मृत्यु के बाद की यात्रा: पितृपक्ष में क्यों लौटती हैं आत्माएं?

0
2764

सनातन धर्म में पितृपक्ष को एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र काल माना जाता है, जिसे श्राद्ध पक्ष या महालय श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है । यह पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त करने का एक वार्षिक अनुष्ठान है, जो भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आरंभ होकर अश्विन मास की अमावस्या तक चलता है । इस पखवाड़े की अवधि 15 से 16 दिनों की होती है, जो पूरी तरह से दिवंगत पूर्वजों को समर्पित है । धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, पितृपक्ष व्यक्ति को अपने पूर्वजों द्वारा दिए गए जीवन और वंश परंपरा के लिए धन्यवाद देने का एक माध्यम है। शास्त्रों के अनुसार, यह काल पितृ ऋण से मुक्ति पाने का एक दुर्लभ अवसर प्रदान करता है, जिसे चुकाए बिना मनुष्य अपनी आध्यात्मिक यात्रा को पूर्ण नहीं कर सकता ।   

पितृपक्ष केवल एक कर्मकांड नहीं है, बल्कि यह एक गहन आध्यात्मिक विनिमय का प्रतीक है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इन 16 दिनों में पितर भूलोक पर आते हैं और अपने वंशजों द्वारा किए गए तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान जैसे अनुष्ठानों की अपेक्षा रखते हैं । इन अनुष्ठानों के माध्यम से, वंशज अपने पूर्वजों की आत्मा को शांति और मोक्ष प्राप्त करने में सहायता करते हैं। बदले में, तृप्त और प्रसन्न पितर अपने वंशजों को सुख, समृद्धि और उन्नति का आशीर्वाद देते हैं । यह एक ऐसा अटूट बंधन स्थापित करता है, जहाँ जीवित और मृत दोनों एक-दूसरे की आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होते हैं, जो केवल ‘स्वार्थ सिद्धि’ तक सीमित न होकर ‘सामूहिक कल्याण’ का संदेश देता है । इस रिपोर्ट में, वैदिक काल से लेकर विभिन्न पुराणों तक की अवधारणाओं का गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है ताकि पितृपक्ष की इस अनूठी परंपरा की प्रामाणिकता और गहनता को उजागर किया जा सके।   

Advertisment

यह रिपोर्ट पितृपक्ष को केवल एक कर्मकांड के रूप में नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक प्रणाली के रूप में प्रस्तुत करती है। इस परंपरा का उद्भव वैदिक काल से हुआ है, और यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है । पितर 15-16 दिनों के लिए अपने वंशजों से श्रद्धा और प्रेम प्राप्त करने के लिए आते हैं । उनका वास अपने कुल के घर में, पीपल के पेड़ में, या वे कौवे, गाय या अतिथियों के रूप में भी प्रकट हो सकते हैं । 

श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान के माध्यम से वंशज पितृ ऋण से मुक्त होते हैं और पितर सद्गति प्राप्त करते हैं । यह प्रणाली ‘विज्ञान’ इस अर्थ में है कि यह एक सुव्यवस्थित तंत्र है जो सूक्ष्म ऊर्जा के आदान-प्रदान और जीवन-मृत्यु के चक्र को जोड़ता है। यह ‘अध्यात्म’ इस अर्थ में है कि यह मनुष्य को अपनी जड़ों से जोड़ता है, कृतज्ञता का भाव जगाता है और यह सिखाता है कि जीवन केवल एक जन्म तक सीमित नहीं है। पितृपक्ष हमें बताता है कि हमारे पूर्वज कभी दूर नहीं होते; वे हमेशा हमारे साथ होते हैं, और हमारा कर्तव्य है कि हम उनके प्रति श्रद्धा और सम्मान बनाए रखें।

मृत्यु के बाद की यात्रा: पितृपक्ष में क्यों लौटती हैं आत्माएं?

सनातन धर्म के अनुसार, पितृपक्ष के दौरान दिवंगत आत्माओं का धरती पर आगमन एक गहन आध्यात्मिक प्रक्रिया है। यह आत्मा और उसके वंशजों के बीच एक कर्तव्य और अनुग्रह का संबंध स्थापित करता है।

  • 15 दिनों का प्रवास: गरुड़ पुराण के अनुसार, भगवान श्रीहरि ने पितरों को वर्ष में केवल 15 दिनों के लिए धरती पर आने का वरदान दिया था, ताकि वे अपने परिजनों द्वारा अर्पित किए गए भोजन को अदृश्य रूप में ग्रहण कर सकें ।   
  • कर्मों के अनुसार गति: आत्मा नश्वर नहीं है और एक सूक्ष्म शारीरिक आकार में अपनी यात्रा जारी रखती है । मृत्यु के बाद, आत्मा अपने कर्मों के अनुसार या तो मोक्ष प्राप्त करती है या पुनर्जन्म लेती है । पितृलोक को चंद्रलोक से ऊपर स्थित माना गया है ।   
  • श्राद्ध का महत्व: पितर इस दौरान अपने वंशजों से श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान की अपेक्षा रखते हैं, जिससे उन्हें तृप्ति और शांति मिलती है । इन अनुष्ठानों से पितरों को अगली यात्रा के लिए आवश्यक आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है, जो उन्हें नई काया या सद्गति प्रदान करती है ।   
  • पितृ ऋण से मुक्ति: हिंदू धर्म में मनुष्य पर तीन प्रमुख ऋण माने गए हैं—देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म करके वंशज इस पितृ ऋण से मुक्ति पाते हैं और मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं ।   
  • प्रेत योनि से मुक्ति: गरुड़ पुराण के अनुसार, यदि पितरों को मोक्ष नहीं मिलता, तो वे प्रेत योनि में भटकते रहते हैं । श्राद्ध कर्म उन्हें इस अवस्था से मुक्ति दिलाने में मदद करता है ।

1. पितरों का आगमन: भूलोक पर कितने दिन का वास और क्यों?

1.1 प्रवास की अवधि

शास्त्रों के अनुसार, पितृपक्ष की अवधि भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन अमावस्या तक मानी गई है । इस पूरे पखवाड़े को कुल 15 से 16 दिनों का माना जाता है, जो पितरों के लिए विशेष रूप से निर्धारित किया गया है । गरुड़ पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार, भगवान श्रीहरि ने पितरों को वर्ष में केवल इन 15 दिनों के लिए ही धरती लोक पर आने का वरदान दिया था, ताकि वे अपने परिजनों के साथ अदृश्य रूप में मिलकर उनके द्वारा अर्पित किए गए भोजन को ग्रहण कर सकें । यह अवधि एक आध्यात्मिक खिड़की की तरह है, जब पितृलोक और भूलोक के बीच का संबंध सबसे मजबूत होता है।   

1.2 पितरों के आगमन का कारण

पितरों के भूलोक पर आने का प्रमुख कारण अपने वंशजों से श्राद्ध और तर्पण ग्रहण करना होता है। धार्मिक ग्रंथों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पूर्वजों की आत्माएँ इन दिनों में पृथ्वी लोक पर अवतरित होती हैं और अपने वंशजों से श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान की अपेक्षा रखती हैं । इन धार्मिक कर्मों से ही पितरों को तृप्ति और शांति मिलती है । यदि उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं होता, तो वे प्रेत योनि में भटकते रहते हैं, और वंशजों का कर्तव्य होता है कि वे उन्हें इस अवस्था से मुक्ति दिलाएँ । श्राद्ध कर्म पितरों की आत्मा की अगली यात्रा के लिए आवश्यक आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करता है, जिससे वे नई काया धारण कर सकें या सद्गति को प्राप्त हों ।   

यह आगमन केवल एक भावनात्मक मान्यता नहीं है, बल्कि सनातन धर्म की कर्म-सिद्धांत और ऋण-विमोचन की अवधारणा का एक अनिवार्य हिस्सा है। यह एक अनुग्रह नहीं, बल्कि एक कर्तव्य है, जिसका उल्लेख शास्त्रों में मिलता है । हिंदू धर्म में प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण माने गए हैं—देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। इनमें से पितृ ऋण का सीधा संबंध हमारे पूर्वजों से है, और श्राद्ध कर्म इसी ऋण से मुक्ति का मार्ग है । इसलिए, पितृपक्ष का यह 16-दिवसीय प्रवास पूर्वजों और वंशजों के बीच आध्यात्मिक लेन-देन और ऋण-मुक्ति का एक अनिवार्य वार्षिक चक्र है, जो वंश परंपरा को बनाए रखने में भी सहायक होता है।  

2. पितरों का निवास: वे धरती पर कहाँ और किस रूप में वास करते हैं?

2.1 सूक्ष्म रूप में वास और निवास स्थान

शास्त्रों के अनुसार, पितर पृथ्वी पर अपने वंशजों के कुल में सूक्ष्म रूप में वास करते हैं । वे नश्वर मानव शरीर में नहीं, बल्कि एक सूक्ष्म आध्यात्मिक रूप में आते हैं, जिसके कारण उन्हें तर्पण और पिंडदान की आवश्यकता होती है। यह विधि भौतिक पदार्थों को आध्यात्मिक ऊर्जा में परिवर्तित कर उन तक पहुंचाती है । यह माना जाता है कि पितर अपने कुल के घर में, विशेषकर उस स्थान पर वास करते हैं जहाँ उनके वंशज अनुष्ठान करते हैं । इसके अतिरिक्त, पीपल के पेड़ को भी पितरों का वास स्थान माना गया है। पीपल के पेड़ पर जल अर्पण करने से पितृ दोष समाप्त होने की मान्यता है ।   

2.2 विविध रूपों में आगमन

पुराणों और लोक मान्यताओं के अनुसार, पितर केवल अदृश्य रूप में ही नहीं, बल्कि विभिन्न प्राणियों और व्यक्तियों के रूप में भी प्रकट हो सकते हैं । यह धारणा हमें यह सिखाती है कि पितरों का सम्मान केवल अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा होना चाहिए।   

  • कौवे और पक्षी: कौवे को पितरों का दूत माना जाता है । श्राद्ध के भोजन का पहला हिस्सा कौवे को खिलाने की परंपरा है। यदि कौवा भोजन ग्रहण कर ले, तो माना जाता है कि पितर संतुष्ट हो गए हैं । ऋषि-मुनियों ने कौवों को भोजन देने की परंपरा इसलिए भी स्थापित की थी, क्योंकि भाद्रपद माह में कौवे प्रसव करते हैं और उन्हें भोजन की अधिक आवश्यकता होती है। यह धार्मिक परंपरा का प्रकृति और जीव-जगत के पारिस्थितिकी तंत्र के साथ गहरा संबंध दर्शाता है ।   
  • गाय, बैल और कुत्ते: इन पशुओं को भी पितरों का स्वरूप माना गया है । पितृपक्ष के दौरान इनकी सेवा और इन्हें भोजन कराना अत्यंत शुभ माना जाता है, जिससे घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है ।   
  • साधु-संत और जरूरतमंद: धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पितर अतिथि, साधु-संत या भिक्षुक के रूप में भी आ सकते हैं । इसीलिए, पितृपक्ष में ब्राह्मणों और जरूरतमंदों को भोजन कराना और दान देना एक अनिवार्य कर्म माना गया है, जिससे पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है ।   

पितरों का इन विविध रूपों में आना एक गहरी आध्यात्मिक सच्चाई को दर्शाता है। यह केवल एक भौतिक रूप तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक सूक्ष्म चेतना का प्रतीक है जो विभिन्न माध्यमों से अपने वंशजों से जुड़ती है। यह विश्वास व्यक्ति को हर जीव और व्यक्ति में देवत्व और पितृत्व का सम्मान करने की सीख देता है, जो सनातन धर्म के ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (Everything is Brahman) के सिद्धांत के अनुरूप है।

 

3. सनातन शास्त्रों में पितरों की श्रेणियाँ और पितृलोक

3.1 आध्यात्मिक श्रेणियाँ

वेद, उपनिषद और पुराणों में पितरों की विस्तृत श्रेणियों का वर्णन मिलता है, जो यह दर्शाता है कि सनातन धर्म में आत्मा की यात्रा को एक जटिल और बहु-आयामी प्रक्रिया माना गया है । पितरों को मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित किया गया है:   

  • दिव्य पितर (Divine Ancestors): ये वे पितर हैं जिनसे देवता और मनुष्य उत्पन्न हुए हैं । इनके सात गण माने गए हैं, जिनमें अग्निष्वात्त, बर्हिषद और सोमसद प्रमुख हैं। इनमें अर्यमा को पितरों में श्रेष्ठ और यमराज को दिव्य पितरों का प्रधान माना जाता है। अर्यमा महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के पुत्र और देवताओं के भाई हैं ।   
  • पूर्वज पितर (Human Ancestors): ये हमारे व्यक्तिगत कुल के पूर्वज होते हैं। इन्हें दो मुख्य श्रेणियों में विभाजित किया गया है:
    • सपिंड पितर: मृत पिता, दादा और परदादा (तीन पीढ़ी तक) इस श्रेणी में आते हैं। ये पिंड के भागी होते हैं और इन्हें श्राद्ध में पिंडदान किया जाता है ।   
    • लेपभागभोजी पितर: ये सपिंड पितरों से ऊपर की तीन पीढ़ियों के पूर्वज हैं, जो पिंड के लेप का भाग ग्रहण करते हैं ।   

इसके अतिरिक्त, मनुस्मृति के अनुसार, वर्णों के आधार पर भी पितरों की श्रेणियाँ हैं—ब्राह्मणों के ‘सोमपाः’, क्षत्रियों के ‘हविर्भुजः’, वैश्यों के ‘आज्यपाः’ और शूद्रों के ‘सुकालिनः’ । यह जटिल वर्गीकरण यह संकेत देता है कि पितृपक्ष में किया गया हर अनुष्ठान केवल भौतिक दान नहीं, बल्कि एक विशिष्ट आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रेषण है, जो अलग-अलग लोकों में स्थित पितरों तक पहुंचता है।   

3.2 पितृलोक का स्वरूप

शास्त्रों में परलोक के दो मार्गों का उल्लेख है: देवयान और पितृयान । मृत्यु के बाद आत्मा अपने कर्मों के अनुसार पितृलोक या अन्य लोकों में जाती है । पितृलोक को चंद्रलोक से ऊपर स्थित माना गया है, जहाँ लेपभागभोजी पितर निवास करते हैं ।   

गरुड़ पुराण में यह भी कहा गया है कि मोक्ष न मिलने पर पितर प्रेत योनि में भटकते रहते हैं । पितरों की विस्तृत श्रेणियाँ और उनके विभिन्न लोकों में निवास का वर्णन यह दर्शाता है कि ‘पितर’ शब्द केवल मृत पूर्वजों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक ब्रह्मांडीय व्यवस्था का हिस्सा है। यमराज का पितरों में गणना होना इस बात को प्रमाणित करता है कि पितृ-व्यवस्था में ब्रह्मांडीय न्याय और व्यवस्था का भी एक पहलू है ।   

4. श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान: पितृ ऋण से मुक्ति का मार्ग

4.1 कर्मकांड और उनका महत्व

पितृपक्ष में किए जाने वाले प्रमुख अनुष्ठान श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान हैं, जो पितृ ऋण से मुक्ति का मार्ग माने जाते हैं।

  • श्राद्ध: यह शब्द ‘श्रद्धा’ से बना है, जिसका अर्थ है श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म । श्राद्ध पितरों को आहार पहुँचाने का एक माध्यम है, जिससे उनकी आत्मा को तृप्ति मिलती है । महर्षि सुमन्तु के अनुसार, ‘संसार में श्राद्ध से बढ़कर कोई कल्याणप्रद मार्ग नहीं है’ ।   
  • तर्पण: तर्पण का अर्थ है पितरों को जल अर्पित करना। इस विधि में तिल, जल, कुश (एक प्रकार की घास) और अक्षत (बिना टूटे चावल) का उपयोग किया जाता है । पितृ तर्पण से पितरों की आत्मा को शांति और उनकी कृपा प्राप्त होती है ।   
  • पिंडदान: यह चावल और जौ के आटे से बने पिंडों को पितरों को अर्पित करने की विधि है । पिंड आत्मा के सूक्ष्म शरीर का प्रतीक है। श्राद्ध संस्कारों के संपन्न होने पर, यह आत्मा को नई काया धारण करने या उसकी अगली यात्रा के लिए आवश्यक शक्ति प्रदान करता है ।   

 

4.2 शास्त्रों का प्रमाण

विभिन्न पुराणों में श्राद्ध कर्म की महिमा का विस्तृत वर्णन है:

  • गरुड़ पुराण: गरुड़ पुराण में ऋषि लिखते हैं कि पितृ पूजन से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों को आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, बल, वैभव और धन प्रदान करते हैं ।   
  • मार्कण्डेय पुराण: मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, श्राद्ध से तृप्त पितर श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सुख, राज्य और मोक्ष प्रदान करते हैं ।   
  • महाभारत: महाभारत में कहा गया है कि पितरों की भक्ति करने से पुष्टि, आयु, वीर्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है ।   

यह प्रथा पुनर्जन्म के दर्शन को पुष्ट करती है। श्राद्ध संस्कार आत्मा की निरंतरता को सुनिश्चित करता है, और यह विश्वास दिलाता है कि हमारे पूर्वज नष्ट नहीं हुए हैं, बल्कि एक सूक्ष्म रूप में मौजूद हैं । यह जुड़ाव और सम्मान की भावना पारिवारिक एकता को मजबूत करती है और व्यक्ति को अपनी सांस्कृतिक विरासत का पालन करने के लिए प्रेरित करती है।   

5. प्रामाणिक मंत्र और उनका अर्थ: शास्त्रों का उल्लेख

शास्त्रों के अनुसार, मंत्रों का उच्चारण ऊर्जा का एक विशेष प्रवाह उत्पन्न करता है, जो पितरों तक पहुंचता है। मंत्रों के बिना किया गया कर्म अपूर्ण माना जाता है। नीचे कुछ प्रमुख मंत्र और उनके अर्थ प्रस्तुत हैं, जो पितृपक्ष के अनुष्ठानों में उपयोग किए जाते हैं।

 

5.1 प्रमुख पितृ मंत्र

क्रमांक मंत्र प्रयोग अर्थ
1. पितृ देवतायै नमः पितृ देवताओं का आह्वान और प्रणाम। पितृ देवताओं को मेरा नमस्कार है।    

2. सर्वपितृभ्यः स्वधा नमः सभी पितरों को सामूहिक रूप से जल अर्पण। सभी पितरों को मेरा प्रणाम है, यह अर्पण उन्हें स्वीकार हो।    

3. देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः। देवताओं, पितरों और योगियों का सम्मान। देवताओं को, पितरों को, महान योगियों को, स्वाहा (हवन के लिए) और स्वधा (पितरों के लिए) को सदा मेरा नमस्कार है।    

4. अस्मत्पिता (पिता) अमुकशर्मा अमुकसगोत्रो वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः। व्यक्तिगत श्राद्ध में पिता के लिए तर्पण। मेरे पिता, अमुक गोत्र के अमुक शर्मा, जो वसु रूप में हैं, वे तृप्त हों। यह तिल सहित जल उन्हें अर्पित है, यह उन्हें स्वीकार हो।    

5. त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥ पितरों को मोक्ष और शांति प्रदान करने के लिए। हम त्रिनेत्रधारी शिव का पूजन करते हैं, जो सुगंधित और पुष्टिकारक हैं। वे हमें मृत्यु के बंधन से उसी तरह मुक्त कर दें, जैसे ककड़ी अपनी बेल से मुक्त होती है, लेकिन मोक्ष से नहीं।    

6. पितृगणाय विद्महे जगत धारिणी धीमहि तन्नो पितृो प्रचोदयात्। पितृ गायत्री मंत्र। हम पितृगणों को जानते हैं, जो जगत को धारण करने वाले हैं। हम उनका ध्यान करते हैं। वे पितृदेव हमें सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें।    

7. आयन्तु नः पितरः सौम्यासोऽग्निष्वात्ताः पथिभिर्देवयानैः। अस्मिन्यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधिब्रुवन्तु तेवन्त्वस्मानित्यावाहनम्। श्राद्ध के आरंभ में पितरों का आह्वान। हमारे शांत स्वभाव वाले पितर और अग्निष्वात्त पितर देवयान मार्ग से यहाँ आएं। इस यज्ञ में स्वधा से संतुष्ट होकर हमें आशीर्वाद दें और हमारी रक्षा करें।    

यह तालिका स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि पितृपक्ष में हर क्रिया का एक विशिष्ट उद्देश्य होता है, जिसे मंत्रों के माध्यम से पूरा किया जाता है। यह परंपरा की गहरी आध्यात्मिक नींव को प्रमाणित करता है।

 

6. पितरों की विदाई: सर्व पितृ अमावस्या का महत्व

6.1 विसर्जन का दिन

पितृपक्ष का समापन अश्विन मास की अमावस्या को होता है, जिसे ‘सर्व पितृ अमावस्या’ या ‘महालय विसर्जन’ के नाम से जाना जाता है । यह दिन विशेष रूप से उन सभी पितरों के लिए होता है, जिनकी मृत्यु तिथि ज्ञात न हो, या जिनका श्राद्ध पितृपक्ष के दौरान किसी कारणवश न हो पाया हो । इस दिन सभी पितर अपने परिजनों के घर के द्वार पर बैठते हैं, श्राद्ध ग्रहण करते हैं, और फिर अपने सूक्ष्म पितृलोक में लौट जाते हैं ।   

सर्व पितृ अमावस्या की यह परंपरा यह दर्शाती है कि सनातन धर्म में किसी भी व्यक्ति को उसके आध्यात्मिक कर्तव्यों से वंचित नहीं किया जाता। यह परंपरा की समावेशिता और व्यावहारिकता का सर्वोच्च उदाहरण है, क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी पितर श्राद्ध से वंचित न रहे, चाहे उनके वंशज को उनकी तिथि याद हो या न हो ।   

6.2 प्रमुख तीर्थों का महत्व

पितरों की मुक्ति के लिए कुछ विशेष स्थानों का महत्व है, जिनमें गया, काशी और प्रयागराज प्रमुख हैं । बिहार के गयाजी में फल्गु नदी के तट पर पिंडदान करने से तीन पीढ़ियों के पितरों को मोक्ष मिलता है । इसके अलावा, अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए पितरों का श्राद्ध गया स्थित प्रेतशिला पर्वत पर किया जाता है, जिससे उन्हें प्रेत योनि से मुक्ति मिलती है । यह व्यवस्था हमें बताती है कि धार्मिक परंपराएं केवल कठोर नियमों का संग्रह नहीं हैं, बल्कि वे समाज की व्यावहारिक आवश्यकताओं और मानव की भूलने की प्रवृत्ति को भी ध्यान में रखती हैं। 

#पितृपक्ष, #श्राद्ध, #तर्पण, #पितृ_पक्ष_2025, #सनातनधर्म, #आध्यात्म, #पूर्वज, #पितृलोक, #श्राद्ध_का_महत्व, पितृपक्ष, श्राद्ध, पितृपक्ष में क्यों लौटती हैं आत्माएं, पितरों का आगमन, पितृलोक, श्राद्ध का महत्व, तर्पण, पितृ विसर्जन, पितृ ऋण, मोक्ष, आध्यात्मिक महत्व, पूर्वज पूजा

दैनिक तर्पण की आसान विधि : पितृपक्ष

तीन साल बाद ऐसे करें पितरों की सपिंडी पूजा, गया में पिंडदान

 

सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here