जन्माष्टमी, जिसे कृष्ण जन्माष्टमी अथवा गोकुलाष्टमी के नाम से भी जाना जाता है, सनातन धर्म में भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाने वाला एक अत्यंत महत्वपूर्ण और पवित्र पर्व है। यह पर्व भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का आठवां अवतार माना जाता है, जिन्होंने धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए पृथ्वी पर जन्म लिया था। यह पावन पर्व करोड़ों भक्तों के लिए असीम आस्था, प्रेम और विश्वास का प्रतीक है, जो उनके आराध्य के प्रति गहन समर्पण को दर्शाता है।
जन्माष्टमी का उत्सव केवल एक जन्मतिथि का स्मरण मात्र नहीं है, बल्कि यह धर्म की विजय, न्याय की स्थापना और ईश्वर के मानव रूप में अवतरण का प्रतीक है। यह पर्व इस सनातन सत्य को प्रतिपादित करता है कि जब भी समाज में अन्याय और अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचते हैं, तब परमेश्वर किसी न किसी रूप में अवतरित होकर अधर्म का नाश करते हैं और धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। यह एक शाश्वत संदेश है जो हर युग में प्रासंगिक बना रहता है, भक्तों को यह विश्वास दिलाता है कि अंधकार के बाद प्रकाश अवश्य आता है और न्याय की विजय सुनिश्चित है।
यह त्योहार पूरे भारतवर्ष में बड़े उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता है। इस दिन मंदिरों को भव्य रूप से सजाया जाता है, जिनमें रोशनी की जगमगाहट और फूलों की सुगंध से वातावरण भक्तिमय हो जाता है। भक्तजन भगवान कृष्ण के भजनों का गायन करते हैं, कीर्तन करते हैं, और उनके प्रति अपनी अटूट श्रद्धा व्यक्त करने के लिए उपवास रखते हैं। यह पर्व सामान्यतः वर्षा ऋतु में पड़ता है, जब ग्रामीण क्षेत्रों में खेत उपज से लदे होते हैं और प्रकृति अपने चरम सौंदर्य पर होती है। इस समय ग्रामीण लोगों के पास उत्सव मनाने और आनंदित होने का पर्याप्त समय होता है। यह पर्व केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज के सांस्कृतिक ताने-बाने में गहराई से बुना हुआ है। इसका वर्षा ऋतु में आना ग्रामीण अर्थव्यवस्था और सामाजिक उल्लास से भी जुड़ा है, जो इसे एक मौसमी और कृषि-आधारित त्योहार का आयाम देता है। इस प्रकार, प्रकृति की प्रचुरता भी ईश्वर के आगमन के साथ जुड़ जाती है, जिससे यह उत्सव और भी अधिक सर्वव्यापी और आनंददायक बन जाता है।
जन्माष्टमी क्यों मनाई जाती है?
जन्माष्टमी का पर्व भगवान श्रीकृष्ण के पृथ्वी पर अवतरण का स्मरण कराता है, जिसका उद्देश्य धर्म की पुनर्स्थापना और अधर्म का उन्मूलन था। उनके जन्म के पीछे गहरे पौराणिक और धार्मिक कारण निहित हैं, जो उनके दिव्य स्वरूप और ब्रह्मांडीय योजना को दर्शाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण का अवतार: पौराणिक एवं धार्मिक कारण
द्वापर युग में, मथुरा नगरी पर भोजवंशी राजा उग्रसेन का शासन था, किंतु उनका पुत्र कंस अत्यंत क्रूर और अत्याचारी था। कंस ने अपने पिता को सिंहासन से हटाकर कारागार में डाल दिया और स्वयं मथुरा का शासक बन बैठा। उसके अत्याचारों से पृथ्वी त्रस्त हो चुकी थी, और धर्म का पतन हो रहा था. देवताओं और संतों ने इस भयावह स्थिति से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु से प्रार्थना की। उनकी प्रार्थनाओं को सुनकर, भगवान विष्णु ने यह वचन दिया कि वे मानव रूप में पृथ्वी पर जन्म लेंगे और धर्म की पुनः स्थापना करेंगे।
इसी दिव्य योजना के तहत, भगवान कृष्ण ने माता देवकी के आठवें संतान के रूप में मथुरा के कारागार में जन्म लिया। उन्हें भगवान विष्णु का आठवां अवतार माना जाता है। उनका संपूर्ण जीवन कर्म, नीति, प्रेम और भक्ति का एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत करता है। श्रीकृष्ण का जन्म केवल कंस के वध के लिए ही नहीं हुआ था, बल्कि यह अधर्म के विरुद्ध धर्म की विजय का एक सार्वभौमिक संदेश था। “जब भी समाज में अन्याय और अत्याचार बढ़ता है, तब ईश्वर किसी ना किसी रूप में अवतरित होकर अधर्म का नाश करते हैं और धर्म की पुनः स्थापना करते हैं” – यह कथन जन्माष्टमी को एक शाश्वत नैतिक और आध्यात्मिक सिद्धांत के रूप में स्थापित करता है, जो हर युग में प्रासंगिक बना रहता है। यह घटना केवल एक ऐतिहासिक प्रसंग नहीं, बल्कि एक गहरा दार्शनिक सत्य है जो यह दर्शाता है कि दिव्य शक्ति सदैव धर्म की रक्षा के लिए तत्पर रहती है।
जन्म का शुभ समय: अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र और निशिता काल
भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को, रोहिणी नक्षत्र में, बुधवार के दिन, आधी रात को मथुरा के कारागार में हुआ था। यह समय विशेष खगोलीय और ज्योतिषीय संयोगों से युक्त था, जो उनके दिव्य अवतार की विशिष्टता को दर्शाता है।
श्रीकृष्ण चंद्रवंशी थे, और चंद्रदेव उनके पूर्वज माने जाते हैं। ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार, बुध चंद्रमा के पुत्र हैं, और इसी कारण चंद्रवंश में पुत्रवत जन्म लेने के लिए कृष्ण ने बुधवार का दिन चुना। जन्माष्टमी का व्रत चंद्रोदय और उनके दर्शन करने के बाद ही पूर्ण माना जाता है, जो चंद्रमा के साथ उनके गहरे संबंध को और पुष्ट करता है।
रोहिणी नक्षत्र, जिसमें भगवान का जन्म हुआ, चंद्रमा का प्रिय नक्षत्र माना जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, इस नक्षत्र में जन्मे लोग बड़े ही भाग्यशाली, सुंदर, आकर्षक होते हैं, और प्रेम तथा सौंदर्य के पुजारी होते हैं। उनके व्यक्तित्व में एक अलग प्रकार का आकर्षण होता है, उनकी आँखों में एक विशेष खिंचाव और वाणी में चुंबकत्व होता है। यह नक्षत्र व्यक्ति को उच्च कोटि का लेखक और संगीतकार भी बनाता है, और ऐसे जातक अक्सर राजनीति में भी सफल होते हैं। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म पूर्वनिर्धारित खगोलीय और ज्योतिषीय संयोगों के साथ हुआ था, जो उनके दिव्य स्वरूप और ब्रह्मांडीय योजना को दर्शाता है। रोहिणी नक्षत्र, बुधवार, और निशिता काल का चयन केवल एक संयोग नहीं था, बल्कि यह उनके चंद्रवंशी संबंध, उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं (जैसे प्रेम, सौंदर्य, आकर्षण) और आध्यात्मिक शक्तियों की सक्रियता को दर्शाता है। यह इस तथ्य को रेखांकित करता है कि दिव्य अवतार केवल भौतिक नहीं होते, बल्कि सूक्ष्म ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं के साथ भी गहरे जुड़े होते हैं, जो उनके आगमन के समय को और भी पवित्र और शक्तिशाली बनाते हैं।
श्रीकृष्ण का जन्म आधी रात को हुआ था, और इसी कारण जन्माष्टमी की पूजा निशिता काल में की जाती है, जो आधी रात के आसपास का समय होता है। निशिता काल हिंदू धर्म में धार्मिक और तांत्रिक साधनाओं के लिए एक विशेष और पवित्र समय माना जाता है। यह मान्यता है कि रात्रि के इस शांत और गहन वातावरण में सभी दैवीय शक्तियां साधक की साधना से शीघ्र प्रसन्न होती हैं, जिससे उसकी सभी मनोकामनाएं सिद्ध होती हैं। इस समय की गई पूजा अत्यंत फलदायी मानी जाती है, क्योंकि यह ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं के साथ सबसे अधिक अनुकूल होती है।
श्रीकृष्ण जन्म की विस्तृत कथाएं
भगवान श्रीकृष्ण के जन्म की कथा विभिन्न हिंदू धर्मग्रंथों में वर्णित है, जिनमें श्रीमद्भागवत महापुराण और हरिवंश पुराण प्रमुख हैं. ये कथाएं उनके दिव्य अवतार की लीला और उद्देश्य को विस्तार से बताती है।
श्रीमद्भागवत महापुराण में कृष्ण जन्म प्रसंग
द्वापर युग में, मथुरा के राजा उग्रसेन थे, किंतु उनके पुत्र कंस ने अपनी क्रूरता के कारण उन्हें अपदस्थ कर स्वयं गद्दी पर अधिकार कर लिया। कंस की एक बहन देवकी थी, जिसका विवाह यदुवंशी सरदार वसुदेव से हुआ था. कंस अपनी बहन से बहुत स्नेह करता था और एक बार उसे उसकी ससुराल छोड़ने जा रहा था. तभी रास्ते में एक आकाशवाणी हुई, जिसने कंस को भयभीत कर दिया: “हे कंस, जिस देवकी को तू बड़े प्रेम से ले जा रहा है, उसी में तेरा काल बसता है। इसी के गर्भ से उत्पन्न आठवां बालक तेरा वध करेगा”।
यह सुनकर कंस अत्यंत क्रोधित हुआ और उसने तुरंत वसुदेव और देवकी को कारागार में डाल दिया. कंस ने उनकी सभी संतानों को जन्म लेते ही मारना शुरू कर दिया, क्योंकि उसे अपनी मृत्यु का भय सता रहा था। एक-एक करके देवकी की सात संतानों का वध कर दिया गया।
जब देवकी की आठवीं संतान का जन्म हुआ, तो वह एक साधारण शिशु नहीं था. भाद्रपद कृष्ण अष्टमी की घनघोर अंधेरी आधी रात को, रोहिणी नक्षत्र में, मथुरा के कारागार में, भगवान विष्णु स्वयं चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए. उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित थे, और उनके श्रीवत्स का चिह्न वक्ष पर चमक रहा था। कारागार का अंधकार दिव्य प्रकाश से जगमगा उठा. देवकी और वसुदेव ने अपने समक्ष प्रकट हुए भगवान के इस अद्भुत रूप को देखकर स्तुति की और उनके चरणों में नमन किया।
भगवान विष्णु के आदेश से, वसुदेव जी ने नवजात श्रीकृष्ण को एक सूप में रखकर अपने सिर पर ले लिया और गोकुल की ओर चल दिए। भगवान की माया से कारागार के सभी पहरेदार गहरी नींद में सो गए, और कारागार के फाटक स्वतः ही खुल गए। रास्ते में अथाह यमुना नदी उफन रही थी, किंतु जैसे ही भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमल यमुना के जल को स्पर्श करने के लिए लालायित हुए, नदी का जल स्तर घट गया और उसने वसुदेव को मार्ग दे दिया। वसुदेव जी सकुशल नंद जी के घर गोकुल पहुंचे, जहाँ उनकी मित्र पत्नी यशोदा को भी उसी समय एक कन्या का जन्म हुआ था।
गोकुल में, वसुदेव ने नवजात श्रीकृष्ण को माता यशोदा के पास सुला दिया और उनकी नवजात कन्या (जो योगमाया थीं) को लेकर मथुरा लौट आए. कारागार के फाटक पूर्ववत बंद हो गए और पहरेदार जाग गए। जब कंस को आठवीं संतान के जन्म की सूचना मिली, तो वह तुरंत बंदीगृह में पहुंचा. उसने देवकी के हाथ से नवजात कन्या को छीनकर पृथ्वी पर पटकना चाहा, किंतु वह कन्या उसके हाथ से उछलकर आकाश में उड़ गई। आकाश में योगमाया देवी के रूप में प्रकट होकर उन्होंने कंस को बताया: “अरे मूर्ख, मुझे मारने से क्या होगा? तुझे मारनेवाला तो वृंदावन में जा पहुंचा है। वह जल्द ही तुझे तेरे पापों का दंड देगा”।
भगवान श्रीकृष्ण का पालन-पोषण बाबा नंद और माता यशोदा ने गोकुल में किया। बड़े होकर उन्होंने मथुरा आकर कंस का वध किया और लोगों को उसके अत्याचारों से मुक्त कराया। उन्होंने राजा उग्रसेन को पुनः मथुरा की राजगद्दी सौंपी. श्रीमद्भागवत पुराण की यह कथा भगवान के चतुर्भुज रूप में प्रकट होने और योगमाया के प्रसंग के माध्यम से उनके अवतार की दिव्यता और लीलात्मकता को दर्शाती है। यह केवल एक जन्म नहीं, बल्कि एक सुनियोजित दिव्य योजना थी, जहाँ कारागार का खुलना, यमुना का मार्ग देना, और योगमाया द्वारा कंस को भ्रमित करना—प्रत्येक घटना भगवान की सर्वशक्तिमानता और लीला शक्ति का प्रदर्शन करती है। यह भक्तों को यह विश्वास दिलाता है कि ईश्वर असंभव को भी संभव कर सकते हैं और धर्म की स्थापना के लिए किसी भी बाधा को पार कर सकते हैं।
हरिवंश पुराण में कृष्ण जन्म प्रसंग
हरिवंश पुराण, जिसे महाभारत का खिल भाग (पूरक) माना जाता है, में भी भगवान विष्णु के कृष्ण के रूप में जन्म का विस्तृत वर्णन मिलता है। यह पुराण भगवान कृष्ण के जीवन, उनकी बाल लीलाओं और उनके वंश का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है।
इस पुराण में नारद मुनि और कंस के बीच के संवाद का विशेष उल्लेख है। नारद कंस को उसके पूर्व जन्मों के कर्मों और उसके वध के विषय में बताते हैं, जिससे कंस का भय और भी बढ़ जाता है। हरिवंश पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु ने योगमाया को आदेश दिया कि कंस देवकी के गर्भ में जाने वाली हर संतान का वध करेगा। योगमाया ने अपनी योगिक शक्ति से कालनेमि के छह पुत्रों को देवकी के गर्भ में स्थापित किया, और कंस ने उन्हें जन्म लेते ही मार डाला, जैसा कि उसकी नियति में लिखा था।
जब सातवें गर्भ की बारी आई, तो योगमाया ने अपनी माया से देवकी के गर्भ को रोहिणी (वसुदेव की दूसरी पत्नी, जो नंद के घर रह रही थीं) के गर्भ में स्थापित कर दिया। इसके बाद यह ढिंढोरा पिटवा दिया गया कि कंस के भय से देवकी का सातवां गर्भ स्वतः ही गिर चुका है. इस प्रकार, शेषनाग ने बलराम के रूप में रोहिणी के गर्भ से अवतार लिया, जो भगवान कृष्ण के बड़े भाई बने। हरिवंश पुराण की ये कथाएँ, विशेषकर योगमाया द्वारा कालनेमि के पुत्रों और बलराम के गर्भ परिवर्तन का प्रसंग, भगवान की लीला की जटिलता और उनके दिव्य नियोजन को और गहरा करती हैं। यह दर्शाता है कि भगवान की योजना में हर सूक्ष्म विवरण शामिल होता है, जिसमें शत्रुओं के पूर्व जन्म के कर्म और उनके मोक्ष का मार्ग भी निहित होता है। यह भक्तों को यह समझने में सहायता करता है कि ब्रह्मांड में कुछ भी आकस्मिक नहीं है, बल्कि सब कुछ एक बड़ी दिव्य योजना का हिस्सा है।
यह उल्लेखनीय है कि जैन धर्म में भी ‘हरिवंश पुराण’ का उल्लेख मिलता है, जिसे ‘जैन हरिवंश पुराण’ के नाम से जाना जाता है। यह पाठ कृष्ण और उनके पत्नियों, जैसे रुक्मिणी और सत्यभामा, से संबंधित घटनाओं का विवरण देता है, लेकिन इसे जैन दर्शन के सिद्धांतों के अनुरूप प्रस्तुत किया गया है। यह पाठ कर्म, पुनर्जन्म और वैराग्य के महत्व पर जोर देता है। इसमें प्रद्युम्न और शांब जैसे कृष्ण के पुत्रों के पूर्व जन्मों का भी उल्लेख मिलता है, जो जैन मत के अनुसार उनके आध्यात्मिक विकास और मुक्ति की यात्रा को दर्शाते हैं। जैन हरिवंश पुराण का उल्लेख यह दर्शाता है कि कृष्ण की कथा केवल एक धर्म तक सीमित नहीं है, बल्कि विभिन्न भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं में इसके भिन्न-भिन्न आयाम और व्याख्याएँ मिलती हैं, जो इस चरित्र की सार्वभौमिक अपील और भारतीय संस्कृति में उनके गहरे प्रभाव को पुष्ट करती हैं। यह भारतीय आध्यात्मिक परंपराओं की लचीलेपन और समावेशिता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
अन्य प्रासंगिक कथाएं एवं लीलाएं
भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में उनके जन्म के अतिरिक्त भी कई महत्वपूर्ण लीलाएं और प्रसंग हैं, जो उनके अवतार के बहुआयामी उद्देश्य को दर्शाते हैं:
- कालिया दमन: अपने बालकाल में, श्रीकृष्ण ने यमुना नदी में निवास करने वाले विषैले सर्प कालिया का दमन किया. उन्होंने कालिया के फन पर नृत्य किया और उसे यमुना छोड़कर जाने पर विवश किया, जिससे गोकुलवासियों को उसके भय से मुक्ति मिली। यह लीला भगवान की बाल शक्ति और भक्तों की रक्षा के उनके संकल्प को दर्शाती है।
- महाभारत में अर्जुन के सारथी: महाभारत के कुरुक्षेत्र युद्ध के दौरान, भगवान कृष्ण का अर्जुन के सारथी के रूप में वर्णन सबसे व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त है। उन्होंने अर्जुन को धर्म के प्रति निष्ठा बनाए रखने और अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए प्रेरित किया। भगवद्गीता के माध्यम से उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का उपदेश दिया, जो आज भी मानव जीवन के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत है।
कृष्ण की ये बाल लीलाएं और महाभारत में उनकी भूमिका उनके अवतार के बहुआयामी उद्देश्य को स्पष्ट करती हैं। वे केवल एक शिशु के रूप में प्रकट नहीं हुए, बल्कि बचपन से ही उन्होंने अपनी दिव्य शक्तियों का प्रदर्शन किया, भक्तों की रक्षा की, और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी. यह उनके “जगद्गुरु” स्वरूप को स्थापित करता है, जो न केवल देवताओं के गुरु हैं, बल्कि संपूर्ण जगत के लिए एक मार्गदर्शक और प्रेरणा स्रोत हैं। उनके जीवन के प्रत्येक प्रसंग में गहन दार्शनिक और नैतिक शिक्षाएँ निहित हैं, जो मानव को धर्मपरायण जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं।
जन्माष्टमी पूजन की सम्पूर्ण विधि
जन्माष्टमी का व्रत और पूजन भगवान श्रीकृष्ण के प्रति असीम श्रद्धा और समर्पण का प्रतीक है। इस दिन विधि-विधान से पूजा करने से भक्तों को विशेष फल प्राप्त होते हैं।
व्रत का संकल्प एवं नियम
जन्माष्टमी का व्रत अपनी शारीरिक क्षमता और आध्यात्मिक निष्ठा के अनुसार विभिन्न प्रकार से रखा जा सकता है. भक्त निर्जला व्रत (जल रहित), फलाहारी व्रत (केवल फल और दूध पर आधारित), या केवल एक समय भोजन करके व्रत रख सकते हैं।
व्रत के दौरान पालन किए जाने वाले महत्वपूर्ण नियम:
- प्रातःकाल की शुद्धि: व्रत वाले दिन प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- संकल्प: भगवान को नमस्कार कर व्रत का संकल्प लें. संकल्प के लिए हाथ में जल, फल, कुश और गंध लेकर निम्नलिखित मंत्र का जप करें।
- संकल्प मंत्र: “ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥”
- अर्थ: “मेरे समस्त पापों के नाश और सभी अभीष्ट फलों की सिद्धि के लिए मैं श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत करूँगा.”
- एक वैकल्पिक संकल्प मंत्र भी है, जिसे हाथ में पान का पत्ता, कम से कम एक रुपये का सिक्का, जल, अक्षत, फूल और फल लेकर बोला जाता है, और फिर सामग्री भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित की जाती है:
- संकल्प मंत्र: “यथोपलब्धपूजनसामग्रीभिः कार्य सिद्धयर्थं कलशाधिष्ठित देवता सहित, श्रीजन्माष्टमी पूजनं महं करिष्ये।”
- अर्थ: “उपलब्ध पूजन सामग्री के साथ, अपनी कार्य सिद्धि के लिए, कलश में स्थापित देवताओं सहित, मैं श्रीजन्माष्टमी का पूजन करूँगा। “
- निराहार रहना: सूर्यास्त से लेकर अर्धरात्रि तक, जब भगवान का जन्म होता है, व्रतियों को निराहार रहना चाहिए।
- भगवान का स्मरण: पूरे दिन भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करें और अपने मन में किसी के प्रति नकारात्मक भावना न लाएं. मन की पवित्रता बनाए रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
- ब्रह्मचर्य का पालन: व्रत के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
- अनाज का त्याग: जन्माष्टमी के व्रत में अनाज का उपयोग नहीं किया जाता है।
- व्रत पारण: व्रत का पारण मध्यरात्रि में कृष्ण जन्म के बाद, आरती और प्रसाद वितरण के उपरांत किया जाता है। कुछ भक्त अगले दिन रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी तिथि के समाप्त होने के बाद व्रत का पारण करते हैं।
जन्माष्टमी व्रत के विभिन्न प्रकार भक्तों को उनकी शारीरिक क्षमता और आध्यात्मिक निष्ठा के अनुसार विकल्प प्रदान करते हैं, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि अधिक से अधिक लोग इस पुण्य अवसर का लाभ उठा सकें. व्रत के नियम, जैसे ब्रह्मचर्य का पालन करना, निराहार रहना और मन की पवित्रता बनाए रखना, केवल शारीरिक संयम नहीं हैं, बल्कि आत्म-शुद्धि और एकाग्रता के साधन हैं। ये नियम भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण को दर्शाते हैं और भक्त को भौतिक बंधनों से मुक्त होकर आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर करते हैं।
पूजन सामग्री की सूची
जन्माष्टमी की पूजा में उपयोग होने वाली सामग्री भगवान के प्रति प्रेम, आदर और समर्पण का प्रतीक है. यह सुनिश्चित करने के लिए कि पूजा विधि-विधान से संपन्न हो, निम्नलिखित सामग्री की आवश्यकता होती है:
Table 1: जन्माष्टमी पूजन सामग्री सूची
पूजन सामग्री की यह विस्तृत सूची केवल वस्तुओं का संग्रह नहीं है, बल्कि भगवान के प्रति प्रेम, आदर और समर्पण का प्रतीक है। विशेष रूप से डंठल वाले खीरे का उपयोग गर्भनाल के प्रतीक के रूप में कृष्ण के जन्म को पुनः अधिनियमित करने का एक अनूठा और गहरा प्रतीकात्मक तरीका है, जो भक्तों को दिव्य जन्म से भावनात्मक रूप से जोड़ता है. तुलसी दल का महत्व भगवान विष्णु के अवतार के रूप में कृष्ण के साथ उसके अटूट संबंध को दर्शाता है, क्योंकि तुलसी के बिना भगवान भोग स्वीकार नहीं करते. इन सभी सामग्रियों का सावधानीपूर्वक चयन और उपयोग पूजा की पवित्रता और प्रभावशीलता को बढ़ाता है, जिससे भक्त को परमात्मा के साथ गहरा संबंध स्थापित करने में सहायता मिलती है।
षोडशोपचार पूजा विधि: चरण-दर-चरण विवरण
षोडशोपचार पूजा भगवान की 16 प्रकार से की जाने वाली विस्तृत पूजा है, जो उनकी पूर्ण आराधना का प्रतीक है। जन्माष्टमी पर इस विधि से पूजा करने का विशेष महत्व है।
- प्रातःकाल की तैयारी एवं स्नान: जन्माष्टमी के दिन प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नानादि से निवृत्त हों और स्वच्छ वस्त्र धारण करें. अपने घर और पूजन स्थल की पूर्ण सफाई करें, उसे गंगाजल से पवित्र करें, और फूलों, रंगोली तथा रंग-बिरंगे कपड़ों से सजाएँ।
- संकल्प: पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठें. हाथ में जल, फल, कुश और गंध लेकर व्रत का संकल्प लें. संकल्प के लिए निम्नलिखित मंत्र का जप करें:
- संकल्प मंत्र: “ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥”
- एक वैकल्पिक संकल्प मंत्र भी है: “यथोपलब्धपूजनसामग्रीभिः कार्य सिद्धयर्थं कलशाधिष्ठित देवता सहित, श्रीजन्माष्टमी पूजनं महं करिष्ये।”
- अर्थ: “उपलब्ध पूजन सामग्री के साथ, अपनी कार्य सिद्धि के लिए, कलश में स्थापित देवताओं सहित, मैं श्रीजन्माष्टमी का पूजन करूँगा।”
- बाल गोपाल का श्रृंगार एवं स्थापना: बाल गोपाल को स्नान कराने के बाद उन्हें सुंदर वस्त्र, मुकुट, माला, मोरपंख और अन्य आभूषण पहनाकर श्रृंगार करें। एक लकड़ी की चौकी पर लाल या पीले रंग का वस्त्र बिछाकर श्री कृष्ण की बाल रूप मूर्ति या चित्र स्थापित करें. दोपहर के समय काले तिल के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए ‘सूतिकागृह’ नियत करें. फिर नार के खीरे को बीच से चीरकर उसमें लड्डू गोपाल को बैठा दें, जो गर्भनाल का प्रतीकात्मक चित्रण है।
- ध्यानम् (Meditation): पूजन की शुरुआत भगवान के स्वरूप का मन ही मन ध्यान करते हुए करें.
- श्रीकृष्ण ध्यान मंत्र: “ॐ तम अद्भुतं बालकं अम्बुजेक्षणं, चतुर्भुजं शंख गदा आयुध धारिणम्। श्रीवत्स लक्ष्म्यं, गले शोभित कौस्तुभं, पीतांबरं घने मेघ जैसे श्यामवर्ण। बहुमूल्य वैढूर्य मुकुट और कुंडल से सुशोभित, स्वर्ण कंगनों से चमकते हुए, ऐसे श्रीकृष्ण का वसुदेव ने दर्शन किया। चतुर्भुज भगवान कृष्ण का ध्यान करें, जो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए हैं, पीतांबर पहने हैं, गले में माला और कौस्तुभ मणि सुशोभित है। ॐ श्रीकृष्णाय नमः। ध्यानात् ध्यानं समर्पयामि।”
- अर्थ: “मैं उस अद्भुत बालक का ध्यान करता हूँ, जिसके नेत्र कमल के समान हैं, जो चतुर्भुज हैं और शंख, गदा, चक्र और पद्म धारण किए हुए हैं. जिनके वक्ष पर श्रीवत्स का चिह्न है, गले में कौस्तुभ मणि सुशोभित है, जो पीतांबर धारण किए हुए हैं और घने मेघ के समान श्यामवर्ण के हैं. जो बहुमूल्य वैढूर्य मुकुट और कुंडल से सुशोभित हैं, और जिनके स्वर्ण कंगनों से चमकते हुए, ऐसे श्रीकृष्ण का वसुदेव ने दर्शन किया. मैं भगवान श्रीकृष्ण को ध्यान अर्पित करता हूँ। “
- आवाहनम् (Invocation): ध्यान के बाद आवाहन-मुद्रा दिखाकर भगवान का आवाहन करें.
- आवाहन मंत्र: “अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम्। स्वयं त्वसंख्याण्डपतिं परात्परं राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम्।।”
- अर्थ: “आप अनादि हैं, आदि पुरुष हैं, पुरुषों में उत्तम हैं, श्रीकृष्णचंद्र हैं, अपने भक्तों पर दया करने वाले हैं. आप स्वयं असंख्य ब्रह्मांडों के स्वामी हैं, परात्पर हैं, राधापति हैं, मैं आपकी शरण में आता हूँ।”
- अतिरिक्त आवाहन मंत्र: “ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥ आगच्छ देवदेवेश तेजोराशे जगत्पते। क्रियमाणां मया पूजां गृहाण सुरसत्तम॥ आवाहयामि देव त्वां वसुदेवकुलोद्भवम्। प्रतिमायां सुवर्णादिनिर्मितायां यथाविधि॥ कृष्णं च बलभद्रं च वसुदेवं च देवकीम्। नन्दगोपं यशोदां च सुभद्रां तत्र पूजयेत्॥ आत्मा देवानां भुवनस्य गर्भो यथावशं चरति देवेषः। घोषा इदस्य शर्ण्विरे न रूपं तस्मै वाताय हविषा विधेम॥ ॐ श्रीक्लींकृष्णाय नमः। सपरिवारं श्रीबालकृष्णम् आवाहयामि॥”
- अर्थ: “हजारों सिर, हजारों आँखें और हजारों पैर वाले पुरुषोत्तम, जो पृथ्वी को चारों ओर से घेरकर दश अंगुल ऊपर स्थित हैं. हे देवदेवेश, हे तेजोराशि, हे जगत्पते, आप आएं और मेरे द्वारा की गई पूजा को स्वीकार करें। मैं आपको, वसुदेव कुल में उत्पन्न हुए देव, को स्वर्ण आदि से निर्मित प्रतिमा में विधिपूर्वक आवाहन करता हूँ. कृष्ण, बलभद्र, वसुदेव, देवकी, नंदगोप, यशोदा और सुभद्रा की भी पूजा करें. जो देवताओं की आत्मा हैं, भुवन के गर्भ हैं, जो अपनी इच्छा से देवताओं में विचरण करते हैं, जिनकी ध्वनि सुनाई देती है, किंतु रूप नहीं, उन वायु देव को हम हवि प्रदान करते हैं. ॐ श्रीक्लीं कृष्णाय नमः. मैं सपरिवार श्रीबालकृष्ण का आवाहन करता हूँ।”
- पंचामृत अभिषेक: रात को 12 बजे शुभ मुहूर्त में लड्डू गोपाल को खीरे से निकालकर दूध, दही, शहद, घी, गंगाजल व शक्कर से बनाए गए पंचामृत से स्नान कराएं. दक्षिणावर्ती शंख में पंचामृत भरकर अभिषेक करना अत्यंत शुभ माना जाता है।
- पंचामृत स्नान मंत्र: “पंचामृतं मयाआनीतं पयोदधि घृतं मधु। शर्करा च समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।”
- अर्थ: “दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से युक्त यह पंचामृत मेरे द्वारा लाया गया है, स्नान के लिए इसे स्वीकार करें।”
- पंचामृत स्नान के बाद भगवान को गंगाजल से शुद्ध स्नान कराएं और साफ कपड़े से पोंछें।
- वस्त्र अर्पण: भगवान को सुंदर वस्त्र पहनाएं. पीताम्बर वस्त्र (पीले रंग के वस्त्र) पहनाना सबसे अच्छा रहता है.
- वस्त्र अर्पण मंत्र: “शीतवातोष्णसन्त्राणं लज्जाया रक्षणं परम्। देहालअंगकरणं वस्त्रमतः शान्तिं प्रयच्छ मे।”
- अर्थ: “जो सर्दी, गर्मी और हवा से रक्षा करता है, लज्जा का परम रक्षक है, और शरीर को सुशोभित करता है, ऐसा वस्त्र मैं आपको अर्पित करता हूँ, मुझे शांति प्रदान करें।”
- तिलक एवं पुष्प अर्पण: भगवान को चंदन, अक्षत (साबुत चावल), और ताजे फूल अर्पित करें.
- कुमकुम अर्पण मंत्र: “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । भगवान श्रीकृष्णाय नमः । मङ्गलार्थे कुङ्कुमं समर्पयामि ।”
- अर्थ: “भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार है. मंगल कामना के लिए कुमकुम अर्पित करता हूँ।”
- धूप-दीप प्रदर्शन: भगवान को धूप और दीप दिखाएं.
- दीपदेवता मंत्र: “दीपदेवताभ्यो नमः | सकलपूजार्थे गन्धाक्षतपुष्पं समर्पयामि ।”
- अर्थ: “दीपदेवता को नमस्कार है. समस्त पूजा के लिए गंध, फूल और अक्षत अर्पित करता हूँ.”
- नैवेद्य अर्पण: भगवान को माखन, मिश्री, धनिया पंजीरी, फल, मेवे और अन्य पकवान अर्पित करें। भगवान के नैवेद्य में तुलसी दल का होना अत्यंत आवश्यक माना गया है, क्योंकि इसके बिना भोग अधूरा माना जाता है। लौंग, इलायची और पान भी अर्पित करें।
- नैवेद्य अर्पण मंत्र (सामान्य): “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । भगवान श्रीकृष्णाय नमः । नैवेद्यं समर्पयामि ।”
- अर्थ: “भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार है. मैं नैवेद्य अर्पित करता हूँ।”
- आचमन (Water Offering): अर्घा में जल लेकर भगवान को आचमन कराएं.
- आचमन मंत्र: “इदं आचमनम् ओम नमो भगवते वासुदेवं, देवकीसुतं समर्पयामि।”
- अर्थ: “यह आचमन है, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, देवकीसुत को समर्पित करता हूँ।”
- आरती: घी के दीपक से भगवान कृष्ण की आरती करें।
- आरती कुंजबिहारी की: “आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की ॥ गले में बैजंती माला, बजावै मुरली मधुर बाला. श्रवण में कुण्डल झलकाला, नंद के आनंद नंदलाला. गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली. लतन में ठाढ़े बनमाली भ्रमर सी अलक, कस्तूरी तिलक, चंद्र सी झलक, ललित छवि श्यामा प्यारी की, श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की ॥”
- झूला उत्सव: भगवान को पालने में बिठाकर हल्के से झूला झुलाएं और जन्माष्टमी के भजन व लोरी गाएँ। यह रसपूर्ण अनुष्ठान भगवान के बाल स्वरूप के स्वागत का प्रतीक है।
- पुष्पांजलि: हाथ में फूल लेकर पुष्पांजलि अर्पित करें.
- पुष्पांजलि मंत्र: “प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः, वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः, सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तुते।”
- अर्थ: “हे देव माता (देवकी), मैं आपको प्रणाम करता हूँ, आपसे ही वामन (विष्णु का अवतार) और वसुदेव से कृष्ण का जन्म हुआ. आपको बार-बार नमस्कार है. मेरे द्वारा दिया गया यह सुपुत्रार्घ्य स्वीकार करें, आपको नमस्कार है।”
- प्रदक्षिणा (Circumambulation): पान सुपारी अर्पित करके भगवान की प्रदक्षिणा करें.
- प्रदक्षिणा मंत्र: “यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च। तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिण पदे-पदे।”
- अर्थ: “जो भी पाप मैंने इस जन्म में या पूर्व जन्मों में किए हैं, वे सब प्रदक्षिणा के प्रत्येक पद से नष्ट हो जाएं।”
- क्षमा प्रार्थना (Prayer for Forgiveness): अंत में, पूजा में हुई किसी भी ज्ञात या अज्ञात त्रुटि के लिए भगवान से क्षमा प्रार्थना करें।
- क्षमा प्रार्थना मंत्र (सामान्य): “आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर॥ मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर। यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे॥”
- अर्थ: “हे परमेश्वर! मुझे आवाहन करना नहीं आता, न ही विसर्जन करना आता है। मैं पूजा करना भी नहीं जानता, हे परमेश्वर, मुझे क्षमा करें. हे सुरेश्वर! मंत्रहीन, क्रियाहीन, भक्तिहीन जो भी पूजा मैंने की है, हे देव, वह मेरी पूजा पूर्ण हो।”
- रात्रि जागरण एवं भजन-कीर्तन: श्रीकृष्ण का जन्म रात 12 बजे हुआ था, इसलिए भक्तजन पूरी रात जागरण करते हैं और भजन-कीर्तन करते हैं। यह जागरण भगवान कृष्ण के जन्म के क्षण का इंतजार करने और उस दिव्य घटना का साक्षी बनने का प्रतीक है।
- व्रत पारण: आरती और प्रसाद वितरण के बाद, पारण मुहूर्त में व्रत खोलें।
षोडशोपचार पूजा विधि का प्रत्येक चरण केवल एक कर्मकांड नहीं है, बल्कि यह भक्त और भगवान के बीच एक गहन संवाद और संबंध स्थापित करने का माध्यम है। खीरे में बाल गोपाल को बैठाना, पंचामृत से अभिषेक, और विशेष मंत्रों का उच्चारण, ये सब दिव्य जन्म के प्रतीकात्मक पुनरावृत्ति हैं, जो भक्तों को उस क्षण का साक्षी बनने और उसमें भाग लेने का अवसर प्रदान करते हैं। यह विधि भक्तों को भौतिक स्तर से आध्यात्मिक स्तर तक उठाने और परमात्मा के साथ एकात्मता का अनुभव करने में सहायता करती है, जिससे उनकी भक्ति और भी गहरी होती है।
कृष्ण पूजन के शास्त्रीय मंत्र और उनके अर्थ
जन्माष्टमी के पूजन में विभिन्न शास्त्रीय मंत्रों का प्रयोग किया जाता है, जो पूजा को अधिक प्रभावी और अर्थपूर्ण बनाते हैं। ये मंत्र केवल शब्द नहीं होते, बल्कि ध्वनि ऊर्जा के रूप होते हैं जो विशिष्ट आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किए जाते हैं। प्रत्येक मंत्र का विशिष्ट अर्थ और फल होता है, जो भक्तों को उनकी आवश्यकताओं और आध्यात्मिक लक्ष्यों के अनुसार चयन करने की स्वतंत्रता देता है। इन मंत्रों का जाप, विशेष रूप से निशिता काल में, मन को एकाग्र करता है, सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करता है, और भक्त को सीधे भगवान से जोड़ता है, जिससे पूजा की प्रभावशीलता कई गुना बढ़ जाती है।
Table 3: प्रमुख शास्त्रीय मंत्र एवं उनके अर्थ
| मंत्र (संस्कृत) | transliteration (हिंदी) | अर्थ (हिंदी) | संदर्भ |
| ॐ अपवित्रः पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोअपि वा। यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥ | ॐ अपवित्रः पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोअपि वा। यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥ | मेरा अंतर्बाह्य स्वच्छ हो अथवा अस्वच्छ, किसी भी अवस्था में हो; जो मनुष्य कमलनयन श्री विष्णु का स्मरण करता है, वह अंतर्बाह्य शुद्ध हो जाता है. | |
| वसुदेव सुतं देव कंस चाणूर मर्दनम्। देवकी परमानंदं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥ | वसुदेव सुतं देव कंस चाणूर मर्दनम्। देवकी परमानंदं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥ | हे वसुदेव के पुत्र, कंस और चाणूर का वध करने वाले, देवकी को परम आनंद देने वाले और जगत के गुरु श्रीकृष्ण, मैं आपको नमस्कार करता हूँ. | |
| ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥ | ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥ | मेरे समस्त पापों के नाश और सभी अभीष्ट फलों की सिद्धि के लिए मैं श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत करूँगा. | |
| यथोपलब्धपूजनसामग्रीभिः कार्य सिद्धयर्थं कलशाधिष्ठित देवता सहित, श्रीजन्माष्टमी पूजनं महं करिष्ये। | यथोपलब्धपूजनसामग्रीभिः कार्य सिद्धयर्थं कलशाधिष्ठित देवता सहित, श्रीजन्माष्टमी पूजनं महं करिष्ये। | उपलब्ध पूजन सामग्री के साथ, अपनी कार्य सिद्धि के लिए, कलश में स्थापित देवताओं सहित, मैं श्रीजन्माष्टमी का पूजन करूँगा. | |
| अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम्। स्वयं त्वसंख्याण्डपतिं परात्परं राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम्॥ | अनादिमाद्यं पुरुषोत्तमोत्तमं श्रीकृष्णचन्द्रं निजभक्तवत्सलम्। स्वयं त्वसंख्याण्डपतिं परात्परं राधापतिं त्वां शरणं व्रजाम्यहम्॥ | आप अनादि हैं, आदि पुरुष हैं, पुरुषों में उत्तम हैं, श्रीकृष्णचंद्र हैं, अपने भक्तों पर दया करने वाले हैं. आप स्वयं असंख्य ब्रह्मांडों के स्वामी हैं, परात्पर हैं, राधापति हैं, मैं आपकी शरण में आता हूँ. | |
| पंचामृतं मयाआनीतं पयोदधि घृतं मधु। शर्करा च समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्॥ | पंचामृतं मयाआनीतं पयोदधि घृतं मधु। शर्करा च समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्॥ | दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से युक्त यह पंचामृत मेरे द्वारा लाया गया है, स्नान के लिए इसे स्वीकार करें. | |
| शीतवातोष्णसन्त्राणं लज्जाया रक्षणं परम्। देहालअंगकरणं वस्त्रमतः शान्तिं प्रयच्छ मे। | शीतवातोष्णसन्त्राणं लज्जाया रक्षणं परम्। देहालअंगकरणं वस्त्रमतः शान्तिं प्रयच्छ मे। | जो सर्दी, गर्मी और हवा से रक्षा करता है, लज्जा का परम रक्षक है, और शरीर को सुशोभित करता है, ऐसा वस्त्र मैं आपको अर्पित करता हूँ, मुझे शांति प्रदान करें. | |
| इदं आचमनम् ओम नमो भगवते वासुदेवं, देवकीसुतं समर्पयामि। | इदं आचमनम् ओम नमो भगवते वासुदेवं, देवकीसुतं समर्पयामि। | यह आचमन है, ॐ नमो भगवते वासुदेवाय, देवकीसुत को समर्पित करता हूँ. | |
| यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च। तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिण पदे-पदे। | यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च। तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिण पदे-पदे। | जो भी पाप मैंने इस जन्म में या पूर्व जन्मों में किए हैं, वे सब प्रदक्षिणा के प्रत्येक पद से नष्ट हो जाएं. | |
| प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः, वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः, सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तुते। | प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः, वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः, सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तुते। | हे देव माता (देवकी), मैं आपको प्रणाम करता हूँ, आपसे ही वामन (विष्णु का अवतार) और वसुदेव से कृष्ण का जन्म हुआ. आपको बार-बार नमस्कार है. मेरे द्वारा दिया गया यह सुपुत्रार्घ्य स्वीकार करें, आपको नमस्कार है. |
अन्य महत्वपूर्ण मंत्र:
- “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय”: यह भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण का मूल मंत्र है, जिसका जाप सभी प्रकार की मनोकामनाओं की पूर्ति और आध्यात्मिक उन्नति के लिए किया जाता है। यह मंत्र मन को शांति प्रदान करता है और भगवान के साथ गहरा संबंध स्थापित करने में सहायक होता है।
- “कृं कृष्णाय नमः”: यह श्रीकृष्ण का एक शक्तिशाली मूलमंत्र है, जिसके जाप से व्यक्ति को अटका हुआ धन प्राप्त होता है और जीवन की कठिनाइयाँ दूर होती हैं। यह मंत्र विशेष रूप से भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि के लिए उपयोगी माना जाता है।
- “ॐ देविकानन्दनाय विधमहे वासुदेवाय धीमहि तन्नो कृष्ण:प्रचोदयात”: इस मंत्र के जाप से व्यक्ति के जीवन और मन से सभी दुख दूर होते हैं। यह एक प्रकार का गायत्री मंत्र है जो भगवान कृष्ण को समर्पित है, और यह मानसिक शांति तथा सकारात्मकता प्रदान करता है।
- “हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे”: यह 16 शब्दों का वैष्णव महामंत्र है, जिसे “महामंत्र” के नाम से भी जाना जाता है। इस दिव्य मंत्र का उच्चारण करने से व्यक्ति श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हो जाता है और उसे परमानंद की प्राप्ति होती है। यह मंत्र कलयुग में मोक्ष का सबसे सरल मार्ग माना गया है।
- “ऊं श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा”: यह कोई साधारण मंत्र नहीं, बल्कि श्रीकृष्ण का सप्तदशाक्षर महामंत्र है। शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार, अन्य मंत्र 108 बार जाप करने से सिद्ध हो जाते हैं, लेकिन इस महामंत्र का पांच लाख जाप करने से ही सिद्धि प्राप्त हो पाती है। यह मंत्र पूर्णता और परम सिद्धि की प्राप्ति के लिए जपा जाता है।
- “ओम क्लीम कृष्णाय नमः”: इस मंत्र का जाप करने से मनुष्य को सफलता और वैभव की प्राप्ति होती है। इसे नियम-कायदों के साथ जपना चाहिए ताकि इसका पूर्ण लाभ मिल सके. यह मंत्र जीवन की बाधाओं को दूर कर उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है।
- “श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेवा”: इस मंत्र के उच्चारण से श्रीकृष्ण की कृपा व्यक्ति पर बनी रहती है। यह मंत्र भगवान के विभिन्न नामों का स्मरण कराता है और उनकी शरण में जाने का भाव व्यक्त करता है।
- “गोकुल नाथाय नमः”: इस आठ अक्षरों वाले श्रीकृष्ण मंत्र का जाप जो भी भक्त करता है, उसकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। यह मंत्र गोकुल के स्वामी भगवान कृष्ण के प्रति समर्पण का भाव दर्शाता है।
इन मंत्रों का ज्ञान और उनका सही उच्चारण पूजा की गहराई को बढ़ाता है। यह भक्तों को केवल कर्मकांड करने के बजाय, भगवान के साथ एक सचेत और भावपूर्ण संबंध स्थापित करने में मदद करता है।
जन्माष्टमी पर क्या करें और क्या न करें
शुभ-अशुभ कार्यजन्माष्टमी का पर्व भगवान श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव का पावन अवसर है, जिसे श्रद्धा, भक्ति और नियमों के साथ मनाना अत्यंत शुभ माना जाता है। इस दिन कुछ विशेष कार्यों को करने से पुण्य की प्राप्ति होती है, जबकि कुछ कार्यों से बचना चाहिए, क्योंकि वे अशुभ माने जाते हैं और पूजा के फल को प्रभावित कर सकते हैं।
Table 2: जन्माष्टमी पर शुभ एवं अशुभ कार्य
| क्या करें (शुभ कार्य) | क्या न करें (अशुभ कार्य) |
| सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और पवित्र हो जाएं. | मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन जैसे तामसिक भोजन का सेवन न करें. |
| अपनी क्षमतानुसार व्रत का संकल्प लें और पालन करें (निर्जला, फलाहारी, या एक समय भोजन). | किसी के साथ बुरा व्यवहार न करें, किसी का अपमान न करें. |
| घर और पूजन स्थल की साफ-सफाई और सजावट करें. | झूठ बोलना, क्रोध, द्वेष आदि करने से बचें. |
| भगवान कृष्ण की विधि-विधान से पूजा, आरती, और भजन-कीर्तन करें. | दिन में न सोएं, यह व्रत के नियमों के खिलाफ है. |
| भगवान कृष्ण को माखन, मिश्री, पंजीरी, पंचामृत, फल, मेवे, तुलसी दल आदि का भोग लगाएं. | तुलसी के पत्ते न तोड़ें. तुलसी के पत्ते एक दिन पहले ही तोड़कर रख लेने चाहिए. |
| घर में शांति और प्रेम का माहौल बनाए रखें, लड़ाई-झगड़े और कलह-क्लेश से बचें. | काले रंग के कपड़े न पहनें और न ही भगवान श्रीकृष्ण को काले वस्त्र पहनाएं, क्योंकि ऐसा करने से नकारात्मक ऊर्जा बढ़ सकती है. |
| अपने से बड़ों का सम्मान करें और उनका आशीर्वाद लें. | चावल का सेवन न करें. |
| गायों और अन्य पशु-पक्षियों को भोजन कराएं. भगवान कृष्ण को गाय बहुत प्रिय है. | गायों या बछड़ों को सताए या मारें नहीं. |
| जरूरतमंदों को दान करें और पुण्य कमाएं. अन्नदान, वस्त्र दान, माखन का दान, मोर पंख का दान, कामधेनु गाय की प्रतिमा का दान, मुरली आदि का दान बेहद शुभ माना गया है. | महिला या पुरुष किसी को भी नाखून एवं बाल कटवाने से बचें. |
| भगवान कृष्ण के मंदिरों में दर्शन करें. | किसी भी चीज की चोरी न करें, किसी को धोखा न दें. |
| भगवान कृष्ण के भजन, कीर्तन और कथा सुनें. | किसी भी प्रकार की वासनात्मक प्रवृत्ति से जुड़े कार्य (जैसे फिल्में देखना) से बचें. |
| रात 12 बजे कृष्ण जन्म के बाद जागरण करें. | लोहे या काले रंग की वस्तुओं का दान न करें. |
| “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का जाप करें. |
जन्माष्टमी पर किए जाने वाले शुभ कार्य केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि ये सामाजिक सद्भाव, करुणा और नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देते हैं. दान-पुण्य और गौ सेवा का महत्व इस बात पर जोर देता है कि सच्ची भक्ति केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें दूसरों के प्रति सेवा और प्रेम भी शामिल है. यह त्योहार व्यक्ति को आत्म-शुद्धि और परोपकार की ओर प्रेरित करता है, जिससे समाज में सकारात्मकता का संचार होता है।
दूसरी ओर, जन्माष्टमी पर निषेध किए गए कार्य केवल अंधविश्वास नहीं हैं, बल्कि ये आध्यात्मिक अनुशासन और शुचिता के प्रतीक हैं। तामसिक भोजन से बचना, क्रोध और द्वेष का त्याग करना, तथा अहिंसा का पालन करना, ये सभी भगवान कृष्ण के कर्मयोग और धर्म के सिद्धांतों के अनुरूप हैं। तुलसी तोड़ने पर निषेध विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है, जो उस पौधे के प्रति अत्यधिक सम्मान और उसकी पवित्रता को दर्शाता है, जिसे भगवान विष्णु के अवतारों से अभिन्न माना जाता है. इन नियमों का पालन करने से भक्त अपने मन और शरीर को शुद्ध रख पाते हैं, जिससे वे दिव्य ऊर्जा को अधिक प्रभावी ढंग से ग्रहण कर सकते हैं।
जन्माष्टमी की रात्रि का महत्व एवं पूजन का फल
जन्माष्टमी की रात्रि का विशेष महत्व है, क्योंकि इसी समय भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इस रात्रि में की गई पूजा और व्रत का फल अत्यंत शुभ और अद्वितीय माना जाता है।
निशिता काल में पूजन का विशेष फल
निशिता काल वह समय है जो रात के मध्य में आता है, आमतौर पर यह एक घंटे से भी कम होता है. यह समय हिंदू धर्म में धार्मिक और तांत्रिक साधनाओं के लिए अत्यंत शुभ और पवित्र माना जाता है। यह मान्यता है कि रात्रि के इस शांत और गहन वातावरण में सभी दैवीय शक्तियां साधक की साधना से शीघ्र प्रसन्न होती हैं, जिससे उसकी सभी मनोकामनाएं सिद्ध होती हैं। इस समय की गई पूजा अत्यंत फलदायी होती है, क्योंकि यह ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं के साथ सबसे अधिक अनुकूल होती है।
निशिता काल में की गई पूजा से साधक की सभी इच्छाएं पूरी होती हैं, चाहे वे भौतिक हों या आध्यात्मिक. यह समय आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होता है और ईश्वर से साधक का जुड़ाव गहरा होता है. निशिता काल पूजा नकारात्मक ऊर्जा का नाश करती है और वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है। इस दिन व्रत और पूजन से मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति होती है, व्यक्ति के पापों का नाश होता है, और जीवन में सुख, समृद्धि तथा संतोष बढ़ता है। निशिता काल का महत्व केवल कृष्ण के जन्म के समय से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि यह एक सार्वभौमिक आध्यात्मिक सिद्धांत को दर्शाता है कि मध्यरात्रि का शांत और गहन समय दिव्य ऊर्जाओं के साथ जुड़ने के लिए सबसे अनुकूल होता है। इसका शिवरात्रि और तांत्रिक साधनाओं से संबंध यह बताता है कि यह समय किसी एक देवता या परंपरा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा के एक विशेष प्रवाह का प्रतीक है, जिसे कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष रूप से सक्रिय माना जाता है. यह भक्तों को न केवल व्यक्तिगत लाभ (मनोकामना पूर्ति, पाप नाश) बल्कि गहन आध्यात्मिक अनुभव (ईश्वर से जुड़ाव) भी प्रदान करता है।
व्रत रखने के लाभ: 20 करोड़ एकादशी व्रत के समान फल
जन्माष्टमी का व्रत रखने से भक्तों को असाधारण पुण्य और लाभ प्राप्त होते हैं, जिनका वर्णन विभिन्न पुराणों में किया गया है:
- पापों का नाश: भविष्य पुराण में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि जो मनुष्य जीवन में जन्माष्टमी का व्रत श्रद्धापूर्वक करता है, उसके द्वारा किए हुए 100 जन्मों के पाप मात्र इस व्रत को करने से समाप्त हो जाते हैं। यह व्रत व्यक्ति को कर्मों के बंधन से मुक्ति दिलाने में सहायक होता है।
- अतुलनीय पुण्य: इस व्रत को करने से साधक को 20 करोड़ एकादशियों का फल प्राप्त होता है। वायु पुराण में भी इस बात की पुष्टि की गई है। यह दर्शाता है कि जन्माष्टमी का व्रत अन्य व्रतों की तुलना में अत्यंत श्रेष्ठ और फलदायी है।
- अकाल मृत्यु से मुक्ति: यह भी माना जाता है कि जन्माष्टमी का व्रत रखने से व्यक्ति को अकाल मृत्यु से मुक्ति मिलती है. यह व्रत जीवन को सुरक्षित और दीर्घायु बनाने में सहायक होता है।
- रिश्तों में मिठास और धन-समृद्धि: यह व्रत रिश्तों में मिठास लाने वाला माना गया है, जो व्यक्ति आर्थिक परेशानियों से जूझ रहा हो या अपने जीवन में स्थिरता और समृद्धि चाहता हो, उसके लिए यह व्रत बहुत ही शुभ होता है. धन, अन्न, संपत्ति और समृद्धि पाने के लिए इससे बेहतर कोई व्रत नहीं माना गया है।
जन्माष्टमी व्रत के ये असाधारण फल भगवान कृष्ण के अवतार की सर्वोच्चता और इस विशेष दिन की अद्वितीय पवित्रता को दर्शाते हैं। यह भक्तों को न केवल भौतिक लाभ (सुख-समृद्धि) बल्कि आध्यात्मिक मुक्ति (पाप नाश, अकाल मृत्यु से मुक्ति) का आश्वासन देता है, जिससे इस व्रत का महत्व अत्यधिक बढ़ जाता है. यह भगवान की असीम कृपा और भक्तों के प्रति उनके वात्सल्य का प्रमाण है, जो उन्हें इस पुण्य अवसर पर भक्ति और समर्पण के साथ व्रत रखने के लिए प्रेरित करता है।
रात्रि जागरण का महत्व
जन्माष्टमी की रात्रि में जागरण का विशेष महत्व है. कृष्ण भक्त पूरी रात जागरण करते हैं, भजन-कीर्तन करते हैं, और भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का दर्शन कर पुण्य प्राप्त करते हैं। यह जागरण भगवान कृष्ण के जन्म के क्षण का इंतजार करने और उस दिव्य घटना का साक्षी बनने का प्रतीक है।
रात्रि जागरण केवल एक परंपरा नहीं है, बल्कि यह एक गहन आध्यात्मिक अभ्यास है जो भक्तों को दिव्य ऊर्जा के साथ एकाकार होने का अवसर देता है. यह भगवान के प्रति प्रेम और प्रतीक्षा का प्रतीक है, जहाँ भक्त अपनी नींद का त्याग कर भगवान के आगमन का उत्सव मनाते हैं, जिससे उन्हें मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त होती है। सामूहिक रूप से भजन-कीर्तन करने से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, जो भक्तों को एक साझा आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करता है. यह अभ्यास भगवान के प्रति गहन भक्ति और समर्पण को दर्शाता है, जिससे भक्त और भगवान के बीच का संबंध और भी मजबूत होता है।
भारत में जन्माष्टमी के विविध रूप
जन्माष्टमी का पर्व पूरे भारत में मनाया जाता है, किंतु विभिन्न क्षेत्रों में इसकी अपनी अनूठी परंपराएं और उत्सव के तरीके हैं, जो भारतीय संस्कृति की विविधता को दर्शाते हैं।
मथुरा और वृंदावन का उत्सव
भगवान श्रीकृष्ण का जन्मस्थान मथुरा और उनकी बाल लीलाओं का स्थान वृंदावन, जन्माष्टमी के उत्सव का केंद्र बिंदु हैं. इन पवित्र स्थानों पर जन्माष्टमी अत्यंत धूमधाम और भव्यता के साथ मनाई जाती है।
- सजावट और झांकियां: मंदिरों को बहुत खूबसूरती से सजाया जाता है, और रंग-बिरंगी रोशनी से जगमगाया जाता है। श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़ी झांकियां निकाली जाती हैं, जिनमें उनके जन्म की लीला और बाल लीलाओं का मंचन किया जाता है।
- मध्यरात्रि पूजन और अभिषेक: मध्यरात्रि में, जब भगवान का जन्म हुआ था, विशेष पूजन, महाआरती और अभिषेक (भगवान का पवित्र स्नान) होता है. इस दौरान हजारों श्रद्धालु मंदिरों में एकत्र होते हैं, और चारों ओर मंत्रों की गूंज, शंख और घंटियों की आवाज गूंजने लगती है, ऐसा लगता है जैसे भगवान श्रीकृष्ण स्वयं इस पवित्र क्षण में धरती पर आ रहे हों। भक्त खुशी से जयकार करते हैं, “नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की!”
- प्रमुख मंदिर: मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर (जहां कंस का कारागार था), द्वारकाधीश मंदिर (जहां श्रीकृष्ण को राजसी रूप में पूजा जाता है), और विश्राम घाट (जहां श्रीकृष्ण ने कंस वध के बाद आराम किया था) प्रमुख केंद्र हैं। वृंदावन में बांके बिहारी मंदिर (जो स्वामी हरिदास की भक्ति से प्रकट हुए थे) और सेवा कुंज (जहां भगवान कृष्ण राधा रानी और गोपियों के साथ रासलीला करते थे) विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
मथुरा और वृंदावन में जन्माष्टमी का उत्सव केवल एक धार्मिक पर्व नहीं है, बल्कि यह एक जीवंत सांस्कृतिक प्रदर्शन है जो भगवान कृष्ण की लीलाओं को पुनर्जीवित करता है। इन स्थानों पर उत्सव की भव्यता और जनभागीदारी यह दर्शाती है कि कृष्ण केवल एक देवता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक नायक और प्रेरणा स्रोत हैं, जिनकी कहानियाँ और जीवन दर्शन पीढ़ियों से लोगों को प्रेरित करते रहे हैं। यह उत्सव भक्तों को भगवान के जीवन के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने का अवसर प्रदान करता है।
महाराष्ट्र में दही हांडी परंपरा
जन्माष्टमी पर दही हांडी फोड़ने की परंपरा भारत में, खासकर महाराष्ट्र में बेहद लोकप्रिय है. यह उत्सव भगवान कृष्ण के बचपन की एक लीला से जुड़ा है, जिसमें वे अपने सखाओं के साथ मिलकर ऊंचाई पर लटके माखन और मिश्री को चुराकर खाया करते थे।
- मानव पिरामिड: इस त्योहार में युवा और बच्चे एक मानव श्रृंखला (पिरामिड) बनाते हैं और ऊंचाई पर लटकी दही, मक्खन या मिठाइयों से भरी हांडी को तोड़ने की कोशिश करते हैं. इस त्योहार के भागीदारों को “गोविंदा” कहा जाता है।
- प्रतीकात्मक महत्व: यह पर्व भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं का प्रतीक है, जब वे अपने दोस्तों के साथ मिलकर ऊंचाई पर लटके हुए मटके को तोड़ते थे। यह उत्सव आपसी प्यार, सहयोग और सामाजिक मेलजोल तथा एकता का भी प्रतीक माना जाता है।
दही हांडी कृष्ण की बाल लीलाओं का एक जीवंत, सहभागी पुनरावृत्ति है, जो त्योहार में खेल और सामुदायिक भावना का तत्व जोड़ता है। यह दर्शाता है कि धार्मिक उत्सव केवल गंभीर अनुष्ठानों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें खुशी, खेल और सामाजिक एकजुटता भी शामिल है। यह परंपरा कृष्ण के नटखट और लोक-प्रिय स्वरूप को दर्शाती है, जो उन्हें आम जनमानस के करीब लाती है और उत्सव को और अधिक जीवंत बनाती है।
दक्षिण भारत में गोकुलाष्टमी
दक्षिण भारत में जन्माष्टमी को गोकुलाष्टमी या श्री कृष्ण जयंती के रूप में मनाया जाता है, और यहाँ भी यह पर्व बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।
- परंपराएं: लोग अपने घरों के फर्श को ‘कोलम’ (चावल के घोल से तैयार सजावटी पैटर्न) से सजाते हैं। घर की दहलीज से पूजा कक्ष तक भगवान कृष्ण के पैरों के निशान खींचे जाते हैं, जो घर में कृष्ण के आगमन को दर्शाता है. भगवद्गीता और गीता गोविंदम जैसे भक्ति गीतों का पाठ किया जाता है। कृष्ण को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद में फल, पान, मक्खन, सेवइयां, सीदाई, मीठी सीदाई, वेरकादलाई उरुंडई, अवल (पोहा) व्यंजन और ताजा घर का बना मक्खन शामिल हैं।
- केरल: केरल में लोग मलयालम कैलेंडर के अनुसार सितंबर में जन्माष्टमी मनाते हैं। इस अवसर पर बाल गोकुलम द्वारा शोभा यात्राएं आयोजित की जाती हैं, जिनमें बच्चे राधा-कृष्ण के रूप में नाट्यलीला प्रस्तुत करते हैं।
- तमिलनाडु: तमिलनाडु में लोग अक्सर अवल (पोहा) व्यंजन और ताजा घर का बना मक्खन नैवेद्य के रूप में चढ़ाते हैं।
- आंध्र प्रदेश: आंध्र प्रदेश में भी लोग उपवास रखते हैं और कृष्ण को चढ़ाने के लिए तरह-तरह की मिठाइयां बनाई जाती हैं. दूध और दही के साथ खाने की चीजें तैयार की जाती हैं, और राज्य के कुछ मंदिरों में कृष्ण के नाम का आनंदपूर्वक जप होता है।
- प्रसिद्ध कृष्ण मंदिर: दक्षिण भारत में कई विशाल और प्राचीन कृष्ण मंदिर हैं, जो इस अवसर पर भक्तों का केंद्र बनते हैं। इनमें केरल का गुरुवायूर मंदिर (जिसे दक्षिण भारत का द्वारका भी कहा जाता है), चेन्नई का पार्थसारथी मंदिर (जहां भगवान विष्णु के चार अवतारों की पूजा होती है), कर्नाटक के उडुपी में श्रीकृष्ण मठ मंदिर (जहां भगवान कृष्ण की पूजा नौ खिड़कियों से की जाती है), और उड़ीसा का जगन्नाथ पुरी मंदिर (भारत के चार धामों में से एक) शामिल हैं।
दक्षिण भारत में जन्माष्टमी की परंपराएं उत्तर भारत से भिन्न होते हुए भी, भगवान कृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति के मूल सार को बनाए रखती हैं. पैरों के निशान बनाना और विशिष्ट स्थानीय भोग तैयार करना यह दर्शाता है कि कैसे स्थानीय संस्कृति और परंपराएं एक सार्वभौमिक धार्मिक पर्व को अपना विशिष्ट रंग देती हैं, जिससे त्योहार की विविधता और गहराई बढ़ती है। यह क्षेत्रीय अनुकूलन भारतीय संस्कृति की लचीलेपन और समावेशिता को दर्शाता है, जहाँ एक ही आराध्य को विभिन्न रूपों और रीतियों से पूजा जाता है।
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