भगवान् श्रीकृष्ण का विराट रूप (विश्वरूप) वह दिव्य रूप है जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाहित प्रतीत होता है। भगवद्गीता में इसका वर्णन श्रीकृष्ण ने स्वयं किया है तथा श्रीमद्भागवतपुराण में भी इसका व्याख्यात्मक वर्णन मिलता है। विराट में ‘विराट्’ का अर्थ है “विशाल, सम्पूर्ण” और स्वरूप से आशय परमात्मा के ब्रह्मांडीय शरीर से है। इस दिव्य रूप में भगवान् की दैवीय सम्पदा और यश, सभी लोक और देव-देवता सम्मिलित होते हैं। भगवद्गीता में अर्जुन द्वारा की गई प्रार्थना पर कृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाया, जिससे समस्त जगत उनके श्रीविराटदेह में एकत्रित दिखाई दिया। विराट स्वरूप दर्शन के महत्त्व को इस प्रकार रेखांकित किया गया है कि वह मानव दृष्टि से अप्राप्य, केवल दिव्य चक्षु से ही देखा जा सकता है।
शास्त्रों में कहा गया है कि परमेश्वर की विराट देह में आकाश-धरा-अंतरिक्ष से लेकर देव-दानव, जीव-निर्जीव सब समाहित हैं। श्रीमद्भागवतपुराण में भी ऐसे ही विराट पुरुष के विस्तार का वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ, भगवदपुराण के प्रथम स्कंध में ब्रह्मदास जी ने बताया कि “जो पुरुष एकाकार है, वही विराट पुरुष है, और समस्त जगत् उसी का शरीर है”। इसी प्रकार द्वितीय स्कंध में श्रीशुकदेव जी ने बड़े विस्तार से बताया कि जब ब्रह्माण्डीय वृहत्तम वह अण्ड (ब्रह्माण्डगर्भ) फूटा, तो उस विराट पुरुष ने सोले-सहस्र शिरः, पाद आदि अपने शरीर धारण किए। इस प्रकार विश्वरूप की अवधारणा अर्जुन की प्रार्थना से प्रारंभ होकर भगवान् के दैवीय रूप को देखने के क्रम में समूचे विश्व को उनके शरीर में अनुभव करने तक विस्तारित होती है।
विराट स्वरूप का आरंभ
सर्वप्रथम भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय की शुरुआत अर्जुन के निवेदन (प्रार्थना) से होती है। अध्याय 11 की श्लोक 1-4 में अर्जुन कहते हैं कि आपकी परम गोपनीय आध्यात्मिक शिक्षा से मेरा मोह दूर हो गया है (अर्जुन उवाच… मदनुग्रहाय…)। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की कि आप कृपा करके मुझे आपका अव्यय, अनादि-अन्तरहित विराट रूप देखने योग्य बना दीजिये (यद् त्वम् अव्ययं देखुम् इति प्रभो…)। अनेकों प्रकार के चराचर जगत् के श्रीमान रूप को प्रत्यक्ष कराकर अर्जुन की अक्लपनता दूर करने हेतु अर्जुन ने निवेदन किया – “हे परमोच्च ईश्वर! मैं आपका ऐश्वर्य-युक्त विराट रूप प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ”।
श्रीकृष्ण ने कृपा करके अर्जुन को दिव्य दृष्टि (दिव्य चक्षु) प्रदान की ताकि सामान्य नेत्रों से अलौकिक रूप दृष्टिगोचर न हो सकने पर भी अर्जुन उनका विराट रूप देख सके (…दिव्यं चक्षुर्मे ददामि…, श्रीभगवानुवाच 11.8)। इसके बाद श्रीकृष्ण ने अपने समस्त दिव्य रूपों का दर्शन कराया (पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः…)। इस रूप में अर्जुन ने श्रीकृष्ण के शरीर में विभिन्न देवताओं और जीवों का समवेश देखा, जैसे ब्रह्मा-कमलासनस्थ, महर्षि, इंद्र आदि।
इस प्रकार अर्जुन का निवेदन (श्लोक 1–4) और दिव्य चक्षु का प्रदान (श्लोक 8) के बाद श्रीकृष्ण ने विराट रूप का प्रारम्भिक दर्शन कराया, जिससे अर्जुन आश्चर्यचकित हो उठा।
विराट रूप का दर्शन
विराट रूप के दर्शन में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपनी महिमा के अनेक रूप दिखाए। भगवद्गीता 11.5-7 में भगवान् कहते हैं – “हे पार्थ! अब तू मेरे अनेक-शीर्षकों वाले अनेकाअद्भुत-दर्शन रूप भी देख” (पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः, नानाविधानि दिव्यानि…)। उन्होंने अदिती के अदि-पूत रूप, ग्यारह रुद्र, अश्विनी कुमार, मरुत गण आदि दिखाए। श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा कि तुम सामान्य नेत्रों से इसे नहीं देख सकते, इसलिए मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि दूँगा (न तु मां शक्यसे …दिव्यं ददामि ते चक्षुः)।
अर्जुन ने फिर कहा – “हे ईश्वर! मैं आपके शरीर में समस्त देवताओं को तथा चराचर जगत का एकत्रित रूप देख रहा हूँ” (पश्यामि देवांस्तवदेह… ब्रह्माणमीशं…)। उन्होंने अपनी दृष्टि और उग्र तेज से श्रीकृष्ण के अनेक हाथ-पैर, मुख-नेत्र, दिव्य आभूषण, शस्त्र और दिव्यगन्ध समेत अपार तेजो-मय रूप देखा। भगवद्गीता 11.13-14 के अनुसार अर्जुन ने कहा – “हे विश्वेश्वर! आपके शरीर में अनेक मुख, नेत्र, हाथ हैं; न तो मैं आपका कोई अंत, मध्य, आदि देख पा रहा हूँ” (अनन्तरूप … न आदि)। उन्होंने अमरत्व के साथ, अपने विराट इष्टदेव को सभी दिशाओं में फैला हुआ, सूर्य-चन्द्र जैसी विशाल आँखों से और अग्नि-समान मुखों के साथ देखा।
भगवान की इस विराट देह ने आकाश-पृथ्वी-तीन लोकों को आगोश में लिया हुआ था (द्यावापृथिव्योरिदम् अन्तरम् त्वयैकेन…)। सभी दिशाओं में फैले हुए भयानक तेज-प्रभा के प्रकाश से गभर्वाहक अग्नि के समान दिव्याकारों को अर्जुन ने देखा। इस दिव्य विराटरूप को देखकर तिर्यग्दिक् लोक भयभीत हो उठे (दृष्ट्वा अद्भुतं रूपम् उग्रम् तवेदंलोकत्रयं प्रव्यथितम्)। पितरों, यक्ष-राक्षस-सिद्धों एवं सभी देवताओं का समूह भी आश्चर्य-विस्मित होकर उनके विराटरूप की प्रार्थना कर रहा था।
विराट रूप को देखकर अर्जुन अत्यधिक भयभीत, आश्चर्यचकित एवं आनंदित हुआ। भगवद्गीता 11.14 में कहा गया – “अर्जुन वपुः कृताञ्जलिर्भूय प्रीति-नमस्कृतश्च” अर्थात् अर्जुन ने सिर झुकाकर प्रणाम किया। उन्होंने अपने प्रणाम करते हुए कहा कि यह सभी देवी-देवता आपके विराट शरीर में प्रवेश कर रहे हैं।
यहां भगवद्गीता के विराट दर्शन में मुख्य श्लोक 11.11-14 उल्लेखनीय हैं:
अनेकवक्त्रनेतरक्त्रं बहुधरं बहुधाननम् |
दिव्यमाल्यांबरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् || ११।१०॥
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा |
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥ ११।१३॥
इनमें श्रीकृष्ण ने अपने विराट शरीर में एक ही स्थान पर समस्त सृष्टि को विभक्ति-भाव में स्थित दर्शाया (पश्यामि त्वां विश्वेष्वर विश्वरूपं…)। श्लोक 13 में अर्जुन कहते हैं कि वे पूरे जगत् को कृष्ण के विराट शरीर में एकत्र देख रहे हैं (सर्व लोकों को तथा देवताओं को एक ही स्थान पर)।
संहार स्वरूप दर्शन
विराटदेह दर्शन में अर्जुन ने भगवान के विनाशकारी रूप को भी देखा। भगवद्गीता 11.26-29 में वर्णित दृश्य में अर्जुन ने देखा कि राजा-योद्धा और अपने-पराजित सब जोती-भोजन होते हुए कृष्ण के मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। भीष्म, द्रोण, कर्ण, सहदेव-सहेयुद्ध के अन्य वीर, सभी कुछ कृष्ण के विकराल मुख के द्वारा निगल लिए जा रहे थे (वक्त्राणि ते त्वरमाणा…दंष्ट्राकरालानि भयानकानि)। वहाँ पुष्कराक्षी सूर्य, अग्नि-निशाचर का विस्तृत तेज, वायु-नाड़ी जैसी दाहक गति से चमकते विराट मुखों के द्वारा जगत् त्रस्त हो उठा। भगवद्गीता 11.28-29 के अनुसार, अर्जुन ने कहा – “अपनी अग्नि-प्रकाशी मुखों से आप समस्त लोकों को अल्पकाल में जगत्-नाश-प्रवेश दे रहे हैं” (तेज-दीप्तप्रदाने तम…)।
इसका उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि “मैं महाकाल हूँ, जो समय आने पर समस्त लोकों का संहार करता हूँ” (कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्…)। उन्होंने कहा कि इस समय उन्होंने पहले से ही युद्धभूमि के सभी प्रमुख शत्रुओं को अपने तेजसे नष्ट कर दिया है (मेरे हाथों तिरे शत्रु पहले से ही गिर चुके हैं)। इसलिए अर्जुन को शत्रुओं का नाश करके धन-भाग्य समृद्ध राज्य-अनुभव करने हेतु युद्ध में अग्रेसर होने की आज्ञा दी गई (तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ यशो लभस्व…)। वह संहार-रूपदर्शन देख अर्जुन वाक्भ्रमित हो गया और उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान से निवेदन किया कि आप कौन हैं जो इस भयंकर विराट रूप में क्रूरता दिखा रहे हैं (अख्याहि मे के भवानुग्र)।
अर्जुन की स्तुति और प्रतिक्रिया
श्रीकृष्ण का विराट रूप देखकर अर्जुन हैरान हो गया और संतप्त मन से उन्होंने कृष्ण की महिमा का स्मरण किया। भगवद्गीता 11.36-43 में अर्जुन कहते हैं – आपके नाम-कीर्तन से संसार उल्लसित है (आपकी महिमा से लोग हर्षवृष्टि कर रहे हैं)। देव-प्रकृति के असुर भी आपके तेज से भाग खड़े हुए, और सभी साधु-सिद्ध आपको प्रणाम कर रहे हैं (रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च… तथा अनन्त देवेश जगन्निवास)। अर्जुन ने श्रेठ्ठ महात्मा कहकर श्रीकृष्ण की महिमा गाई – “हे अनन्त! हे जगन्निवास! आप चिरस्थायी पुरुष हैं, आप सृष्टि के परम आधार हैं” (त्वम् आदिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्)। वे श्रीकृष्ण को सभी गुणों से परे, गुरु-गिरीयान् (ब्रह्माजी के भी ऊपर), सम्पूर्ण जगत के अधिष्ठाता मानते हुए बारम्बार नमस्कार करते हैं (नामो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः…)। अर्जुन ने स्वयं को उनके मित्र मानकर और अनादर से बोले गए अपशब्दों के लिए क्षमा माँगी (हे कृष्ण! हे यादव! हे सखा! कृतं भ्रमणं क्षमायाचामि…)। उन्होंने भगवान को जगत का पिता, सभी जीवों के गुरू और तीनों लोकों में अद्वितीय बताया (पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्)।
निष्कर्षस्वरूप अर्जुन की दोस्तोचित प्रार्थना यह थी कि ब्रह्मांड रूप का जो भी विकराल रूप उन्होंने देखा, उससे वे भयभीत हैं, अतः भगवान् चतुर्भुज (मानव) रूप में प्रकट हों (“…प्रसीद देवेश जगन्निवास!”)। भगवद्गीता 11.45-46 में अर्जुन कहते हैं – “पहले कभी न देखा गया आपका यह विराट रूप! मेरा हृदय हर्षित भी है, भयभीत भी। इसलिए हे जगन्निवास! हे देवता! कृपया मुझ पर प्रसन्न हो और अपने चारभुजा रूप में पुनः दिखलाईये”।
मानव रूप में पुनः दर्शन
अर्जुन की प्रार्थना पर श्रीकृष्ण ने कहा कि उन्होंने प्रसन्न मन से उनका विराट रूप दिखाया, जो अनंतमहामाया का परिणाम था (मया प्रसन्नेन तवार्जुने… विश्वमनन्तमाद्यं…)। उन्होंने बताया कि अर्जुन के अतिरिक्त कोई नर-लोके उन्हें यह रूप देख नहीं सकता, न कोई विद्या-दान-तप से (न वेदाभ्युदयनैः न दानैः…)। फिर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि भयभुल्लित न हो, अब तुम्हें मेरा सौम्य चारभुज रूप दिखाते हैं (मा ते व्यथा मा च विमूढभावोऽ…)।
तदनन्तर संजय ने कहा – श्रीकृष्ण ने अर्जुन के निवेदन पर पुनः अपना चारभुज मानव रूप प्रदर्शित किया (इत्यर्जुनं वासुदेवो… फिर महात्मा पुनः सौम्यवपुर्नामधेय)। और अर्जुन ने कहा – “दृष्ट्वेऽदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन। इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥ (११.५१)”: हे जनार्दन! आपकी यह अत्यन्त सौम्य मानव आकृति देखकर मेरा चित्त शांत हो गया है, और अब मेरी प्राकृतिक स्थिति को वापिस आ गया है”। इस प्रकार भगवद्गीता के अध्याय 11 में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विराट रूप दिखाया, और अर्जुन के अनुरोध पर वापस अपना मानव रूप धारण किया।
श्रीमद्भागवतपुराण में विराट पुरुष
विराट स्वरूप की विचारधारा श्रीमद्भागवतपुराण में भी महत्वपूर्ण रूप से प्रकट होती है। विशेषतः द्वितीय स्कन्ध (सृष्टि का वर्णन) में विराट पुरुष से समस्त सृष्टि का संबंध बताया गया है। भागवतपुराण के द्वितीय स्कन्ध में ब्रह्मांड उत्पत्ति की कथा में विराट पुरुष का वर्णन आता है। एक प्रचलित श्लोक में वर्णित है कि जब अनादिदेव ब्रह्माण्ड के अण्ड (बीज) को धारण किए हुए योगनिद्रा में थे, तब सहस्रशिरो विभूषित विराट पुरुष विद्यमान हुआ। इस विराटपुरुष ने अपने विकराल शरीर से एक जगह से हजारों वर्षों तक जल में निवास किया (नाम ‘नारायण’ हुआ) और इसके बाहु-शरीर से ही पृथ्वी, वायु, अग्नि आदि विभिन्न जगत्-तत्व उभरे।
भागवतपुराण में विराट पुरुष का रूप इस प्रकार वर्णित है:
“सहस्रबाहुं सहस्रशिरः सहस्राङ्घ्रिस्तथा सहस्राननः, ये गुणः…”
(श्रीमद्भागवतपुराण 2.5.34–35)astroagnihotri.wordpress.com
जिसका अर्थ है – “उस विराट पुरुष की हजार हाथ, हजार सिर, हजार पाँव तथा हजार मुख हैं”। इस विराट रचयिता से ही संपूर्ण जगत् (चराचर) उत्पन्न हुआ। भौतिक जगत के पांच तत्व, इन्द्रिय-देवता और रूप-गुणोचित सभी चीजें इसी विराट शरीर से विभक्त हुईं। श्लोक 2.5.34-35 यह स्पष्ट करता है कि ‘विराट पुरुष’ से सारी सृष्टि आई है।
इसके अतिरिक्त भागवतपुराण के प्रथम स्कन्ध की गाथा में भी कहा गया है कि यह विराट पुरुष ही समस्त सृष्टि का शरीर है (अर्थात् समस्त जगत् इसी की देह है)। पारंपरिक रूप से, “यत्सूयति… सम्भूतं षोडशकलम्… सम्पूर्ण जगत्”, अर्थात् “इस विराट पुरुष में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाहित है”। अतः भागवतपुराण में विराटपुरुष की व्याख्या पूरे ब्रह्माण्ड को उसके ही अवतारों से सम्बद्ध करती है – जिस प्रकार भगवद्गीता ने विराटाराधना का वर्णन किया है।
यद्यपि भागवतपुराण की रचना विभिन्न सूत्रों पर आधारित है, किंतु इसकी अन्तःकथनानुसार दिव्य प्रेमरस के साधक जानते हैं कि भगवान् के विराट रूप में विष्णु के समस्त अवतारों और देवताओं का निवास होता है। श्री भागवत में इसे “विसर्ग” कहा गया है – अर्थात् “उस विराट पुरुष से चराचर जगत् की उत्पत्ति होती है”। यहाँ “विसर्ग” दस महातत्त्वों में दूसरा है, जो स्पष्ट करता है कि ब्रह्माण्ड की सृष्टि उसी विराट रूप से हुई (श्रीभगवान् स्वभावतः निष्क्रिय होकर अपनी शक्तियों से विराट रूप ग्रहण करते हैं)।
इस प्रकार श्रीमद्भागवतपुराण में वर्णित विराट पुरुष का स्वरूप भगवद्गीता की विराटाराधना से साम्य रखता है। इसमें ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति उसकी देह से जोड़ी गई है – जैसे शास्त्र कहते हैं कि “वस्तुनित्यम् विहितम्…” कहावतानुसार परम पुरुष का विराट रूप विश्व के अंगों से प्रतिष्ठित है।
विराट स्वरूप का दार्शनिक-आध्यात्मिक महत्व
भगवान् के विराट रूप का दर्शन सिर्फ आध्यात्मिक आश्चर्य नहीं बल्कि गम्भीर दार्शनिक अर्थ भी रखता है। सर्वप्रथम, इस दर्शन से भगवान् की सर्वव्यापकता का ज्ञान होता है – समस्त सृष्टि उसी के अंग-प्रत्यंग है। भगवद्गीता में अर्जुन कहता है कि “मैं आपमें सब कुछ देखता हूँ – आकाश है आपका नेत्र, वायु आपका प्राण, शिश्न आपका वक्र” (द्यावापृथिव्योरिदम् अन्तरम् त्वयैकैः व्याप्तम्…)। यह बताता है कि भगवान् का विराट स्वरूप जगत के सभी स्तरों में व्याप्त परमात्मा को दर्शाता है।
दूसरे, विराट दर्शन से भय और अनन्य प्रेम का अनुभव होता है। अर्जुन विराट रूप देखकर भयभीत हुआ, परंतु उसी दृश्य में विराट सत्ता की महिमा का बोध हुआ और पूर्ण समर्पण भाव जाग्रत हुआ। अर्जुन ने स्वयं कहा – “अब मैं स्थिरचित्त हूँ, मुझे सभी चिन्ता मुक्त हो गई” (दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं… इदानीमस्मि संवृत्तः)। यह संकेत है कि जब भक्त भगवान् की विराट प्रतिष्ठा देख लेता है, तो अहं-स्पंदन क्षीण हो जाता है और भक्त पूर्ण आनंद एवं शान्ति में लीन हो जाता है।
तीसरे, विराट स्वरूप दर्शन ज्ञान और भक्ति का संयोग सिखाता है। शुद्ध भक्ति और दिव्य दृष्टि से ही विराट रूप दर्शन सम्भव है (भगवद्गीता 11.52-54)। कृष्ण ने कहा – “मेरा यह रूप श्रवण, तप, दान आदि से नहीं पाया जा सकता, केवल अनन्य-भक्ति से ही…” (न वेदायज्ञाध्ययनैः… भक्त्या त्वनन्यया शक्य एतम्)। यानी विराट रूप का दर्शन केवल भक्ति योग के माध्यम से होता है, जो भगवद्-कथा का भी मूल संदेश है।
अन्ततः, विराट दर्शन हमें सार्वभौमिक आत्मसाक्षात्कार की शिक्षा देता है। जैसे श्रीभगवान् ने अर्जुन को बतलाया, “तेरी ही सहायता से मैं जगत् को नाश करता हूँ एवं इसी जगत् में व्याप्त रहता हूँ”। विराट रूप दिखाकर कृष्ण ने अर्जुन को आत्मरूप चेतना का बोध कराया कि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त होने के साथ स्वयं जगत् भी है। इस अनुभव के बाद अर्जुन पूर्णतया दासत्व और समर्पण की स्थिति में पहुँच गए।
उपसंहार: भगवान् के विराट रूप का दर्शन दर्शनार्थी को अहंकार-बोध से मुक्त करता है और उसमें आत्मिक विनम्रता, परमार्थबोध तथा सार्वभौमिक प्रेम की भावना उत्पन्न करता है। भगवद्गीता व भागवत दोनों ही ग्रंथों में विराट रूप के वर्णन से यह संदेश प्राप्त होता है कि भगवान् की सत्ता सर्वत्र फैली हुई है, और सच्ची भक्ति ही उसका साक्षात्कार करा सकती है। इस प्रकार विराट दर्शन से सत्व-सुधा समाहित हो जाती है, जिससे श्रद्धावान् भक्त की आत्मा दिव्यता की प्राप्ति करती है।
श्लोक सूची (Sanskrit Verses Used):
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.1: मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् । यद् त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ १ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.2: भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया । त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यम् अपि चाव्ययम् ॥ २ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.3: एवमेतद्यथात्थ त्वम् आत्मानं परमेश्वर । द्रष्टुमिच्छामि ते रूपं ऐश्वरम् पुरुषोत्तम ॥ ३ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.4: मन्यसे यदि तत् शक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो । योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानम् अव्ययम् ॥ ४ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.5: पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः । नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥ ५ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.6: पश्यादित्यान्वसुर्नृद्रानाश्विनौ मरुतस्तथा । बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥ ६ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.7: इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्यचराचरम् । मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद् दृष्टमिच्छसि ॥ ७ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.8: न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा । दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥ ८ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.9: संजय उवाच – एवंुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरः हरिः । दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥ ९ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.10: अनेकवक्त्रनेत्रमनेकाद्भुतदर्शनम् । अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥ १० ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.11: दिव्यमाल्याम्बरधृतं दिव्यगन्धानुलेपनम् । सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥ ११ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.12: दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता । यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ १२ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.13: तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा । अपश्यद् देवदेवस्य शरीरं पाण्डवस्तदा ॥ १३ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.14: ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोल्लसद्भरः । प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥ १४ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.15: पश्यामि देवांस्तव देवदेहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् । ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥ १५ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.16: अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् । नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥ १६ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.17: किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् । पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दप्लुतानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥ १७ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.18: त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् । त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥ १८ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.19: अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यं अनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् । पश्यामि त्वां दीप्तहुताश्ववक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥ १९ ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.20: द्यावापृथिव्योरिदं अन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकैरित्रदिशश्च सर्वाः । दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥ २० ॥
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श्रीमद्भगवद्गीता 11.21: दीर्घाश्वतरो मुखाश्चार्णवाश्च ये विष्णोर्मुखमेव तेषां न न: ॥ २१ ॥ (अन्यत्र पाठ्य)
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श्रीमद्भागवतपुराण 2.6.15: सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यम् भव्यच्छ यत् । तेनेदं आवृतं विश्वं वितस्ति ऽधितिष्ठति ॥ १५ ॥
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श्रीमद्भागवतपुराण 2.6.16: स्वधिष्ठ्यां प्रतपन् प्राणो बाहिश्च प्रतपत्यान् । एवं विराजं प्रतपन् तपत्यान्तः बहिर्पुमान् ॥ १६ ॥
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श्रीमद्भागवतपुराण 2.6.17: सोऽमृतस्याभयस्येषो मृत्योर्नाद्या यदद्यागत् । महिमा एषा ततो ब्रह्मन् पुरुषस्य दुरत्ययाः ॥ १७ ॥
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श्रीमद्भागवतपुराण 10.1.7: वीर्याणि तस्य अखिलदेहभागम् अन्तर् बाहिर्पुरुषकालरूपैः प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतम् च मया मनुष्यस्य वदस्व विद्वन् ॥ ७ ॥ (योद्धव्य – विराट रूप)
स्रोत: उपर्युक्त श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवतपुराण के मूल पाठ से लिए गए हैं। भगवद्गीता (अध्याय 11, विशेषतः श्लोक 1–48) एवं श्रीमद्भागवतपुराण (द्वितीय स्कन्ध) से उद्धृत श्लोकों एवं उनके हिन्दीार्थों से जानकारी संकलित की गई।
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