श्राद्ध विधि: स्मार्त, वैदिक और पौराणिक पद्धति में पूजन विधान, मंत्र, नियम और महत्व
श्राद्ध (पितृकर्म) के अनुष्ठान को मुख्यतः तीन परंपरागत तरीकों में किया जाता है – स्मार्त विधि, वैदिक (श्रौत) विधि एवं पौराणिक विधि। प्रत्येक विधि का पूजन विधान, सामग्री, मंत्र, उपयुक्त श्राद्ध के प्रकार, समय-तिथि, स्थान तथा नियम-निषेध अलग-अलग होते हैं। नीचे संक्षिप्त में प्रत्येक विधि के अंतर्गत इन सभी पक्षों का वर्णन किया गया है (स्रोतों से सन्दर्भ सहित) –
स्मार्त विधि
(समग्र विद्वद्वर्ग/गृहस्थ श्राद्ध)
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पूजन के चरण (क्रम): सबसे पहले स्वच्छ स्थान पर कुशा का आसन तैयार करके स्नानादि (शरीर एवं मन की पवित्रता) करें। हाथ-मुँह जल से स्वच्छ कर “ॐ” के उच्चारण से अनुष्ठान प्रारंभ करें। दक्षिण मुख करके कुशा पर बैठें और स्नानाकर हाथ-पाँव अक्षत (चावल) एवं जल से धोएं। फिर मन में अपने पितृजनों का स्मरण करते हुए “ॐ पितृभ्यः नमः” मंत्र से उनके आह्वान एवं वंदन से आराधना करें। इसके बाद तिल-वर्जित जल, चावल और अशुद्धि न हों ऐसी तिल या अक्षत मिश्रित जल से त्रि-आपरती करने लगें। प्रत्येक अपर्ती के साथ निम्न सत्कार्य-मनोकल्प (संकल्प सूत्र) बोलें, जैसे –
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“अस्मत्पितृपितामहान् (पितामहान्)… वसुरूपस्तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्मै स्वधा नमः।” (पिता, दादा, परदादा आदि के लिए क्रमशः तर्पित करते हुए)।
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मातृकुल के लिए “अस्मत्मातृपितामह… [देवी/गाायत्री आदि रूप] तृप्यताम्। इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नमः।” वाद्य मंत्र का उच्चारण करें।
प्रत्येक अपर्ती में “स्वधा” शब्द अंत में उच्चारित करें। (यह तिल, अक्षत, जल आदि सामग्री सहित पितरों को अर्पित है)।
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आवश्यक सामग्री: जल, तिल, अक्षत (चावल), कुश (दर्भ), तांबे/लोहे का पात्र, पुष्प-पत्र, तृष्णादि पुष्टिकारक सामग्री (दूध, दही, घी, शहद इत्यादि) व सात्विक भोजन (फल, खीर, दही-चावल आदि)। “स्थान: पवित्र नदी-तालाब या स्वच्छ आंगन से युक्त स्थल” बेहतर माना जाता है।
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प्रमुख मंत्र एवं अर्थ: श्राद्ध–तर्पण में जो मंत्र उच्चारित किए जाते हैं, उनमें प्रमुख हैं –
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“ॐ पितृभ्यः स्वधा नमः” – हे मेरे पितृदेव! यह स्वाहा (अर्पित आशिर्वाद) तुम्हारे लिए।
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“ॐ सर्वपितृभ्यः स्वधा नमः” – हे समस्त पितृगण! यह स्वाहा आप सबके लिए।
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“ॐ त्र्यंबकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनम्…” – (त्रिपुरारी शिव को न्योछावर करने वाला गायत्री मन्त्र, तर्पण के अन्त में जाप)।
इन मंत्रों का उच्चारण करते हुए जल–तिल आदि पितरों के लिए अर्पित किया जाता है। इनके अतिरिक्त श्राद्ध में सामान्यतः “देवो भव, पितृभव” आदि संकल्पसूत्र का पाठ भी किया जाता है।
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उचित श्राद्ध के प्रकार: स्मार्त पद्धति से सर्व प्रकार के गृहस्थ श्राद्ध किए जाते हैं – जैसे एकोदिष्ट, पावर्ण, यात्रार्थ, कर्मांग श्राद्ध आदि। (उदाहरणतः “पिण्डपितृयज्ञ” श्रौत श्राद्ध कहलाता है, जबकि एकोदिष्ट, पावर्ण, यात्रार्थ, कर्मांग आदि स्मार्त श्राद्ध में आते हैं)। सामान्यत: मृत पूर्वजों (पितर-पूर्वज) का श्राद्ध स्मार्त विधि से किया जाता है।
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समय, तिथि, स्थान: मुख्यत: पितृपक्ष (भाद्रपद कृष्ण अष्टमी से अमावस्या तक) में श्राद्ध किया जाता है। विशेषकर मृतक की मृत्यु या चतुर्दशी तिथियों (एकादशी, द्वादशी आदि) पर पार्वण श्राद्ध या एकादिष्ट श्राद्ध के लिए अमावस्या–पूर्णिमा तिथि अनुकूल मानी जाती है। दिन का मध्याह्न (दोपहर) समय श्राद्ध के लिए शुभ (पितरों का भोजनकाल) है। स्थान के लिए नदी–तट, पवित्र कुंड या अपने घर का स्वच्छ आंगन प्रयोग में लाएँ। अनुष्ठान के पूर्व गाय का गोबर से भूमि पर लेप करके या गौघृत से आसन पवित्र करें।
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विशेष नियम/निषेध: श्राद्ध के दौरान नई मंगल कार्य व्रत या गृहस्थ कर्म न करें; किन्तु दैनिक देव-पूजा बंद नहीं करनी चाहिए। श्राद्ध करते समय सदैव सफेद वस्त्र पहनें, माता-पिता एवं गुरु की स्मृति रखें। भोजन में तेल, मसूर, राजमा, काला तिल (शुद्ध तिल चलेगा), बासी भोजन, समुद्री नमक इत्यादि प्रयोग से बचें। गाय का दूध, योगीय गाय के गोबर-घृत से बने पदार्थ (घृतयुक्त कheer इत्यादि) श्रेष्ठ हैं। श्राद्ध में आम तौर पर अङ्कगणित (विषम) ब्राह्मणों को आमन्त्रित कर भोजन कराना चाहिए। अनुष्ठान संस्कारों में यथासम्भव ज्ञानी ब्राह्मण (उपनयनधारी, वेदज्ञ) का पूजन व कथा-पूजन करवाएँ। श्राद्ध स्थल को पवित्र रखें, अशुद्धियाँ तथा अनादर से बचें।
वैदिक (श्रौत) विधि
(पूर्ण यज्ञरूप श्राद्ध)
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पूजन के चरण (क्रम): वैदिक पद्धति में श्राद्ध-तर्पण को पितृयज्ञ (शाब्दिक: पितृ यज्ञ) के रूप में किया जाता है। इसमें आग्निहोत्र/अग्निहोत्री यज्ञ की तर्ज पर कुश-आसन पर दक्षिणमुख होकर अग्नि-सामग्री सजाई जाती है। गृहस्थ या ब्राह्मण पुरोहित संहिताबद्ध मंत्रोच्चारण (ऋग्वेद/यजुर्वेद के ऋचाएँ) करते हुए अग्नि में तिल, घृतादि हवन सामग्री अर्पित करता है। तत्पश्चात् पिण्डदान एवं तर्पण किया जाता है। आम मंत्रों में कृतकर्म-उद्धार हेतु ‘ॐ देवो भवा आत्मा भवा…’ (अङ्गिरा ऋग्वेदसूक्त) और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ जैसे मंत्र बोलते हैं। अन्त में ब्राह्मणों का समान्य शांतिपाठ (पुण्याहवाचन) कर पूजन समाप्त होता है।
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आवश्यक सामग्री: वैदिक यज्ञ हेतु शोभायमान वेदी, विंध्यप्रतिष्ठा (अग्नि स्थल), पञ्चाग्नि (पवित्र जल, घृत, गंध, धूप, फलं), हवन-समिधा (वृक्षाश्म इत्यादि), तिल/घृत मिश्रित आहुति सामग्री, कुशा, गंगा जल, पुष्प, दूध-दही, तथा एकत्रित 3 (मात्रा विषम) विद्वान ब्राह्मण।
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प्रमुख मंत्र एवं अर्थ: वेद मंत्रों में ऋग्वेद के पितृ सूक्त “अङ्गिरसो पितृसंच विश्वा देवाः…” आदि प्रमुख है (हे श्रुतिपुरुष पितरों! आशीर्वाद दें)। यजुर्वेद में तर्पण मंत्र “ॐ अग्निम् ईळे पुरोहितं…” एवं “ॐ स्रते लोमः इव” का प्रयोग होता है। अन्य मंत्र: “ॐ देवोभवा, पितृभवा” (हे देव, हे पितर!), देवताओं एवं गुरुजनों की स्तुति-संकल्प मंत्र भी उच्चारित होते हैं। अंतिम पूजनार्थ “शान्ति मन्त्र” और गायत्री-हवन आदि संस्कार-अभिगम होंगे।
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उचित श्राद्ध के प्रकार: वैदिक (श्रौत) विधि में विशेष रूप से पिण्डपितृयज्ञ या त्रिपिण्डी श्राद्ध किया जाता है, जिसमें सत्त्विक पिंडांजलि और हवन-सम्पूर्ण विधि होती है। पारंपरिक मान्यता है कि वैदिक मंत्रज्ञ ब्राह्मण और श्रौत पद्धति-ज्ञातों द्वारा ही श्राद्ध-विधान पूर्णतः निभाया जाए।
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समय, तिथि, स्थान: वैदिक श्राद्ध भी मुख्यतः पितृपक्ष (अश्विन कृष्ण पक्ष) में, विशेषकर मृतक की मृत्यु/चतुर्दशी तिथि पर किया जाता है। चातुर्मासिक व उपलव्धि संयोगों में भी ‘पितृदोष’ निवारण हेतु किया जा सकता है। अनुष्ठान के लिए सर्वदा प्रातः-सन्ध्या (ब्रह्म मुहूर्त) या दोपहर का समय (पितरों के भोजनकाल) श्रेष्ठ माना जाता है। स्थान की दृष्टि से नदी तट या यज्ञशाला उपयुक्त होती है; गृहस्थ आश्रम में गंगा जल से वेदी पवित्र करके भी विधि सम्पन्न होती है।
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विशेष नियम/निषेध: वैदिक विधि में पुरुष (उपनयन–धारी) तथा विद्वान पुजारी द्वारा श्राद्ध-अनुष्ठान अनिवार्य है। पितरों के लिए पवित्राग्नि (हवन की अग्नि) में तिल-घृत का अर्पण करते हैं। अमावस्या पूर्व या ग्रहणकाल में यज्ञ निषिद्ध होता है। श्राद्ध-काल में नए गृहकार्य, यज्ञ या शुभ-कार्य से दूर रहें तथा शास्त्रीय नियमों (ब्राह्मण पहनावे, मंत्र–यज्ञ अनुष्ठान) का कठिनता से पालन करें।
पौराणिक विधि
(नांदीमुख/वृद्धि आदि श्राद्ध)
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पूजन के चरण (क्रम): पौराणिक विधि में नांदीमुख श्राद्ध (जिसे अभ्युदय या वृद्धि श्राद्ध भी कहते हैं) प्रमुख है। शिवपुराण में वर्णित इस विधि में अनुष्ठान की पूर्वशर्त के रूप में ब्राह्मण गुरु की आज्ञा लेकर नंदी (शिव का गण/वृषभ) की विशेष पूजा की जाती है। फिर आठ (या नौ) दिशाओं में कुश–रेखाें के साथ दर्बार (कुश के गुच्छे) रखे जाते हैं। यजमान दक्षिण की ओर मुख करके बैठे और “अत्र पितर:” मंत्र से पिंडदान संबंधी कार्य आरंभ करते हैं। दक्षिण दिशा की ओर जल, तिल, अक्षत आदि अर्पित करते हुए पितरों का स्मरण करें। इसके बाद त्विते “ॐ पितृभ्यः स्वधा नमः” आदि मंत्र उच्चारित होकर कछुआ-आकार की सूखी पिण्ड (कूर्म-पिंड) पर तीन-तीन बार जल अर्पित किया जाता है। पूजन पूरा होने पर ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय वगैरह मंत्र उच्चारण करके ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है।
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आवश्यक सामग्री: नंदी श्रीकिरत (कुशा का विषेश गोला), जल, तिल, अक्षत, पंचगव्य, पंचोपचार सामग्री (घृत, दूध, दही, शहद, गंध), पुष्प, अक्षत, माणिक्य (नंदी पूजन में) तथा विद्वान ब्राह्मण-पुजारी। दर्बार सजाने के लिए स्वच्छ कुशा, गंगाजल/तुलसी आदि पूजन सामग्री उपयोग में लाएँ।
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प्रमुख मंत्र एवं अर्थ: पौराणिक विधि में निम्न मन्त्र महत्त्वपूर्ण हैं – “ॐ पितृभ्यः स्वधा नमः”, “ॐ सर्वपितृभ्यः स्वधा नमः” (जैसे स्मार्त विधि में); शिव-पूजनार्थ “ॐ नमो भगवते रुद्राय”; तथा दर्बार पूजन में “ॐ नांदीश्वर नमो नांदे” इत्यादि। शिवपुराण के अनुष्ठानानुसार कार्य की सिद्धि हेतु तर्पण के दौरान विशेष मंत्र उच्चारित होते हैं। उदाहरणतः शिवपुराण में वर्णित है कि नंदीमुख श्राद्ध में तीन-तीन बार जल अर्पित करते हुए ‘अत्र पितरः’ और ‘स्वधा’ आदि मंत्र उच्चारित करें।
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उचित श्राद्ध के प्रकार: पौराणिक विधि मुख्यतः वृद्धि/अभ्युदय श्राद्ध के लिए होती है। यह श्राद्ध विवाह, संतानाराधना, गृह-प्रवेश आदि विशेष अवसरों पर पूर्वजों का आशीर्वाद लेने हेतु किया जाता है। उदाहरणतः विवाह से पूर्व पिता–दादा को सुख-शांति हेतु कुर्विण्ड (नांदीमुख) विधि की जाती है। इस श्राद्ध में मूलतः नंदी (भैरव) की अराधना एवं विशेष पिंडदान शामिल होता है। पुराणों में उल्लेख है कि इस विधि से श्राद्धकर्म संपूर्ण फलदायक होता है।
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समय, तिथि, स्थान: पौराणिक श्राद्ध किसी भी नव शुभ कर्म (विवाह, गृहप्रवेश, संतानार्थ यज्ञ आदि) से पूर्व किया जाता है। समय के लिए प्रातःकाल या मध्याह्न शुभ माने गए हैं। खासतौर पर विवाहादि के शुभ दिन पर शुभ मुहूर्त में श्राद्ध करना योग्य है। स्थान के लिए शिवमंदिर या गौशाला नजदीक की खुली भूमि सर्वोत्कृष्ट मानी जाती है। नदी, कुआँ, तुलसी-वृक्ष आदि की उपासना इस विधि में अधिक फलदायी मानी गई है।
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विशेष नियम/निषेध: पौराणिक विधि में ब्राह्मणों को तिल-गङ्गाजन से अभिनन्दन करके श्राद्ध करा सकते हैं। अमावस्या की तिथि या अनिष्टयोगों में (ग्रहणादि) तर्पण-श्राद्ध वर्जित है। इस विधि में गुरु या वरिष्ठ ब्राह्मण की देखरेख में मंत्रोच्चारण अनिवार्य है। श्राद्ध के दिन भोज एवं पूजन-सामग्री भौतिक रूप से पवित्र होनी चाहिए (मांसाहार वर्जित, स्वच्छ कपड़े धारण इत्यादि)। पुराने पखवाड़े वाली स्नात्य नहीं होनी चाहिए। पौराणिक श्राद्ध के बाद परंपरानुसार कोपिन्ड – गाय को पिंडान्तर की विदा की जाती है।
संदर्भ: धर्मशास्त्रों एवं पुराणों में श्राद्ध-विधि का वर्णन है। उदाहरणस्वरूप ब्रह्म पुराण श्राद्ध की परिभाषा देते हुए कहता है: “उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार शास्त्रानुमोदित विधि से पितरों को श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिए जाने वाले कर्म को श्राद्ध कहते हैं”। अनुष्ठान के दौरान पितृयज्ञ (पिंडदान व तर्पण) को “दैनिक पंच यज्ञों में एक विशेष यज्ञ” बताया गया है। इसी प्रकार शिवपुराण में नंदीमुख श्राद्ध का विधान बताया गया है। उपर्युक्त जानकारी ग्रंथों एवं धार्मिक लेखों से संकलित है। #श्राद्ध, #पितृपक्ष, #श्राद्धविधि, #स्मार्तश्राद्ध, #वैदिकश्राद्ध, #पौराणिकश्राद्ध, #पिंडदान, #तर्पण, #पितृकर्म, #HinduRituals, #PitruPaksha, #PindDaan, श्राद्ध विधि, स्मार्त श्राद्ध, वैदिक श्राद्ध, पौराणिक श्राद्ध, पितृपक्ष तर्पण, पितृकर्म अनुष्ठान, पिंडदान की विधि, श्राद्ध के नियम, हिन्दू श्राद्ध परंपरा, Pitru Paksha Rituals, Pind Daan Vidhi
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