बाबरी ढही और उसी शाम उत्तर प्रदेश की सरकार भी साथ-साथ ढह गई—शायद 6 दिसंबर 1992 को इतिहास ने भी सोचा होगा कि आज डबल डिस्काउंट सेल चल रही है। मस्जिद भी गिरी और सरकार भी। और मज़े की बात देखिए—फिर 2017 तक बीजेपी को बहुमत नहीं मिला।
वाह रे हिंदू वोटर! भावनाओं से खेलना हो तो आपसे बेहतर ग्राहक किसे मिलेगा?
और हाँ, उसी समय कांग्रेस ने चार बीजेपी राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाकर बता दिया था कि “हमसे जो हो सकता है…अभी भी वही करते हैं।”
लेकिन असली मज़ा तो आपके अपने सेक्युलर हिंदू भाइयों ने दिलाया—बाबरी के नाम पर छाती ठोकते भी इन्हीं ने थे और वोट आने पर हाथ जोड़कर मुकरने वाले भी यही थे।
अब लोग पूछते हैं—“मोदी जी और योगी जी खुलकर क्यों नहीं बोलते?”
अरे भइया! किसके लिए बोलें? उनके लिए जो ताली बजाते-बजाते अगले मोड़ पर जाकर बटन किसी और को दबा आते हैं?
हिन्दू समाज अगर एक बार दृढ़ निश्चय कर ले कि किसी मुद्दे पर बिना मतलब, बिना लालच, सिर्फ सिद्धांत के आधार पर किसी का साथ देगा…तो शायद सूरज पश्चिम से उग आए!
नब्बे के दशक में कल्याण सिंह को यूपी ने बहुमत देकर कहा था—
“लो भइया! खुला लाइसेंस है—मंदिर बनाओ।”
उन्होंने भी दिल से सोचा—चलो जनता का सपना पूरा करते हैं।
विश्व हिन्दू परिषद को जमीन दी, कारसेवा शुरू हुई, साधू-संत, कार्यकर्ता दिन-रात लग गए।
लेकिन तभी हमारे सेक्युलर चाणक्यों के पेट में मरोड़ उठा—
“अरे नहीं-नहीं! इससे हमारी सेकुलर छवि खराब हो जाएगी!”
सुप्रीम कोर्ट ने कल्याण सिंह से पूछा—
“ये हाफ पैंट वाले सिर्फ जमीन समतल कर रहे हैं ना?”
कल्याण सिंह ने भी मासूमियत से हलफनामा दे दिया—“हाँ साहब! हम मस्जिद को छूएँगे भी नहीं।”
लेकिन 5 लाख कारसेवकों को देखकर वो दिन ऐसा निकला कि 400 साल पुरानी इमारत 5 घंटे में इतिहास बन गई।
केंद्र सरकार का फोन आया—
“ये कैसे हुआ?”
कल्याण सिंह ने भी जवाब दे दिया—
“जो होना था हो गया…अब गोली चलवाकर इतिहास में अपना नाम क्यों बिगाड़ूँ?”
उस शाम इस्तीफा दे दिया।
कांग्रेस ने चार बीजेपी सरकारें गिरा दीं।
कल्याण सिंह को जेल हो गई।
और फिर उत्तर प्रदेश के महान समझदार, परिपक्व, दूरदर्शी, सेक्युलर, ब्रह्मज्ञानी हिंदू वोटरों ने क्या किया?
बीजेपी को हराया।
वाह!
मंदिर भी गिरवाया, नेता भी गिरवाया, सरकार भी गिरवाई।
यही तो है हिन्दू समाज की “रणनीतिक सोच”!
और फिर 2017 तक बीजेपी को पूर्ण बहुमत नसीब नहीं हुआ।
कल्याण सिंह का राजनीतिक भविष्य भी उसी दिन खत्म हो गया।
लेकिन आज वही समाज पूछता है—
“मोदी और योगी खुलकर क्यों नहीं बोलते?”
क्यों बोलें भाई?
किसके लिए बोलें?
उनके लिए जिनका इतिहास है—“दूध भी दो, दही भी दो, और आखिरी वक्त में वोट किसी और को दो”?
अभी हाल ही में किसान आंदोलन देख लिया—
अंतरराष्ट्रीय स्क्रिप्ट पर चल रहा था, हल किसी को नहीं चाहिए था, पर दोष मोदी को ही चाहिए था।
धारा 370 हटाई तो होना था कि हिन्दू समाज ऋणी हो जाता—लेकिन नहीं!
वोट में उन्हीं 240 सीटों तक सरका दिया।
वाराणसी से प्रधानमंत्री को भी हराने का शानदार प्रयास किया—
शाबाश सेक्युलर बुद्धिजीवियों!
राममंदिर बना, पर वोट कम हो गए।
अब भी कहते हैं—
“हम समझदार हैं, जागरूक हैं!”
हाँ, इतना जागरूक कि हर बार अपनी ही जीत को हार में बदल देते हैं।
और फिर फरमाते हैं—
“हमें सर्वधर्म समभाव चाहिए।”
ज़रूर चाहिए!
पर ये न भूलें—समभाव वही निभा सकता है जिसका अपना सम्मान सुरक्षित हो।
अपना सम्मान तो आप हर चुनाव में खुद गिरवी रख देते हैं।
अगले 50 साल तक 2014-19 जैसी स्थिति न रही तो देश की दिशा बदल जाएगी—ये समझने में अभी भी देर है तो फिर राम ही रखवाले हैं।
बाकी पोस्ट किसी पर व्यक्तिगत नहीं—
सेक्युलर हिंदू समाज पर सामूहिक व्यंग्य जरूर है।
और अगर तीर किसी को लग जाए…तो समझ लीजिए वो वही व्यक्ति था जिसके लिए तीर छोड़ा गया था।
(सेक्युलर हिंदुओं पर तीखा कटाक्ष के साथ)










