर्थ’ (कनिष्ठा अंगुली के नीचे का स्थान) से भिन्न होती है ।
3.3 पिंडदान विधि: सामग्री और अर्थ
- क्या होता है पिंडदान: कुछ शास्त्रों के अनुसार, श्राद्ध कर्म में ‘पिंड’ का अर्थ ‘शरीर’ होता है । पिंडदान के लिए पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके पिंड बनाए जाते हैं। इन पिंडों को अर्पित करने से पितरों के नए शरीर के निर्माण में सहायता मिलती है और उन्हें अपने आने वाले जीवन की शुभेच्छा के लिए आशीर्वाद प्राप्त होता है ।
- पिंडों का विधान: शास्त्रों में कुल बारह पिंडों का विधान है, जो देवताओं, ऋषियों, यम, पितरों और उन आत्माओं के लिए भी निकाले जाते हैं जिनका कोई वंशज नहीं होता ।
- महत्वपूर्ण मंत्र: पिंडों पर दूध, दही और शहद चढ़ाकर पितरों की तृप्ति के लिए प्रार्थना की जाती है और मंत्र का जाप किया जाता है। एक प्रमुख मंत्र है: “ॐ पयः पृथ्वियां पय ओषधीय, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम” ।
3.4 ब्राह्मण भोजन का महत्व
श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन को सबसे श्रेष्ठ और फलदायी कर्म माना गया है । यह माना जाता है कि ब्राह्मणों के तृप्त होने पर उनका आशीर्वाद सीधे पितरों तक पहुँचता है और उनकी आत्मा को शांति मिलती है । जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके पितर भोजन स्वीकार नहीं करते और शाप देकर लौट जाते हैं । इसलिए, श्राद्ध कर्म में ब्राह्मण की उपस्थिति आवश्यक है। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि भोजन ऐसे ब्राह्मणों को कराएं जो किसी अन्य श्राद्ध का भोजन न करते हों ।
3.5 भोजन के नियम और सामग्री
- सात्विक भोजन: श्राद्ध का भोजन पूर्णतः सात्विक होना चाहिए । इसमें लहसुन, प्याज, बैंगन, मशरूम और बासी अन्न का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
- आवश्यक व्यंजन: श्राद्ध के भोजन में कुछ विशेष व्यंजन अनिवार्य रूप से परोसने चाहिए ।
- खीर: गाय के दूध से बनी खीर पितरों को सबसे अधिक प्रिय मानी जाती है । भैंस के दूध से बनी खीर वर्जित है, क्योंकि भैंस को यमराज का वाहन माना गया है ।
- तोरई और उड़द की दाल: ये व्यंजन भी श्राद्ध के लिए विशेष रूप से शुभ माने गए हैं और इन्हें अर्पित करने से पितरों को शांति मिलती है ।
- परोसने की विधि: भोजन परोसने के लिए पीतल, कांसा, चांदी या पत्तल का प्रयोग करें । भोजन और जल दोनों हाथों से अर्पित करें और ब्राह्मणों का मुख दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिए ।
3.6 पंचबलि विधान: पंचभूतों को आहार
श्राद्ध कर्म में ब्राह्मणों को भोजन कराने से पहले पंचबलि का विधान होता है। इसमें पाँच अलग-अलग जीवों के लिए भोजन का अंश निकाला जाता है ।
- पंचबलि के घटक:
- कौआ: कौए को यम का अंश और पितरों का वाहक माना जाता है । यह श्राद्ध में पितरों की याद दिलाता है।
- कुत्ता: कुत्ता भैरव जी की सवारी है और यम का पशु भी । कुत्ते को भोजन देने से पितरों की सुरक्षा का भाव निहित है।
- गाय: गाय में सभी देवताओं का वास माना जाता है । गौग्रास देने से पितर तृप्त होते हैं।
- चींटी: चींटियों और देवताओं के लिए भी भोजन का अंश निकाला जाता है, जिससे पंचबलि पूरी होती है ।
- पंचबलि का महत्व: यह विधान इस बात का प्रतीक है कि श्राद्ध कर्म केवल मनुष्य तक सीमित नहीं है, बल्कि समस्त प्रकृति के प्रति हमारे कर्तव्य को भी दर्शाता है।
3.7 वृक्षारोपण और अन्य दान
- वृक्षारोपण: शास्त्रों के अनुसार, पितरों की आत्माएं पेड़-पौधों में वास करती हैं । पितृ पक्ष में पीपल, बरगद, तुलसी, शमी, आम और अशोक जैसे वृक्ष लगाने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है । यह पितृ दोष को भी दूर करता है और वंश की समृद्धि का कारक बनता है।
- काले तिल का दान: काले तिल का प्रयोग तर्पण में विशेष रूप से किया जाता है। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि काले तिल भगवान श्रीकृष्ण के पसीने से निकले हैं । काले तिल का दान 32 सेर सोने के दान के बराबर माना गया है ।
तालिका 1: श्राद्ध पक्ष के लिए आवश्यक सामग्री और क्रियाएं
| क्रिया | आवश्यक सामग्री | महत्व |
| तर्पण | गंगाजल, जौ, काले तिल, कुशा, दूध | पितरों को जल अर्पित करना, पितृ तीर्थ मुद्रा का प्रयोग |
| पिंडदान | पके हुए चावल, दूध, तिल, शहद, दही | पितरों के लिए शरीर का निर्माण और आशीर्वाद प्राप्ति |
| ब्राह्मण भोजन | गाय के दूध से बनी खीर, तोरई, उड़द की दाल, सात्विक भोजन | ब्राह्मणों के माध्यम से पितरों को भोजन की प्राप्ति |
| पंचबलि | श्राद्ध का भोजन | कौए, श्वान, गाय, चींटियों और देवताओं को भोजन का अंश |
| वृक्षारोपण | पीपल, बरगद, तुलसी, शमी, अशोक के पौधे | पितरों की आत्मा को शांति और पितृ दोष से मुक्ति |
| अन्य दान | काले तिल, वस्त्र, अनाज, दक्षिणा | पितरों की प्रसन्नता और सभी देवताओं का आशीर्वाद |
4. श्राद्ध पक्ष में क्या न करें (वर्जित कार्य)
श्राद्ध पक्ष में कुछ विशेष नियमों का पालन करना और कुछ कार्यों से बचना अत्यंत आवश्यक है। इनका उल्लंघन करने से श्राद्ध की पवित्रता भंग होती है।
4.1 तामसिक भोजन और व्यसन
- वर्जित: इस पवित्र काल में मांस, मछली, अंडे जैसे तामसिक आहार का सेवन निषिद्ध माना गया है । इसके अतिरिक्त, लहसुन, प्याज का सेवन भी वर्जित है, क्योंकि इन्हें पूजा-पाठ में अशुद्ध माना जाता है
- नशे से दूरी: शराब, सिगरेट, बीड़ी, तंबाकू और किसी भी अन्य नशीले पदार्थ का सेवन इस दौरान महापाप माना गया है। नशा करने से श्राद्ध कर्म की पवित्रता भंग होती है और पितरों की कृपा नहीं मिलती है।
4.2 वर्जित सब्जियां और दालें
- वर्जित: श्राद्ध के भोजन में जमीन के नीचे उगने वाली सब्जियां जैसे आलू, मूली, गाजर, शलजम और अरबी का प्रयोग नहीं किया जाता है । उड़द और मसूर की दाल के साथ-साथ अधिक मसालेदार और बासी भोजन भी वर्जित है ।
- कारण: इन सब्जियों को तामसिक प्रवृत्ति का माना गया है और इनका सेवन पितृ दोष का कारण बन सकता है ।
4.3 शुभ एवं मांगलिक कार्य
श्राद्ध पक्ष को लेकर एक आम धारणा है कि यह अशुभ काल है, इसलिए इस दौरान विवाह, गृह प्रवेश, मुंडन जैसे शुभ कार्य और नई खरीदारी नहीं करनी चाहिए । हालाँकि, इस धारणा के पीछे का मूल कारण शास्त्रीय नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक है ।
- वास्तविक कारण: श्राद्ध पक्ष का संबंध मृत्यु से नहीं, बल्कि पितरों के स्मरण से है । इसलिए, इसे ‘शोककाल’ की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। मांगलिक कार्यों में धूम-धड़ाका और उत्सव होता है, जिसकी प्रकृति इस काल की गंभीरता और शांति के अनुरूप नहीं है ।
- नई खरीदारी: श्राद्ध पक्ष में खरीदारी अशुभ है ।
तालिका 2: श्राद्ध पक्ष में वर्जित कार्य एवं भोजन
| वर्जित कार्य | वर्जित भोजन और वस्तुएं | कारण |
| विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश आदि | मांस, मछली, अंडे, शराब, सिगरेट | इनकी उत्सवपूर्ण प्रकृति इस काल की गंभीरता के विपरीत है। |
| क्रोध, कटुता और व्यर्थ विवाद | लहसुन, प्याज, बासी भोजन | तामसिक प्रवृत्ति और कर्मकांड की पवित्रता को भंग करते हैं। |
| नई खरीदारी (आम धारणा) | आलू, मूली, गाजर, अरबी (जमीन के नीचे उगने वाली सब्जियाँ) | यह केवल एक सामाजिक धारणा है, शास्त्रीय नहीं। |
| उड़द और मसूर की दाल, अधिक मसालेदार भोजन | इन्हें तामसिक श्रेणी में रखा गया है। |
5. पितरों के प्रसन्न होने का फल: सुख-समृद्धि का आशीर्वाद
श्राद्ध पक्ष में श्रद्धापूर्वक किए गए कर्मों का फल अत्यंत सुखद और कल्याणकारी होता है। जब पितर प्रसन्न होते हैं, तो वे अपने वंशजों को विभिन्न प्रकार के आशीर्वाद प्रदान करते हैं।
- पितृ ऋण से मुक्ति: श्राद्ध कर्म से मिलने वाला सबसे महत्वपूर्ण लाभ पितृ ऋण से मुक्ति है । यह ऋण चुकाने से जीवन में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं और व्यक्ति को आध्यात्मिक और भौतिक सुख की प्राप्ति होती है।
- आयु, संतान और सुख-सौभाग्य की प्राप्ति: गरुड़ पुराण में कहा गया है कि पितरों की पूजा से व्यक्ति को लंबी आयु, पुत्र, यश, कीर्ति, स्वर्ग, पुष्टि, बल, श्री, सुख-सौभाग्य और धन-धान्य की प्राप्ति होती है । जो कुल श्राद्ध कर्म करता है, उसमें दीर्घायु और निरोग संतानें जन्म लेती हैं ।
- पारिवारिक सुख और शांति: पितरों के आशीर्वाद से घर में शांति का वास होता है और बिना वजह होने वाले लड़ाई-झगड़े और पारिवारिक कलह समाप्त होते हैं । यह घर को सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है ।
- रुके हुए कार्यों में सफलता: पितरों के आशीर्वाद से जीवन में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं और व्यक्ति के रुके हुए कार्य बिना किसी रुकावट के पूर्ण होते हैं । उन्हें अपने व्यवसाय में सफलता और धन की प्राप्ति होती है ।
6. पितरों के अप्रसन्न होने के परिणाम: पितृ दोष और उसके लक्षण
यदि किसी कारणवश श्राद्ध कर्म का सही ढंग से पालन नहीं किया जाता या पितरों की उपेक्षा की जाती है, तो पितर अप्रसन्न होकर लौट जाते हैं, जिससे ‘पितृ दोष’ निर्मित होता है । यह दोष व्यक्ति के जीवन में कई तरह की समस्याएं और कष्ट उत्पन्न करता है ।
- पितृ दोष के लक्षण: पितृ दोष होने पर कई तरह के संकेत मिलते हैं :
- पारिवारिक कलह: परिवार के सदस्यों के बीच बिना किसी कारण के लड़ाई-झगड़े होते रहते हैं ।
- आर्थिक समस्या: व्यापार में लगातार घाटा होना, धन की हानि या आय में रुकावट आना ।
- संतान संबंधी परेशानी: संतान प्राप्ति में बाधा आना या बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर निरंतर चिंता बनी रहना ।
- स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतें: घर में कोई न कोई व्यक्ति हमेशा बीमार बना रहता है ।
- अशुभ संकेत: घर में अचानक से पीपल का पौधा उगना भी पितृ दोष का एक संकेत माना जाता है ।
- अन्य बाधाएं: विवाह में बाधा, दुर्घटनाओं में वृद्धि, और शुभ कार्यों में देरी या असफलता ।
- पितृ दोष के निवारण के उपाय: पितृ दोष से मुक्ति पाने के लिए कुछ प्रभावी उपाय किए जा सकते हैं :
- श्राद्ध और तर्पण: सही विधि से श्राद्ध और तर्पण करना पितृ दोष से मुक्ति का सबसे मूल उपाय है ।
- शिव जी की पूजा: प्रतिदिन जल में काले तिल मिलाकर भगवान शिव का अभिषेक करना चाहिए ।
- मंत्र जप: 21 सोमवार तक गायत्री मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र का जप करना बहुत लाभकारी माना जाता है । इसके अलावा पितरों के लिए विशेष मंत्रों का जप भी करना चाहिए।
- दक्षिण दिशा में दीपक: दक्षिण दिशा को पितरों की दिशा माना जाता है । इस दिशा में रोज सरसों के तेल का दीपक जलाकर पितरों का स्मरण करना चाहिए।
- पीपल के पेड़ की पूजा: पीपल के पेड़ में पितरों का वास माना जाता है । दोपहर के समय पीपल में जल चढ़ाएं और सात बार परिक्रमा करें।
तालिका 3: पितृ दोष के लक्षण और निवारण के उपाय
| पितृ दोष के लक्षण | निवारण के उपाय |
| परिवार में कलह और दुर्घटनाएँ | सही विधि से श्राद्ध और तर्पण करें |
| व्यापार में लगातार घाटा | प्रतिदिन शिव जी का अभिषेक जल में काले तिल मिलाकर करें |
| विवाह में बाधा या संतान संबंधी समस्याएँ | 21 सोमवार तक गायत्री मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र का जप करें |
| घर में अचानक पीपल का पौधा उगना | दक्षिण दिशा में रोज सरसों के तेल का दीपक जलाएं |
| घर के सदस्यों का बार-बार बीमार पड़ना | पीपल के पेड़ में जल चढ़ाकर सात बार परिक्रमा करें |
7. श्रद्धा और विश्वास का सार
श्राद्ध पक्ष का सार यह है कि यह केवल मृत आत्माओं को भोजन पहुँचाने का एक कर्मकांड नहीं है। यह अपने मूल से जुड़ने, अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान व्यक्त करने और उन्हें कृतज्ञता के रूप में याद करने का एक अवसर है । इस पर्व का वास्तविक उद्देश्य हमारे अंदर आत्म-अनुशासन, संयम और पवित्रता की भावना को जागृत करना है।
श्राद्ध पक्ष में किया गया कोई भी कर्म, चाहे वह तर्पण हो, दान हो या भोजन, बिना सच्ची श्रद्धा के व्यर्थ है । कर्ण और जोगे-भोगे की कथाएं इसी बात को प्रमाणित करती हैं कि पितर भौतिक सुख-सुविधाओं से नहीं, बल्कि अपने वंशज की पवित्र भावना से तृप्त होते हैं। इस प्रकार, श्राद्ध पक्ष हमें एक बेहतर, अधिक संतुलित और कृतज्ञ जीवन जीने की प्रेरणा देता है, और यह हमें सिखाता है कि हमारे पूर्वजों का आशीर्वाद ही हमारे जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का सबसे बड़ा स्रोत है।
#श्राद्धपक्ष, #पितृपक्ष, #पितर, #श्राद्ध, #कर्णकथा, #पितृदोष, #तर्पण, #पिंडदान, #PitruPaksha, #Shraddh, #Ancestors, श्राद्ध पक्ष, पितृ पक्ष, पितर, श्राद्ध क्या करें, श्राद्ध क्या न करें, पितृ दोष, तर्पण, पिंडदान, कर्ण कथा, जोगे भोगे कथा, श्राद्ध का महत्व, पितरों का आशीर्वाद, पितृ दोष के उपाय
पितृ ऋण से मुक्ति के लिए श्राद्ध जरूरी, जाने- श्राद्ध पक्ष का महत्व
मृत्यु के बाद की यात्रा: पितृपक्ष में क्यों लौटती हैं आत्माएं?










