मोक्ष क्या है? हिन्दू धर्म में मुक्ति का रहस्य

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सनातन धर्म के गहन दर्शन में, मानव जीवन को एक बहुआयामी यात्रा के रूप में देखा गया है, जिसके चार प्रमुख उद्देश्य या ‘पुरुषार्थ’ निर्धारित किए गए हैं: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इन चारों में, मोक्ष को परम अभीष्ट और सर्वोच्च लक्ष्य माना गया है, जिसे ‘परम पुरुषार्थ’ की संज्ञा दी गई है । यह केवल एक अवधारणा नहीं, बल्कि दुखों से भरे संसार चक्र से मुक्ति और आत्मा के अपने परम स्वरूप को प्राप्त करने की अंतिम परिणति है । यह रिपोर्ट मोक्ष के इसी गहन रहस्य को उद्घाटित करने का एक विनम्र प्रयास है। यहाँ हम मोक्ष की दार्शनिक परिभाषाओं, विभिन्न शास्त्रों में इसके उल्लेख, मोक्ष प्राप्ति के विविध मार्गों और मुक्त जीव के अंतिम गंतव्य लोकों का एक विस्तृत एवं प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत करेंगे।

भारतीय दर्शनों में, जीवन के दुखों का मूल कारण नश्वरता और जन्म-मरण का चक्र है । यह संसार, जिसे ‘आवागमन’ भी कहते हैं, एक अविद्या-कृत प्रपंच (अज्ञान से निर्मित नाटक) है, जिससे मुक्ति पाना ही मोक्ष है । मोक्ष की कल्पना का मूल आधार यह है कि जन्म लेने वाले हर प्राणी को दुःख भोगने पड़ते हैं, और इन दुखों से पूर्णतः छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय जन्म-मृत्यु के इस चक्र से बाहर निकल जाना है ।   

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यह रिपोर्ट गहन शोध पर आधारित है, जिसका उद्देश्य मोक्ष से संबंधित सतही धारणाओं से परे जाकर इसके जटिल दार्शनिक पहलुओं को उजागर करना है। यह समझने का प्रयास करेगी कि क्यों मोक्ष को कहीं ‘आनंदविहीन’ अवस्था कहा गया है, तो कहीं ‘आनंदयुक्त’। यह ज्ञान, भक्ति और कर्म के विभिन्न मार्गों के बीच के संबंधों को भी स्पष्ट करेगी। अंततः, यह रिपोर्ट मोक्ष के बाद आत्मा के गंतव्य लोकों—वैकुंठ, कैलाश, ब्रह्मलोक, गोलोक, देवी लोक और सूर्य लोक—का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करेगी, ताकि मोक्ष की यात्रा का एक समग्र चित्र सामने आ सके।

भाग १: मोक्ष की मूल अवधारणा और दार्शनिक मत

मोक्ष, जिसे विमोक्ष, विमुक्ति या मुक्ति भी कहा जाता है, का शाब्दिक अर्थ है ‘छुटकारा’ । यह शब्द ‘मोह’ के ‘क्षय’ (नाश) से बना है, जिसका तात्पर्य सांसारिक मायाजाल के बंधनों से मुक्त होना है । मोक्ष की पारिभाषिक व्याख्या भारतीय दर्शनों में भिन्न-भिन्न है, परंतु इसका केंद्रीय भाव समान है: जन्म-मरण के चक्र से स्थायी मुक्ति और दुखों का आत्यंतिक (पूर्ण) अभाव ।   

१.१ मोक्ष का शाब्दिक और पारिभाषिक स्वरूप

संस्कृत शब्द मोक्ष का अर्थ है ‘मुक्ति’ । यह जन्म-मृत्यु के चक्र (संसार) से मुक्त होना है । जब आत्मा सभी कर्म बंधनों, इच्छाओं और अज्ञान से मुक्त हो जाती है, तो वह मोक्ष को प्राप्त करती है । मोक्ष एक ऐसी आध्यात्मिक अवस्था है जिसे प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति को इस संसार में बार-बार जन्म नहीं लेना पड़ता । यह वह स्थिति है जहाँ आत्मा सब प्रकार के सांसारिक सुख-दुख की अनुभूति से परे हो जाती है । गरुड़ पुराण के अनुसार, मोक्ष का अर्थ है ‘यत्र न गच्छति पुनः देहं’—यानी जहाँ आत्मा फिर से देह धारण नहीं करती । यह आत्मा की अपने शुद्ध, परम सत्ता में लीन होने की अवस्था है, जिसमें न शरीर होता है, न सुख-दुख की सीमाएँ, न मोह और न ही माया ।   

कई विद्वान ‘मुक्ति’ और ‘मोक्ष’ के बीच एक सूक्ष्म भेद भी करते हैं । उनके अनुसार, मुक्ति केवल दुखों से छुटकारा पाने की स्थिति है, जबकि मोक्ष इससे भी बढ़कर है—यह स्वयं को प्राप्त कर लेने का अर्थ है । यह संसारिक मायाजाल के समस्त बंधनों से छुटकारा है। यह भेद विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि स्वर्ग की कल्पना में व्यक्ति अपने पुण्यों का फल भोगने के बाद पुनः मृत्युलोक में जन्म लेता है, जबकि मोक्ष में ऐसी कोई पुनरावृत्ति नहीं होती ।   

१.२ भारतीय दर्शनों में मोक्ष की विविध व्याख्याएँ

भारतीय दर्शनों ने मोक्ष को अपने-अपने सिद्धांतों के अनुसार परिभाषित किया है, जिससे एक ही लक्ष्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों का जन्म हुआ है।

सांख्य-योग दर्शन: इस दर्शन में मोक्ष को कैवल्य कहा गया है । कैवल्य का अर्थ है ‘आत्यन्तिको दुःखत्रयाभाव:’—अर्थात् तीनों प्रकार के दुखों (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) का पूर्णतः अभाव । सांख्य दर्शन के अनुसार, बंधन का कारण  अविवेक या अज्ञान है । पुरुष (आत्मा) वास्तव में प्रकृति से भिन्न है, परंतु अज्ञानवश वह स्वयं को प्रकृति एवं उसके गुणों (सुख-दुःख) से जुड़ा हुआ समझता है । मोक्ष का अर्थ है पुरुष का प्रकृति से अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना, जिससे जन्म-मरण के चक्र से निवृत्ति मिल जाती है । इस दर्शन में जीवन्मुक्ति (जीवनकाल में मोक्ष) और विदेहमुक्ति (देह त्याग के बाद मोक्ष) दोनों को स्वीकार किया गया है ।   

न्याय-वैशेषिक दर्शन: न्याय दर्शन में मोक्ष को अपवर्ग के नाम से जाना जाता है । इसका तात्पर्य है आत्मा का शरीर, इंद्रियों और मन के बंधन से पूर्णतः मुक्त हो जाना । इस अवस्था में आत्मा दुखों से तो मुक्त होती ही है, परंतु सुखों का भी अंत हो जाता है, क्योंकि सुख और दुःख दोनों ही आत्मा के मूलभूत गुण नहीं हैं । यह ‘दुःखाभाव की अवस्था’ है, जिसे आनंदविहीन माना गया है ।   

अद्वैत वेदांत: अद्वैत वेदांत के अनुसार, आत्मा और परमात्मा (ब्रह्म) एक ही हैं । आत्मा वस्तुतः मुक्त ही है, परंतु अज्ञान के कारण वह स्वयं को ब्रह्म से अलग मानती है । मोक्ष का अर्थ है इस अज्ञान का नाश और आत्मा का अपने स्वाभाविक ब्रह्मस्वरूप को पुनः जान लेना । इसे ‘प्राप्तस्य प्राप्ति’ कहा गया है, यानी जो वस्तु पहले से ही प्राप्त है, उसे फिर से प्राप्त करना । मोक्ष में आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है, जैसे नदी समुद्र में मिल जाती है । इस अवस्था में वह पूर्ण शांति और आनंद का अनुभव करती है, क्योंकि ब्रह्म का स्वरूप ही सत्, चित और आनंद है ।   

वैष्णव दर्शन: इस मत में मोक्ष की धारणा अद्वैत वेदांत से भिन्न है। यहाँ मोक्ष का अर्थ आत्मा का ब्रह्म में विलीन होना नहीं, बल्कि ईश्वर का सामीप्य, सान्निध्य और उनकी सेवा प्राप्त करना है । वैष्णव दर्शन के अनुसार, मोक्ष भगवान की कृपा से प्राप्त होता है । मोक्ष प्राप्त आत्मा भगवान के धाम (जैसे वैकुंठ या गोलोक) में जाती है और जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर उनकी सेवा में आनंदित रहती है ।   

जैन दर्शन: जैन दर्शन में मोक्ष को कैवल्य (ज्ञान) से प्राप्त होने वाली अवस्था माना गया है। मोक्ष प्राप्ति के लिए जीव को ‘त्रिरत्न’—सम्यग् दर्शन (सही श्रद्धा), सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र (सही आचरण) का पालन करना पड़ता है । इन तीनों के पालन से कर्मों का प्रवाह निरुद्ध होता है और संचित कर्मों का विनाश हो जाता है । मोक्ष प्राप्त करने के बाद आत्मा सिद्धलोक में जाती है, जहाँ वह स्थायी रूप से शुद्ध, सर्वज्ञ और आनंदमयी अवस्था में रहती है । जैन आचार्य कहते हैं कि मोक्षात्मा लोक से परे जो आकाश है, वहाँ से आज तक कोई वापस नहीं लौटा है ।   

ये विभिन्न व्याख्याएँ मोक्ष की धारणा में एक गहरा दार्शनिक विरोधाभास प्रस्तुत करती हैं। एक ओर, न्याय-वैशेषिक दर्शन मोक्ष को सुख और दुःख दोनों से परे, एक अनुभवहीन अवस्था मानता है, जिसे ‘दुःखाभाव’ कहा गया है । इस दृष्टिकोण के अनुसार, आत्मा के मूल गुण सुख और दुःख नहीं हैं, इसलिए मोक्ष में दोनों का अभाव होना चाहिए । दूसरी ओर, वेदांत और भक्ति मार्ग इसे ‘आनंदयुक्त’ अवस्था बताते हैं । यह विरोधाभास भारतीय दर्शनों के मूल द्वैत और अद्वैत सिद्धांतों से उपजा है। द्वैतवादी दर्शन (जैसे न्याय-वैशेषिक) आत्मा और परमात्मा को अलग मानते हैं, और मानते हैं कि सुख-दुःख प्रकृति के गुण हैं, अतः मुक्ति में इनका अभाव होना चाहिए। इसके विपरीत, अद्वैतवादी (वेदांत) और भक्तिवादी दर्शन आत्मा को परम ब्रह्म का अंश मानते हैं, जिसका स्वभाव ही सच्चिदानंद है। इसलिए, उनके लिए मोक्ष में आनंद की अभिव्यक्ति स्वाभाविक है। यह विभिन्नता दिखाती है कि मोक्ष कोई एकसार अवधारणा नहीं है, बल्कि साधक के आध्यात्मिक मार्ग और दार्शनिक विश्वास पर निर्भर एक बहुआयामी लक्ष्य है।   

इसी तरह, मोक्ष प्राप्ति के साधन को लेकर भी एक महत्वपूर्ण भिन्नता देखने को मिलती है। जहाँ ज्ञान योग और सांख्य-योग जैसे दर्शन मोक्ष को केवल आत्मज्ञान या विवेक से प्राप्त होने वाली अवस्था मानते हैं , वहीं वैष्णव मत इसे भगवान की कृपा का परिणाम बताता है, जो भक्ति के माध्यम से प्राप्त होती है । यह आत्मा के पुरुषार्थ (आत्म-प्रयास) और ईश्वरीय कृपा (प्रपत्ति) के बीच का सनातन द्वंद्व है। ज्ञान मार्ग में व्यक्ति अपने कठोर तप, ध्यान और विवेक से अज्ञान को नष्ट करता है, जबकि भक्ति मार्ग में वह स्वयं को पूर्णतः ईश्वर पर समर्पित कर देता है। दोनों ही मार्ग मोक्ष तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन हैं, जो अंततः साधक के स्वभाव के अनुरूप होते हैं।   

भाग २: मोक्ष के विविध प्रकार और उनकी विशिष्टता

भक्ति मार्ग में, मोक्ष को केवल एक अवधारणा के रूप में नहीं, बल्कि उसके विभिन्न स्तरों और प्रकारों में भी वर्णित किया गया है। ये प्रकार साधक के भगवान के प्रति संबंध और उसके आध्यात्मिक लक्ष्य पर निर्भर करते हैं।

२.१ भक्ति मार्ग के पाँच प्रमुख प्रकार

वैष्णव दर्शन में मोक्ष के पाँच प्रकारों का उल्लेख मिलता है, जिन्हें अक्सर ‘पंच मोक्ष’ कहा जाता है ।   

  1. सालोक्य मुक्ति: इस प्रकार की मुक्ति में, भक्त भगवान के समान लोक में निवास करता है । इसका अर्थ है कि वह अपने इष्टदेव के आध्यात्मिक धाम में जाकर रहता है। उदाहरण के लिए, भगवान विष्णु के भक्त वैकुंठ में और भगवान राम के भक्त साकेत में निवास करते हैं । यह मुक्ति वात्सल्य भाव से भगवान की उपासना करने वालों को प्राप्त होती है ।   
  2. सामीप्य मुक्ति: यह वह अवस्था है जहाँ जीव भगवान के सान्निध्य या निकटता में रहता है । सामीप्य में भक्त भगवान के पार्षद या सेवक बन जाते हैं और उनके समीप रहकर उनकी सेवा का आनंद लेते हैं । यह दास भाव या मधुर भाव से उपासना करने वालों को प्राप्त होती है ।   
  3. सारूप्य मुक्ति: सारूप्य का अर्थ है ‘समान रूप धारण करना’ । इस मुक्ति में, भक्त भगवान के समान चतुर्भुज रूप धारण कर लेता है । इस अवस्था में वह भगवान के रूप के समान ही दिखता है, परंतु कुछ सूक्ष्म अंतर होते हैं, जैसे कि श्रीवत्स का चिह्न केवल भगवान में ही होता है । यह सखा भाव से उपासना करने वालों को प्राप्त होती है ।   
  4. सार्ष्टि मुक्ति: इस मुक्ति में साधक को भगवान के समान ऐश्वर्य और वैभव प्राप्त होता है । इसका तात्पर्य है कि भक्त भगवान के समान शक्ति, भोग और प्रचुरता का अनुभव करता है ।   
  5. सायुज्य मुक्ति: सायुज्य का अर्थ है ‘एकत्व’ या ‘लीन हो जाना’ । इस मुक्ति में भक्त अपने अस्तित्व को समाप्त कर भगवान में पूर्ण रूप से विलीन हो जाता है, जैसे समुद्र में पानी मिल जाता है । अद्वैत वेदांत में इसे कैवल्य मोक्ष या निर्वाण भी कहते हैं, और यह ज्ञानियों को प्राप्त होती है।   

२.२ गहन विश्लेषण और अंतर्दृष्टि

एक महत्वपूर्ण दार्शनिक चर्चा सायुज्य मुक्ति को लेकर है। शोध सामग्री में यह स्पष्ट होता है कि जहाँ सायुज्य को मोक्ष का एक प्रकार माना गया है, वहीं कई भक्ति परंपराएँ इसे भक्तों के लिए निंदनीय मानती हैं । यह विचार इस मूलभूत अंतर से उपजा है कि भक्ति का मूल सार ‘भक्त’ और ‘भगवान’ के बीच के प्रेममय द्वैत संबंध में है। भक्त भगवान की सेवा में, उनके प्रेम में, और उनकी लीलाओं में आनंद प्राप्त करता है । सायुज्य मुक्ति में यह द्वैत समाप्त हो जाता है, और भक्त का व्यक्तिगत अस्तित्व मिट जाता है । इस प्रकार, भक्त के लिए वह परम आनंद समाप्त हो जाता है जो भगवान की सेवा से प्राप्त होता है । यह दर्शाता है कि भक्ति और अद्वैत (ज्ञान) मार्ग के लक्ष्यों में एक गहरा वैचारिक अंतर है। भक्ति का चरम लक्ष्य प्रेम है, जबकि अद्वैत का चरम लक्ष्य ज्ञान द्वारा एकत्व की प्राप्ति है।   

मोक्ष का प्रकार परिभाषा संबंधित दर्शन/मार्ग प्राप्ति का फल
सालोक्य जीव भगवान के साथ उनके लोक में वास करता है। वैष्णव भक्ति भगवान के लोक में निवास का आनंद
सामीप्य जीव भगवान के सान्निध्य में रहता है। वैष्णव भक्ति भगवान के पार्षद या सेवक के रूप में सेवा का आनंद
सारूप्य जीव भगवान के समान रूप (जैसे चतुर्भुज) धारण करता है। वैष्णव भक्ति भगवान के समान रूप धारण कर निकटता का अनुभव
सार्ष्टि जीव भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करता है। वैष्णव भक्ति भगवान के समान वैभव और शक्ति का उपभोग
सायुज्य भक्त भगवान में विलीन हो जाता है, अस्तित्व समाप्त हो जाता है। अद्वैत वेदांत, ज्ञान योग जन्म-मरण के चक्र से पूर्णतः मुक्ति
कैवल्य पुरुष का प्रकृति से पूर्णतः पृथक होना। सांख्य-योग दर्शन, ज्ञान योग तीनों दुखों का आत्यंतिक अभाव

 

भाग ३: मोक्ष प्राप्ति के शाश्वत मार्ग

सनातन धर्म ने मोक्ष तक पहुँचने के लिए कई मार्ग सुझाए हैं, जिनमें से ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग प्रमुख हैं। ये तीनों मार्ग न केवल एक दूसरे से अलग हैं, बल्कि एक दूसरे के पूरक भी हैं।

३.१ ज्ञान योग: आत्मज्ञान की यात्रा

ज्ञान योग को ‘आत्म-साक्षात्कार का मार्ग’ (The path of self-realization) कहा गया है । यह उन लोगों के लिए है जो दार्शनिक विचार और गहन चिंतन पसंद करते हैं । इस मार्ग का मूल उद्देश्य अज्ञान (अविद्या) का नाश करके आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना है । उपनिषद इस ज्ञान को ही मोक्ष का एकमात्र उपाय मानते हैं । कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता को बताते हैं कि श्रेय (विद्या) मोक्ष की ओर ले जाती है, जबकि प्रेय (अविद्या) संसार में बांधे रखती है ।   ज्ञान योग की यात्रा ‘तत्वमसि’ (वह तुम हो) के बोध से ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ) की अनुभूति तक पहुँचती है । इस मार्ग पर चलने के लिए व्यक्ति को स्वयं से अहंकार को दूर करना और संसार की माया से मुक्त होना पड़ता है ।   

प्रासंगिक श्लोक:

  • ईशोपनिषद्, मंत्र ७:

    ‘यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः।।’

    अर्थ: जो व्यक्ति सभी भूतों को आत्मा में और आत्मा को सभी भूतों में देखता है (यानी सभी में एकत्व का अनुभव करता है), उस ज्ञानी को फिर क्या मोह और क्या शोक?   

  • मैत्रायण्युपनिषद्:

    ‘एतज्ज्ञानं च मोक्षं च शेषास्तु ग्रंथ विस्तरा।।’

    अर्थ: मन का हृदय में निरोध (लय) होने तक ही अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि यही ज्ञान और यही मोक्ष है। बाकी सब तो ग्रंथों का (अनावश्यक) विस्तार मात्र है ।   

 

३.२ भक्ति योग: परमेश्वर को पूर्ण समर्पण

भक्ति योग, जिसे ‘भक्ति मार्ग’ भी कहते हैं, प्रेम और पूर्ण विश्वास के साथ ईश्वर को समर्पित होने का मार्ग है । यह उन व्यक्तियों के लिए उपयुक्त है जिनकी प्रकृति भावनाप्रधान है । भक्ति का मूल सिद्धांत यह है कि जब व्यक्ति का प्रेम ईश्वर से जुड़ जाता है, तो नश्वर सांसारिक वस्तुओं से उसका लगाव स्वतः ही कम हो जाता है । गरुड़ पुराण के अनुसार, सच्ची भक्ति और भगवान के चरणों में पूर्ण समर्पण ही मोक्ष का सबसे सरल मार्ग है ।   

भगवद्गीता का परम उपदेश: श्रीमद्भगवद्गीता के १८वें अध्याय का ६६वाँ श्लोक भक्ति योग का सार माना जाता है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को परम मोक्ष का आश्वासन देते हैं:

‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।’

अर्थ: सभी धर्मों (कर्तव्यों) को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर ।   

कर्म योग का सिद्धांत निष्काम कर्म पर आधारित है, यानी फल की इच्छा के बिना अपने कर्तव्यों का पालन करना । भगवद्गीता के अनुसार, कर्म संन्यास की अपेक्षा कर्म योग श्रेष्ठतर है, क्योंकि कुशलता से किया गया कर्म व्यक्ति को बंधन से मुक्त कर सकता है । कर्म योग का सार यह है कि व्यक्ति को कर्तापन के अभिमान को छोड़कर और अनासक्त भाव से कर्म करना चाहिए, जिससे वह आत्म-लाभ और ईश्वर का साक्षात्कार कर सके । 

गरुड़ पुराण में कहा गया है कि अच्छे कर्म ही मोक्ष के द्वार खोलते हैं । जो व्यक्ति दूसरों का कल्याण चाहता है और अपने कर्तव्यों का पालन निष्ठा से करता है, वह मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर होता है ।  

३.४ मार्गों का संश्लेषण और प्रगति

ज्ञान, भक्ति और कर्म योग को अक्सर अलग-अलग मार्ग माना जाता है, परंतु ये वास्तव में एक दूसरे से गहराई से जुड़े हुए और परस्पर पूरक हैं। कर्म योग व्यक्ति के मन को शुद्ध करता है, जिससे उसमें वैराग्य और विवेक का भाव जागृत होता है । शुद्ध मन ही ज्ञान और भक्ति का आधार बन सकता है। ज्ञान योग अज्ञान को नष्ट करता है, जो व्यक्ति को अहंकार से मुक्त कर ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण (भक्ति) की ओर ले जाता है । इसी तरह, भक्ति योग प्रेम और श्रद्धा के माध्यम से मन को एकाग्र करता है, जो ज्ञान और वैराग्य दोनों को पुष्ट करता है ।  

भगवद्गीता का १८.६६ श्लोक इन सभी मार्गों का समन्वय करता है। यह एक ऐसे समर्पण की बात करता है जो निष्काम कर्म और आत्म-ज्ञान के बिना संभव नहीं है। यह दर्शाता है कि सनातन धर्म में मोक्ष के लिए कोई एक विशिष्ट और कठोर मार्ग नहीं है, बल्कि साधक के स्वभाव के अनुरूप कई पथ उपलब्ध हैं, जो अंततः एक ही गंतव्य तक पहुँचते हैं।

भाग ४: मोक्ष के बाद जीव की यात्रा और परम धामों का वर्णन

मोक्ष की प्राप्ति के बाद, आत्मा को इस मृत्युलोक में पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता । परंतु, मोक्ष प्राप्त जीव कहाँ जाता है, यह साधक के दर्शन और इष्ट पर निर्भर करता है । विभिन्न शास्त्रों में मोक्ष के बाद आत्मा के गंतव्य के रूप में कई परम लोकों का वर्णन मिलता है, जिनमें ब्रह्मलोक, वैकुंठ, कैलाश, देवी लोक और सूर्य लोक प्रमुख हैं।   

४.१ मोक्ष के बाद जीव का गंतव्य

  • अद्वैत वेदांत के अनुसार: अद्वैत वेदांत के मत में, मोक्ष प्राप्त आत्मा ब्रह्म में विलीन हो जाती है । इस अवस्था में आत्मा को कहीं जाना नहीं पड़ता, क्योंकि उसकी स्थिति “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ही ब्रह्म हूँ) की हो जाती है। यह आत्मा का परमात्मा से मिलन है । जैसे नदी समुद्र में मिलकर अपना अलग अस्तित्व खो देती है, उसी प्रकार मुक्त आत्मा ब्रह्म में एकाकार हो जाती है और पूर्ण शांति तथा आनंद की अवस्था में रहती है ।   
  • पुराण और भक्ति परंपरा का मत: पुराणों और भक्ति परंपरा के अनुसार, जिसने जिस देवता की भक्ति से मोक्ष प्राप्त किया, वह उसी देवता के धाम में जाता है ।   
    • विष्णु भक्त, वैष्णव परंपरा के अनुसार, वैकुंठ लोक जाते हैं ।   
    • शिव भक्त शैव परंपरा के अनुसार शिवलोक (कैलाश) को प्राप्त करते हैं ।   
    • शक्ति उपासक देवी लोक को जाते हैं, और सूर्य उपासक सूर्य लोक को जाते हैं ।
  • जैन दर्शन के अनुसार: जैन दर्शन में, मोक्ष प्राप्त आत्मा सिद्धलोक में जाती है। यह लोक ब्रह्मांड के सबसे ऊपरी भाग में स्थित है । वहाँ आत्मा स्थायी रूप से शुद्ध, सर्वज्ञ और आनंदमयी अवस्था में रहती है । जैन आचार्य कहते हैं कि मोक्षात्मा लोक से परे जो आकाश है, वहाँ से आज तक कोई वापस नहीं लौटा है ।   
  • गीता का मत: भगवद्गीता के अनुसार, ब्रह्मलोक सहित समस्त लोकों में जन्म और मृत्यु है । परंतु, जो परम धाम (भगवान का धाम) पहुँच जाता है, वहाँ से पुनर्जन्म नहीं होता । यह परम धाम सभी लोकों से ऊपर, ब्रह्म के ‘अव्यक्त’ रूप में स्थित है, जो अविनाशी और शाश्वत है ।   

४.२ परम धामों का विस्तृत विवरण

देवी लोक (मणिद्वीप): शाक्त परंपरा में, मोक्ष का अंतिम गंतव्य देवी लोक है, जिसे विशेष रूप से देवी भागवत पुराण में ‘मणिद्वीप’ के रूप में वर्णित किया गया है । यह वह परम धाम है जहाँ आदि शक्ति, भगवती भुवनेश्वरी, निवास करती हैं । मणिद्वीप को ब्रह्म लोक से भी श्रेष्ठ माना गया है । इसकी संरचना एक आध्यात्मिक यात्रा का रूपक है, जिसमें कई परकोटे हैं जो विभिन्न रत्नों से निर्मित हैं। बाहरी परकोटे तांबे और शीशे से बने हैं, जिसके आगे कुमकुम के समान अरुण वर्ण वाला पद्म राग मणि का एक परकोटा है । इसके बाद गोमेद रत्न से बना एक दस योजन का महान परकोटा है, जिसकी कांति गुड़हल के फूल जैसी है । इस दिव्य लोक का वातावरण अलौकिक है, जहाँ हर जगह फूलों और फलों से लदे वृक्ष, पक्षी, सरोवर और बावलियां हैं, जो गोमेद मणि से ही निर्मित हैं ।   

मणिद्वीप में भगवती भुवनेश्वरी के अलावा, कई अन्य शक्तियाँ और देवियाँ निवास करती हैं। विभिन्न परकोटों में 64 कलाएं और 32 महान शक्तियां विराजमान हैं । कुछ शक्तियाँ पिशाच के समान भयंकर मुख वाली और युद्ध के लिए हमेशा तैयार रहती हैं, जो लगातार “काटो, पचाओ, छेदन करो और भस्म कर डालो” जैसे शब्द बोलती रहती हैं । यह वर्णन देवी की बहुआयामी प्रकृति को दर्शाता है, जो सृजन और पालन के साथ-साथ संहार और विनाश की शक्ति भी रखती हैं । शाक्त दर्शन में मोक्ष की प्राप्ति शक्ति के साथ एकाकार होकर होती है, जो एक आंतरिक और गहन आध्यात्मिक प्रक्रिया है ।   

परकोटे का नाम रत्न का प्रकार रंग/कांति लंबाई (योजन) निवासी/विशेषताएँ
बाहरी परकोटे तांबा, शीशा
पद्म राग निर्मित परकोटा पद्म राग मणि कुमकुम के समान अरुण 10 64 कलाएँ
गोमेद निर्मित परकोटा गोमेद रत्न गुड़हल के फूल जैसी 10 32 महान शक्तियाँ

सूर्य लोक: सौर संप्रदाय में, सूर्य देव को सर्वोच्च देवता माना जाता है । यह परंपरा मोक्ष के लिए एक अद्वितीय मार्ग प्रस्तुत करती है, जहाँ सूर्य को स्वयं ब्रह्म और जगत की आत्मा के रूप में देखा जाता है । यह एक सर्वमान्य सत्य है कि पृथ्वी पर जीवन सूर्य से ही है । सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का एकमात्र कारण बताया गया है । इस दार्शनिक परिप्रेक्ष्य के अनुसार, मोक्ष का अर्थ आत्मा का उस परम चेतना (ब्रह्म/सूर्य) में विलय करना है जो सृष्टि के हर पहलू में व्याप्त है ।   

सूर्य लोक अदिति नंदन भगवान सूर्य का निवास स्थान है, जहाँ से वह अपने सात सफेद घोड़ों वाले रथ पर सवार होकर प्रतिदिन अपनी ब्रह्मांडीय यात्रा पर निकलते हैं, जिसके सारथी अरुण हैं । सूर्य के रथ का वर्णन अत्यंत प्रतीकात्मक है । रथ में एक ही पहिया है, जो पूरे संवत्सर (वर्ष) का प्रतीक है । इस पहिये में 12 तीलियां हैं जो बारह महीनों को दर्शाती हैं । सात घोड़े सात वैदिक छंदों (गायत्री, बृहति, उष्णिक, जगति, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति) या सप्ताह के सात दिनों का प्रतिनिधित्व करते हैं । यह प्रतीकात्मकता सूर्य को केवल एक देवता से बढ़कर ब्रह्मांडीय व्यवस्था और समय के एक मूलभूत सिद्धांत के रूप में स्थापित करती है ।

ब्रह्मलोक (सत्यलोक): ब्रह्मांड के १४ लोकों में, ब्रह्मलोक या सत्यलोक को सबसे ऊपर और पवित्र माना गया है । यह वह धाम है जहाँ ब्रह्मांड के रचयिता भगवान ब्रह्मा अपनी पत्नी देवी सरस्वती के साथ निवास करते हैं । यहाँ वे पवित्र आत्माएँ निवास करती हैं जिन्होंने अपने जीवन में घोर तपस्या और पुण्य कर्म किए हैं । ब्रह्म पुराण में ब्रह्मलोक का वर्णन करते हुए कहा गया है कि यहाँ रुग्णता, व्याधि, चिंता, शोक, भूख या प्यास के लिए कोई स्थान नहीं है । यहाँ तक कि ऋतुएँ भी कोई परिवर्तन नहीं लातीं, जो इसके दिव्य और शाश्वत स्वरूप को दर्शाता है ।   

हालाँकि, भगवद्गीता में एक महत्वपूर्ण दार्शनिक बिंदु का उल्लेख है कि ब्रह्मलोक सहित सभी लोक पुनरावृत्ति वाले हैं, जिसका अर्थ है कि एक कल्प (ब्रह्मा के एक दिन) के अंत में ये लोक भी समाप्त हो जाते हैं । यह दर्शाता है कि ब्रह्मलोक तक पहुँचना मोक्ष का एक सोपान हो सकता है, परंतु परम और शाश्वत मोक्ष ब्रह्म के ‘अव्यक्त’ रूप में स्थित है, जो इन सभी भौतिक लोकों से परे है ।   

वैकुंठ लोक: वैकुंठ का शाब्दिक अर्थ है ‘वह स्थान जहाँ कुंठा (निराशा, निष्क्रियता, हताशा) न हो’ । यह भगवान विष्णु का शाश्वत आध्यात्मिक निवास है । पुराणों के अनुसार, यह सत्यलोक से भी ऊपर स्थित है, और इसकी स्थिति को ब्रह्मांड से बाहर और तीनों लोकों में सबसे ऊपर बताया गया है । वैकुंठ में कोई दुख, शोक या मृत्यु नहीं होती, और यहाँ के निवासी अजर-अमर होते हैं । यहाँ भगवान विष्णु अपनी चार पटरानियों, श्रीदेवी, भूदेवी, नीला और महालक्ष्मी, के साथ निवास करते हैं ।   

वैकुंठवासी इन्द्रिय-तृप्ति की इच्छा से रहित होकर केवल परमेश्वर की भक्ति में लगे रहते हैं । भागवत पुराण के अनुसार, यह वह परम धाम है जिसकी पूजा भौतिक कष्टों से मुक्त आध्यात्मिक साधकों द्वारा की जाती है । श्रीकृष्ण के अवतरण के बाद वैकुंठ को गोलोक भी कहा जाता है । ब्रह्म संहिता के अनुसार, सभी वैकुंठ लोक कमल की पंखुड़ियों के समान हैं, और गोलोक इन सभी का केंद्र है ।   

कैलाश लोक: शिवपुराण, स्कंद पुराण और मत्स्य पुराण सहित कई ग्रंथों में कैलाश पर्वत को भगवान शिव का निवास स्थान और उनकी तपोभूमि माना गया है । यह कोई साधारण भौगोलिक स्थान नहीं है, बल्कि इसे एक ऐसी ‘चेतना की स्थिति’ भी माना जाता है जहाँ इच्छा, पहचान, गति और भटकाव समाप्त हो जाते हैं । यह वह मौन शिखर है जहाँ प्रकृति की गति रुक जाती है और केवल साक्षी भाव शेष रह जाता है 。 कैलाश को शिवलोक जाने का मार्ग माना जाता है, जहाँ आत्मा मोक्ष प्राप्त कर भगवान शिव के चरणों में शांति और स्वतंत्रता का अनुभव करती है ।   

कैलाश एक रहस्यमयी पर्वत है जिस पर आज तक कोई जीवित व्यक्ति नहीं चढ़ पाया है । यह हिंदू, बौद्ध और जैन तीनों धर्मों में पवित्र और पूजनीय माना जाता है, जहाँ ऋषभदेव जैसे पहले जैन तीर्थंकर ने निर्वाण प्राप्त किया था ।  

धाम का नाम प्रमुख देवता संबंधित शास्त्र मुख्य विशेषताएँ
देवी लोक आदि शक्ति (भुवनेश्वरी) देवी भागवत पुराण बहु-स्तरीय रत्नों से निर्मित; सृजन, पालन और संहार की शक्तियों का केंद्र।
सूर्य लोक सूर्य देव वेद, सूर्योपनिषद, पुराण ब्रह्मांड की आत्मा और ब्रह्म का प्रतीक; समय और व्यवस्था का संचालक।
ब्रह्मलोक ब्रह्मा, सरस्वती ब्रह्म पुराण, वेद १४ लोकों में सर्वोच्च, चिंता और व्याधि से मुक्त। पुनरावृत्ति वाला लोक।
वैकुंठ विष्णु, लक्ष्मी विष्णु पुराण, भागवत, गीता कुंठा (निष्क्रियता) से रहित, अजर-अमरता। इसे गोलोक भी कहा जाता है।
कैलाश शिव, पार्वती शिव पुराण, स्कंद पुराण भौतिक और आध्यात्मिक दोनों। चेतना की वह स्थिति जहाँ इच्छाएं समाप्त होती हैं।
गोलोक कृष्ण, राधा गर्ग संहिता, ब्रह्म संहिता सभी वैकुंठों का केंद्र। प्रेम, भक्ति और आनंद का परमधाम।
सिद्धलोक मुक्त आत्माएँ जैन दर्शन ब्रह्मांड के सबसे ऊपरी भाग में, जहाँ आत्मा स्थायी रूप से शुद्ध और सर्वज्ञ हो जाती है।

 

भाग ५: मोक्ष के बाद की स्थिति

मोक्ष की प्राप्ति के बाद, आत्मा अमर, अजर और अविनाशी स्थिति को प्राप्त करती है । यह वह अवस्था है जब आत्मा जन्म-मृत्यु के चक्र से पूर्णतः मुक्त हो जाती है । मुक्त आत्मा को सुख-दुःख, पाप-पुण्य या पुनर्जन्म कुछ भी नहीं छू पाता । यह परम शांति और अनंत आनंद की अवस्था है ।   

भाग ६: शास्त्रों में मोक्ष के प्रासंगिक श्लोक

मोक्ष की अवधारणा का सार विभिन्न शास्त्रों के श्लोकों में समाहित है, जो इस परम लक्ष्य को प्राप्त करने के मार्ग और उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हैं।

६.१ भगवद्गीता के मोक्षदायक श्लोक

भगवद्गीता, अध्याय १८, श्लोक ६६:

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।    

अर्थ: सभी धर्मों (कर्तव्यों) को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर। यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण का अंतिम और सर्वोच्च उपदेश है, जो पूर्ण समर्पण के माध्यम से मोक्ष का आश्वासन देता है ।   

६.२ उपनिषदों के गहन उपदेश

उपनिषद मोक्ष को ज्ञान के माध्यम से प्राप्त होने वाला लक्ष्य बताते हैं, जहाँ अज्ञान का नाश होता है।

कठोपनिषद्:

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते।    

अर्थ: अविद्या (अज्ञान) से मृत्यु को पार करके विद्या (ज्ञान) से अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्त होता है। यह श्लोक ज्ञान के महत्व को स्थापित करता है, जो जन्म-मृत्यु के चक्र को समाप्त करता है ।   

सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः। येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम्।।    

अर्थ: सत्य की ही सदा जीत होती है, झूठ की नहीं। सत्य से ही देवयान मार्ग परिपूर्ण है, जिस मार्ग पर आप्तकाम ऋषिगण जाते हैं, जहाँ सत्य का परम धाम है ।   

ईशोपनिषद्, मंत्र ११:

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।।    

अर्थ: जो मनुष्य विद्या (ज्ञान) और अविद्या (कर्म) दोनों को एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से मोक्ष को प्राप्त होता है। यह श्लोक कर्म और ज्ञान के समन्वय को मोक्ष का मार्ग बताता है ।

६.३ पुराणों में मोक्ष का सार

पुराणों ने मोक्ष की अवधारणा को कथाओं और उपदेशों के माध्यम से सरल बनाया है, जिससे वह आमजन तक पहुँच सके।

गरुड़ पुराण:

यत्र न गच्छति पुनः देहं वही है मोक्ष।    

अर्थ:जहाँ आत्मा फिर से देह धारण नहीं करती, वही मोक्ष है। गरुड़ पुराण में यह स्पष्ट कहा गया है कि मोक्ष जन्म-मरण के चक्र से पूर्ण मुक्ति है ।

विष्णु पुराण, श्लोक १.२२.२० (ऋग्वेद से उद्धृत):

तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।    

अर्थ:देवतागण सदैव भगवान विष्णु के परम पद (वैकुंठ) को देखते हैं। यह श्लोक वैकुंठ को परम गंतव्य के रूप में स्थापित करता है ।

सनातन धर्म में मोक्ष कोई मृत्यु के बाद की काल्पनिक अवस्था नहीं है, बल्कि जीवन का परम उद्देश्य और अंतिम परिणति है । यह आवागमन के चक्र से एक पलायन मात्र नहीं है, बल्कि आत्मा के अपने परम शुद्ध, आनंदमय स्वरूप की प्राप्ति है । जैसा कि विभिन्न दार्शनिकों और शास्त्रों ने दर्शाया है, मोक्ष की राह सीधी नहीं है, बल्कि यह साधक के स्वभाव और उसके चुने हुए मार्ग पर निर्भर करती है।   

मोक्ष की अवधारणा की प्रासंगिकता: आधुनिक संदर्भ में भी मोक्ष की अवधारणा अत्यंत प्रासंगिक है। आज के समय में जब मनुष्य मानसिक तनाव, चिंता और जीवन की भागदौड़ में फंसा हुआ है, मोक्ष का लक्ष्य उसे अहंकार, मोह और संसार के दुखों से मुक्त होने का एक मार्ग दिखाता है । यह एक ऐसी मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक अवस्था की ओर संकेत करता है जहाँ व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर आंतरिक शांति और स्थिरता प्राप्त करता है। यह केवल मृत्यु के बाद की यात्रा नहीं है, बल्कि इसी जीवन में अहंकार और अज्ञान के बंधनों को तोड़कर स्वयं को समझने का एक गहरा अनुभव है।   

अतः, मोक्ष एक ऐसा परम पुरुषार्थ है जो जीवन की निरर्थकता को अर्थ देता है और मनुष्य को उसके अंतिम गंतव्य की ओर ले जाता है—एक ऐसी अवस्था जहाँ वह सदा के लिए दुखों और पीड़ाओं से मुक्त हो जाता है और अनंत आनंद में स्थित हो जाता है।

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