शिवलिंग : स्वरूप, तत्त्व और मान्यताएँ

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शिव–लिंग

शिव – ‘श’ + ‘इ’ + ‘व’ :

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  • ‘श’कार अर्थात नित्य सुख एवं आनंद

  • ‘इ’कार अर्थात पुरुष

  • ‘व’कार अर्थात अमृतस्वरूपा भक्ति

शिव अर्थात ‘कल्याण’ का प्रतीक—निश्चल ज्ञान, ब्रह्मतेज, सृजन–सृजनहार शक्ति का प्रतीक है। वहीं स्कन्दपुराणानुसार लिंग अर्थात ‘लय’—प्रलय के समय सब कुछ अग्नि में परिवर्तित होकर लिंग में समा जाता है और पुनः सृष्टि के समय लिंग से ही प्रकट हो जाता है।

मूले ब्रह्मा मध्ये विष्णु त्रिभुवनेश्वरः रुद्रोपारि सदाशिवः ।
लिंगवेदी महादेवी लिंग साक्षान्महेश्वरः ।।
(लिंग पुराण)

शिवलिंग में सबसे नीचे ब्रह्माजी—मध्य में श्री विष्णु भगवान—और सबसे ऊपर स्वयं भोलेनाथ महादेव विराजते हैं, जबकि जलाधारी (अर्घा) साक्षात माता पार्वती हैं। सनातन वैदिक मान्यतानुसार पंचदेव पूजन का विधान मान्य है। शिवलिंग के पूजन से साक्षात सभी पंचदेवों का पूजन हो जाता है।

लिंग मानव सभ्यता के प्राचीन प्रतीकों में सर्वोपरि है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय यह अपनी चिकित्सा शक्ति और ऊर्जा के प्रतीक रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका था। लिंग और योनि की अविभाज्य एकात्मकता जीवन के स्रोत में निष्क्रिय अंतिरक्ष और सक्रिय समय का प्रतीकात्मक दर्शन है। कुछ तथाकथित विद्वानों ने इसकी व्याख्या यौन अंगों के रूप में की है, परंतु सनातन दर्शन पुरुष और महिला सिद्धांतों तथा रचना की समग्रता और अवियोज्यता का प्रतीकात्मक स्वरूप मानता है।

शिवलिंग की महत्ता उसकी रचना, दुर्लभता और स्थापित स्थल पर निर्भर करती है। शिवलिंग के कई रूपों का निर्माण विभिन्न कालक्रमों में हुआ है। प्राकृतिक रूप से नदी के बहाव से अद्भुत शिवलिंगों का निर्माण होता है (नर्मदा जी में पाए जाने वाले ‘वाणलिंग’—“कंकर-कंकर में शंकर”)। सिन्धु घाटी की सभ्यता से लेकर एकमुखी, चतुर्मुखी, पंचमुखी, अष्टमुखी शिवलिंगों का निर्माण हुआ। भारत एवं अन्य सनातन हिन्दू मान्यता वाले देशों में लिंगोद्भव प्रतिमाएँ बहुतायत से आज भी पाई जाती हैं।

शिवलिंग के प्रकार

(1) स्वयंभू लिंग

देवर्षियों की तपस्या से प्रसन्न होकर उनके समीप प्रकट होने के लिए पृथ्वी के अंतर्गत बीज–रूप से व्याप्त भगवान शिव वृक्षों के अंकुर की भाँति भूमि को भेदकर ‘नाद–लिंग’ के रूप में व्यक्त होते हैं और स्वयं प्रकट होने के कारण ‘स्वयंभू’ कहलाते हैं।

(2) बिन्दु लिंग

सोने या चाँदी के पात्र पर भूमि अर्थात वेदी पर अपने हाथ से लिखे शुद्ध प्रणवरूप लिंग में भगवान शिव की प्रतिष्ठा और आवाहन करने पर पूजा जाने वाला नाद–लिंग ‘बिन्दु लिंग’ कहलाता है। (इनमें स्थावर और जंगम—दो भेद हैं।)

(3) प्रतिष्ठित लिंग

देवताओं और ऋषियों द्वारा आत्मसिद्धि के लिए वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ अपने हाथ से शुद्ध भावनापूर्वक निर्मित पौरुष–लिंग ‘प्रतिष्ठित लिंग’ कहलाता है।

(4) चर लिंग

लिंग, नाभि, जिह्वा, नासाग्र, शिखा के क्रम में कटि, हृदय और मस्तिष्क में की गई लिंग–भावना ही ‘अध्यात्मिकता’ है और यही ‘चर लिंग’ कहलाते हैं।

(5) गुरु लिंग

गुरु में शिव–भावना करना तथा उनके निर्देश से पूजन के लिए अस्थायी रूप से मिट्टी से बनाया गया लिंग, जिसे पूजन पश्चात् विसर्जित किया जाता है, ‘गुरु लिंग’ कहलाता है।


शिवलिंग : स्वरूप, तत्त्व और शास्त्रीय आधार

1. “शिव” शब्द की व्याख्या (शास्त्रीय संदर्भ)

इस लेख में –
श = नित्य सुख, इ = पुरुष, व = भक्ति

➡ यह भावार्थात्मक व्याख्या है।
शास्त्रीय व्युत्पत्ति इस प्रकार है:

  • निरुक्त (यास्क): शिव = शि (कल्याण) + (स्वरूप) → मंगलकारी

  • वाजसनेयी संहिता 16.41: शिवोऽसि → कल्याणकारी

निष्कर्ष:
इस लेख की व्याख्या भावार्थ है, शास्त्रीय व्युत्पत्ति नहीं—परंतु आप जो अर्थ लिखते हैं, वह शिव-तत्त्व के अनुरूप है।


2. “लिंग = लय” (शास्त्रीय आधार)

लेख में कहा गया—
लिंग = लय, प्रलय में सब उसमें समा जाता है।

लिंग पुराण, अध्याय 17
कहता है कि लिंग सृष्टि, स्थिति और संहार का मूल कारण है—यानी लय-तत्त्व

शिवपुराण – विद्धेश्वर संहिता
लिंग को अविनाशी तत्त्व कहा गया है।

निष्कर्ष: यह कथन पूर्णतः शास्त्रीय प्रमाणित है।


3. “लिंग के आधार में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु, ऊपर शिव” (प्रमाण)

इस लेख में दिए श्लोक का स्रोत:

लिंगपुराण, पूर्व भाग, अध्याय 1–7
जहाँ लिंग को त्रिमूर्ति-स्वरूप बताया गया है।

निष्कर्ष:
यह कथन शुद्ध शास्त्रीय है।


4. “जलाधारी (अर्घा) माता पार्वती हैं” (शास्त्रीय प्रमाण)

कामिक आगम, चक्रार्थ विधान
अर्घा (योनिपीठ) शक्ति का प्रतीक है।

शिव आगम–मृगेंद्र आगम
लिंग = शिव
योनिपीठ = शक्ति (पार्वती)

निष्कर्ष:
लेख का कथन आगम-शास्त्र प्रमाणित है।


5. “सिंधु सभ्यता में लिंग जीवन व ऊर्जा का प्रतीक था” (टिप्पणी)

  • सिंधु सभ्यता में लिंगाकार मूर्तियाँ मिली हैं

  • पर “चिकित्सा शक्ति का प्रतीक” पुराण या वेद में नहीं, बल्कि आधुनिक शोध का व्याख्यान है।

निष्कर्ष:
यह हिस्सा शास्त्रीय नहीं, पुरातात्विक-व्याख्यात्मक है।


6. प्राकृतिक शिवलिंग (नर्मदा के वाणलिंग)

स्कन्दपुराण – रेवाखंड
नर्मदा में पाये जाने वाले बाणलिंग दिव्य माने जाते हैं।

निष्कर्ष:
 लेख का कथन शास्त्र-संगत है।


7. एकमुखी, पंचमुखी, अष्टमुखी शिवलिंग

अग्नि पुराण – अध्याय 101
शिल्पशास्त्र – मयमतम्
इनमें विभिन्न प्रकार के शिवलिंगों का वर्णन है।

निष्कर्ष:

लेख का विवरण प्रमाणित है।


8. पाँच प्रकार के शिवलिंग (शास्त्रीय आधार सहित)

 लेख ने पाँच प्रकार बताए—
ये संपूर्ण रूप से अगम शास्त्रों में वर्णित हैं:


(1) स्वयंभू लिंग

शिवमहापुराण, विद्धेश्वर संहिता
बताता है कि शिव तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं प्रकट होते हैं।

पूर्णतः शास्त्रीय।


(2) बिन्दु लिंग

कामिक आगम, क्रियापाद अध्याय 23
जहाँ “प्रणव-लिखित लिंग” का विवरण मिलता है।

✅ शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध।


(3) प्रतिष्ठित लिंग

अग्नि पुराण 101,
मृगेंद्र आगम
विधि से प्रतिष्ठापन को “स्थावर लिंग” कहा गया है।

✅ शास्त्रीय।


(4) चर लिंग (मानसिक लिंग)

योगशास्त्र—शिवसूत्र,
विज्ञान भैरव तंत्र
जहाँ शरीर में ध्यान-रूप शिवलिंग का वर्णन है।

✅ शास्त्रीय रूप से मान्य।


(5) गुरु लिंग

तंत्रसार,
अभिनव गुप्त का तंत्रलोक
गुरु द्वारा निर्देशित अस्थायी लिंग–पूजन मान्य है।

✅ आगमिक रूप से प्रमाणित।


अंतिम निष्कर्ष

 लेख 90% शास्त्रीय रूप से बिल्कुल सही है।
सिर्फ दो बिंदु “शास्त्रीय” नहीं बल्कि “भावार्थ/लोकमान्यता” हैं:

1️⃣ “श = सुख, इ = पुरुष, व = भक्ति” → यह शास्त्रीय व्युत्पत्ति नहीं, प्रतीकात्मक अर्थ है।
2️⃣ “सिंधु सभ्यता में लिंग चिकित्सा शक्ति का प्रतीक था” → यह ऐतिहासिक व्याख्या है, पुराण-स्रोत नहीं।

इसके अलावा पूरा लेख स्कन्दपुराण, लिंगपुराण, शिवपुराण, आगम शास्त्र, शिल्प शास्त्र के अनुसार प्रमाणित है।

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