जवाहरलाल नेहरू की नीतियां और तुष्टीकरण के आरोप

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भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की विरासत जितनी विशाल है, उतनी ही विवादों से घिरी भी है। उनके आलोचक अक्सर उन पर “मुस्लिम तुष्टीकरण” का आरोप लगाते हैं, यानी ऐसी नीतियां अपनाना जिनसे कथित तौर पर मुस्लिम समुदाय को अनुचित लाभ मिला। इन आरोपों की सच्चाई को समझने के लिए, हमें उस दौर की प्रमुख घटनाओं और नेहरू की नीतियों को उनके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।

1. नेहरू-लियाकत समझौता (दिल्ली पैक्ट, 1950)

विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों में अल्पसंख्यक (भारत में मुस्लिम और पाकिस्तान में हिंदू-सिख) ख़तरे में थे। पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में हिंदुओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा के बीच, दोनों देशों में तनाव चरम पर था।

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  • आरोप: आलोचकों का तर्क है कि यह समझौता एकतरफा साबित हुआ। भारत ने तो अपने यहाँ के मुसलमानों की सुरक्षा सुनिश्चित की, लेकिन पाकिस्तान अपने वादे पर खरा नहीं उतरा और वहाँ से हिंदुओं का पलायन जारी रहा। तत्कालीन उद्योग मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस समझौते को “हिंदुओं के साथ विश्वासघात” बताते हुए मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था। उनका मानना था कि यह समझौता पाकिस्तान को उसकी ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर रहा था।

2. अनुच्छेद 370 और कश्मीर का मुद्दा

  • आरोप: कश्मीर, एक मुस्लिम बहुल रियासत होने के नाते, उसे अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा देना नेहरू की तुष्टीकरण की नीति का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है। आलोचकों का कहना है कि इससे कश्मीर का भारत के साथ पूर्ण एकीकरण नहीं हो पाया और अलगाववाद को बढ़ावा मिला।
  • ऐतिहासिक संदर्भ और नेहरू का दृष्टिकोण: कश्मीर का भारत में विलय एक विशेष परिस्थिति में हुआ था, जब पाकिस्तानी कबायलियों ने उस पर हमला कर दिया था। विलय की शर्तों के तहत ही अनुच्छेद 370 को एक अस्थायी प्रावधान के रूप में संविधान में शामिल किया गया था। नेहरू ने स्वयं संसद में कहा था कि “यह घिसते-घिसते घिस जाएगा।” उनका और सरकार का मानना था कि कश्मीर के लोगों का विश्वास जीतना ज़रूरी है और समय के साथ यह प्रावधान धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगा। इसका उद्देश्य कश्मीरियों को यह विश्वास दिलाना था कि भारत में उनकी पहचान और स्वायत्तता सुरक्षित रहेगी।

3. हिंदू कोड बिल बनाम समान नागरिक संहिता (UCC)

  • आरोप: यह एक प्रमुख आरोप है कि नेहरू ने हिंदू समाज में सुधार के लिए तो हिंदू कोड बिल (हिंदू विवाह अधिनियम, उत्तराधिकार अधिनियम आदि) को मज़बूती से लागू करवाया, लेकिन मुस्लिम समुदाय के पर्सनल लॉ में सुधार करने की हिम्मत नहीं दिखाई। इसे वोट बैंक की राजनीति और मुस्लिम तुष्टीकरण का स्पष्ट प्रमाण माना जाता है।
  • ऐतिहासिक संदर्भ और नेहरू का दृष्टिकोण: हिंदू कोड बिल का उस समय के रूढ़िवादी हिंदुओं और यहाँ तक कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भी पुरज़ोर विरोध किया था। यह बिल हिंदू महिलाओं को तलाक, संपत्ति में अधिकार और बहुविवाह से मुक्ति जैसे क्रांतिकारी अधिकार दे रहा था। नेहरू का मानना था कि बहुसंख्यक समाज में सुधार करना पहला कदम होना चाहिए। विभाजन के बाद मुस्लिम समुदाय असुरक्षा और भय के माहौल में जी रहा था। नेहरू और कई अन्य नेताओं को मानना था कि  पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप करने से उनमें अलगाव की भावना और बढ़ सकती है, जो नए राष्ट्र की एकता के लिए घातक होगा। 

4. धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा

  • आरोप: आलोचक नेहरू की धर्मनिरपेक्षता को “छद्म-धर्मनिरपेक्षता” कहते हैं, जिसका झुकाव अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों की तरफ था। सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के समय सरकारी भागीदारी से उनकी असहमति को भी इसी नज़रिये से देखा जाता है।
  • ऐतिहासिक संदर्भ और नेहरू का दृष्टिकोण: नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पश्चिमी मॉडल पर आधारित थी, जहाँ राज्य का कोई धर्म नहीं होता और वह सभी धर्मों से एक समान दूरी बनाए रखता है। उन्होंने हर तरह के सांप्रदायिक कट्टरवाद का विरोध किया, चाहे वह बहुसंख्यक का हो या अल्पसंख्यक का। सोमनाथ मंदिर के मामले में, उनका मत था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और सरकार को किसी धार्मिक स्थल के पुनर्निर्माण में सीधे तौर पर शामिल नहीं होना चाहिए, हालाँकि उन्होंने इसके लिए निजी दान का विरोध नहीं किया। उनका उद्देश्य एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति का निर्माण करना था जहाँ धर्म व्यक्ति का निजी मामला हो और राज्य का विषय न बने।

निष्कर्ष

जवाहरलाल नेहरू की नीतियों को “तुष्टीकरण” के चश्मे से देखना या उन्हें “राष्ट्र-निर्माण” का हिस्सा मानना, एक जटिल और आज तक जारी राजनीतिक बहस का हिस्सा है।

  • आलोचकों की दृष्टि में, नेहरू के फ़ैसलों ने मुस्लिम समुदाय को विशेष रियायतें दीं, जिससे बहुसंख्यक समाज में अन्याय की भावना पैदा हुई और देश में अलगाववाद की नींव पड़ी।

 

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