सनातन धर्म के त्रय आधार: मंत्र, यंत्र, तंत्र
1. भारतीय आध्यात्मिक विज्ञान के त्रय आधार
भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में मंत्र, यंत्र और तंत्र तीन ऐसे मूलभूत स्तंभ हैं जो गूढ़ ज्ञान, ऊर्जा के संरेखण और आत्मिक उन्नति के विभिन्न मार्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये केवल धार्मिक कर्मकांडों के अंग नहीं, बल्कि गहरे दार्शनिक और वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित प्रणालियाँ हैं जो मन, शरीर और आत्मा के सामंजस्य पर केंद्रित हैं । इन्हें अक्सर एक साथ जोड़ा जाता है, जो इनकी अंतर्संबंधित प्रकृति को दर्शाता है।
सनातन धर्म में इनका महत्व असीम अलौकिक शक्तियों से जुड़ा है, जिनके द्वारा व्यक्ति ‘नर से नारायण’ बनने की यात्रा कर सकता है । यह यात्रा आत्म-साक्षात्कार और परम चेतना की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती है। इन अवधारणाओं की व्यापकता केवल हिन्दू धर्म तक सीमित नहीं है; इनके विभिन्न रूप बौद्ध धर्म, जैन धर्म, तिब्बत की बोन परंपरा, दाओ परंपरा और जापान की शिन्तो परंपरा में भी पाए जाते हैं । यह इनकी सार्वभौमिक प्रासंगिकता और मानव अस्तित्व के मूलभूत पहलुओं को संबोधित करने की क्षमता को दर्शाता है।
इस विस्तृत लेख का उद्देश्य मंत्र, यंत्र और तंत्र की गहन व्याख्या प्रस्तुत करना है, जिसमें इनके अंतर, प्रकार, अथर्ववेद में उल्लेख, प्रभावों का विश्लेषण, अंतर्निहित रहस्य, प्रमुख उदाहरण, सनातन परंपरा में महत्व और धर्मशास्त्रों में इनके संदर्भों का गहन विश्लेषण शामिल होगा।
2. मंत्र: ध्वनि, कंपन और चेतना का विज्ञान
2.1. मंत्र की परिभाषा और व्युत्पत्ति
मंत्र शब्द संस्कृत के ‘मन’ (चेतना या मन) और ‘त्र’ (रक्षा या मुक्ति) से मिलकर बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है “जो मन की रक्षा करे” या “जिससे आप जन्म और मृत्यु के चक्र से तर जाते हैं” । यह मन को चिंताओं से मुक्त करने और अवचेतन मन को सचेत करने में सहायता करता है । सद्गुरु के अनुसार, मंत्र का मूल अर्थ ‘ध्वनि’ है। आधुनिक विज्ञान भी इस पूरी सृष्टि को एक कंपन मानता है, और जहाँ कंपन होता है, वहाँ ध्वनि अवश्य होती है। इस दृष्टिकोण से, संपूर्ण सृष्टि को एक प्रकार की ध्वनि या कई ध्वनियों का एक जटिल मिश्रण माना जा सकता है, जिसका अर्थ है कि यह पूरी सृष्टि विभिन्न प्रकार के मंत्रों का मेल है । इन ध्वनियों या मंत्रों में से कुछ की पहचान की गई है जो ‘चाभी’ की तरह काम करती हैं। सद्गुरु बताते हैं कि यदि इन विशेष ध्वनियों का एक खास तरीके से उपयोग किया जाए तो वे व्यक्ति के भीतर जीवन और अनुभव के एक अलग आयाम को खोल सकती हैं ।
वैदिक संहिताओं में मंत्र को गायक के विचारों की उपज, ऋचा, छंद या स्तुति के रूप में परिभाषित किया गया है, जबकि ब्राह्मणों में यह ऋषियों के गद्य या पद्यमय कथन हैं । शाक्त और तांत्रिक संप्रदायों में भी अनेक सूक्ष्म और रहस्यमय वाक्यों, शब्दखंडों और अक्षरों को मंत्र कहा जाता है ।
2.2. मंत्रों के प्रकार और वर्गीकरण
शास्त्रों के अनुसार मंत्र मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं:
- वैदिक मंत्र: ये वेदों में वर्णित मंत्र हैं, जिनका उपयोग देवताओं की उपासना के लिए किया जाता है ।
- पौराणिक मंत्र: ये पुराणों के ऐसे वचन हैं जिनके द्वारा देवताओं की स्तुति की जाती है ।
- तांत्रिक मंत्र: ये तांत्रिक साधनाओं में प्रयुक्त होते हैं, और इनमें अक्सर बीज मंत्र शामिल होते हैं ।
- शाबर मंत्र: ये स्वयं सिद्ध मंत्र माने जाते हैं, जो गुरु गोरखनाथ और भगवान दत्तात्रेय द्वारा रचित बताए जाते हैं, और अत्यंत चमत्कारिक तथा प्रभावशाली होते हैं ।
बीज मंत्रों का महत्व: बीज मंत्र आकार में छोटे होते हुए भी शक्तियों से परिपूर्ण होते हैं, जिनमें कुछ वर्णों के द्वारा देवताओं की उपासना की जाती है। शास्त्रीय ग्रंथ कहते हैं “मंत्रो वही देवा” अर्थात मंत्र ही देवता है ।
जाप के प्रकार: मंत्रों का जाप तीन मुख्य प्रकार से किया जाता है:
- वाचिक जप: इसमें मंत्र का उच्चारण ऊंचे और स्पष्ट स्वर में किया जाता है ।
- मानस जप: यह जाप केवल अंतर्मन से, यानी मन ही मन किया जाता है ।
- उपांशु जप: इसमें जप करने वाले की जीभ या होंठ हिलते हुए दिखाई देते हैं, लेकिन आवाज नहीं सुनाई देती; यह बिल्कुल धीमी गति में किया जाता है ।
2.3. मंत्रों के प्रभाव और आध्यात्मिक महत्व
मंत्रों के नियमित उच्चारण से मस्तिष्क की तरंगें शांत होती हैं, जिससे तनाव में कमी आती है। इससे एकाग्रता, स्मरण शक्ति और भावनात्मक संतुलन में सुधार होता है। साथ ही, मंत्र-जप शरीर में एंडोर्फिन (प्राकृतिक आनंद देने वाले हार्मोन) के स्राव को बढ़ाकर सुखद अनुभूति देता है । यह आत्म-ज्ञान, उच्च चेतना की ओर ले जाता है, और मन को एकाग्र करके किसी भी देवी-देवता की सिद्धि प्राप्त करने में सहायक होता है । मंत्र साधना दैनिक जीवन की समस्याओं का समाधान करने, इच्छित पदार्थों की प्राप्ति, ग्रह जनित पीड़ा, दोष, अनिष्ट निवारण और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में कारगर सिद्ध होती है । यह आत्मिक शक्ति जगाकर घातक रोगों से भी मुक्ति दिला सकती है और जीवन को सुखमय, शांतिमय और आनंदमय बना सकती है ।
मंत्रों के कंपन का वैज्ञानिक आधार और चेतना पर प्रभाव एक महत्वपूर्ण पहलू है। सद्गुरु के अनुसार, मंत्र का मूल अर्थ ध्वनि है और आधुनिक विज्ञान भी इस पूरी सृष्टि को एक कंपन मानता है । आर्ट ऑफ लिविंग भी कहती है कि मंत्र चेतना में कंपन पैदा करते हैं । आधुनिक शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि मंत्रों के नियमित उच्चारण से मस्तिष्क की तरंगें शांत होती हैं, तनाव कम होता है और एंडोर्फिन स्रावित होते हैं । यह दर्शाता है कि मंत्र केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक ध्वनि-आधारित विज्ञान है जो सीधे मानव शरीर और मन की सूक्ष्म ऊर्जा प्रणालियों पर कार्य करता है। ध्वनि कंपन के माध्यम से न्यूरो-केमिकल प्रतिक्रियाओं को प्रभावित कर सकती है, जिससे मानसिक और भावनात्मक स्थिति में परिवर्तन आता है। इस प्रकार, मंत्रों का प्रभाव केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक और शारीरिक भी है, जो उन्हें एक प्राचीन “ध्वनि चिकित्सा” या “कंपन चिकित्सा” के रूप में स्थापित करता है। यह आध्यात्मिक प्रथाओं और आधुनिक विज्ञान के बीच एक सेतु का काम करता है।
मंत्रों की “चाभी” और “बीज” अवधारणा का गूढ़ अर्थ भी विचारणीय है। सद्गुरु मंत्रों को “चाभी” की तरह बताते हैं जो अनुभव के नए आयाम खोल सकते हैं । वहीं, बीज मंत्रों को “शक्तियों से परिपूर्ण” और “मंत्र ही देवता” कहा गया है । यह इंगित करता है कि मंत्र केवल शब्दों का समूह नहीं हैं, बल्कि उनमें एक संकेंद्रित ऊर्जा या सूचना निहित है, जैसे एक बीज में पूरा वृक्ष। ये ‘बीज’ या ‘चाभी’ साधक की आंतरिक ऊर्जा (कुंडलिनी) या अवचेतन मन को जागृत करके विशिष्ट परिणाम उत्पन्न करने की क्षमता रखते हैं। मंत्रों की यह गूढ़ प्रकृति उन्हें केवल प्रार्थना से परे ले जाती है; वे ब्रह्मांडीय ऊर्जा के साथ जुड़ने और आंतरिक परिवर्तन को उत्प्रेरित करने के लिए एक प्रकार के “प्रोग्रामिंग कोड” या “एक्सेस कोड” के रूप में कार्य करते हैं। यह साधना में मंत्रों की केंद्रीय भूमिका को मजबूत करता है।
2.4. प्रमुख वैदिक मंत्रों के उदाहरण और उनके लाभ
- ॐ (Om): यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा का मूल ध्वनि कंपन है। इसका नियमित जप मानसिक शांति और आंतरिक स्थिरता प्रदान करता है ।
- गायत्री मंत्र: ज्ञान और आध्यात्मिक विकास का सर्वोच्च मंत्र माना जाता है। यह बुद्धि को प्रखर करता है और आत्मा का उत्थान करता है ।
- महामृत्युंजय मंत्र: आरोग्य, दीर्घायु और भयमुक्ति का सूत्र है। यह जीवन के कठिन समय में शक्ति और सुरक्षा प्रदान करता है ।
- ॐ नमः शिवाय: आत्मसाक्षात्कार और शिवत्व की अनुभूति के लिए सर्वश्रेष्ठ मंत्र है। यह पंचतत्वों के संतुलन में सहायक है ।
- पवमान मंत्र: “ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥” इस मंत्र का अर्थ है: “हे प्रभु! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो एवं मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो। मुझे अपनी शरण प्रदान करो।” ।
- स्वस्तिक मंत्र: “ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥” यह मंत्र कल्याण और पाप कर्मों की शांति के लिए जपा जाता है ।
तालिका: मंत्रों के प्रकार और उनके प्रमुख उदाहरण
3. यंत्र: ज्यामितीय प्रतीक और ऊर्जा के वाहक
3.1. यंत्र की परिभाषा और अवधारणा
यंत्र शब्द भारतीय साहित्य में उपकरण, मशीन या युक्ति के अर्थ में आया है । इसका प्रयोग ज्योतिष, रसशास्त्र, आयुर्वेद और गणित जैसे विभिन्न क्षेत्रों में होता है । आध्यात्मिक संदर्भ में, यंत्र एक विशेष प्रकार की ज्यामितीय संरचना है जिसमें ज्यामितीय आकृतियाँ, छवियाँ और लिखित मंत्र शामिल होते हैं । त्रिकोण, षट्भुज, वृत्त और कमल की पंखुड़ियाँ यंत्रों में सामान्य रूप से पाई जाने वाली आकृतियाँ हैं।
पारंपरिक यंत्रों के केंद्र-बिंदु में एक बिंदु (पॉइंट) होता है, जो यंत्र से जुड़े मुख्य देवता का प्रतिनिधित्व करता है। यह बिंदु उस स्थान का प्रतीक है जहाँ से सभी सृजन उत्पन्न होते हैं । मधु खन्ना के अनुसार, “यंत्र और मंत्र हमेशा संयोजन में पाए जाते हैं।” ध्वनि के सार में रूप ध्वनि है जिसे पदार्थ के समान संघनित माना गया है ।
3.2. यंत्रों के प्रकार और वर्गीकरण
यंत्रों को उनके उपयोग और स्वरूप के आधार पर कई प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:
- आसन यंत्र: इन्हें जमीन पर बनाकर उस पर बैठा जाता है ।
- पूजा यंत्र: घरों और मंदिरों में पूजा घर में रखा जाता है और उनकी पूजा की जाती है ।
- धारण यंत्र: कुछ यंत्रों को ताबीज के अंदर रखकर शरीर पर धारण किया जाता है ।
- दर्शन यंत्र: ये यंत्र केवल दर्शन के लिए होते हैं, जैसे सर्वभद्र मंडल ।
- शरीर यंत्र: ये यंत्र शरीर पर बनाए जाते हैं ।
- मंडल यंत्र: ये विभिन्न मंडलों के यंत्र होते हैं ।
- छत्र यंत्र: ये मंदिरों के छत्र के ऊपर बनाए जाते हैं ।
- देव यंत्र: ये विशिष्ट देवी-देवताओं को समर्पित होते हैं, जैसे श्री यंत्र (त्रिपुरा सुंदरी/लक्ष्मी), गणेश यंत्र, दुर्गा यंत्र और काली यंत्र ।
- ग्रह यंत्र: ये नवग्रहों से संबंधित होते हैं, जैसे सूर्य यंत्र, चंद्र यंत्र और मंगल यंत्र ।
- विशिष्ट उद्देश्य यंत्र: ये विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए होते हैं, जैसे कुबेर यंत्र (धन), महामृत्युंजय यंत्र (स्वास्थ्य, दीर्घायु) और बगलामुखी यंत्र (शत्रु विजय) ।
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संरचनात्मक प्रकार: ये यंत्र भौतिक संरचना के आधार पर वर्गीकृत होते हैं, जैसे कूर्मपृष्ठीय (कछुए की पीठ के समान), धरापृष्ठीय (सपाट) और मेरुपृष्ठीय (पहाड़ के समान) ।
3.3. यंत्रों के प्रभाव और कार्यप्रणाली
यंत्रों का निर्माण शब्दों और मंत्रों को ज्यामितीय आकृतियों में ढालकर किया जाता है। ये आकृतियाँ विशेष नक्षत्रों में बनाई जाती हैं । इनका मुख्य उद्देश्य वातावरण और आकाश मंडल से ऊर्जा खींचकर प्रयोग करने वाले व्यक्ति तक पहुँचाना है । सही तरीके से बना हुआ यंत्र ग्रहों की ऊर्जा को अनुकूल बनाता है, सकारात्मक ऊर्जा को आकर्षित और स्थिर करता है, जिससे जीवन में शांति, समृद्धि और सफलता आती है । यंत्र ध्यान और साधना में गहराई से उतरने में सहायता करते हैं, मन और ऊर्जा को एकाग्र करते हैं । हालांकि, गलत तरीके से बना हुआ यंत्र जीवन में आफत ला सकता है, और इनके निर्माण व प्रयोग की विधि गोपनीय होती है ।
यंत्रों की ज्यामितीय संरचना और ब्रह्मांडीय ऊर्जा के बीच गहरा संबंध है। यंत्रों को ज्यामितीय आकृतियों, चिन्हों और अंकों से बनाया जाता है । श्री यंत्र जैसे जटिल यंत्र ब्रह्मांड और मानव शरीर का सूक्ष्म रूप माने जाते हैं, जो ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करते हैं । यह दर्शाता है कि यंत्र केवल कलात्मक आकृतियाँ नहीं हैं, बल्कि वे ब्रह्मांडीय पैटर्न और ऊर्जा आवृत्तियों के साथ प्रतिध्वनित होने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं। बिंदु (केंद्र) से सृजन की उत्पत्ति का सिद्धांत यह बताता है कि यंत्र एक माइक्रोकोस्म हैं जो मैक्रोकोस्म (ब्रह्मांड) के सिद्धांतों को दर्शाते हैं। इस प्रकार, यंत्र एक प्रकार के “कॉस्मिक एंटेना” या “ऊर्जा जनरेटर” के रूप में कार्य करते हैं, जो विशिष्ट ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं को आकर्षित और केंद्रित करते हैं, जिससे साधक के आंतरिक और बाहरी वातावरण में संतुलन और अनुकूलता आती है। यह प्राचीन भारतीय ज्ञान में ज्यामिति और ऊर्जा के गहरे संबंध को उजागर करता है।
यंत्रों की ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ का महत्व और ‘निष्क्रिय वस्तु’ से ‘शक्ति वाहक’ में परिवर्तन एक और महत्वपूर्ण पहलू है। कई स्रोतों में यंत्रों की ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ के महत्व पर जोर दिया गया है । एक यंत्र को बिना प्राण-प्रतिष्ठा के पूजा स्थल पर नहीं रखा जाता , और इसके पूर्ण फल तभी मिलते हैं जब इसे शुद्धिकरण, प्राण प्रतिष्ठा और ऊर्जा संग्रही प्रक्रियाओं से विधिवत बनाया गया हो । यह दर्शाता है कि यंत्र केवल भौतिक वस्तु नहीं हैं; उन्हें मंत्रों और अनुष्ठानों के माध्यम से “जीवित” या “ऊर्जावान” किया जाता है। यह प्रक्रिया एक निष्क्रिय ज्यामितीय आकृति को एक शक्तिशाली ऊर्जा वाहक में बदल देती है। यह प्रक्रिया यंत्रों को केवल प्रतीकों से अधिक बनाती है; वे सक्रिय उपकरण बन जाते हैं जो ब्रह्मांडीय ऊर्जा को साधक के लिए सुलभ बनाते हैं। यह ‘प्राण’ (जीवन शक्ति) की अवधारणा के महत्व को रेखांकित करता है जो भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में हर चीज को जीवंत करती है।
3.4. प्रमुख यंत्रों के उदाहरण और उनका उपयोग
- श्री यंत्र (श्री चक्र): यह त्रिपुरा सुंदरी देवी का प्रतिनिधित्व करता है और इसमें शिव का प्रतिनिधित्व भी शामिल है। इसका निर्माण ब्रह्मांड के साथ उपयोगकर्ता की एकता और सृजन व अस्तित्व की समग्रता दिखाने के लिए किया गया है । यह धन, समृद्धि, सुख और शांति के लिए उपयोग होता है ।
- कुबेर यंत्र: यह धन को आकर्षित करने और आर्थिक स्थिति को मजबूत करने में सहायक माना जाता है ।
- नवग्रह यंत्र: यह कुंडली में ग्रहों के नकारात्मक प्रभावों को कम करने और सकारात्मक ऊर्जा बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है ।
तालिका: प्रमुख यंत्रों के प्रकार, उपयोग और लाभ
4. तंत्र: प्रणाली, साधना और आत्म-शक्ति का विस्तार
4.1. तंत्र की परिभाषा और दार्शनिक आधार
तंत्र शब्द ‘तन’ (विस्तार करना) और ‘त्र’ (रक्षा करना) धातु से बना है, जिसका अर्थ है ‘ज्ञान का विस्तार करना जो मनुष्यों की रक्षा करता है’ । इसे किसी भी व्यवस्थित ग्रंथ, सिद्धांत, विधि, उपकरण, तकनीक या कार्यप्रणाली को भी तंत्र कहते हैं । यह साधनशास्त्र है । तंत्र मूलतः शिव और शक्ति से संश्लिष्ट है, और अधिकांश तांत्रिक ग्रंथ शिव और पार्वती के संवाद के रूप में हैं ।
तंत्र भौतिक ज्ञान पर आधारित एक तकनीक है, जिसमें व्यक्ति अपने शरीर, मन और ऊर्जा का अध्ययन व उपयोग करता है । तांत्रिकों के लिए उनका शरीर ही ब्रह्मांड है । तंत्र का उद्देश्य आत्म शक्ति को जागृत करना और व्यक्ति को अलौकिक शक्तियों से संपन्न बनाना है ।
तंत्र को “टेक्नीक” या “सिस्टम” के रूप में भी परिभाषित किया गया है । यह पारंपरिक गूढ़ या रहस्यमय धारणा से हटकर एक अधिक व्यावहारिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। यदि तंत्र एक ‘सिस्टम’ है (जैसे तंत्रिका तंत्र , पारिस्थितिकी तंत्र ), तो यह किसी विशेष कार्यप्रणाली या व्यवस्था को संदर्भित करता है। यह सुझाव देता है कि तंत्र केवल अंधविश्वास नहीं, बल्कि एक व्यवस्थित ज्ञान प्रणाली है, जिसे आधुनिक विज्ञान के लेंस से भी समझा जा सकता है, भले ही इसके परिणाम अलौकिक प्रतीत हों। यह व्याख्या तंत्र को आधुनिक मन के लिए अधिक सुलभ बनाती है, इसे केवल जादू-टोना के रूप में देखने के बजाय एक जटिल “आंतरिक इंजीनियरिंग” के रूप में प्रस्तुत करती है। यह तंत्र के वैज्ञानिक आधार की संभावना को बढ़ाता है और इसके अध्ययन के लिए एक नया दृष्टिकोण प्रदान करता है।
4.2. तंत्र के प्रकार और संप्रदाय
तंत्र परंपरा हिन्दू और बौद्ध धर्म के साथ-साथ जैन धर्म, तिब्बत की बोन परंपरा, दाओ परंपरा और जापान की शिन्तो परंपरा में भी पाई जाती है । हिन्दू परंपरा में तंत्र मुख्यतः शाक्त संप्रदाय से जुड़ा है, उसके बाद शैव संप्रदाय से, और कुछ सीमा तक वैष्णव परंपरा से भी ।
प्रमुख संप्रदाय:
- शैव तंत्र: यह भगवान शिव और उनके अवतारों को मानने वालों से संबंधित है। पाशुपत संप्रदाय विशेष रूप से तंत्र पर जोर देता है ।
- शाक्त तंत्र: यह आदिशक्ति (देवी) की उपासना पर केंद्रित है, और इसे काली कुल और श्री कुल में विभाजित किया गया है ।
- वैष्णव तंत्र: यह भगवान विष्णु और उनके अवतारों की उपासना पर केंद्रित है, जैसे पंचरात्र या सात्वत आगम ।
साधना के मार्ग:
- वाम मार्गी साधना: यह साधना बेहद कठिन मानी जाती है और इसमें कठोर नियम होते हैं ।
- दक्षिण मार्गी साधना: यह सुरक्षित और सात्त्विक साधनाएं होती हैं, जैसे श्री विद्या और कुंडलिनी जागरण ।
- मध्यम मार्ग: इस मार्ग का उल्लेख है, परंतु विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है ।
4.3. प्रमुख तंत्र साधनाएं और उनके उद्देश्य
षट् कर्म (छह तांत्रिक कर्म): ये छह विशिष्ट तांत्रिक क्रियाएं हैं:
- शांति कर्म: रोग, कुकृत्य और ग्रहों के बुरे प्रभावों को शांत करना । इसकी अधिष्ठात्री देवी रति हैं ।
- वशीकरण: किसी व्यक्ति को अपने अनुकूल करना । इसकी देवी माता सरस्वती हैं ।
- स्तंभन: प्राणियों की प्रवृत्ति को रोकना, शत्रुओं की बुद्धि और बल को भ्रष्ट करना । इसकी देवी माता लक्ष्मी हैं ।
- विद्वेषण: दो प्राणियों के बीच झगड़ा करवाना । इसकी देवी ज्येष्ठा हैं ।
- उच्चाटन: किसी व्यक्ति को देश से अलग करना या कार्य से ध्यान भंग करना । इसकी देवी माता दुर्गा हैं ।
- मारण: किसी के प्राण लेना या मृत्यु तुल्य कष्ट देना (यह अत्यंत जघन्य और वर्जित माना जाता है) । इसकी देवी माँ भद्र काली हैं 。
पंचमकार का गूढ़ अर्थ: पंचमकार (मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा, मैथुन) का उल्लेख अक्सर तंत्र की विवादास्पद प्रथाओं के रूप में होता है । हालांकि, यह स्पष्ट किया गया है कि इनके गूढ़ और आध्यात्मिक अर्थ हैं, जो भौतिक भोग से परे हैं । उदाहरण के लिए, मद्य का अर्थ आनंद की स्थिति है, और मैथुन का अर्थ कुंडलिनी और शिव का मिलन है । यह दर्शाता है कि तंत्र का उद्देश्य भोग में लिप्त होना नहीं, बल्कि भोग के माध्यम से वासनाओं पर विजय प्राप्त कर आध्यात्मिक उन्नति (योग) की ओर बढ़ना है। यह इन प्रथाओं के पीछे के गहरे दार्शनिक उद्देश्य को उजागर करता है, जो बाहरी क्रियाओं के बजाय आंतरिक परिवर्तन पर केंद्रित है। यह तंत्र की अक्सर गलत समझी जाने वाली प्रकृति को स्पष्ट करता है और इसे एक उच्च आध्यात्मिक पथ के रूप में प्रस्तुत करता है।
कुंडलिनी जागरण और चक्रों का महत्व: तंत्र साधना का आधार कुंडलिनी योग है। कुंडलिनी शक्ति मूलाधार चक्र में निवास करती है, और इसके जागरण से साधक समस्त तंत्र क्रियाओं का विजेता बन जाता है । विभिन्न चक्रों (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा, सहस्रार) का संतुलन और उनसे जुड़ी देवी-देवताओं पर ध्यान कुंडलिनी ऊर्जा के प्रवाह में सहायक होता है ।
तालिका: प्रमुख तांत्रिक साधनाएं और उनके उद्देश्य/देवता
5. मंत्र, यंत्र और तंत्र में अंतर और उनका संबंध
5.1. तीनों की मूलभूत परिभाषाओं का तुलनात्मक विश्लेषण
- मंत्र: यह ध्वनि, कंपन और मन से संबंधित है। यह मन को त्राण (रक्षा) देता है, जिससे व्यक्ति जन्म और मृत्यु के चक्र से तर जाता है ।
- यंत्र: यह एक ज्यामितीय आकृति, उपकरण या युक्ति है, जो शरीर या बाह्य वस्तु से संबंधित है। यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा के वाहक के रूप में कार्य करता है ।
- तंत्र: यह एक प्रणाली, तकनीक या कार्यप्रणाली है, जो तन (शरीर) और आत्मा दोनों से संबंधित हो सकती है। इसका उद्देश्य ज्ञान का विस्तार करना और आत्मिक शक्तियों को जागृत करना है ।
5.2. एक-दूसरे के पूरक के रूप में कार्यप्रणाली
मंत्र, यंत्र और तंत्र तीनों में असीम अलौकिक शक्तियां निहित हैं और ये व्यक्ति की उन्नति या अवनति से संबंधित हैं । इन तीनों के बीच एक गहरा अंतर्संबंध है। मंत्रों के द्वारा यंत्रों को जागृत किया जाता है, और तंत्र एक कार्यविधि है जिससे मंत्र को क्रियान्वित किया जाता है । यंत्रों में अक्सर संस्कृत में लिखे मंत्र शामिल होते हैं, और यंत्र व मंत्र हमेशा संयोजन में पाए जाते हैं । तंत्र में मंत्र का प्रयोग कभी-कभी आवश्यक होता है, क्योंकि उससे तंत्र की शक्ति दुगुनी हो जाती है । मंत्र को बीच का रास्ता माना गया है, जिसके द्वारा यंत्र तक भी पहुँचा जा सकता है और तंत्र तक भी । तंत्र साधना में देवी शक्ति को समर्पित अनेक मंत्रों और यंत्रों का प्रयोग किया जाता है ।
इन तीनों का संबंध मानव अस्तित्व के विभिन्न आयामों से है: यंत्र शरीर पर आधारित है , मंत्र मन से शुरू हुआ है , और तंत्र हमारी आत्मा है या एक सर्वोच्च प्रणाली है । मंत्र मन से संबंधित मनोवैज्ञानिक है, जबकि योगशास्त्र में शरीर का यंत्र के रूप में उपयोग होता है ।
मंत्र, यंत्र और तंत्र के बीच एक अंतर्निर्भरता और प्रभाव का आरोही क्रम देखा जा सकता है। स्रोत स्पष्ट रूप से बताते हैं कि ये तत्व एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं । मंत्र यंत्रों को जागृत करता है, और तंत्र मंत्र को क्रियान्वित करता है । कुछ स्रोत यह भी सुझाव देते हैं कि मंत्र यंत्र और तंत्र के बीच का रास्ता है । यह एक पदानुक्रमित या अंतर्निर्भर संबंध का सुझाव देता है जहाँ मंत्र (ध्वनि या विचार) एक सूक्ष्म शक्ति है, यंत्र (रूप या भौतिक आधार) उस शक्ति को केंद्रित करने का माध्यम है, और तंत्र (प्रणाली या क्रिया) उस शक्ति को एक व्यापक उद्देश्य के लिए नियोजित करने की विधि है। यह एक कारण-प्रभाव श्रृंखला बनाता है: मंत्र (कारण) -> यंत्र (साधन) -> तंत्र (परिणाम या प्रणाली)। यह दिखाता है कि इन तीनों में से कोई भी अकेला पूर्ण नहीं है, बल्कि वे एक साथ मिलकर कार्य करते हैं ताकि साधक को अधिकतम प्रभाव और आध्यात्मिक उन्नति मिल सके। वे एक समग्र आध्यात्मिक तकनीक का निर्माण करते हैं जो विभिन्न स्तरों पर कार्य करती है।
“तंत्र” शब्द की गलत धारणा और उसके वास्तविक अर्थ का विखंडन भी आवश्यक है। कई स्रोतों में यह उल्लेख है कि “तंत्र” शब्द को अक्सर गलत समझा जाता है या इससे लोग घबराते हैं, क्योंकि इसे काला जादू या अघोरी प्रथाओं से जोड़ा जाता है । हालांकि, इसका वास्तविक अर्थ “सिस्टम” या “ज्ञान का विस्तार” है । यह विरोधाभास दर्शाता है कि समय के साथ, तंत्र के गूढ़ और गुप्त स्वभाव के कारण इसकी मूल दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रकृति विकृत हो गई है। इस गलत धारणा को दूर करना महत्वपूर्ण है ताकि तंत्र को उसके वास्तविक, व्यापक और कल्याणकारी स्वरूप में समझा जा सके, न कि केवल नकारात्मक या भयभीत करने वाली प्रथाओं के रूप में। यह तंत्र के अध्ययन और उसके संभावित लाभों के लिए एक अधिक खुले दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है।
तालिका: मंत्र, यंत्र और तंत्र के बीच मुख्य अंतर
6. अथर्ववेद में तंत्र का उल्लेख
6.1. अथर्ववेद का स्वरूप और विषय वस्तु
अथर्ववेद को अन्य वैदिक ग्रंथों से अलग माना जाता है। यह सबसे अधिक रहस्यमय और अद्वितीय वेद है क्योंकि इसमें जादू, तंत्र और चिकित्सा जैसे गूढ़ विषयों का वर्णन मिलता है । यह जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रभाव डालता है, जैसे रोगों की चिकित्सा, रक्षा के उपाय और आत्मा की शुद्धि । अथर्ववेद में पद्य और गद्य दोनों शामिल हैं और इसे 20 पुस्तकों में विभाजित किया गया है। इसमें लगभग 1200 मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं, और सामवेद से भी मंत्रों का समावेश है ।
6.2. तंत्र, मंत्र और यंत्र के संदर्भ
अथर्ववेद में लंबे जीवन, उपचार, शाप, प्रेम मंत्र, समृद्धि के लिए प्रार्थना, राजा और ब्राह्मणत्व के लिए जादू या टोना, और बुरे कार्यों के लिए परिशुद्धि जैसे सटीक उद्देश्यों के लिए “जादुई प्रार्थनाएँ” शामिल हैं । इसमें ‘मणि’ (ताबीज या रत्न) का भी उल्लेख है जिनमें दिव्य शक्तियाँ होती हैं। इन मणियों का उपयोग असाध्य रोगों के उपचार, सुरक्षा, शांति, उत्साह और विषादि को दूर करने के लिए किया जाता है । उदाहरण के लिए, सुवर्ण मणि, अस्तृत मणि, शंख मणि, हरिणश्रृंगमणि और औदुम्बर मणि का वर्णन मिलता है, जो विभिन्न रोगों और बाधाओं से रक्षा करते हैं ।
यह वेद प्रजनन क्षमता, धन और शत्रुओं को नष्ट करने के लिए विशिष्ट मंत्रों और प्रक्रियाओं का भी वर्णन करता है । जबकि कुछ लोग इसके विषय-वस्तु को “जादू और टोना” के रूप में देखते हैं, विद्वानों का तर्क है कि इनमें से कई उल्लेख जड़ी-बूटियों और पदार्थों के वैज्ञानिक या औषधीय उपयोग से संबंधित हैं, न कि केवल अंधविश्वास से । ‘तंत्र’ शब्द का उपयोग अथर्ववेद में ऐसे व्यापक प्रयोगों के लिए किया गया है जिन्हें पृथ्वी, जल और वायु में फैलाया जा सकता है । अथर्ववेद मंत्रों के शुद्ध उच्चारण और मन की एकाग्रता के महत्व पर भी जोर देता है ।
अथर्ववेद में तंत्र का “जादू-टोना” बनाम “वैज्ञानिक-औषधीय” दृष्टिकोण एक महत्वपूर्ण बिंदु है। अथर्ववेद की सामग्री को अक्सर जादू और टोना से जोड़ा जाता है, लेकिन एक गहन विश्लेषण से पता चलता है कि इसका ध्यान उपचार, सुरक्षा और प्राकृतिक तत्वों व ऊर्जाओं के व्यवस्थित ज्ञान के माध्यम से परिणामों को प्रभावित करने जैसे व्यावहारिक अनुप्रयोगों पर है। यह सुझाव देता है कि जो कुछ अनभिज्ञों को “जादू” प्रतीत होता था, वह वास्तव में प्राचीन अनुप्रयुक्त विज्ञान या मनो-आध्यात्मिक तकनीक का एक रूप था।
6.3. अथर्ववेद में तंत्र के बीज और विकास
यद्यपि अथर्ववेद में ऐसे तत्व मौजूद हैं जिन्होंने बाद में तंत्र का आधार बनाया, यह संभव है कि इसमें बाद के तांत्रिक ग्रंथों की सभी प्रमुख विशेषताएँ न हों । फिर भी, इसे तंत्र विद्या का मुख्य स्रोत माना जाता है, जिसमें कई मंत्र “कीलित” (सील किए गए) हैं ।
7. सनातन परंपरा में मंत्र, यंत्र और तंत्र का महत्व
7.1. आध्यात्मिक उन्नति और मोक्ष प्राप्ति में योगदान
मंत्र, यंत्र और तंत्र भारतीय आध्यात्मिक और प्राचीन परंपराओं के अभिन्न अंग हैं। इनका उपयोग आध्यात्मिक साधना, मानसिक शांति, रोगों के निवारण और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने के लिए किया जाता है । ये असीम अलौकिक शक्तियों से युक्त हैं, जो व्यक्ति को ‘नर से नारायण’ बनने की यात्रा में सहायता करते हैं । ये आंतरिक शक्ति को जागृत करने और आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने में सहायक होते हैं । मंत्र, यंत्र और तंत्र को साधना के घटक माना जाता है । वे मन को नियंत्रित करने, शरीर पर महारत हासिल करने और चेतना का विस्तार करने में मदद करते हैं । कुछ ग्रंथों का सुझाव है कि कलियुग में वैदिक मंत्रों के नियमों का पालन न होने के कारण उनकी प्रभावशीलता कम हो सकती है, जिससे तंत्र पूजा के फलों को प्राप्त करने का मार्ग बन जाता है । मोक्ष (मुक्ति) की प्राप्ति आत्म-खोज और विज्ञान भैरव तंत्र जैसे ग्रंथों में वर्णित इन उपकरणों के उपयोग के माध्यम से होती है ।
‘नर से नारायण’ की यात्रा में मंत्र, यंत्र और तंत्र का एकीकृत पथ अत्यंत महत्वपूर्ण है। मंत्र, यंत्र और तंत्र का संयुक्त अभ्यास मानव परिवर्तन के लिए एक समग्र मार्ग प्रदान करता है, जो लौकिक से दिव्य की ओर बढ़ता है। यह एकीकरण मानव अस्तित्व के सभी पहलुओं – मन, शरीर और आत्मा – को संबोधित करता है ताकि परम मुक्ति प्राप्त की जा सके।
7.2. सामाजिक और व्यावहारिक जीवन में भूमिका
ये दैनिक समस्याओं को हल करने, इच्छाओं को पूरा करने और सौभाग्य लाने में सहायक माने जाते हैं । मंत्रों के जप से ध्वनि चिकित्सा के समान चिकित्सीय लाभ मिलते हैं, जिससे तनाव और चिंता कम होती है । यंत्र घरों और कार्यस्थलों में ऊर्जा को संतुलित करते हैं, सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ावा देते हैं । तंत्र-मंत्र का अभ्यास आत्म-विश्वास और इच्छाशक्ति को बढ़ा सकता है । इनका उपयोग नकारात्मक शक्तियों से सुरक्षा, रोगों के उपचार और व्यापार व संबंधों में सफलता के लिए किया जाता है । सफल अभ्यास के लिए गुरु के मार्गदर्शन और श्रद्धा का महत्व लगातार रेखांकित किया गया है ।
आधुनिक युग में इन प्राचीन परंपराओं की प्रासंगिकता और ‘वैज्ञानिक पद्धति’ के रूप में उनकी स्वीकार्यता बढ़ रही है। यद्यपि इन्हें अक्सर अंधविश्वास के रूप में गलत समझा जाता है, इन प्राचीन प्रथाओं को सूक्ष्म ऊर्जाओं का उपयोग करने और चेतना को प्रभावित करने के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों के रूप में देखा जा रहा है। यह धारणा उन्हें आधुनिक, वैज्ञानिक रूप से संचालित दुनिया में भी प्रासंगिक बनाती है, जो उन समस्याओं का समाधान प्रदान करती है जिन्हें पारंपरिक विज्ञान शायद संबोधित नहीं कर पाता।
7.3. गुरु-शिष्य परंपरा का महत्व
तंत्र साधना के लिए गुरु से शिष्य को शक्ति और ज्ञान का हस्तांतरण अत्यंत महत्वपूर्ण है । गुरु के बिना तंत्र साधना को वर्जित और खतरनाक माना जाता है ।
8. धर्मशास्त्रों में मंत्र, यंत्र और तंत्र का उल्लेख
मंत्र, यंत्र और तंत्र का उल्लेख विभिन्न प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में मिलता है, जो इनकी ऐतिहासिक गहराई और दार्शनिक महत्व को दर्शाता है।
8.1. वेदों में उल्लेख
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद सभी में मंत्रों का उल्लेख है । अथर्ववेद विशेष रूप से अपने उपचार, सुरक्षा और परिणामों को प्रभावित करने वाले मंत्रों के लिए जाना जाता है, जिन्हें कभी-कभी तांत्रिक तत्वों के रूप में व्याख्यायित किया जाता है । ऋग्वेद में ‘वाक्’ (वाणी/ध्वनि) की अवधारणा को कुंडलिनी से जोड़ा गया है, जो तांत्रिक अवधारणाओं की प्रारंभिक जड़ों का सुझाव देता है । यंत्रों का उल्लेख प्राचीन हिंदू ग्रंथों में अक्सर संगीत वाद्ययंत्रों के संदर्भ में मिलता है, लेकिन आध्यात्मिक अभ्यास के आधार के रूप में भी ।
8.2. उपनिषदों में उल्लेख
उपनिषदिक विचार में ‘मनन’ (चिंतन) की अवधारणा को मंत्र का सार माना गया है, जो ‘ॐकार’ जैसी एकल ध्वनि में गहरे विसर्जन पर जोर देता है । कुछ उपनिषदों को तांत्रिक साहित्य का हिस्सा भी माना जाता है ।
8.3. पुराणों में उल्लेख
मंत्रों की व्याख्या पुराणों में की गई है । मार्कण्डेय पुराण की दुर्गा सप्तशती और अथर्ववेद को प्रमुख तंत्र शास्त्र ग्रंथ माना जाता है, जिनमें देवी दुर्गा की गोपनीय तांत्रिक साधनाओं का वर्णन है ।
8.4. आगम और निगम ग्रंथों में उल्लेख
‘तंत्र’ और ‘आगम’ समानार्थक शब्द हैं, जो अक्सर प्रकट ग्रंथों को संदर्भित करते हैं । आगम साहित्य विशाल है, जिसमें विभिन्न तांत्रिक परंपराएं (शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, सौर) शामिल हैं । आगम-तंत्र परंपरा ‘गुरु’ को ज्ञान के स्रोत के रूप में महत्व देती है । यंत्र आगम-तंत्र परंपरा में महत्वपूर्ण हैं, जो विविध उद्देश्यों के लिए विभिन्न रूपों में प्रकट होते हैं । पंचमकार, हालांकि विवादास्पद है, आगम-तंत्र परंपरा में प्रतीकात्मक व्याख्याओं के साथ चर्चा की गई है । कुछ ग्रंथ सुझाव देते हैं कि कलियुग में वैदिक मंत्रों की प्रभावशीलता कम हो सकती है, जिससे तंत्र (आगम शास्त्र) को पसंदीदा मार्ग बनाया जा सकता है ।
8.5. जैन धर्म ग्रंथों में उल्लेख
जैन धर्म ग्रंथों, विशेष रूप से दृष्टिवाद अंग और पूर्वगत में मंत्र, तंत्र और यंत्र का विस्तृत विवरण मिलता है । मंत्रों को शक्तिशाली, महत्वपूर्ण, रहस्यमय शाब्दिक अभिव्यक्तियों के रूप में परिभाषित किया गया है, जिन्हें ‘लौकिक’ (सांसारिक) – उपचार/प्रभावित करने के लिए – और ‘लोकोत्तर’ (पारलौकिक) – आत्म-शुद्धि/आध्यात्मिक उत्थान के लिए – में वर्गीकृत किया गया है । यंत्रों को बीजाक्षरों और संख्याओं से विभिन्न धातुओं या भोजपत्र पर बनी आकृतियों के रूप में वर्णित किया गया है, जिनका उपयोग पूजा और अनुष्ठानों में होता है । जैन धर्म में तंत्र का तात्पर्य इन यंत्रों/मंत्रों को ताबीज के रूप में धारण करने से है, जो सुरक्षा और उपचार प्रदान करते हैं । जैन ग्रंथ ऐतिहासिक व्यक्तियों के उदाहरण प्रदान करते हैं जिन्होंने इन प्रथाओं के माध्यम से परिणाम प्राप्त किए ।
धर्मशास्त्रों में ‘तंत्र’ की विविध व्याख्याएं और विकासवादी प्रकृति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। ‘तंत्र’ शब्द और उससे जुड़ी प्रथाएं विभिन्न धर्मग्रंथों और परंपराओं में विकसित होती रही हैं। वेदों में इसके सूक्ष्म उल्लेखों से लेकर पुराणों, आगमों और जैन ग्रंथों में इसके अधिक स्पष्ट और विविध रूपों तक, यह विकास एक गतिशील आध्यात्मिक परिदृश्य को दर्शाता है जो विभिन्न आवश्यकताओं और दार्शनिक व्याख्याओं के अनुकूल होता है।
9. निष्कर्ष, जिससे आप विषय को लेकर स्पष्ट मत रखें
मंत्र, यंत्र और तंत्र भारतीय आध्यात्मिक परंपरा के मूलभूत और अंतर्संबंधित स्तंभ हैं। मंत्र ध्वनि ऊर्जा के माध्यम से मन और चेतना को प्रभावित करते हैं, यंत्र ज्यामितीय रूपों के माध्यम से ब्रह्मांडीय ऊर्जा को केंद्रित और आकर्षित करते हैं, और तंत्र एक व्यापक प्रणाली या कार्यप्रणाली है जो इन दोनों को एक विशिष्ट उद्देश्य के लिए नियोजित करती है। ये तीनों एक-दूसरे के पूरक हैं और एक साथ मिलकर कार्य करते हैं ताकि साधक को अधिकतम आध्यात्मिक उन्नति और भौतिक लाभ मिल सके।
अथर्ववेद में तंत्र के बीज मिलते हैं, जहाँ इसे जादू-टोना के बजाय एक प्राचीन वैज्ञानिक और औषधीय ज्ञान के रूप में देखा जा सकता है, जो उपचार और सुरक्षा के लिए सूक्ष्म ऊर्जाओं के उपयोग पर केंद्रित है। सनातन परंपरा में, मंत्र, यंत्र और तंत्र का महत्व असीम है, क्योंकि ये ‘नर से नारायण’ बनने की यात्रा में एक एकीकृत पथ प्रदान करते हैं। वे केवल आध्यात्मिक मुक्ति के लिए ही नहीं, बल्कि दैनिक जीवन की समस्याओं के समाधान, स्वास्थ्य, समृद्धि और मानसिक शांति के लिए भी महत्वपूर्ण हैं।
यह आवश्यक है कि तंत्र जैसे गूढ़ विषयों को उसकी वास्तविक दार्शनिक और कल्याणकारी प्रकृति में समझा जाए, न कि केवल लोकप्रिय गलत धारणाओं या भयभीत करने वाली प्रथाओं के रूप में। गुरु-शिष्य परंपरा का पालन और श्रद्धा के साथ अभ्यास इन प्राचीन विद्याओं के सही लाभों को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है। ये प्राचीन भारतीय परंपराएं आज भी प्रासंगिक हैं, जो मानव कल्याण और ब्रह्मांड के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए शक्तिशाली उपकरण प्रदान करती हैं।
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