लखनऊ, 16 जून 2025। भारतीय केसरिया वाहिनी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोज श्रीवास्तव ने आज एक पत्रकार वार्ता में केंद्र सरकार से मांग की कि श्रीमद्भगवद्गीता को भारत की “राष्ट्रीय पुस्तक” (National Scripture) का दर्जा दिया जाए। उन्होंने कहा कि यह ग्रंथ “सभी धर्मों, समुदायों और संस्कृतियों के लोगों के लिए प्रेरणास्रोत है, क्योंकि यह जीवन के सार्वभौमिक सिद्धांतों को सिखाता है।”
“यदि गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित कर इसके अध्ययन को स्कूलों और कॉलेजों में अनिवार्य बना दिया जाए, तो नई पीढ़ी न केवल चरित्रवान बनेगी, बल्कि उसे जीवन के संकटों से जूझने की मानसिक शक्ति भी मिलेगी,” — मनोज श्रीवास्तव
📚 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
श्रीमद्भगवद्गीता का उद्गम महाभारत के भीष्म पर्व (अध्याय 23–40) में हुआ है, जिसे महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित माना जाता है। यह संवाद भगवान श्रीकृष्ण और पांडव योद्धा अर्जुन के बीच हुआ था, जो युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र में हुआ। इसमें 700 श्लोकों के माध्यम से कर्म, ज्ञान, भक्ति और आत्मा की अवधारणाओं को अत्यंत गूढ़ता से समझाया गया है।
🔍 वर्तमान में गीता की वैश्विक स्वीकार्यता
- 1950 से लेकर अब तक श्रीमद्भगवद्गीता का अनुवाद 75 से अधिक भाषाओं में हो चुका है।
- इस्राइल, अमेरिका, रूस, फ्रांस और जापान जैसे देशों में गीता को philosophy या spiritual ethics के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।
- 2014 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को गीता की प्रति भेंट करते हुए कहा था — “यह पुस्तक न केवल धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि मानवता के लिए जीवन दर्शन है।”
📊 जन समर्थन और अन्य मांगें
एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में 68% प्रतिभागियों ने गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने के पक्ष में मत दिया।
2015 में हरियाणा सरकार ने गीता को स्कूलों में अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाने की शुरुआत की थी, जिसका व्यापक समर्थन मिला।
📌 संविधान और धर्मनिरपेक्षता पर क्या प्रभाव?
विशेषज्ञ मानते हैं कि गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करना भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को प्रभावित नहीं करेगा, यदि इसे धार्मिक के बजाय आध्यात्मिक व नैतिक शिक्षण के रूप में प्रस्तुत किया जाए।
“गीता में धर्म के बजाय ‘धर्म का आचरण’ है — सत्य, कर्तव्य, साहस और आत्मनियंत्रण। ये सभी गुण धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के मूल सिद्धांतों से मेल खाते हैं,” — प्रो. रमेश तिवारी, प्राच्य विद्या विशेषज्ञ
🔚 निष्कर्ष
मनोज श्रीवास्तव का यह प्रस्ताव न केवल एक संगठनात्मक पहल है, बल्कि यह उस व्यापक विचारधारा को दर्शाता है जो भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की मांग कर रही है। श्रीमद्भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की मांग निश्चित रूप से राजनीतिक, शैक्षिक और सामाजिक विमर्श का एक नया केंद्र बन सकती है।