सनातन धर्म, जिसे उसकी शाश्वतता और सार्वभौमिकता के कारण ‘विश्व का सबसे प्राचीन धर्म’ माना जाता है, अपनी ज्ञान परंपरा की विशालता और जटिलता के लिए अद्वितीय है। यह ज्ञान संग्रह केवल धार्मिक आस्थाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें जीवन के प्रत्येक पहलू—दर्शन, विज्ञान, नीतिशास्त्र, और मोक्ष के मार्ग—का विस्तृत विवेचन मिलता है। इन ग्रंथों की प्रामाणिकता और ज्ञान के पदानुक्रम को समझने के लिए, उन्हें उनकी उत्पत्ति के आधार पर दो मूलभूत श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है: श्रुति और स्मृति।
1.1 परिचय: सनातन परंपरा में ग्रंथों का स्थान और कालक्रम
सनातन परंपरा में, धर्मग्रंथों को केवल ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं, बल्कि शाश्वत और नित्य ज्ञान के भंडार के रूप में देखा जाता है। ये ग्रंथ मनुष्य को चार पुरुषार्थों—धर्म (नैतिक आचरण), अर्थ (धन), काम (इच्छापूर्ति), और मोक्ष (मुक्ति)—की प्राप्ति की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं। इन ग्रंथों की व्यापकता का प्रमाण यह है कि वेदों में जहाँ गंभीर दार्शनिक विषयों का उल्लेख है , वहीं अथर्ववेद में व्यावहारिक जीवन, जैसे कि वास्तुकला और चिकित्सा विज्ञान, से संबंधित ज्ञान भी समाहित है । इस ज्ञान परंपरा का उद्देश्य मनुष्य को आध्यात्मिक उत्थान के साथ-साथ भौतिक जगत में भी संतुलन और समृद्धि प्राप्त करने में सहायता करना है।
1.2 श्रुति और स्मृति: प्रामाणिकता का आधार
ग्रंथों के इस विशाल कोष को समझने के लिए श्रुति और स्मृति के बीच के भेद को स्थापित करना आवश्यक है। यह विभाजन ग्रंथों के लिए एक स्पष्ट प्रामाणिकता पदानुक्रम सुनिश्चित करता है।
1.2.1 श्रुति साहित्य (अपौरुषेय)
- परिभाषा और प्रकृति: ‘श्रुति’ का शाब्दिक अर्थ है ‘जो सुना गया है’ । यह सनातन धर्म में सर्वोच्च प्रामाणिक ज्ञान माना जाता है। मान्यता यह है कि श्रुति सीधे ईश्वर (ब्रह्मा के चार मुखों से) द्वारा प्रकट की गई थी, और प्राचीन ऋषियों ने इसे ‘सुना’ (श्रवण किया) और अपनी चेतना में धारण किया । इस कारण श्रुति को किसी मानव द्वारा रचित नहीं माना जाता है, यानी यह ‘अपौरुषेय’ है।
- समावेश और महत्व: केवल चारों वेद (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, और उपनिषद सहित) ही श्रुति साहित्य में सम्मिलित हैं। इन्हें अपरिवर्तनीय, शाश्वत सत्य माना जाता है, और ये हिंदू धर्म के सभी सिद्धांतों का मौलिक आधार हैं ।
1.2.2 स्मृति साहित्य (मानव रचित)
- परिभाषा और प्रकृति: ‘स्मृति’ का अर्थ है ‘जो याद किया गया है’ या स्मरण करके लिखा गया है । यह साहित्य श्रुति के मौलिक सिद्धांतों पर आधारित है, लेकिन इसे मानव ऋषियों या विद्वानों द्वारा व्याख्या, संकलन, या भाष्य के रूप में संरचित किया गया है ।
- समावेश: श्रुति के अतिरिक्त जो भी ग्रंथ उपलब्ध हैं, वे सब स्मृति साहित्य के अंतर्गत आते हैं। इनमें 18 महापुराण, इतिहास (रामायण और महाभारत), धर्मशास्त्र (जैसे मनुस्मृति और अन्य 18 स्मृतियाँ ), वेदांग, उपवेद, और षड्दर्शन शामिल हैं।
- प्रामाणिकता का पदानुक्रम: श्रुति-स्मृति विभाजन हिंदू ज्ञान परंपरा की अखंडता बनाए रखने के लिए एक महत्वपूर्ण विनियामक तंत्र स्थापित करता है। यदि स्मृति ग्रंथों (जैसे धर्मशास्त्रों) में कोई ऐसा नियम या सिद्धांत आता है जो सीधे तौर पर श्रुति (वेदों) के सिद्धांत से विरोधाभास रखता हो, तो वेद का सिद्धांत ही अंतिम और सर्वोच्च माना जाता है। पुराणों और इतिहास का कार्य इन वैदिक सिद्धांतों को कथाओं और दृष्टांतों के माध्यम से सरल बनाकर जनमानस के लिए सुलभ और ‘याद रखने योग्य’ (स्मृति) बनाना है ।
1.3 वैदिक साहित्य की चार संरचनाएँ
प्रत्येक वेद, ज्ञान के विभिन्न स्तरों और उपयोगों के अनुरूप, कार्यात्मक रूप से चार भागों में विभाजित किया गया है। यह विभाजन कर्मकांड (क्रिया) से गहनतम ज्ञान (ब्रह्म की प्राप्ति) तक की यात्रा को क्रमबद्ध करता है:
- संहिता: यह मूल मंत्रों, प्रार्थनाओं और स्तुतियों का संग्रह है.
- ब्राह्मण: यह संहिता में दिए गए मंत्रों के उपयोग, यज्ञों और विभिन्न अनुष्ठानों के विधि-विधान (कर्मकांड) की विस्तृत व्याख्या करता है.
- आरण्यक: ये ‘वन में पढ़े जाने वाले’ रहस्यमय ग्रंथ हैं। ये ब्राह्मणों के बाह्य कर्मकांडों के प्रतीकात्मक और आंतरिक अर्थों पर बल देते हैं, जिससे कर्म (क्रिया) और ज्ञान (दर्शन) के बीच एक दार्शनिक सेतु का निर्माण होता है।
- उपनिषद (वेदांत): यह ज्ञानकांड है। यह वेद का अंतिम भाग है जो ब्रह्म, आत्मा, मोक्ष और सृष्टि के गूढ़ दार्शनिक सिद्धांतों पर केंद्रित है.
खंड II: श्रुति साहित्य: चारों वेद और उनकी संहिताएँ (The Four Vedas)
वेद सनातन धर्म के आधार स्तंभ हैं, जो ज्ञान के भंडार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनकी अनादि प्रकृति के कारण इन्हें नित्य माना जाता है। महर्षि वेदव्यास ने इस विशाल वेदराशि को चार भागों में विभक्त किया और अपने शिष्यों (पैल, वैशम्पायन, जैमिनि, और सुमन्तु) के माध्यम से इनकी परंपरा को आगे बढ़ाया.
2.1 ऋग्वेद संहिता: ज्ञान और स्तुति का मूल स्रोत
ऋग्वेद (ऋचाओं या स्तुतियों का वेद) चारों वेदों में सबसे प्राचीन और प्रमुख माना जाता है।
- संरचना: ऋग्वेद में 10 मंडल, 1028 सूक्त (प्रार्थनाओं का संग्रह), और लगभग 10,627 ऋचाएँ (मंत्र) हैं । मंत्रों की संख्या के विषय में विद्वानों में अल्प मतभेद हैं।
- विषय वस्तु: यह मुख्य रूप से अग्नि, इंद्र, वरुण, और उषा जैसे देवताओं की स्तुति और यज्ञों में उनके आह्वान के लिए समर्पित मंत्रों का संग्रह है । इतिहासकारों द्वारा इसे हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की अभी तक उपलब्ध पहली रचनाओं में से एक माना जाता है, जो इसकी प्राचीनता को सिद्ध करता है।
- मंडल विभाजन और कालक्रम: ऋग्वेद के 10 मंडलों में से 2 से 7 वें मंडल सबसे प्राचीन माने जाते हैं, जिन्हें ‘गौत्र-मंडल’ भी कहा जाता है, क्योंकि इनकी रचना विशिष्ट ऋषियों (जैसे गृत्समद, विश्वामित्र, वशिष्ठ) द्वारा की गई थी । इसके विपरीत, 1 और 10 वां मंडल सबसे नवीन हैं।
- दार्शनिक गहराई: ऋग्वेद केवल धार्मिक अनुष्ठानों का ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह कविता, दर्शन, और विज्ञान का एक समुच्चय भी है । इसके दशम मंडल में कई प्रसिद्ध दार्शनिक सूक्त शामिल हैं, जिनमें ‘नासदीय सूक्त’ (जो सृष्टि की उत्पत्ति पर गहन संदेह व्यक्त करता है) और ‘पुरुष सूक्त’ (जो ब्रह्मांडीय पुरुष और सामाजिक विभाजन का सिद्धांत प्रस्तुत करता है) प्रमुख हैं। ये सूक्त ही परवर्ती दार्शनिक सिद्धांतों और उपनिषदों के ज्ञान कांड के मूल स्रोत (उपजीव्य) बने ।
2.2 यजुर्वेद संहिता: कर्मकांड और यज्ञीय मंत्र
यजुर्वेद (यज्ञ मंत्रों का वेद) मुख्य रूप से वैदिक कर्मकांडों के विधि-विधान और अनुष्ठानों के लिए आवश्यक मंत्रों पर केंद्रित है।
- शैली और विषय: यह वेद मुख्य रूप से गद्यात्मक (prose) है । इसमें 3750 मंत्रों का संग्रह है, और इसका प्रमुख विषय यज्ञों की विधि, प्रक्रिया और उनमें बोले जाने वाले मंत्र हैं.
- विभाजन (शुक्ल और कृष्ण): यजुर्वेद दो मुख्य भागों में विभक्त है :
- शुक्ल यजुर्वेद (सफेद यजुर्वेद): यह केवल मंत्रों का संग्रह है, जो स्पष्ट और व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने गायत्री पुरश्चरण और सूर्योपासना के माध्यम से भगवान आदित्य के अनुग्रह से इसे प्राप्त किया था (आदित्य सम्प्रदाय) । इसकी दो प्रमुख शाखाएँ हैं: काण्व और माध्यन्दिन.
- कृष्ण यजुर्वेद (काला यजुर्वेद): इसमें मंत्रों के साथ-साथ उनके भाष्य और ब्राह्मण ग्रंथों के अंश भी मिश्रित रूप में शामिल हैं.
- जुड़े हुए उपवेद: यजुर्वेद का ज्ञान धनुर्वेद (सैन्य कला) और स्थापत्य वेद (वास्तुकला) के सिद्धांतों से निकटता से संबंधित है.
2.3 सामवेद संहिता: उपासना और भारतीय संगीत का आधार
सामवेद (साम या गायन का वेद) उपासना और संगीत के महत्व को प्रतिपादित करता है।
- स्वरूप और विषय: सामवेद गेयात्मक (संगीत प्रधान) है । इसका प्रमुख विषय उपासना है, जिसमें 1875 या 1975 संगीतमय मंत्रों का उल्लेख है । इन मंत्रों में से अधिकांश (लगभग 1500) ऋग्वेद से ही लिए गए हैं, लेकिन सामवेद में उन्हें यज्ञों में गाने के लिए स्वरबद्ध किया गया है.
- दार्शनिक महत्व: सामवेद भारतीय शास्त्रीय संगीत (गांधर्ववेद का आधार) का मूल आधार है । यह वेद ध्वनि और कंपन की शक्ति का ज्ञान कराता है, यह समझाता है कि कैसे शब्दों को केवल पढ़ने के बजाय उनमें भावना और स्वर का समावेश करके एक गहरी आध्यात्मिक अनुभूति पैदा की जा सकती है, जिससे प्रार्थनाएं अधिक प्रभावशाली बनती हैं । संगीत के माध्यम से मन शांत होता है और एकाग्रता बढ़ती है।
- संरचना: सामवेद की संहिताएँ गायन विधि और स्वर संरचना का विस्तृत उल्लेख करती हैं, जो इसे अन्य वेदों से विशिष्ट बनाता है । यह वेद हमें अपनी समृद्ध विरासत का अनुभव कराता है. वेदव्यास ने इस ज्ञान को अपने शिष्य जैमिनी को सौंपा था.
2.4 अथर्ववेद संहिता: लौकिक विज्ञान और व्यावहारिक जीवन
अथर्ववेद (अर्थवा ऋषि के नाम पर) ज्ञान के सबसे व्यापक संग्रहों में से एक है, जो दैनिक जीवन और लौकिक कल्याण पर केंद्रित है।
- विषय वस्तु: अथर्ववेद में 7260 मंत्र हैं । यह वेद लौकिक कल्याण, प्रौद्योगिकी, वास्तुकला, मूर्तिकला, विभिन्न कलाओं और शिल्पों से संबंधित ज्ञान का विस्तार से वर्णन करता है । इसमें अर्थशास्त्र और सामाजिक व्यवस्था के सिद्धांतों की चर्चा है, तथा यह आरोग्य (चिकित्सा), तंत्र-मंत्र, और जादू-टोने से संबंधित मंत्रों का भी संग्रह करता है.
- योगदान: अथर्ववेद का सबसे महत्वपूर्ण योगदान भारतीय समाज, उसकी चिकित्सा पद्धति (विशेष रूप से प्राकृतिक चिकित्सा ), दैनिक जीवन के नियमों, और व्यावहारिक ज्ञान को समझने में है । यह हमें सिखाता है कि आध्यात्मिक ज्ञान को कैसे दैनिक जीवन में लागू करके शांति और समृद्धि प्राप्त की जा सकती है।
- परंपरा: वेदव्यास ने अथर्ववेद का प्रथम उपदेश अपने शिष्य सुमन्तु को दिया था.
वेदों में ज्ञान का विकास: वेदों के क्रम (ऋग्वेद से अथर्ववेद) का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट होता है कि वैदिक ज्ञान परंपरा का विकास क्रमबद्ध और आवश्यकता-आधारित रहा है। यह विकास शुद्ध आध्यात्मिक सत्य (ऋग्वेद की स्तुति) से शुरू होता है, धार्मिक क्रिया (यजुर्वेद के यज्ञ) के माध्यम से आनंदमय उपासना (सामवेद) में परिणत होता है, और अंततः दैनिक कल्याण और व्यावहारिक विज्ञान (अथर्ववेद) में लागू होता है। अथर्ववेद का लौकिक फोकस यह दर्शाता है कि सनातन धर्म ने केवल पारलौकिक मुक्ति (निःश्रेयस) ही नहीं, बल्कि भौतिक समृद्धि (अभ्युदय) को भी समान महत्व दिया है।
सारणी 2.1: चारों वेदों की संरचना और विषय वस्तु
| वेद (Veda) | शैली | मंत्र संख्या | मुख्य विषय वस्तु | प्रमुख जुड़े उपवेद |
| ऋग्वेद | मन्त्रपरक (पद्य) | लगभग 10,627 ऋचाएँ (10 मंडल) | देवताओं की स्तुति, ज्ञान कांड की नींव | आयुर्वेद (चिकित्सा विज्ञान) |
| यजुर्वेद | गद्यात्मक/पद्यात्मक | 3,750 मंत्र | यज्ञों और अनुष्ठानों के विधि-विधान (कर्मकांड) | धनुर्वेद (सैन्य विज्ञान), स्थापत्य वेद |
| सामवेद | गेयात्मक | 1,875 या 1,975 संगीतमय मंत्र | उपासना, स्वरबद्ध स्तुति, भारतीय संगीत का आधार | गांधर्ववेद (संगीत/नृत्य) |
| अथर्ववेद | प्रौद्योगिकी, तंत्रपरक | 7,260 मंत्र | लौकिक कल्याण, चिकित्सा (आरोग्य), शिल्प, तंत्र-मंत्र | स्थापत्य वेद (वास्तुकला) |
खंड III: वैदिक कर्मकांड का विस्तार: ब्राह्मण ग्रंथ और आरण्यक
ब्राह्मण ग्रंथ और आरण्यक, श्रुति साहित्य का ही हिस्सा होते हुए, वेदों के मंत्र संग्रह (संहिता) और गहन दार्शनिक चिंतन (उपनिषद) के बीच की कड़ी का काम करते हैं।
3.1 ब्राह्मण ग्रंथों का उद्देश्य और संरचना
ब्राह्मण ग्रंथ वेदों के उन भागों में शामिल हैं जिनमें यज्ञों, अनुष्ठानों और कर्मकांडों की विधियों की विस्तार से व्याख्या की गई है । ये ग्रंथ मुख्य रूप से वेदों के मंत्रों के सही उपयोग, यज्ञों के नियम, देवताओं से संबंधित कथाएँ, ब्रह्मवाद (ईश्वर का सिद्धांत), और अनुष्ठानों के आध्यात्मिक महत्व को समझाने के लिए लिखे गए थे।
- कर्मकांड से दार्शनिक सेतु: ब्राह्मण ग्रंथों का कार्य केवल क्रियाओं का विवरण देना नहीं था; ये यज्ञों और अनुष्ठानों के प्रतीकात्मक अर्थों को भी स्पष्ट करते थे, जिससे ये आरण्यकों और उपनिषदों के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी बन जाते हैं ।
3.2 प्रमुख ब्राह्मण ग्रंथ (वेद-आधारित)
प्रत्येक वेद से जुड़े प्रमुख ब्राह्मण ग्रंथ निम्न प्रकार हैं:
- ऋग्वेद के ब्राह्मण:
- ऐतरेय ब्राह्मण: यह राजा के लिए पुरोहित की नियुक्ति के विशेष महत्व को निरूपित करता है। पुरोहित को ‘आहवनीयाग्नितुल्य’ (यज्ञ की अग्नि के समान) माना जाता है, और वह राजा से यह प्रतिज्ञा कराता है कि वह अपनी प्रजा से कभी द्रोह नहीं करेगा । यह ग्रंथ पुरोहित की गरिमा और सामाजिक-राजनीतिक भूमिका को स्थापित करता है।
- कौषीतकि ब्राह्मण: यह भी ऋग्वेद की कौषीतकि शाखा से संबंधित है।
- यजुर्वेद के ब्राह्मण:
- शतपथ ब्राह्मण (शुक्ल यजुर्वेद): यह वैदिक साहित्य में सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण ब्राह्मण ग्रंथ है। इसके रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं । यह माध्यन्दिनीय और काण्व, दोनों शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं के साथ प्राप्त होता है । इसमें राजसूय, सोम, और अन्य बड़े यज्ञों के प्रकारों का विस्तृत विवरण दिया गया है.
- तैत्तिरीय ब्राह्मण (कृष्ण यजुर्वेद): इसमें नक्षत्र इष्ट (नक्षत्रों से संबंधित यज्ञ) का वर्णन किया गया है.
- सामवेद के ब्राह्मण:
- ताण्डय महाब्राह्मण (पंचविंश ब्राह्मण): यह सोम यज्ञों के प्रकारों का विस्तृत विवेचन करता है । ताण्डय ब्राह्मण में वर्णित आख्यायिकाएँ जैमिनीय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण में भी किंचित परिवर्तित रूप में मिलती हैं।
- जैमिनीय ब्राह्मण: यह भी सोम यज्ञों और अन्य अनुष्ठानों का विवरण प्रस्तुत करता है।
- अथर्ववेद के ब्राह्मण:
- गोपथ ब्राह्मण: अथर्ववेद, जो लौकिक और तंत्र-मंत्र से संबंधित है , उसके इस ब्राह्मण ग्रंथ में यज्ञों के गूढ़ रहस्यों और ब्रह्म (परम तत्व) की व्याख्या की गई है । यह उन यज्ञों के प्रतीकात्मक और दार्शनिक पक्ष को दर्शाता है।
3.3 आरण्यक (वन ग्रंथ)
आरण्यक, ब्राह्मण और उपनिषद के बीच की स्थिति रखते हैं। ये ग्रंथ उन साधकों के लिए थे जो गृहस्थ जीवन से निवृत्त होकर वन (आरण्य) में रहते थे और गहन दार्शनिक चिंतन करते थे।
- उद्देश्य: आरण्यक बाह्य अनुष्ठानों और कर्मकांडों के स्थान पर उनके आंतरिक, रहस्यमय, और प्रतीकात्मक उपासना (उपनिषद की ओर एक कदम) पर जोर देते हैं। वे यज्ञों को मानसिक रूप से करने की विधि बताते हैं, जिससे साधक संन्यास और वेदांत के गहन सिद्धांतों के अध्ययन के लिए मानसिक रूप से तैयार हो सके।
कर्म से ज्ञान की ओर परिवर्तन: ब्राह्मण ग्रंथों में वर्णित कर्मकांड की जटिलता और विशालता ने अंततः चिंतन की आवश्यकता को जन्म दिया। यज्ञ के नियमों की व्याख्या करते हुए भी, ब्राह्मणों ने यह संकेत देना शुरू किया कि अनुष्ठान केवल भौतिक क्रियाएँ नहीं हैं, बल्कि उनके पीछे गहन रहस्य और ब्रह्म संबंधी चिंतन निहित है। यह धीरे-धीरे उपनिषदों के पूर्ण ज्ञानमार्ग के लिए दार्शनिक आधार तैयार करता है, जहाँ बाह्य क्रिया गौण हो जाती है और आंतरिक अनुभूति सर्वोपरि हो जाती है।
खंड IV: ज्ञान कांड का शिखर: उपनिषद (The Upanishads – The Apex of Knowledge)
उपनिषद वैदिक ज्ञान परंपरा का चरम बिंदु हैं, जिन्हें ‘वेदांत’ (वेद का अंत या सार) कहा जाता है। ये गहनतम दार्शनिक ग्रंथों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो श्रुति साहित्य के अंतिम चरण में आते हैं।
4.1 उपनिषदों का दार्शनिक आधार
- अर्थ और परंपरा: ‘उपनिषद’ का तात्पर्य ‘गुरु के पास श्रद्धापूर्वक बैठना’ है, जहाँ छात्र गुरु से गुप्त और गहन आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है । इनका केंद्रीय विषय कर्मकांडों से ध्यान हटाकर ज्ञान मार्ग (ज्ञान योग) के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति है.
- मूल सिद्धांत (ब्रह्म और आत्मा): उपनिषदों का मौलिक सिद्धांत ब्रह्म (सर्वोच्च सत्य) और आत्मा (शुद्ध चेतना/व्यक्तिगत आत्म) की एकता है । आत्मा का वास्तविक स्वरूप ब्रह्म ही है (जैसे: महावाक्य ‘तत् त्वम् असि’ – वह तू ही है)। ब्रह्म को सर्वोच्च सत्य और आत्मा को शुद्ध चेतना के रूप में परिभाषित किया गया है, और मोक्ष की प्राप्ति इसी आत्म-ज्ञान और ब्रह्म के साथ एकत्व के अनुभव में निहित है.
- प्रस्थानत्रयी: वेदांत दर्शन, जो उपनिषदों पर आधारित है, तीन मौलिक ग्रंथों को ‘प्रस्थानत्रयी’ मानता है: उपनिषद, ब्रह्म सूत्र, और श्रीमद्भगवद्गीता.
4.2 दशोपनिषद (मुख्य उपनिषद)
कुल 108 उपनिषदों की एक लंबी सूची है (मुक्तिका उपनिषद द्वारा सूचीबद्ध), लेकिन आदि शंकराचार्य द्वारा भाष्य किए गए 10 उपनिषद सबसे महत्वपूर्ण और प्रामाणिक माने जाते हैं, जिन्हें ‘दशोपनिषद’ कहा जाता है:
- ईशोपनिषद (शुक्ल यजुर्वेद): यह सबसे छोटा उपनिषद है और कर्म तथा ज्ञान के बीच संतुलन पर जोर देता है। यह सिखाता है कि इस संसार में जो कुछ भी है, वह सब ईश्वर का है (‘ईशावास्यमिदं सर्वम्’)। हमें इसे संपत्ति के बजाय प्रसाद की तरह ग्रहण करना चाहिए, ताकि संग्रह का लोभ और ईर्ष्या उत्पन्न न हो । यह आज के युवाओं के लिए भी प्रासंगिक शिक्षा है।
- केन उपनिषद (सामवेद): यह ब्रह्म के अनिर्वचनीय स्वरूप का वर्णन करता है—वह कौन है जो मन, प्राण और वाणी को प्रेरित करता है।
- कठ उपनिषद (कृष्ण यजुर्वेद): इसमें नचिकेता और मृत्यु के देवता यम के बीच प्रसिद्ध संवाद शामिल है। यह आत्मा की अमरता और दो मार्गों—श्रेय (कल्याणकारी/अच्छा) और प्रेय (प्रिय/सुखद)—के भेद का विवेचन करता है।
- प्रश्न उपनिषद (अथर्ववेद): पिप्पलाद ऋषि और छह शिष्यों के बीच सृष्टि, प्राण, और आत्मा से संबंधित छह मौलिक प्रश्नों पर संवाद।
- मुंडक उपनिषद (अथर्ववेद): इसमें ‘सत्यमेव जयते’ (सत्य की ही जीत होती है) महावाक्य निहित है। यह परा विद्या (ब्रह्म ज्ञान, जिसके द्वारा अविनाशी तत्व का ज्ञान होता है) और अपरा विद्या (वेदों और लौकिक ज्ञान) का भेद समझाता है।
- मांडूक्य उपनिषद (अथर्ववेद): यह ॐ (प्रणव) के महत्व और चेतना की चार अवस्थाओं—जाग्रत (जागृत अवस्था), स्वप्न (स्वप्न अवस्था), सुषुप्ति (गहरी नींद), और तुरीय (चेतना की चौथी अवस्था, ब्रह्म का अनुभव)—का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
- तैत्तिरीय उपनिषद (कृष्ण यजुर्वेद): इसमें कोशों (शरीर की पांच परतों: अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय) का सिद्धांत और ब्रह्म की प्राप्ति के लिए आनंद की खोज का वर्णन है।
- ऐतरेय उपनिषद (ऋग्वेद): यह सृष्टि की उत्पत्ति और चेतना के स्वरूप पर केंद्रित है।
- छांदोग्य उपनिषद (सामवेद): यह ‘तत् त्वम् असि’ (वह तुम हो) महावाक्य के माध्यम से आत्मा और ब्रह्म की एकता को स्थापित करता है, साथ ही सामवेद के महत्व को भी दर्शाता है।
- बृहदारण्यक उपनिषद (शुक्ल यजुर्वेद): यह सबसे बड़ा उपनिषद है, जिसमें याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी मैत्रेयी के बीच अमरता (अमृतत्व) पर प्रसिद्ध दार्शनिक संवाद निहित है।
4.3 आत्म-ज्ञान का मार्ग: श्रवण, मनन, निदिध्यासन
उपनिषद केवल सैद्धांतिक विमर्श तक सीमित नहीं रहते, बल्कि वे आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए एक सुव्यवस्थित तीन-चरणीय व्यावहारिक मार्ग बताते हैं:
- श्रवण (सुनना): यह वह प्रारंभिक चरण है जहाँ साधक गुरु या शास्त्रों से आत्मा के विषय में सुनता है, जिससे उसके भीतर जिज्ञासा की लौ प्रज्वलित होती है.
- मनन (चिंतन): यह वह अवस्था है जहाँ श्रवण से उत्पन्न ज्ञान को मन में बार-बार दोहराया जाता है। यह मनन केवल सामान्य तर्क नहीं है, बल्कि यह तर्क का शोधन है, जहाँ साधक अपने भीतर उठने वाले प्रत्येक संशय को गुरु और शास्त्रों से मिले ज्ञान से संतुलित करता है। यह सोने को बार-बार अग्नि में तपाकर अशुद्धियाँ दूर करने जैसा है.
- निदिध्यासन (ध्यान): यह अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण अवस्था है, जब साधक अपने संपूर्ण अस्तित्व के साथ उस आत्मा में लीन हो जाता है, उसे अनुभव करता है, और उसी में लय प्राप्त करता है। यह वह चरण है जहाँ मन स्थिर होता है, बुद्धि मौन होती है, और केवल आत्मा का प्रकाश शेष रहता है । यह प्रक्रिया बताती है कि आत्मा को जानने के लिए केवल ग्रंथों का बौद्धिक अध्ययन पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसे जीवन में उतारना, यानी आत्म-अनुभूति आवश्यक है।
दर्शन और अभ्यास का मेल: श्रवण-मनन-निदिध्यासन की यह त्रिपदी सुनिश्चित करती है कि वैदिक ज्ञान केवल एक बौद्धिक विमर्श न रह जाए। यह मार्ग बौद्धिक ज्ञान (श्रवण) को तार्किक आत्मसात (मनन) से जोड़ता है, और अंततः उसे अनुभवजन्य सत्य (निदिध्यासन) में परिवर्तित करता है। यह ज्ञानमीमांसीय दृष्टिकोण आधुनिक शैक्षणिक प्रणालियों की आलोचना करता है जो केवल सैद्धांतिक ज्ञान पर जोर देती हैं, जबकि उपनिषद मन के शोधन और आत्म-अनुभूति को मोक्ष का अंतिम साधन मानते हैं।
खंड V: स्मृति साहित्य: 18 महापुराण (The 18 Mahapuranas)
पुराण (शाब्दिक अर्थ: ‘पुराना’ या ‘प्राचीन आख्यान’) स्मृति साहित्य का एक विशाल खंड हैं। इनका मुख्य कार्य वेदों की जटिल दार्शनिक और कर्मकांडीय शिक्षाओं को सरल कथाओं, वंशावलियों, और धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से जनमानस तक पहुंचाना था ।
5.1 पुराणों का महत्व और पंच-लक्षण
- उद्देश्य: पुराणों ने भक्ति मार्ग को बढ़ावा दिया, जिससे विभिन्न इष्ट देवताओं (विष्णु, शिव, शक्ति) की उपासना वैदिक ढांचे में समाहित हो सके। ये धर्म, नीति, मोक्ष, और जीवन के अंतिम सत्य की ओर मार्गदर्शन करते हैं ।
- पंच-लक्षण (Five Characteristics): पारंपरिक रूप से, किसी ग्रंथ को ‘महापुराण’ कहलाने के लिए उसमें अनिवार्य रूप से पाँच विषयों का समावेश होना चाहिए, यद्यपि आधुनिक ग्रंथों में यह परिभाषा बदल सकती है:
- सर्ग: सृष्टि की उत्पत्ति या ब्रह्मांड का निर्माण (Creation).
- प्रतिसर्ग: प्रलय (विनाश) और पुनर्सृष्टि (Re-creation).
- वंश: देवताओं (देवता) और ऋषियों (ऋषि) के वंशों का वर्णन.
- मन्वन्तर: विभिन्न मनुओं (जैसे स्वायंभुव मनु) के कालखंडों और चक्रों का विवरण।
- वंशानुचरित: सूर्य वंश और चंद्र वंश के राजाओं और महापुरुषों (जैसे राम और कृष्ण) के विशिष्ट चरित्र और ऐतिहासिक विवरण.
5.2 अठारह महापुराणों का वर्गीकरण
महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित सभी 18 पुराणों को महापुराण कहा जाता है । इन्हें उनके द्वारा प्रचारित दर्शन और केंद्रीय देवता (ईश्वर के गुण) के आधार पर प्रकृति के तीन गुणों (त्रिगुण) के अनुसार वर्गीकृत किया गया है:
सारणी 5.1: 18 महापुराण: गुण-आधारित वर्गीकरण
| गुण (Guna) | केन्द्रण (प्रमुख देवता) | महापुराणों की सूची (6 प्रत्येक) | विशेषता |
| सात्विक (सत्य गुण) | विष्णु (सद्गुण और ज्ञान) | विष्णु पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण, वराह पुराण, गरुड़ पुराण | शांति, ज्ञान, और भक्ति पर जोर। |
| राजसिक (रज गुण) | ब्रह्मा (सृष्टि और कर्म) | ब्रह्मांड पुराण, मार्कण्डेय पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्म पुराण, वामन पुराण | कर्मकांड, वंशावली, और क्रिया पर जोर। |
| तामसिक (तम गुण) | शिव (विनाश और रूपांतरण) | लिंग पुराण, शिव पुराण, स्कन्द पुराण, अग्नि पुराण, कूर्म पुराण, मत्स्य पुराण | गूढ़ विषय, अनुष्ठान, और वीरता की कहानियाँ। |
(टिप्पणी: 18 महापुराणों के अतिरिक्त उपपुराण (जैसे गणेश पुराण, कालिका पुराण) भी हैं, किंतु मुख्य मान्यता 18 महापुराणों को ही प्राप्त है )।
5.3 प्रमुख पुराणों का विशिष्ट विवरण
- श्रीमद्भागवत पुराण: यह सात्विक पुराणों में सर्वोच्च माना जाता है, जो मुख्य रूप से कृष्ण की लीलाओं, भक्ति योग के सिद्धांतों, और भागवत धर्म के उत्कर्ष पर केंद्रित है.
- ब्रह्मांड पुराण: इस पुराण को चार पादों (प्रक्रिया, अनुष्ठान, उपोघात, उपसंहार) में विभाजित किया गया है । यह सृष्टि की रचना, ब्रह्मांड की उत्पत्ति, यज्ञ, व्रत, दान, और विभिन्न संस्कारों का विस्तृत वर्णन करता है । इसकी सांस्कृतिक पहुँच वैश्विक थी, जैसा कि जावा द्वीप में इसके प्राचीन अनुवाद से पता चलता है, जो भारतीय संस्कृति की गहरी जड़ों को दर्शाता है.
- शिव पुराण: तामसिक श्रेणी में आने वाला यह पुराण शिव की महिमा, ज्योतिर्लिंगों के माहात्म्य, और लिंग पूजा के सिद्धांतों का विस्तार से वर्णन करता है.
- गरुड़ पुराण: यह मृत्यु, कर्मों के फल, पुनर्जन्म, और अंतिम संस्कार से संबंधित अनुष्ठानों का विवरण देता है।
- स्कंद पुराण: यह सबसे विशाल महापुराण है, जिसमें 81,100 श्लोक हैं । यह मुख्य रूप से तीर्थों, मंदिरों, और धार्मिक स्थानों के माहात्म्य का वर्णन करता है।
पंथीय समन्वय का दर्शन: पुराणों का त्रिगुणों के आधार पर वर्गीकरण यह स्थापित करता है कि सनातन धर्म विभिन्न पंथों (शैव, वैष्णव, शाक्त) के बीच एक अंतर्निहित समन्वय स्थापित करता है। ये ग्रंथ वेदों के ज्ञान को विभिन्न इष्ट देवताओं के माध्यम से प्रचारित करते हैं, जिससे विभिन्न प्रवृत्तियों (त्रिगुणों) वाले साधक अपनी प्रकृति के अनुसार मोक्ष की ओर बढ़ सकें। यह संरचना सनातन धर्म की समावेशी प्रकृति का एक स्पष्ट उदाहरण है।
खंड VI: इतिहास: महाकाव्य और नीतिशास्त्र (The Itihasas: Epics and Ethics)
इतिहास, या महाकाव्य, स्मृति साहित्य के वे ग्रंथ हैं जो धर्म और नैतिकता को कथाओं और मानवीय संघर्षों के माध्यम से समझाते हैं। ये ग्रंथ धार्मिक दृष्टिकोण के साथ-साथ जीवन प्रबंधन के सिद्धांतों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं.
6.1 रामायण (आदि काव्य)
- लेखक: महर्षि वाल्मीकि।
- विषय: यह भगवान राम के जीवन पर केंद्रित है, जिन्हें धर्म के आदर्श (मर्यादा पुरुषोत्तम) का प्रतीक माना जाता है। रामायण हमें आदर्श पारिवारिक कर्तव्य (पुत्र धर्म, पत्नी धर्म, भ्रातृ धर्म), नेतृत्व के सिद्धांतों, नैतिक निर्णय-निर्माण, और संकट प्रबंधन जैसे विषयों पर अमूल्य शिक्षाएँ प्रदान करती है.
6.2 महाभारत (पंचम वेद)
- लेखक: महर्षि वेदव्यास।
- विषय: यह कौरवों और पांडवों के बीच धर्म और अधर्म के संघर्ष पर आधारित विश्व का सबसे विशाल महाकाव्य है। इसे ‘पंचम वेद’ भी कहा जाता है क्योंकि इसमें चारों वेदों, उपनिषदों, और अन्य शास्त्रों का सार समाहित है। महाभारत, विशेष रूप से भगवद्गीता के माध्यम से, यह सिखाता है कि जब जीवन में अज्ञान और नैतिक द्वंद्व चरम पर हों, तो ज्ञान और धर्म का मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ होता है.
- धर्म का व्यावहारिक प्रदर्शन: महाभारत मानव जीवन की जटिलता को प्रदर्शित करता है। इसमें दिखाया गया है कि धार्मिक राजा युधिष्ठिर जैसा व्यक्ति भी जुए के अधर्म में प्रवृत्त होकर अपने राज्य और प्रतिष्ठा को एक ही दिन में नष्ट कर सकता है, यह दर्शाता है कि धार्मिक प्रवृत्ति का पालन अत्यंत तत्परता और सावधानी से करना चाहिए.
6.3 श्रीमद्भगवद्गीता (उपदेश का सार)
श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व का एक अत्यंत संवेदनशील और दार्शनिक भाग है, जिसमें कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में भगवान कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद निहित है. इसे उपनिषदों का सार माना जाता है।
- त्रियोगों का संतुलन: गीता को ‘योगशास्त्र’ का ग्रंथ माना जाता है क्योंकि यह मोक्ष प्राप्ति के लिए तीन प्रमुख मार्गों (योगों) का समन्वय और संतुलन प्रस्तुत करती है :
- कर्मयोग: यह फल की इच्छा, आसक्ति या अभिमान को त्यागकर अपने निर्धारित कर्तव्य (धर्म) को पूरा करने पर जोर देता है। यह मोक्ष के लिए संतुलित मार्ग प्रदान करता है, जिसे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे विद्वान सर्वाधिक महत्व देते हैं.
- ज्ञानयोग: यह आत्मा के स्वरूप (आत्म-स्वरूप ज्ञान) और ब्रह्म के साथ उसके संबंध को जानने पर केंद्रित है। यह केवल बौद्धिक विमर्श नहीं है, बल्कि आत्मज्ञान और बंधनमुक्ति की ओर ले जाने वाला एक आध्यात्मिक पथ है । आचार्य शंकर ज्ञान मार्ग को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।
- भक्तियोग: यह परमात्मा पर मन लगाने, उनकी भक्ति करने और पूर्ण विश्वास रखने पर केंद्रित है । कृष्ण आश्वासन देते हैं कि वे अपने भक्तों को वह सब प्रदान करते हैं जो उनके पास नहीं है, और जो उनके पास है, उसकी रक्षा करते हैं। रामानुजाचार्य और माधवाचार्य जैसे आचार्यों ने भक्ति मार्ग को प्रमुखता दी.
- व्यावहारिक शिक्षा: गीता संसार के अटल नियम को समझाती है: जो आया है उसे दुःख का सामना करना ही पड़ेगा। यह सिखाती है कि बुरे वक्त में विचलित न होकर डटकर सामना करना चाहिए, क्योंकि रोने या चिंता करने से दुःख कम नहीं होगा, बल्कि बढ़ेगा । इसके अतिरिक्त, यह आवश्यकतानुसार स्वयं में बदलाव करने और अपने कर्म को समाज की चिंता किए बिना पूरा करने का उपदेश देती है।
संघर्ष और आदर्श का संश्लेषण: महाकाव्य (रामायण और महाभारत) धर्म के दो महत्वपूर्ण पहलुओं को दर्शाते हैं: रामायण धर्म के आदर्श (व्यवस्थित और सहज) को प्रस्तुत करती है, जबकि महाभारत धर्म के व्यावहारिक (जटिल और द्वंद्वपूर्ण) पक्ष को दर्शाती है। भगवद्गीता इस द्वंद्व का समाधान प्रस्तुत करती है, यह सिखाती है कि जब कर्म और धर्म के बीच स्पष्ट मार्ग न हो, तो ज्ञान, भक्ति, और अनासक्त कर्म का सहारा लेना चाहिए।
खंड VII: वेदों के सहायक विज्ञान: वेदांग और उपवेद (Ancillary Sciences)
वेदांग और उपवेद स्मृति साहित्य के अंतर्गत आते हैं, जिनका उद्देश्य वेदों को समझने, संरक्षित करने, और उनके ज्ञान का सही ढंग से उपयोग सुनिश्चित करने के लिए सहायक विज्ञान प्रदान करना है।
7.1 षड् वेदांग (Six Limbs of the Veda)
वेदांग (वेद+अंग) का अर्थ है वेदों के अंग। ये छह विषय वैदिक शिक्षा को पूर्ण करते हैं और वेदों के ‘शरीर’ के प्रतीक माने जाते हैं ।
सारणी 7.1: षड् वेदांग और उनकी कार्यात्मक भूमिका
| वेदांग (Limb) | वेदों में स्थान (प्रतीक) | मुख्य विषय (Core Subject) | उद्देश्य |
| 1. शिक्षा | नासिका (नाक) | ध्वनि विज्ञान, उच्चारण (फोनेटिक्स) | मंत्रों का शुद्ध और सही उच्चारण सुनिश्चित करना। |
| 2. कल्प | हाथ | कर्मकांडीय सूत्र, विधि-विधान | यज्ञों और अनुष्ठानों की प्रक्रियाओं और नियमों का निर्धारण. |
| 3. व्याकरण | मुख (मुंह) | भाषा, शब्द विश्लेषण | वैदिक संस्कृत और भाषा की शुद्धता बनाए रखना। |
| 4. निरुक्त | कान | व्युत्पत्ति विज्ञान, शब्दकोश (इटिमोलॉजी) | वैदिक शब्दों की उत्पत्ति और उनके सही अर्थ को समझना. |
| 5. छंद | पाद (पैर) | वैदिक मीटर, लय, गेय स्वरूप | मंत्रों के उचित गेय स्वरूप और माप का ज्ञान. |
| 6. ज्योतिष | नेत्र (आँख) | खगोल विज्ञान, काल गणना | यज्ञों और अनुष्ठानों के लिए शुभ और सही समय निर्धारित करना. |
वेदांगों का प्रतीकात्मक शरीर से संबंध यह दर्शाता है कि वैदिक ज्ञान को एक एकीकृत और समग्र प्रणाली के रूप में देखा गया था। व्याकरण (मुख) के बिना वेदों का सही अर्थ समझना कठिन है, और ज्योतिष (नेत्र) के बिना अनुष्ठान सही समय पर नहीं हो सकता। ये सहायक ग्रंथ वेदों की कालातीत प्रामाणिकता को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
7.2 चार उपवेद (Four Auxiliary Vedas)
उपवेद वेदों से जुड़ी हुई विशिष्ट विद्याएँ हैं, जो व्यावहारिक और प्रायोगिक विषयों पर केंद्रित होती हैं, जिससे वेदों के ज्ञान को विस्तारित किया जा सके ।
- आयुर्वेद (चिकित्सा विज्ञान): यह स्वास्थ्य, रोग निवारण, और दीर्घायु के सिद्धांतों से संबंधित है । (माना जाता है कि यह ऋग्वेद या अथर्ववेद से जुड़ा है)।
- धनुर्वेद (युद्धकला): यह सैन्य विज्ञान, युद्ध कला, और धनुर्विद्या से संबंधित ज्ञान का भंडार है । (यह यजुर्वेद से जुड़ा है, जो क्रिया और अनुष्ठान पर केंद्रित है)।
- गांधर्ववेद (संगीत और नृत्य कला): यह संगीत, कला, और सौंदर्यशास्त्र से संबंधित है । (यह सामवेद से जुड़ा है, जो गेयात्मक है)।
- स्थापत्य वेद (वास्तुकला): यह वास्तुकला, शिल्प, अभियांत्रिकी, और भवन निर्माण के सिद्धांतों से संबंधित है । (यह अथर्ववेद और यजुर्वेद से संबंधित माना जाता है)।
उपवेदों के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि सनातन धर्म का ज्ञान केवल मोक्ष तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें मानव कल्याण, सामाजिक सुरक्षा (धनुर्वेद), स्वास्थ्य (आयुर्वेद), और भौतिक समृद्धि (स्थापत्य वेद) के लिए आवश्यक लौकिक विज्ञान भी शामिल थे।
खंड VIII: आस्तिक दर्शन: षड् दर्शन (The Āstika Darshanas)
षड् दर्शन (छह दार्शनिक दृष्टिकोण) उन छह आस्तिक प्रणालियों को संदर्भित करते हैं जो वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करती हैं और मोक्ष प्राप्ति के लिए तार्किक और वैचारिक मार्ग प्रदान करती हैं ।
8.1 दर्शन का उद्देश्य
सभी छह दर्शनों का अंतिम लक्ष्य सत्य की खोज, दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति (आत्मा की मुक्ति), और जीवन के अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति है । ये दर्शन वैचारिक स्पष्टता, आध्यात्मिक दृष्टि और जीवन को देखने का एक तार्किक फ्रेमवर्क प्रदान करते हैं।
8.2 दर्शनों का व्यवस्थित युग्मन
छह दर्शनों को अक्सर तीन युग्मों में पढ़ा जाता है, जो एक दूसरे के सैद्धांतिक आधार और व्यावहारिक अनुप्रयोग के पूरक होते हैं :
सारणी 8.1: छह आस्तिक दर्शन: प्रवर्तक और मुख्य सिद्धांत
| क्र. सं. | दर्शन (School) | प्रवर्तक (Founder) | मुख्य सिद्धांत (Core Doctrine) | युग्मन और महत्व |
| 1. | न्याय | महर्षि गौतम | ज्ञान प्राप्ति के लिए तर्क और चार प्रमाणों (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द) का उपयोग। | तर्क और विश्व की संरचना पर केंद्रित (वैशेषिक के साथ). |
| 2. | वैशेषिक | महर्षि कणाद | सृष्टि का परमाणु सिद्धांत; छह पदार्थों (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय) के माध्यम से विश्व की व्याख्या। | न्याय दर्शन को भौतिक और वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है। |
| 3. | सांख्य | महर्षि कपिल | द्वैतवाद: प्रकृति (संसार, 23 विकार) और पुरुष (आत्मा, साक्षी) का विश्लेषण। आत्मा केवल द्रष्टा है. | योग दर्शन का सैद्धांतिक आधार. |
| 4. | योग | महर्षि पतंजलि | सांख्य के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए, मन को नियंत्रित करके आत्मा को परमात्मा से मिलाना (‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’). | योग (व्यावहारिक अनुशासन), अष्टांग योग (यम, नियम, आसन, आदि). |
| 5. | पूर्व मीमांसा | महर्षि जैमिनी | वेदों के कर्मकांड भाग की व्याख्या; मोक्ष कर्मों द्वारा प्राप्त होता है। वेदों को नित्य सत्य माना गया है. | कर्मकांड पर जोर (वेदांत के विपरीत). |
| 6. | वेदांत (उत्तर मीमांसा) | महर्षि बादरायण (वेदव्यास) | उपनिषदों का सार: ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और आत्मा उसी का अंश है. | ज्ञान और ब्रह्म पर केंद्रित (मीमांसा के विपरीत). |
8.3 वेदांत दर्शन के प्रमुख उप-स्कूल
वेदांत दर्शन प्रस्थानत्रयी (उपनिषद, गीता, ब्रह्म सूत्र) पर आधारित है । ब्रह्म सूत्र पर भाष्य लिखने वाले तीन प्रमुख आचार्यों ने वेदांत के तीन महत्वपूर्ण उप-स्कूलों को जन्म दिया :
- अद्वैत वेदांत (आदि शंकराचार्य): इस सिद्धांत के अनुसार, ब्रह्म और आत्मा पूर्णतः एक हैं (‘अद्वैत’ का अर्थ है ‘द्वैत नहीं’) । सृष्टि (जगत) को माया या भ्रम माना जाता है।
- विशिष्टाद्वैत वेदांत (रामानुजाचार्य): इसे ‘सगुण अद्वैतवाद’ भी कहा जाता है । यह सिद्धांत बल देता है कि केवल ब्रह्म (ईश्वर) ही अस्तित्व में है और उसका एक निश्चित रूप होता है। हालांकि, संपूर्ण सृष्टि (जगत) और प्रत्येक आत्मा (जीव) उसी ईश्वर के शरीर का हिस्सा हैं, जो विशिष्ट रूप से उससे संबंधित हैं ।
- द्वैत वेदांत (माधवाचार्य): इस सिद्धांत के अनुसार, ब्रह्म (ईश्वर) और आत्मा (जीव) पूर्णतः और शाश्वत रूप से विभिन्न (अलग) हैं ।
दर्शनों की बहुलता और कार्यप्रणाली: षड् दर्शन प्रणाली यह प्रदर्शित करती है कि सनातन ज्ञान परंपरा सत्य की खोज के लिए किसी एक कठोर मार्ग का आग्रह नहीं करती। यह ज्ञान प्राप्ति के लिए छह अलग-अलग, वैध मार्गों को मान्यता देती है—न्याय का तर्क, वैशेषिक का भौतिक विश्लेषण, सांख्य का सैद्धांतिक विश्लेषण, योग का व्यावहारिक अनुशासन, मीमांसा का कर्म, और वेदांत का ज्ञान। यह बहुलता दर्शन को गतिशील और समावेशी बनाए रखती है, जिससे विभिन्न मानसिक प्रवृत्तियों वाले साधक मोक्ष की ओर बढ़ सकते हैं।
खंड IX: अन्य महत्वपूर्ण धर्म ग्रंथ
स्मृति साहित्य के अंतर्गत अन्य कई महत्वपूर्ण ग्रंथ भी शामिल हैं, जो समाज के आचार-विचार, नियम-कानून, और उपासना पद्धतियों को संगठित करते हैं।
9.1 धर्मशास्त्र (स्मृति ग्रंथ)
धर्मशास्त्र वे ग्रंथ हैं जो श्रुति के नैतिक और सामाजिक सिद्धांतों को संगठित और संहिताबद्ध करते हैं। इन्हें भी ‘स्मृति’ कहा जाता है।
- मूल स्मृतियाँ: मूल 18 स्मृतियाँ मानी जाती हैं, जिनमें अत्रि, विष्णु, हरिता, औशनस, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, लिखित, दक्ष, गौतम, शतातप, और वशिष्ठ स्मृति प्रमुख हैं ।
- विषय: ये ग्रंथ सामाजिक, नैतिक, कानूनी (सिविल और आपराधिक), और धार्मिक नियमों (वर्णाश्रम धर्म) का विवरण देते हैं, जिनका उद्देश्य समाज में व्यवस्था और धर्म की स्थापना करना था। मनुस्मृति इनमें सबसे प्रसिद्ध है।
9.2 आगम और तंत्र साहित्य
आगम (अर्थात ‘जो आया है’) और तंत्र साहित्य उपासना पद्धतियों और गूढ़ रहस्यों से संबंधित ग्रंथ हैं, जो वेदों के कर्मकांडों के पूरक माने जाते हैं। इन्हें अक्सर भक्ति और पूजा के लिए ‘पंचम वेद’ कहा जाता है।
- परिभाषा और उद्देश्य: आगम ग्रंथों का मुख्य उद्देश्य धार्मिक क्रियाओं, मूर्तिपूजा, मंदिर निर्माण (वास्तु), और उपासना पद्धतियों का विस्तृत वर्णन करना है । ये ग्रंथ धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए व्यावहारिक मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।
- देवता-आधारित वर्गीकरण: आगम ग्रंथों को उनके उपास्य देवता के आधार पर तीन प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जाता है :
- शैव आगम: ये शिव को समर्पित हैं। इनमें शिव की महिमा, लिंग पूजा, और विशेष रूप से पाशुपत जैसे शैव संप्रदायों के सिद्धांत, योग प्रथाएँ, और दीक्षा विधियाँ शामिल हैं। पाशुपत दर्शन में मुक्ति को शिव की कृपा से प्राप्त होने वाला परमैश्वर्य (सर्वज्ञता और क्रियाशक्ति) माना जाता है ।
- वैष्णव आगम (संहिता): ये विष्णु पर केंद्रित होते हैं। यद्यपि ‘संहिता’ शब्द का प्रयोग वैदिक संहिताओं के लिए भी होता है, वैष्णवागमों में विष्णु की उपासना, मंदिर अनुष्ठान, और पंचरात्र सिद्धांत का वर्णन मिलता है ।
- शाक्त आगम (तंत्र): ये शक्ति, या दिव्य स्त्री शक्ति (देवी) की उपासना के इर्द-गिर्द केंद्रित होते हैं । इनमें गूढ़ मंत्रों, चक्रों, और विशिष्ट क्रियाओं (पूजा, योग) का विवरण होता है।
लोकव्यापीकरण का महत्व: यदि वेद और उपनिषद ज्ञान का उच्चतम शिखर प्रस्तुत करते हैं, तो पुराण, आगम, और इतिहास ने उस ज्ञान को आम जनमानस तक पहुँचाने (लोकव्यापीकरण) का कार्य किया। पुराणों ने इसे कथाओं के माध्यम से किया, जबकि आगमों ने इसे उपासना (पूजा, तंत्र) के माध्यम से सुलभ बनाया। इस प्रक्रिया ने यह सुनिश्चित किया कि सनातन धर्म का गहन ज्ञान केवल विद्वानों तक सीमित न रहे, बल्कि समाज के हर स्तर के व्यक्ति के लिए सुलभ हो और उसे दैनिक जीवन में लागू किया जा सके।
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