“भगवान शिव का भर्ग स्वरूप: तेज, ज्ञान और भयविनाश का दिव्य रहस्य”

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भगवान शिव, हिंदू धर्म के त्रिदेवों में से एक, संहार के देवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं, किंतु वे केवल विनाशक नहीं, बल्कि सृष्टि के पालक और रक्षक भी माने जाते हैं। उनके अनेक स्वरूप और अवतार हैं, जो उनकी विभिन्न लीलाओं, गुणों और ब्रह्मांडीय भूमिकाओं को दर्शाते हैं। शिव महापुराण जैसे प्रमुख धर्मग्रंथों में भगवान शिव के 19 से 24 अवतारों या अंशावतारों का विस्तृत वर्णन मिलता है, जिनमें गणों और प्रतिनिधियों का भी समावेश है । इन स्वरूपों में वीरभद्र (दक्ष यज्ञ का विध्वंसक), भैरव (काल के अधिपति), अश्वत्थामा (गुरु द्रोण के पुत्र के रूप में अंशावतार), शरभ (भगवान नृसिंह के क्रोध को शांत करने वाले), गृहपति और ऋषि दुर्वासा जैसे महत्वपूर्ण रूप शामिल हैं । यह विविधता शिव उपासना के व्यापक दायरे को दर्शाती है, जहाँ कुछ स्वरूप तंत्रमार्गी साधना से संबंधित हैं, जबकि कुछ दक्षिणमार्गी भक्ति परंपराओं से जुड़े हैं ।

यह समझना महत्वपूर्ण है कि भगवान शिव केवल एक पौराणिक व्यक्ति या देवता नहीं हैं, बल्कि वे एक मूलभूत तत्व हैं – इस ब्रह्मांड का सार, परम चेतना और परम सत्य। उनका स्वरूप निराकार है, जहाँ वाणी और मन की सामान्य पहुँच नहीं होती । यह उनके ब्रह्मांडीय अस्तित्व को रेखांकित करता है।

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प्रस्तुत रिपोर्ट ‘भगवान शिव के भर्ग अवतार’ से संबंधित जिज्ञासा का समाधान करती है। प्रारंभिक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ‘भर्ग’ शब्द भगवान शिव के एक विशिष्ट ‘अवतार’ (जैसे भगवान विष्णु के राम या कृष्ण अवतार) से अधिक उनके एक महत्वपूर्ण ‘स्वरूप’ या ‘गुण’ को इंगित करता है। यह एक महत्वपूर्ण प्रारंभिक स्पष्टीकरण है, क्योंकि यह ‘भर्ग’ की अवधारणा को अधिक सटीकता से प्रस्तुत करता है। यदि ‘भर्ग’ को केवल एक अवतार के रूप में प्रस्तुत किया जाता, तो यह जानकारी अधूरी और भ्रामक हो सकती थी। इसके ‘स्वरूप’ या ‘गुण’ होने की व्याख्या से भगवान शिव की व्यापकता और ‘भर्ग’ शब्द के गहरे आध्यात्मिक अर्थ को समझने में सहायता मिलती है, जिससे मूल जिज्ञासा का समाधान अधिक समग्रता से होता है। यह रिपोर्ट ‘भर्ग’ के वास्तविक अर्थ, धर्मशास्त्रों में इसके उल्लेख, संबंधित मंत्रों और उन्हें प्रसन्न करने की विधियों पर विस्तृत प्रकाश डालेगी, इस सूक्ष्म भेद को स्पष्ट करते हुए।

चंद्रावतंसो जटिलस्रिणेत्रोभस्मपाण्डरः ।

हृदयस्थः सदाभूयाद् भर्गों भयविनाशनः ।। ( शैवागम )

‘ चन्द्रभूषण, जटाधारी, त्रिनेत्र, भस्मोज्वल, भयनाशक भर्ग सदा हमारे हृदय में निवास करें। ‘ पाँचवें रुद्र भगवान् भर्ग को भयविनाशक कहा गया है। दुःख – पीड़ित संसार को शीघ्रातिशीघ्र दुःख और भय से मुक्त करने वाले केवल महादेव भगवान् भर्ग रुद्र ही हैं। भर्ग रुद्र ( तेज ) ज्ञानस्वरूप होने के कारण मुक्ति प्रदान करके भक्तों को भव ( संसार ) -सागर के भय से भी त्राण देते हैं। एक समय देवता और दैत्यों ने अमृत प्राप्त करनेके लिये समुद्र – मन्थन किया। समुद्र – मन्थन में सर्वप्रथम महोल्वण हलाहल नामक विष निकला। उस भयंकर विष की प्रचण्ड ज्वालासे तीनों लोकों के प्राणी त्राहि त्राहि कर उठे। सबके प्राणों पर आसन्न मृत्यु का संकट उपस्थित हो गया। भगवान् विष्णु भी इस विकराल भय से प्राणियों की रक्षा करने में असमर्थ रहे। अन्त में सभी देवता भगवान् विष्णु के साथ मिलकर भयविनाशक भगवान् भर्ग रुद्र की शरणमें गये। भगवान् भर्ग रुद्र उस समय कैलास पर अपनी अर्धाङ्गिनी पार्वती के साथ विराजमान थे। देवताओं ने साष्टाङ्ग प्रणाम करके उनसे कहा – ‘ हे महादेव ! समुद्रसे निकले हुए कालकूट विष की भयंकर ज्वाला से हम देवताओं सहित सृष्टि के समस्त प्राणी जलकर भस्म हो रहे हैं। समस्त प्राणियों को भय से करने वाले हे भर्ग रुद्र ! आप इस कालकूट के महान् भयसे हमारी शीघ्र इस प्रार्थना को सुनकर भगवान् भर्ग रुद्र पार्वतीजीसे बोले – ‘ प्रिये देखो, क्षीर – सागर से निकले इस कालकूट विषसे देवताओं सहित समस्त प्राणियों को कितना कष्ट हो रहा है । सभी अपने प्राणोंकी रक्षा के लिये अत्यन्त व्याकुल हैं। इनको अभय प्रदान करना हमारा परम कर्तव्य है। साधु पुरुष अपने प्राणों को क्षणभङ्गुर समझकर दूसरों की रक्षा के लिये अपना सर्वस्व अर्पण कर देते हैं। अत : इस भय से सृष्टि के प्राणियों को मुक्त करने के लिये मैं स्वयं इस कालकूट विष का पान करता हूँ। ‘ ऐसा कहकर करुणासागर भर्ग रुद्र दिशाऑ में व्याप्त उस हलाहल विष को हथेली पर रखकर पान कर गये और वह हलाहल विष रुद्र के कण्ठ में नीलवर्ण धारण कर भगवान् शंकर का भूषण हो गया। परोपकार के लिये समष्टि के कल्याणार्थ आत्मत्याग के कारण भगवान् रुद्र के इस पाँचवें स्वरूप का नाम भर्ग रुद्र है। विष की ज्वाला को शान्त करने के लिये उन्होंने समुद्र से निकले चन्द्रमा को मस्तक पर धारण किया। परोपकार के प्रतीक भगवान् भर्ग रुद्र की आधिभौतिक आकाश मूर्ति आकाशलिङ्गरूप में चिदम्बरम्में कावेरी नदी के तटपर स्थित है। यहाँ प्रधान मन्दिर में कोई मूर्ति नहीं है। एक – दूसरे मन्दिर में ताण्डव – नृत्यकारी चिदम्बरेश्वर नटराज की मनोरम मूर्ति विद्यमान है। चिदम्बरम का अर्थ है- चित् ज्ञान अम्बर आकाश, चिदाकाश। बगल में ही एक मन्दिर में शेषशायी विष्णु भगवान्के दर्शन होते हैं। शंकरजी के मन्दिर में सोने से मढ़ा हुआ एक बड़ा – सा दक्षिणावर्त शङ्ख रखा हुआ है, जो गजमुक्ता, नागमणि और एकमुखी रुद्राक्ष की भाँति अमूल्य और अलभ्य माना जाता है। मन्दिर में एक ओर एक परदा पड़ा रहता है। परदा उठाकर दर्शन करनेपर स्वर्णनिर्मित| कुछ मालाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यही भगवान् रुद्र का आकाशलिङ्ग है। वैसे भी भगवान् रुद्र का स्थान चिदाकाश कहा गया है।

भगवान् शिव का यतिनाथ और हंस नामक अवतार

अर्बुदाचल नामक पर्वत के समीप एक भील रहता था। उसका नाम आहुक था। उसकी पत्नी को लोग आहुका कहते थे। वह उत्तम व्रत का पालन करने वाली थी। वे दोनों पति – पत्नी महान् शिव भक्त थे। एक दिन वह भील अपनी पत्नी के लिये आहार की खोज में बहुत दूर चला गया। उसी समय सन्ध्याकाल में भील की परीक्षा करने के लिये भगवान् शंकर संन्यासी का रूप धारण करके उसके घर आये। इतने में वह भील भी अपने घर वापस आ गया। उसने बड़े ही प्रेम से यतिराज का पूजन किया । यतीश्वर ने भील की परीक्षा करने के लिये उससे कहा कि तुम आज की रात अपने यहाँ रहने के लिये मुझे स्थान दे दो। सबेरा होते ही चला जाऊँगा, तुम्हारा कल्याण हो भील बोला – ‘ स्वामीजी ! आप ठीक कहते हैं , यद्यपि मेरे घर में मात्र दो आदमियों के योग्य ही स्थान है। फिर उसमें आपका रहना कैसे हो सकता है। ‘ भील की बात सुनकर स्वामीजी जाने के लिये तैयार हो गये। तब भीलनी ने कहा – ‘ प्राणनाथ ! घर आये हुए अतिथि को वापस न लौटाइये अन्यथा हमारे गृहस्थ – धर्म की हानि होगी । आप स्वामीजी के साथ सुख पूर्वक घरके भीतर रहिये। मैं अस्त्र – शस्त्र लेकर बाहर खड़ी रहूँगी। ‘ पत्नी की बात सुनकर भील ने स्त्री को बाहर रखना उचित न समझकर स्वयं बाहर खड़े रहने का निर्णय लिया और स्वामी जी को घर के भीतर ठहराकर बाहर खड़ा होकर पहरा देने लगा। रात में हिंसक पशुओं ने उसे मारकर खा डाला। इस घटना को देखकर संन्यासी को बड़ा दुःख हुआ। संन्यासी को दुःखी देखकर भीलनी धैर्यपूर्वक बोली – ‘ स्वामीजी ! आप दुःख न करें। भीलराज ने अपने कर्तव्य का पालन करने में अपना बलिदान किया है। ये धन्य और कृतार्थ हो गये। मैं चिता की आग में जलकर इनका अनुसरण करूंगी। आप प्रसन्नतापूर्वक मेरे लिये एक चिता तैयार कर दें। ‘ संन्यासी ने उस भीलनी के लिये चिता की व्यवस्था कर दी। भीलनी ने अपने पातिव्रत्य धर्म के अनुसार उसमें प्रवेश किया। उसी समय भगवान् शंकर ने अपने वास्तविक स्वरूप में भीलनी के समक्ष प्रकट होकर उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उन्होंने उसके धर्म के प्रति दृढ़ता की प्रशंसा की और उसे वर दिया कि तुम्हारे भावी जन्म में मेरा हंस रूप प्रकट होगा। वह तुम दोनों पति – पत्नी का परस्पर संयोग करायेगा। तुम्हारा पति निषध देश की राजधानी में राजा वीरसेन का श्रेष्ठ पुत्र होगा। उस समय वह नल के नाम से विख्यात होगा और तुम विदर्भ नगर में भीमराज की पुत्री दमयन्ती नाम से जन्म लेगी। तुम दोनों उत्तम राजभोग भोगने के पश्चात् बड़े – बड़े योगीश्वरों के लिये दुर्लभ मेरे पवित्र शिवलोक में जाओगे।

ऐसा कहकर भगवान् शिव उस समय वहीं लिङ्ग रूप से स्थित हो गये। वह भील अपने धर्म से विचलित नहीं हुआ था, अत : उसी के नाम पर उस लिङ्ग का नाम अचलेश हुआ। दूसरे जन्म में वह भील निषध देश में वीरसेन का पुत्र होकर महाराज नल के नाम से विख्यात हुआ और उसकी पत्नी विदर्भ नगर के राजा भीम की पुत्री दमयन्ती हुई। यतिनाथ शिव उस समय हंस के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने दमयन्ती के साथ नलका विवाह कराया। पूर्वजन्म के सत्कारजनित पुण्य के प्रभाव से भगवान् शिवने हंस का रूप धारणकर उन दोनों का संदेश एक – दूसरे के पास पहुँचाकर उन्हें सुख प्रदान किया। इसके बाद वे दोनों पति – पत्नी शिवलोक को प्राप्त किये।

भर्ग स्वरूप का वास्तविक अर्थ और महत्व

‘भर्ग’ शब्द एक गहन आध्यात्मिक अवधारणा है जो भगवान शिव के बहुआयामी स्वरूप को दर्शाती है। इसकी व्युत्पत्ति और व्याख्या इसके गहरे अर्थ को समझने में सहायक है।

‘भर्ग’ शब्द की व्युत्पत्ति और आध्यात्मिक व्याख्या

‘भर्ग’ शब्द संस्कृत धातु ‘भृज्’ से व्युत्पन्न है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘भूनना’ या ‘नाश करना’ होता है। इस संदर्भ में, ‘भर्ग’ का अर्थ ‘पापों को भूंज देने वाला’ या ‘पापों का नाशक’ है । यह अज्ञान तथा समस्त पापों का निवारक माना जाता है । यह शिव की संहारक भूमिका को दर्शाता है, जहाँ संहार केवल भौतिक विनाश नहीं, बल्कि अज्ञान और पापों का नाश करके आंतरिक प्रकाश और कल्याण की स्थापना है। यह शिव के ‘मंगलमय’ और ‘कल्याणकारी’ गुणों का गहरा अर्थ प्रस्तुत करता है।

‘भर्ग’ के अन्य अर्थों में ‘तेज’, ‘प्रकाश’, ‘ज्ञान का भंडार’, ‘दिव्य दीप्ति’ और ‘ब्रिलियंस’ शामिल हैं । यह वह शक्ति है जो बुराइयों और अज्ञानान्धकार का नाश करती है और दिव्य ज्ञान प्रदान करती है । आंगिरस ऋषि के अनुसार, यह ‘भर्ग’ हृदयकाश में तथा बाहर सूर्य मण्डल में विद्यमान है और धुएं रहित अग्नि में अनेक प्रकार की तरंगों के सदृश विद्यमान रहता है । यह इसकी सर्वव्यापकता और सूक्ष्म प्रकृति को उजागर करता है। कठोपनिषद् में ‘भर्ग’ के प्रकाश स्वरूप का वर्णन मिलता है, जहाँ यह कहा गया है कि न वहां सूर्य प्रकाशित होता है, न चन्द्रमा, न तारागण, न विद्युत, क्योंकि समस्त प्रकाश उसी के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं । यह ‘भर्ग’ को परम प्रकाश के रूप में स्थापित करता है, जो सभी प्रकार के प्रकाश और ज्ञान का स्रोत है। शतपथ ब्राह्मण में ‘वीर्य वै भर्गः’ कहकर ‘भर्ग’ को वीर्य (शक्ति) के रूप में वर्णित किया गया है , जो इसकी आंतरिक शक्ति और सामर्थ्य को दर्शाता है। यह परम ज्योति स्वरूप, द्वैत रहित, आनंद स्वरूप, समस्त जगत का आधार है । व्यास ऋषि के अनुसार, यह ईश्वर, पुरुष नामक, सत्य धर्मवान, अविनाशी, विष्णु का तेज भी है , जो विभिन्न दिव्य शक्तियों के साथ इसके अंतर्संबंध को दर्शाता है।

भर्ग: एकादश रुद्रों में से एक स्वरूप

शास्त्रों के अनुसार, भगवान शिव के ग्यारह रुद्र रूपों में से ‘भर्ग’ पांचवां रूप है । रुद्र का शाब्दिक अर्थ ‘दुःखों को अंत करने वाला’ है । इस ‘भर्ग’ रूप में रुद्र अत्यंत तेजोमयी होते हैं और हर भय तथा पीड़ा का नाश करने वाले होते हैं । यह शिव के संहारक और कल्याणकारी दोनों पहलुओं को दर्शाता है। अन्य रुद्र रूपों में शंभु (ब्रह्म स्वरूप), पिनाकी (ज्ञान शक्ति), गिरीश (सुख और आनंद देने वाले), स्थाणु (समाधिस्थ), भव (ज्ञान बल, योग बल), सदाशिव (निराकार ब्रह्म का साकार रूप), हर (दुःखों को हरने वाले), शर्व (काल को काबू में रखने वाले) और कपाली (दक्ष का दंभ नष्ट करने वाले) भी वर्णित हैं ।

गायत्री मंत्र में ‘भर्ग’ का स्थान और परम चेतना से संबंध

गायत्री मंत्र में “भर्गो देवस्य धीमहि” पद आता है, जहाँ ‘भर्ग’ उस परम सत्ता के दिव्य तेज और प्रकाश को संदर्भित करता है । यह मंत्र का केंद्रीय बिंदु है, जो दिव्य प्रकाश के ध्यान का आह्वान करता है। गायत्री मंत्र तीनों देवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) का सार है, और श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने स्वयं को ‘गायत्री छन्दसामहम्’ (छंदों में गायत्री) कहा है । यह गायत्री मंत्र की सार्वभौमिकता और सर्वोच्चता को दर्शाता है। यह परमपिता परमेश्वर की ऊर्जा का स्रोत है, सृष्टि का रचयिता है, और पापों का नाश करने वाला है । इस प्रकार, ‘भर्ग’ शिव के गुणों से सीधा संबंध रखता है।

गायत्री मंत्र शिव की आराधना शक्ति है, और शिव के साथ इसका जाप सरल और शुभफलदायी है । यह शिव तत्व को समझने और अनुभव करने का माध्यम है, बुद्धि, चित्त और आत्मा को शुद्ध करता है । शिव तत्व परम सत्य, परम चेतना और परम आनंद है, जो ब्रह्मांड के मूल में स्थित है । शिव ही अविनाशी, सर्वगुणाधार, सर्वज्ञ और मंगलमय हैं । ‘भर्ग’ शब्द इन गुणों को प्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त करता है।

यह समझना महत्वपूर्ण है कि ‘भर्ग’ की उपासना केवल मंत्र जाप तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति को आंतरिक रूप से शुद्ध करने, अज्ञान को दूर करने और आत्मज्ञान की ओर बढ़ने में सहायता करती है, जिससे वास्तविक आध्यात्मिक विकास और आत्म-साक्षात्कार संभव होता है। यह साधक को अपनी आध्यात्मिक यात्रा के गहरे उद्देश्य को समझने में मदद करता है।

धर्मशास्त्रों में भर्ग स्वरूप का उल्लेख

भगवान शिव के ‘भर्ग’ स्वरूप का उल्लेख विभिन्न धर्मशास्त्रों में मिलता है, जो इसकी प्राचीनता और महत्व को स्थापित करता है।

शिव महापुराण और एकादश रुद्रों का वर्णन

शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है, जिनकी संख्या कहीं 19 तो कहीं 24 बताई गई है । यह पुराण शिव के विविध रूपों और लीलाओं का विस्तृत विवरण देता है। इन अवतारों में ‘भर्ग’ को एकादश रुद्रों में से एक के रूप में स्पष्ट रूप से उल्लिखित किया गया है । यह पुष्टि करता है कि ‘भर्ग’ शिव का एक महत्वपूर्ण और मान्यता प्राप्त स्वरूप है। एकादश रुद्रों में ‘भर्ग’ पांचवां रुद्र रूप है, जो अत्यंत तेजोमयी है और भय व पीड़ा का नाश करने वाला है । ये गुण ‘भर्ग’ के मूल अर्थ ‘प्रकाश’ और ‘नाशक’ से मेल खाते हैं। शिव महापुराण में वीरभद्र, अश्वत्थामा, शरभ, गृहपति, ऋषि दुर्वासा, हनुमान, वृषभ आदि को भी शिव के अंशावतार या गण माना गया है । यह दर्शाता है कि शिव के स्वरूपों की अवधारणा अत्यंत विस्तृत है, जिसमें पूर्ण अवतार, अंशावतार और गण शामिल हैं।

वैदिक ग्रंथों में भर्ग तत्व का उल्लेख

‘भर्ग’ शब्द गायत्री मंत्र का एक अभिन्न अंग है, जो ऋग्वेद के मंडल 3, सूक्त 62, मंत्र 10 से लिया गया है । यह मंत्र वैदिक साहित्य का एक अत्यंत प्राचीन और महत्वपूर्ण हिस्सा है। गायत्री मंत्र में ‘भर्ग’ परमपिता परमेश्वर के ‘तेज’ और ‘पाप-नाशक’ गुण को दर्शाता है । यह इंगित करता है कि ‘भर्ग’ की अवधारणा वैदिक काल से ही विद्यमान है। कठोपनिषद् में भी ‘भर्ग’ के प्रकाश स्वरूप का वर्णन मिलता है, जहाँ यह कहा गया है कि न वहां सूर्य प्रकाशित होता है, न चन्द्रमा, न तारागण, न विद्युत, क्योंकि समस्त प्रकाश उसी के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं । यह ‘भर्ग’ को सभी प्रकार के प्रकाश और ज्ञान के स्रोत के रूप में स्थापित करता है। शतपथ ब्राह्मण में ‘वीर्य वै भर्गः’ कहकर ‘भर्ग’ को वीर्य (शक्ति) के रूप में वर्णित किया गया है , जो ‘भर्ग’ की आंतरिक शक्ति और सामर्थ्य को दर्शाता है। आंगिरस ऋषि के अनुसार, यह ‘भर्ग’ हृदयकाश में तथा बाहर सूर्य मण्डल में विद्यमान है और धुएं रहित अग्नि में अनेक प्रकार की तरंगों के सदृश विद्यमान रहता है । यह ‘भर्ग’ की सर्वव्यापकता और सूक्ष्म प्रकृति को उजागर करता है। औसनस के अनुसार, कालाग्नि रूप में विद्यमान होकर सप्त स्फुल्लिंग वाला अग्नि रूप होता है और सप्त किरणों द्वारा अपने रूप से प्रकाशित होने से ‘भर्ग’ कहा गया है । यह ‘भर्ग’ के अग्नि तत्व और उसके प्रकाशमान स्वरूप से संबंध को दर्शाता है।

‘भर्ग’ की पहचान शिव के एक विशिष्ट रुद्र रूप के साथ-साथ एक सार्वभौमिक दिव्य गुण (गायत्री मंत्र में) के रूप में होना इसकी व्यापकता और महत्व को दर्शाता है। यह केवल एक पौराणिक चरित्र नहीं, बल्कि एक मौलिक आध्यात्मिक सिद्धांत है जो शिव के व्यक्तिगत और निराकार दोनों पहलुओं को समाहित करता है। रुद्र रूप में यह भय और पीड़ा का नाशक है , जबकि गायत्री मंत्र में यह परम प्रकाश और पापों का नाशक है । यह दर्शाता है कि ‘भर्ग’ शिव के एक व्यक्तिगत स्वरूप (रुद्र) और एक सार्वभौमिक, निराकार गुण (परम चेतना का प्रकाश) दोनों को समाहित करता है। यह शिव तत्व की असीम और बहुआयामी प्रकृति को उजागर करता है, जो उन्हें केवल एक देवता तक सीमित नहीं रखती।

यह शिव की अवधारणा के वैश्विक प्रसार को दर्शाता है। ‘अवतार’ और ‘स्वरूप’ के बीच के भेद को स्पष्ट करना यह दर्शाता है कि शास्त्रों की शाब्दिक व्याख्या से परे जाकर उनके गहरे अर्थ को समझना कितना महत्वपूर्ण है। यह विद्वत्तापूर्ण दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है और साधक को सतही ज्ञान से हटकर गहन आध्यात्मिक समझ की ओर ले जाता है।

तालिका 1: भर्ग स्वरूप के प्रमुख धर्मशास्त्रीय संदर्भ

धर्मशास्त्र/ग्रंथ का नाम संदर्भित स्वरूप/तत्व ‘भर्ग’ के अर्थ/गुण संबंधित संदर्भ
शिव महापुराण एकादश रुद्रों में से एक तेज, प्रकाश, पापों का नाशक, भय-पीड़ा का नाशक
ऋग्वेद (गायत्री मंत्र) गायत्री मंत्र में ‘भर्ग’ शब्द अज्ञान तथा पाप निवारक, ज्ञान का भंडार, प्रकाश, तेज, दिव्य दीप्ति
कठोपनिषद् परम प्रकाश स्वरूप समस्त प्रकाशों को प्रकाशित करने वाला, परम ज्योति
शतपथ ब्राह्मण शक्ति/वीर्य स्वरूप वीर्य (शक्ति)
आंगिरस सर्वव्यापी तत्व हृदयकाश और सूर्यमंडल में विद्यमान, धुएं रहित अग्नि में तरंगों के सदृश
औसनस अग्नि तत्व से संबंधित कालाग्नि रूप, सप्त किरणों द्वारा प्रकाशित

यह तालिका बिखरी हुई जानकारी को एक संरचित और आसानी से समझने योग्य प्रारूप में प्रस्तुत करती है, जिससे पाठक को एक ही नज़र में सभी प्रमुख संदर्भ मिल जाते हैं। प्रत्येक उल्लेख के साथ संदर्भ प्रदान करने से जानकारी की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता बढ़ती है। ‘भर्ग’ की दोहरी पहचान (रुद्र स्वरूप और गायत्री मंत्र का गुण) को एक ही स्थान पर तुलनात्मक रूप से प्रस्तुत करने से अवधारणा की स्पष्टता बढ़ती है।

 भर्ग स्वरूप से संबंधित मंत्र और उनके अर्थ

भगवान शिव के भर्ग स्वरूप से जुड़ने और उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए विभिन्न मंत्रों का जाप किया जाता है। इन मंत्रों में ‘भर्ग’ तत्व (प्रकाश, शुद्धि, पाप-नाशक शक्ति) अंतर्निहित है।

गायत्री मंत्र

गायत्री मंत्र, वैदिक परंपरा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण मंत्र है, जो परम चेतना के दिव्य प्रकाश का आह्वान करता है।

  • पूर्ण मंत्र: ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
  • शब्दशः अर्थ और ‘भर्ग’ का विशेष अर्थ:
    • ॐ: परब्रह्मा का अभिवाच्य शब्द । यह ब्रह्मांड की सबसे पवित्र ध्वनि है और हर मंत्र की शुरुआत इससे होती है । यह परम चेतना का प्रतीक है।
    • भूः: भूलोक, भौतिक जगत ।
    • भुवः: अंतरिक्ष लोक, सूक्ष्म जगत ।
    • स्वः: स्वर्गलोक, कारण जगत । ये तीनों व्याहृतियाँ तीनों लोकों या अस्तित्व के स्तरों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
    • तत्: परमात्मा अथवा ब्रह्म । यह उस परम सत्ता को इंगित करता है।
    • सवितुः: ईश्वर अथवा सृष्टि कर्ता । यह उस दिव्य शक्ति को संदर्भित करता है जो सब कुछ उत्पन्न करती है।
    • वरेण्यम्: पूजनीय, श्रेष्ठतम । यह उस दिव्य सत्ता की सर्वोच्चता को दर्शाता है।
    • भर्गः: अज्ञान तथा पाप निवारक, ज्ञान का भंडार, प्रकाश, तेज, दिव्य दीप्ति (ब्रिलियंस) । यह वह शक्ति है जो बुराइयों और अज्ञानान्धकार का नाश करती है और दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।
    • देवस्य: ज्ञान स्वरुप भगवान का, दिव्य स्वरूप वाले देवता का ।
    • धीमहि: हम ध्यान करते हैं । यह मंत्र के ध्यान पहलू को दर्शाता है।
    • धियो: बुद्धि, प्रज्ञा ।
    • योः: जो ।
    • नः: हमें ।
    • प्रचोदयात्: प्रकाशित करें, सत्य पथ पर ले जाए, सही दिशा दे । यह बुद्धि के प्रबोधन और सही मार्ग पर चलने की प्रार्थना है।
  • समग्र अर्थ: “हम ईश्वर की महिमा का ध्यान करते हैं, जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, जो पूजनीय है, जो ज्ञान का भंडार है, जो पापों तथा अज्ञान को दूर करने वाला है – वह हमें प्रकाश दिखाए और हमें सत्य पथ पर ले जाए।”
  • गायत्री मंत्र का शिव तत्व से संबंध: गायत्री मंत्र तीनों देवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) का सार है । यह दर्शाता है कि यह किसी एक देवता तक सीमित नहीं है, बल्कि सर्वोच्च चेतना का आह्वान है। यह शिव की आराधना शक्ति है, और शिव के साथ इसका जाप सरल और शुभफलदायी है । यह शिव तत्व को समझने और अनुभव करने का माध्यम है, बुद्धि, चित्त और आत्मा को शुद्ध करता है । ‘भर्ग’ शब्द का अर्थ ‘पापों को भूंज देने वाले’ और ‘प्रकाश’ है, जो शिव के गुणों से सीधा संबंध रखता है, क्योंकि शिव स्वयं प्रकाश स्वरूप और अज्ञान के नाशक हैं ।

शिव गायत्री मंत्र

भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने और मन की शांति के लिए शिव गायत्री मंत्र एक शक्तिशाली माध्यम है।

  • पूर्ण मंत्र: ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात ॥
  • अर्थ और महत्व:
    • ॐ: ब्रह्मांड की पवित्र ध्वनि।
    • तत्पुरुषाय विद्महे: हम उस परम पुरुष (भगवान शिव) को जानना चाहते हैं, जो सबसे ऊपर और अद्वितीय हैं ।
    • महादेवाय धीमहि: हम महादेव (सबसे बड़े देव) का ध्यान करते हैं, उन्हें अपने मन में बसाना चाहते हैं ।
    • तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्: वह रुद्र (शिव का उग्र रूप) हमारी बुद्धि को सही दिशा दें, हमें सत्य की ओर ले जाएं ।
    • यह मंत्र शिव को पाने का दिव्य और सरल रास्ता है, जो आध्यात्मिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत बनाता है ।
    • इसके जाप से समस्त पापों का नाश होता है, अकाल मृत्यु और गंभीर बीमारियों से मुक्ति मिलती है, तथा काल सर्प योग, राहु, केतु या शनि के कष्टों से राहत मिलती है ।
    • यह जीवन में सुख, समृद्धि, मानसिक शांति, यश और धनलाभ प्रदान करता है ।

अन्य प्रमुख शिव मंत्र

  • महामृत्युंजय मंत्र: ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌।
    • अर्थ: हम तीन नेत्रों वाले भगवान शिव की पूजा करते हैं, जो सुगंधित हैं और सभी जीवों का पोषण करते हैं। जैसे पका हुआ ककड़ी अपनी बेल से आसानी से अलग हो जाता है, वैसे ही हमें मृत्यु के बंधन से मुक्त करें, और अमरता प्रदान करें।
    • महत्व: यह भय, मृत्यु और नश्वरता से मुक्ति दिलाता है । यह शिव के ‘भर्ग’ स्वरूप के पीड़ा-नाशक और कल्याणकारी गुणों से संबंधित है।
  • पंचाक्षर मंत्र: ॐ नमः शिवाय।
    • अर्थ: भगवान शिव को नमस्कार। यह मंत्र शिव के सभी गुणों और स्वरूपों का संक्षिप्त आह्वान है।
    • महत्व: यह अमोघ और मोक्षदायी है, बड़ी से बड़ी समस्या और विघ्न को टाल देता है । यह सबसे सरल और अत्यंत शक्तिशाली मंत्र है । यह शिव के प्रकाशमय और कल्याणकारी ‘भर्ग’ तत्व से सहज रूप से जुड़ता है।
  • रुद्राष्टकम से भर्ग स्वरूप से संबंधित श्लोक: “सर्वदा भर्ग भावानुरक्तः”
    • यह श्लोक शिव के ‘भर्ग’ स्वरूप के प्रति भक्तों की निरंतर अनुरक्ति और ध्यान को दर्शाता है, जो शिव के प्रकाशमय और पाप-नाशक गुणों से जुड़ने का आह्वान करता है। यह शिव के भक्तों के लिए ‘भर्ग’ स्वरूप के प्रति समर्पण का प्रतीक है।
  • शिवतांडव स्तोत्र के कुछ अंश: में शिव के रौद्र और कल्याणकारी दोनों रूपों का वर्णन है, जो उनके ‘भर्ग’ स्वरूप के तेज और संहारक शक्ति को परोक्ष रूप से दर्शाता है। यह स्तोत्र शिव के विराट और शक्तिशाली स्वरूप का गुणगान करता है, जिसमें ‘भर्ग’ तत्व का तेज भी समाहित है।

ये सभी मंत्र शिव के विभिन्न गुणों और स्वरूपों का आह्वान करते हैं, जिनमें ‘भर्ग’ तत्व (प्रकाश, शुद्धि, पाप-नाशक शक्ति) अंतर्निहित है। गायत्री मंत्र में यह प्रत्यक्ष है, जबकि अन्य शिव मंत्रों में यह शिव के कल्याणकारी और दुखों का नाश करने वाले स्वभाव के माध्यम से प्रकट होता है। ये मंत्र साधक को शिव के दिव्य प्रकाश और शुद्धिकारी ऊर्जा से जुड़ने में मदद करते हैं।

विभिन्न शिव मंत्र, जिनमें गायत्री मंत्र और शिव गायत्री मंत्र शामिल हैं, एक दूसरे के पूरक हैं। वे सभी शिव के ‘भर्ग’ तत्व को अलग-अलग पहलुओं से प्रकट करते हैं – गायत्री मंत्र सार्वभौमिक प्रकाश और शुद्धि पर केंद्रित है, जबकि शिव गायत्री मंत्र सीधे शिव के ‘महादेव’ और ‘रुद्र’ स्वरूपों के माध्यम से बुद्धि के प्रबोधन और बाधाओं के निवारण पर बल देता है। यह साधक को अपनी आवश्यकतानुसार मंत्र चुनने की स्वतंत्रता देता है। मंत्रों के अर्थ को समझना केवल बौद्धिक अभ्यास नहीं है, बल्कि यह साधक को मंत्र के पीछे की ऊर्जा और उद्देश्य से जुड़ने में मदद करता है, जिससे जाप अधिक प्रभावी होता है। अर्थ को आत्मसात करने से मंत्र का कंपन साधक के भीतर गहरा प्रभाव डालता है।

तालिका 2: भर्ग स्वरूप से संबंधित प्रमुख मंत्र और उनके अर्थ

मंत्र का नाम पूर्ण मंत्र मंत्र का सरल अर्थ ‘भर्ग’ तत्व से संबंध
गायत्री मंत्र ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ हम ईश्वर की महिमा का ध्यान करते हैं, जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, जो पूजनीय है, जो ज्ञान का भंडार है, जो पापों तथा अज्ञान को दूर करने वाला है – वह हमें प्रकाश दिखाए और हमें सत्य पथ पर ले जाए। ‘भर्ग’ शब्द प्रत्यक्ष रूप से पाप-नाशक प्रकाश और ज्ञान का प्रतीक है।
शिव गायत्री मंत्र ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात ॥ हम उस परम पुरुष भगवान शिव को जानना चाहते हैं और महादेव का ध्यान करते हैं; वह रुद्र हमारी बुद्धि को सही दिशा दें। ‘रुद्र’ का उग्र रूप बाधाओं और अज्ञान का नाश कर बुद्धि को प्रकाशित करता है, जो ‘भर्ग’ के गुणों से जुड़ा है।
महामृत्युंजय मंत्र ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। हम तीन नेत्रों वाले भगवान शिव की पूजा करते हैं, जो सुगंधित हैं और सभी जीवों का पोषण करते हैं; जैसे पका हुआ ककड़ी अपनी बेल से आसानी से अलग हो जाता है, वैसे ही हमें मृत्यु के बंधन से मुक्त करें, और अमरता प्रदान करें। यह मंत्र भय, मृत्यु और नश्वरता से मुक्ति दिलाता है, जो ‘भर्ग’ के पीड़ा-नाशक और कल्याणकारी गुणों से संबंधित है।
पंचाक्षर मंत्र ॐ नमः शिवाय। भगवान शिव को नमस्कार। यह शिव के सभी गुणों और स्वरूपों का संक्षिप्त आह्वान है, जिसमें ‘भर्ग’ का प्रकाशमय और कल्याणकारी तत्व समाहित है।
रुद्राष्टकम (संबंधित श्लोक) सर्वदा भर्ग भावानुरक्तः जो सदा भर्ग स्वरूप के प्रति अनुरक्त रहता है। यह भक्तों की ‘भर्ग’ स्वरूप के प्रकाशमय और पाप-नाशक गुणों के प्रति निरंतर भक्ति और ध्यान को दर्शाता है।

 

यह तालिका सभी महत्वपूर्ण मंत्रों और उनके अर्थों को एक ही स्थान पर संकलित करती है, जिससे जानकारी तक पहुँच आसान हो जाती है। मंत्रों के साथ उनके अर्थों को प्रस्तुत करने से साधक को मंत्रों की शक्ति और उद्देश्य को समझने में मदद मिलेगी, जिससे उनका जाप अधिक सार्थक और प्रभावी होगा।

 भर्ग स्वरूप को प्रसन्न करने के मंत्र और शीघ्र फल प्राप्ति

भगवान शिव के भर्ग स्वरूप को प्रसन्न करने के लिए मंत्र जाप एक प्रभावी माध्यम है, जिसके लिए विशिष्ट विधियों और आंतरिक भाव का महत्व है।

मंत्र जाप की विधि और नियम

मंत्र जाप को प्रभावी बनाने के लिए कुछ नियमों और विधियों का पालन करना आवश्यक है:

  • नित्य जाप: प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल में किसी गुरु द्वारा उपदिष्ट मंत्र का जप नित्य प्रति करना चाहिए । नियमितता साधना का आधार है, जो ऊर्जा के निरंतर प्रवाह को बनाए रखती है।
  • नैमित्तिक जाप: किसी विशेष आध्यात्मिक मुहूर्त या पूजा के अवसर पर जप करना, जैसे सोमवार या श्रावण मास में शिव गायत्री मंत्र का जाप । ये विशिष्ट समय आध्यात्मिक ऊर्जा के लिए अधिक अनुकूल माने जाते हैं।
  • काम्य जाप: मन में किसी विशेष इच्छा की पूर्ति के लिए मंत्र विशेष का जप करना, जिसके लिए समय निश्चित कर लिया जाता है । यह साधना को एक विशिष्ट लक्ष्य की ओर निर्देशित करता है।
  • जाप संख्या: प्रतिदिन कम से कम 11 बार, और श्रद्धा से तो 108 बार (रुद्राक्ष माला से) जप करना अत्यंत शुभ माना गया है । कुछ स्रोतों में 10,000 बार तक जप का भी उल्लेख है, और जितना अधिक जप किया जाए, उतना अधिक लाभ होता है ।
  • स्थान और शुद्धि: शांत और पवित्र जगह चुनें, जैसे घर का पूजा स्थल या एकांत कमरा । स्नान करके साफ वस्त्र पहनें, शुद्ध तन और मन से ध्यान करें । यह बाहरी और आंतरिक शुद्धि दोनों को सुनिश्चित करता है, जिससे मन एकाग्र होता है।
  • आसन और दिशा: शिवलिंग या शिव की मूर्ति के सामने बैठें । जप पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए , क्योंकि ये दिशाएँ ऊर्जा के प्रवाह के लिए अनुकूल मानी जाती हैं।
  • अभिषेक और चढ़ावा: यदि संभव हो तो शिवलिंग पर गंगा जल, बेलपत्र, धतूरा, चंदन, धूप, फल, पुष्प आदि श्रद्धा भाव से अर्पित करें । जल में थोड़ा दूध मिलाकर शिवलिंग पर अर्पित करना शुभ होता है । ये सभी वस्तुएँ शिव को प्रिय हैं और पूजा में पवित्रता तथा समर्पण का भाव लाती हैं।
  • लय और कंपन: मंत्रोच्चार से उत्पन्न होने वाली तरंगों के कंपन और उनकी प्रतिक्रिया लय पर निर्भर करती है। साधक को अपने लिए उपयुक्त छंद की लय का निर्धारण करना चाहिए । सही लय से मंत्र की शक्ति बढ़ती है और उसका प्रभाव गहरा होता है।
  • साधना पूर्ण होने पर: साधना पूर्ण होने पर पांच कपूर के ऊपर दो-दो लौंग रखकर जलाना , तथा अपने वजन के दसवें भाग के बराबर अनाज (किसी भी प्रकार का) स्पर्श करके संकल्प करके किसी योग्य ब्राह्मण या गरीब को दान करना जैसी विधियाँ बताई गई हैं। यह साधना के फल को समर्पित करने और उसे पूर्ण करने का तरीका है, जो कर्म के सिद्धांत को पुष्ट करता है।

भक्ति, श्रद्धा और एकाग्रता का महत्व

मंत्रों की शीघ्र प्रसन्नता बाहरी क्रियाओं से अधिक साधक की आंतरिक भक्ति, श्रद्धा और निष्ठा पर निर्भर करती है। यह आध्यात्मिक अभ्यास में ‘भाव’ के महत्व को रेखांकित करता है, जहाँ हृदय की पवित्रता ही कुंजी है।

  • मंत्रों का जाप पवित्र भाव और विधिपूर्वक करने से समस्त पापों का नाश होता है । केवल यांत्रिक जाप के बजाय भावपूर्ण जाप अधिक फलदायी होता है।
  • सच्चे मन से रोजाना महादेव की पूजा करने पर भगवान कृपा बरसाते हैं और जीवन की अड़चनें दूर करते हैं ।
  • पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा भाव के साथ किए गए उपाय जीवन की सभी बाधाओं को हर लेते हैं और श्री हरि विष्णु का आशीर्वाद सदैव बना रहता है । यह दर्शाता है कि ‘भर्ग’ स्वरूप जो अज्ञान का नाशक है, वह तभी प्रसन्न होता है जब साधक अपने मन से अज्ञान और संदेह को दूर कर पूर्ण विश्वास के साथ साधना करता है।
  • भगवान शिव को मृत्युंजय भी कहा जाता है, और उनकी साधना से बड़े से बड़ा संकट टल जाता है । यह भय और मृत्यु पर विजय दिलाता है।
  • शिव पूजा से मानसिक शांति, स्वास्थ्य में सुधार, सकारात्मक ऊर्जा, कल्याण, मोक्ष और समृद्धि प्राप्त होती है ।
  • शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है और जिन महिलाओं को संतान की प्राप्ति नहीं होती, वे अगर नियमित रूप से शिव पूजा करती हैं तो उनकी सूनी गोद भर जाती है ।

शीघ्र प्रसन्नता के लिए नियमितता और निष्ठा

  • नियमित और निरंतर जाप (जैसे 108 बार प्रतिदिन) अत्यंत प्रभावी होता है और अधिक लाभ देता है ।
  • सोमवार को शिव गायत्री मंत्र का जप विशेष शुभ फलदायी माना गया है, और शुक्ल पक्ष के किसी भी सोमवार से उपवास रखते हुए इसे आरंभ करना चाहिए । सोमवार शिव का प्रिय दिन है, जिससे इस दिन की गई साधना का प्रभाव बढ़ जाता है।
  • श्रावण मास में शिव गायत्री मंत्र का जप विशेष फलदायी होता है , क्योंकि यह मास भगवान शिव को समर्पित है।
  • शालिग्राम शिला की पूजा से भी मुक्ति मिलती है, और चातुर्मास में इसका अधिकतम फल मिलता है । यह विष्णु स्वरूप की पूजा का उल्लेख है, जो शिव के साथ त्रिदेवों में एक हैं और परम चेतना के विभिन्न पहलू हैं।
  • बृहस्पतिवार को केले के पेड़ की पूजा और पीली वस्तुओं का दान भगवान विष्णु को प्रसन्न करता है , जो शिव के साथ त्रिदेवों में एक हैं और परम चेतना के विभिन्न पहलू हैं।

यह समझना महत्वपूर्ण है कि प्रभावी साधना केवल यांत्रिक जाप नहीं है, बल्कि यह एक समग्र प्रक्रिया है जिसमें शारीरिक, मानसिक और कर्मिक शुद्धता शामिल है, जो शीघ्र फल प्राप्ति में सहायक होती है। यह दृष्टिकोण साधक को अधिक व्यापक और प्रभावी ढंग से साधना करने में सक्षम बनाता है।

तालिका 3: भर्ग स्वरूप की प्रसन्नता हेतु मंत्र जाप के लाभ

लाभ का प्रकार विशिष्ट लाभ संबंधित मंत्र (यदि विशिष्ट हो) संबंधित संदर्भ
आध्यात्मिक मानसिक शांति, आत्मिक शुद्धि, मोक्ष, आत्म-सजगता शिव गायत्री मंत्र, पंचाक्षर मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र
मानसिक सकारात्मक ऊर्जा, बुद्धि का प्रबोधन, एकाग्रता, अज्ञान का नाश गायत्री मंत्र, शिव गायत्री मंत्र
शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार, रोग मुक्ति, अकाल मृत्यु से बचाव महामृत्युंजय मंत्र, शिव गायत्री मंत्र
भौतिक धन लाभ, समृद्धि, यश, शत्रुओं पर विजय, पारिवारिक सुख शिव गायत्री मंत्र, सामान्य शिव पूजा
सामाजिक/व्यक्तिगत मनचाहा जीवनसाथी, संतान प्राप्ति सामान्य शिव पूजा

यह तालिका मंत्र जाप से प्राप्त होने वाले विभिन्न लाभों को स्पष्ट रूप से सूचीबद्ध करती है, जो साधक को अपनी साधना जारी रखने और उसमें अधिक निष्ठा रखने के लिए प्रेरित करेगी। यह दर्शाती है कि भर्ग स्वरूप की उपासना केवल आध्यात्मिक लाभ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लौकिक जीवन में भी सकारात्मक प्रभाव डालती है, जिससे यह विभिन्न आवश्यकताओं वाले साधकों के लिए प्रासंगिक हो जाती है।

 निष्कर्ष

भगवान शिव का ‘भर्ग’ स्वरूप केवल एक नाम या एकादश रुद्रों में से एक रूप नहीं, बल्कि परम चेतना का वह प्रकाशमय, पाप-नाशक और कल्याणकारी पहलू है जो साधक के जीवन में दिव्य ज्ञान, आंतरिक शांति और समस्त बाधाओं से मुक्ति प्रदान करता है । यह शिव के संहारक और पालक दोनों गुणों का प्रतीक है, जो अज्ञान और नकारात्मकता का नाश करके आत्मिक शुद्धि और मानसिक स्पष्टता लाता है । यह साधक को आत्म-सजगता की स्थिति में ले जाता है।

इस स्वरूप की उपासना से जीवन में सुख, समृद्धि, स्वास्थ्य और सुरक्षा सुनिश्चित होती है, साथ ही यह मोक्ष की दिशा में भी मार्गदर्शन करता है । यह दर्शाता है कि ‘भर्ग’ स्वरूप की उपासना से लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं। यह उपासना को केवल विशिष्ट इच्छाओं की पूर्ति के साधन के रूप में नहीं, बल्कि समग्र आध्यात्मिक विकास के एक मार्ग के रूप में प्रस्तुत करता है, जो भौतिक लाभों से परे जाकर आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर बढ़ने पर जोर देता है।

गायत्री मंत्र और शिव गायत्री मंत्र जैसे शक्तिशाली मंत्रों का नियमित, श्रद्धापूर्वक और अर्थ सहित जाप ‘भर्ग’ तत्व से जुड़ने का सबसे सीधा और प्रभावी मार्ग है । इन मंत्रों के माध्यम से साधक दिव्य ऊर्जा को आकर्षित करता है। यह साधना केवल बाहरी क्रिया नहीं, बल्कि आंतरिक रूपांतरण की प्रक्रिया है, जहाँ साधक अपनी बुद्धि को दिव्य प्रकाश से प्रकाशित करने और सत्य पथ पर चलने की प्रार्थना करता है । यह आत्म-सुधार और आत्म-बोध की दिशा में एक कदम है।

नियमितता, निष्ठा और समर्पण के साथ की गई उपासना से भगवान शिव का भर्ग स्वरूप शीघ्र प्रसन्न होता है, जिससे साधक के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आते हैं और वह परम आनंद की अनुभूति करता है । यह बताता है कि आध्यात्मिक लाभ निष्क्रिय ज्ञान से नहीं, बल्कि सक्रिय और समर्पित अभ्यास से प्राप्त होते हैं। साधक को अपनी आध्यात्मिक यात्रा में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए और निरंतर अभ्यास के महत्व को समझना चाहिए, जिससे वह अपनी प्रगति का स्वयं स्वामी बन सके।

सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

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