यह सम्पूर्ण चराचर जगत योगमाया के अधीन रहता है।
ब्रह्मा से लेकर स्थावर–जंगम सभी प्राणी सत्त्व, रज, तम इन गुणों के द्वारा उन्हीं में गुंथे हुए हैं।
इस प्रकार योगमाया की बड़ी महिमा है।
ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर, अग्नि, सूर्य, चन्द्र आदि देवता, ऋषि-मुनि—ये सब बाजीगर के अधीन कठपुतली की भाँति सदा योगमाया के अधीन रहते हैं।
भगवान के सभी अवतार रस्सी से बँधे हुए के समान भगवती से ही नियंत्रित रहते हैं।
भगवान विष्णु भी कभी वैकुण्ठ में और कभी क्षीरसागर में आनंद लेते हैं, कभी अत्यधिक बलशाली दानवों के साथ युद्ध करते हैं, कभी योगनिद्रा के वशीभूत होकर शयन करते हैं, कभी मल-मूत्र तथा स्नायु से भरे गर्भ में वास से होने वाले दुःख भोगने को विवश हो जाते हैं।
इस प्रकार सभी देवता कालपाश में आबद्ध रहते हैं।
अतः मनुष्य हो या देवता—किए गए शुभ या अशुभ कर्मों का फल तो अवश्य ही भोगना पड़ता है।
इसीलिए जगत की सृष्टि करने में समर्थ भगवान श्रीकृष्ण ने माता देवकी के गर्भ में रहते हुए अपने माता-पिता को बंधन से मुक्त नहीं किया।
कर्मफल भोगने के बाद ही वसुदेव और देवकी को श्रीकृष्ण ने कंस का वध कर कारागार से मुक्त किया और उनका कष्ट दूर किया।
देवकी के छह पुत्रों के पूर्वजन्म की कथा
देवकी के वे छह पुत्र कौन थे?
स्वायम्भुव मन्वंतर में मरीचि और उनकी पत्नी ऊर्णा के छह अत्यन्त बलशाली व धर्मपरायण पुत्र थे।
एक बार उन्होंने ब्रह्माजी को अपनी पुत्री सरस्वती के साथ विहार करते देखा और हँस पड़े।
ब्रह्माजी ने उन्हें शाप दे दिया कि तुम लोगों का पतन हो जाए और तुम दैत्ययोनि में जन्म लो।
वे छहों पुत्र कालनेमि के पुत्रों के रूप में उत्पन्न हुए।
अगले जन्म में वे हिरण्यकशिपु के पुत्र हुए।
उन्हें अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान था, अतः पूर्व शाप से भयभीत होकर वे तप करने लगे।
इससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उन्हें वर दिया कि देवता, दानव, नाग, गंधर्व, सिद्ध आदि कोई भी तुम्हारा वध न कर सके।
हिरण्यकशिपु देवताओं का विरोधी था, अतः अपने पुत्रों से कुपित हो गया कि तुमने अपने पिता की उपेक्षा की।
उसने उन्हें शाप दिया कि मैं तुम लोगों का परित्याग करता हूँ।
तुम लोग पाताललोक चले जाओ और पृथ्वी पर ‘षड्गर्भ’ नाम से विख्यात होओगे।
तुम लंबे समय तक निद्रा के वशीभूत रहोगे।
तुम क्रम से प्रतिवर्ष देवकी के गर्भ से उत्पन्न होते रहोगे और पूर्वजन्म का तुम्हारा पिता कालनेमि—जो अब कंस होगा—तुम लोगों को जन्म लेते ही मार डालेगा।
इस प्रकार हिरण्यकशिपु के शाप से वे क्रम से एक-एक करके देवकी के गर्भ में आते गए और कंस पूर्व शाप से प्रेरित होकर उन देवकी-पुत्रों का वध करता गया।
बलभद्र का आगमन और योगमाया की लीला
इसके बाद शेषनाग के अंशावतार बलभद्रजी देवकी के सातवें गर्भ में आए।
योगमाया ने अपने योगबल से उस गर्भ को खींचकर गोकुल में नंदबाबा के घर रह रहीं वसुदेवजी की पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया।
फिर देवताओं का कार्य सिद्ध करने तथा पृथ्वी का भार उतारने के लिए जगत्पति भगवान विष्णु देवकी के आठवें गर्भ में विराजमान हो गए।
वह कन्या कौन थी जिसे कंस ने पत्थर पर पटका था?
देवताओं का कार्य सिद्ध करने के उद्देश्य से भगवती योगमाया ने अपनी इच्छा से यशोदा के गर्भ में प्रवेश किया।
भाद्रपद कृष्णपक्ष, रोहिणी नक्षत्रयुक्त अष्टमी तिथि की अर्धरात्रि में देवकीजी ने परम सुन्दर अद्भुत बालक को जन्म दिया।
उसी समय योगमाया के अंश से दिव्यरूपमयी त्रिगुणात्मिका भगवती ने यशोदा के गर्भ से अवतार लिया।
श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के अनुसार जब वसुदेवजी श्रीकृष्ण को लेकर नंदबाबा के घर पहुँचे, तब स्वयं भगवती ने सैरन्ध्री (परिचारिका) का रूप धारण कर उस अलौकिक बालिका को अपने करकमलों से वसुदेवजी को दे दिया।
वसुदेवजी भी अपने पुत्र श्रीकृष्ण को देवीरूपा सैरन्ध्री के करकमलों में रखकर योगमाया-स्वरूप उस बालिका को लेकर कारागार में लौट आए।
कारागार में पहुँचकर उन्होंने देवकी की शय्या पर बालिका को लिटा दिया।
इतने में कन्या ने उच्च स्वर में रोना शुरू कर दिया।
रोने की आवाज सुनते ही कंस तुरन्त वहाँ आ पहुँचा।
वसुदेवजी ने रोती हुई उस कन्या को कंस के हाथों में रख दिया।
कन्या को देखकर कंस ने सोचा—आकाशवाणी तथा नारदजी का वचन दोनों ही गलत सिद्ध हुए।
ऐसा सोचकर उस निर्मम कंस ने बालिका के दोनों पैर पकड़कर पत्थर पर पटका।
किन्तु वह कन्या कंस के हाथ से छूटकर आकाश में चली गई।
वहाँ दिव्य रूप में प्रकट होकर उस कन्या ने मधुर स्वर में कहा—
“अरे पापी! मुझे मारने से तेरा क्या लाभ होगा?
तेरा महाबलशाली शत्रु जन्म ले चुका है।”
ऐसा कहकर वह कल्याणकारिणी भगवती-स्वरूपा कन्या आकाश में चली गई।
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