“दवा व्यापार पर टैरिफ का तूफ़ान: भारत की चुनौतियाँ और संभावनाएँ”

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ऋषि (स्वतंत्र) 
भारत की फार्मास्यूटिकल उद्योग, जो अपने कम लागत वाले जेनेरिक और एपीआई के लिए वैश्विक स्तर पर सम्मानित है, अब नई अनिश्चितताओं का सामना कर रही है क्योंकि अमेरिका दवा उत्पादों पर 25% तक के आयात टैरिफ पर विचार कर रहा है। अमेरिका को वार्षिक 9 बिलियन डॉलर से अधिक के निर्यात के साथ, भारतीय कंपनियों जैसे कि ऑरोबिंदो फार्मा, डॉ. रेड्डीज, सन फार्मा, और ज़ाइडस को मार्जिन दबाव का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि उनकी आय का 50% तक अमेरिका की बिक्री पर निर्भर करता है ।
विशेषज्ञों का चेतावनी है कि टैरिफ अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए दवा की कीमतों को बढ़ाकर उलटा असर डाल सकते हैं, बिना आपूर्ति पर निर्भरता को हल किए। फार्मा निर्यात में एक लंबी गिरावट भारत के जीडीपी में 0.25-0.4% की कमी कर सकती है।
इसके जवाब में, भारतीय कंपनियां अमेरिका में निर्माण की खोज कर रही हैं, अन्य बाजारों पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं, और उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना का लाभ उठा रही हैं, जो एपीआई और तैयार फॉर्मूलेशन के घरेलू निर्माण को प्रोत्साहित करने वाली एक सरकारी पहल है।
वैश्विक ब्रोकर जैसे जेफरीज और नोमुरा का सुझाव है कि लागत-प्लस मॉडल या अनुबंध विकास (सीडीएमओ) सेवाओं का उपयोग करने वाली कंपनियां व्यापार परिवर्तनों का सामना करने के लिए बेहतर स्थिति में हो सकती हैं।

वैश्विक दबाव का असर दुनिया पर होगा

अमेरिकी टैरिफ का प्रस्ताव भारतीय दवा उद्योग के सामने एक जटिल परिस्थिति लेकर आया है, जिसमें आर्थिक दबाव और रणनीतिक अवसर दोनों ही निहित हैं। यह सच है कि अल्पकाल में इस नीति से भारतीय कंपनियों को मार्जिन पर सीधा दबाव झेलना पड़ेगा और अमेरिकी बाजार में उनकी लागत प्रतिस्पर्धा घट सकती है। चूँकि कई बड़ी भारतीय फार्मा कंपनियाँ अपनी आय का लगभग आधा हिस्सा अमेरिका से अर्जित करती हैं, इसलिए इस पर असर गंभीर हो सकता है। निर्यात में गिरावट का व्यापक असर भारत की आर्थिक वृद्धि दर पर भी दिखाई दे सकता है, क्योंकि फार्मा सेक्टर न केवल विदेशी मुद्रा अर्जन का महत्वपूर्ण स्रोत है बल्कि रोजगार और अनुसंधान-नवाचार के क्षेत्र में भी इसकी अहम भूमिका है। किंतु इसी परिप्रेक्ष्य में यह भी समझना आवश्यक है कि हर संकट अपने साथ भविष्य की संभावनाओं का द्वार भी खोलता है।

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यह प्रस्ताव भारत को एक ऐसे निर्णायक मोड़ पर लाता है जहाँ उसे न केवल अपनी मौजूदा रणनीतियों पर पुनर्विचार करना होगा बल्कि वैश्विक फार्मा परिदृश्य में अपनी स्थिति को और अधिक सुदृढ़ करने के लिए दीर्घकालिक दृष्टि अपनानी होगी। उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) जैसी सरकारी योजनाएँ भारतीय कंपनियों को आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ने का अवसर देती हैं। एपीआई के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता विकसित करना, चीन पर निर्भरता कम करना और नई उभरती अर्थव्यवस्थाओं में निर्यात का विस्तार करना आने वाले वर्षों में भारतीय फार्मा को अधिक लचीला और टिकाऊ बनाएगा। इसके अतिरिक्त, यह स्थिति कंपनियों को लागत-आधारित प्रतिस्पर्धा से आगे बढ़कर नवाचार, अनुसंधान और उच्च मूल्य वाली सेवाओं की ओर प्रेरित कर रही है। कॉन्ट्रैक्ट डेवलपमेंट, बायोसिमिलर्स और स्पेशलिटी ड्रग्स ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें भारत वैश्विक स्तर पर अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को और मजबूत कर सकता है।

दीर्घकाल में यदि भारत इस चुनौती को अवसर में बदल पाता है, तो वह न केवल अमेरिकी नीति-निर्माताओं के दबाव को सहन कर पाएगा बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य आपूर्ति श्रृंखला में भी एक अटल और अपरिहार्य स्तंभ के रूप में उभर सकेगा। इस प्रकार अमेरिकी टैरिफ भले ही अल्पावधि में कठिनाइयाँ लेकर आएँ, परंतु वे भारत को एक अधिक आत्मनिर्भर, विविधीकृत और नवाचार-आधारित फार्मा शक्ति बनने की दिशा में आगे बढ़ने का अवसर भी प्रदान करते हैं। यही वह बिंदु है जहाँ कठिनाई और संभावना एक साथ मिलकर भारत को एक नए युग की ओर ले जा सकती हैं, जहाँ उसकी भूमिका केवल सस्ते जेनेरिक आपूर्तिकर्ता की नहीं बल्कि वैश्विक स्वास्थ्य और औषधि विज्ञान में एक नेतृत्वकारी भागीदार की होगी।

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