आदि शक्ति दुर्गा के दस महाविद्या स्वरूप, प्रादुर्भाव गाथायें

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दि शक्ति दुर्गा अनादि हैं, अनंत हैं, आदि शक्ति भगवती दुर्गा की दस महाविद्याएं क्या है?, शास्त्रों में उनकी जिस महिमा का गान किया गया है, वह क्या है? उसे संक्षिप्त में हम आपको बताने का प्रयास करेंगे। हालांकि उस आदि शक्ति दुर्गा की महिमा का बखान देवों के लिए सम्भव नहीं है तो मानव होकर हम कैसे कर सकते हैं? हम तो उनकी शरणागत होकर ही अपना उद्धार कर सकते है।

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वेदों व उपनिषदों में सभी स्थानों में देवी की अखंड महिमा का गान किया गया है। शास्त्रों में यहां तक कहा गया है कि शक्ति सृष्टि की मूल नाड़ी हैं, चेतना का प्रवाह हैं और सर्वव्यापी हैं। शक्ति की उपासन अत्यन्त प्राचीन है। अनादि है। अनंत हैं। भगवत्पाद श्री शंकराचार्य जी ने सौन्दर्य लहरी में हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया है कि शिव जब शक्ति से युक्त होता है तो वह सृष्टि निर्माण में समर्थ होता है, अन्यथा उसमें स्पन्दन सम्भव नहीं है। अतएव हरि-हर-ब्रह्मादि से आराध्या तुम्हारी नति या स्तुति पुण्यहीन व्यक्तियों से कैसे सम्भव हो सकती है? उस आदि शक्ति भगवती दुर्गा की दस विद्याएं क्या है?  यह जानने व समझने का प्रयास करते हैं।

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जानिए, दस महाविद्याएँ क्या हैं ?

महाशक्ति विद्या और अविद्या दोनों ही रूपों में विद्यमान व अस्तित्व में हैं। दोनों ही रूपों में महाशक्ति का सृष्टि पर प्रभाव है। हम तो उनकी शरणागत होकर ही अपना उद्धार कर सकते है। वह अविद्या रूप में प्राणियों के मोह की कारण हैं, सभी जीव उनकी के प्रभाव में रहते है तो विद्या रूप में मुक्ति का कारण है।

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वैदिक शास्त्र व पुराण उन्हें विद्या के रूप में और परमपुरुष को विद्या पति के रूप में मानते हैं। वेद तथा अन्यान्य शास्त्रों के रूप में विद्या का प्रकट रूप और आगमादि के रूप में विद्वानों एवं साधकों द्वारा गुप्त रूप में संकेतित है। वैष्णवी और शाम्भवी-भेद से दोनों की शरणागति परम लाभ में हेतु है। आगम शास्त्रों में यद्यपि गुह्य गुरुमुखगम्य अनेक विद्याओं के रूप, स्तव और मंत्रादिकों का विधान है, तथापि उनमें दस महाविद्याओं की प्रधानता तो स्पष्ट रूप से प्रतिपादित है, जो जगन्माता भगवती से अभिन्न है-

साक्षादï् विद्यैव सा न ततो भिन्ना जगन्माता।
अस्या: स्वाभिन्नत्वं श्री विद्याया रहस्यार्थ:।।

जानिए, महाविद्याओं का प्रादुर्भाव कैसे हुआ

दस महाविद्याओं का संबंध परम्परात: सती, शिवा और पार्वती से है। ये ही अन्यत्र नवदुर्गा, शक्ति, चामुण्डा, विष्णुप्रिया आदि नामों से पूजित और अर्चित होती हैं। देवी पुराण में एक प्रसंग आता है कि दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में शिव को आमंत्रित नहीं किया था। सती ने शिव से उस यज्ञ में जाने की अनुमति माँगी। पर शिव ने अनुचित बताकर उन्हें जाने से रोका, लेकिन सती अपने निश्चय पर अटल रहीं।

उन्होंने कहा कि मैं प्रजापति के यज्ञ में अवश्य जाऊँगी और वहां या तो अपने प्राणेश्वर देवाधिदेव के लिये यज्ञ भाग प्राप्त करूँगी या यज्ञ को ही नष्ट कर दँूगी। यह कहते हुए सती के नेत्र लाल हो गये। वे शिव को उग्र दृष्टि से देखने लगीं। उनके अधर फड़कने लगे, वर्ण कृष्ण हो गया। क्रोधाग्रि से दग्धशरीर महाभयानक एवं उग्र दिखने लगा। उस समय महामाया का विग्रह प्रचण्ड तेज से तमतमा रहा था। शरीर वृद्घावस्था को सम्प्राप्त सा, केशराशि बिखरी हुई, चार भुजाओं से सुशोभित वे महादेवी पराक्रमी वर्षा करती सी प्रतीत हो रही थीं। कलाग्रि के समान महाभयानक रूप में देवी मुण्डमाला पहने हुईं थीं और उनकी भयानक जिह्वïा बाहर निकली हुई थी। शीश पर अर्धचन्द्र सुशोभित था और उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकराल लग रहा था। वे बार-बार विकट हुंकार कर रही थीं। देवी का रूवरूप साक्षात महादेव के लिये भी भयप्रद और प्रचण्ड था। उस समय  उनका श्री विग्रह करोड़ों मध्याह्न के सूर्यों के समान तेज सम्पन्न था और वे बार-बार अïटï्टहास कर रहीं थी। देवी के इस विकराल महाभयानक रूप को देखकर शिव भाग चले। भागते हुए रुद्र को दसो दिशाओं में रोकने के लिए देवी ने अपनी अंगभूता दस देवियों को प्रकट किया। देवी की ये स्वरूपा शक्तियाँ ही दस महाविद्याएँ हैं जिनके नाम  हैं-काली,तारा, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, कमला, त्रिपुरभैरवी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरसुन्दरी और मातंगी।
शिव ने सती से इन महाविद्याओं का जब परिचय पूछा, तब सती ने स्वयं इसकी व्याख्या करके उन्हें बताया-
येयं ते पुरत: कृष्णा सा काली भीमलोचना।
श्यामवर्णा च या देवी स्वयमूर्ध्वं व्यवस्थिता।। 
सेयं तारा महाविद्या महाकालस्वरूपिणी।
सव्येतरेयं या देवी विशीर्षातिभयप्रदा।।
इयं देवी छिन्नमस्ता महाविद्या महामते।
वामे तवेयं या देवी सा शम्भो भुवनेश्वरी॥
पृष्ठतस्तव या देवी बगला शत्रुसूदिनी।

वन्हिकोणे तवेयं या विधवारूपधारिणी।।
सेयं धूमावती देवी महाविद्या महेश्वरी।
नैर्ऋत्यां तव या देवी सेयं त्रिपुरसुन्दी।।
वायौ या ते महाविद्या सेयं मतङ्गकन्यका।
ऐशान्यां षोडशी देवी महाविद्या महेश्वरी।।
अहं तु भैरवी भीमा शम्भो मा त्वं भयं कुरु।
एता: सर्वा: प्रकृष्टïास्तु मूर्तयो बहुमूर्तिषु।।

अर्थ-शम्भो! आपके सम्मुख जो यह कृष्णवर्णा व भयंकर नेत्रोंवाली देवी स्थित है वे काली हैं। जो श्यामवर्ण वाली देवी स्वयं उर्ध्वभाग में स्थित हैं, ये महाकालस्वरूपिणी महाविद्या तारा हैं। महामते! बायीं ओर जो ये अत्यन्त भयदायिनी मस्तकरहित देवी हैं, ये महाविद्या छिन्नमस्ता हैं। शम्भो! आपके वामभाग में जो ये देवी हैं, वे भुवनेश्वरी हैं। आपके पृष्ठभाग में जो देवी हैं, वे शत्रुसंहारिणी बगला हैं। आपके अग्निकोण में जो ये विधवा का रूप धारण करने वाली देवी हैं, वे महेश्वरी महाविद्या धूमावती हैं। आपके नेर्ऋत्यकोण में जो देवी हैं, वे त्रिपुरसुन्दरी हैं। आपके वायव्यकोण में जो देवी हैं, ये मातंग कन्या महाविद्या मातंगी हैं। आपके ईशानकोण में महेश्वरी महाविद्या षोडशी देवी हैं। शम्भो! मैं भयंकर रूप वाली भैरवी हूं। आप भय मत करें। ये सभी मूर्तियाँ बहुत सी मूर्तियां में प्रकृष्टï हैं। 


महाभागवत के इस आख्यान से प्रतीत होता है कि महाकाली ही मूल रूप मुख्य हैं और उन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूप में में अपने रूप धारण करने वाली ये दस महाविद्याएं हैं। दूसरे शब्दों में महाकाली  के दशधा प्रधान रूपों को ही दस महाविद्या कहा जाता है। सर्वविद्यापति शिव की शक्तियाँ ये दस महाविद्याएँ लोक और शास्त्र में अनेक रूपों में पूजित हुईं, पर इनके दस रूप प्रमुख हो गये। ये ही महाविद्याएँ साधकों की परम धन हैं जो सिद्ध होकर अनन्त सिद्घियों और अनन्त का साक्षात्कार कराने में समर्थ हैं। 
महाविद्याओं के क्रम भेद तो प्राप्त होते हैं, पर काली की प्राथमिकता सर्वत्र देखी जाती है। यों भी दार्शनिक दृष्टि से कालतत्व की प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिए मूलत: महाकाली या काली अनेक रूपों में विद्याओं की आदि हैं और उनकी विद्यामय विभूतियाँ महाविद्याएं हैं। ऐसा लगता है कि महाकाल की प्रियतमा काली अपने दक्षिण और वाम  रूपों में दस महाविद्याओं के रूप में विख्यात हुईं और उनके विकराल तथा सौम्य रूप ही विभिन्न नाम रूपों के साथ दस महाविद्याओं के रूप में अनादिकाल से अर्चित हो रहे हैं। ये रूप अपनी उपासना, मंत्र और दीक्षाओं के भेद से अपने होते हुए भी मूलत: एक ही हैं। अधिकारि भेद से अलग-अलग रूप और उपासना रूवरूप प्रचलित हैं। 
प्रकाश और विमर्श, शिवशक्त्यात्मक तत्व का अखिल विस्तार और लय सब कुछ शक्ति का ही लीला विलास है। सृष्टि में शक्ति और संहार में शिव की प्रधानता दृष्ट है। जैसे अमा और पूर्णिमा दोनों दो भासती हैं, पर दोनों की तत्वत: एकात्मता और दोनों एक दूसरे के कारण परिणामी हैं, वैसे ही दस महाविद्याओं के रौद्र और सौम्य रूपों को समझना चाहिए। काली, तारा, छिन्नमस्ता, बगला और धूमावती विद्यास्वरूप भगवती के प्रकट कठोर किन्तु अप्रकट करूण रूप हैं तो भुवनेश्वरी, षोडशी (ललिता), त्रिपुरभैरवी, मातंगी और कमला विद्याओं के सौम्यरूप हैं। रौद्र के सम्यक साक्षात्कार के बिना माधुर्य को नहीं जाना जा सकता और माधुर्य के अभाव में रुद्र की सम्यक परिकल्पना नहीं की जा सकती।

 जानिए, दस महाविद्याओं का स्वरूप

यद्यपि दस महाविद्याओं का स्वरूप अचिन्त्य है, चिंतन में नहीं आ सकते हैं, तथापि शाखाचन्द्रन्याय से उपासक, स्मृतियाँ और पराम्बा के चरणानुगामी इस विषय में कुछ निर्वचन अवश्य कर लेते हैं। इस दृष्टि से काली-तत्व प्राथमिक शक्ति है। निर्गुण ब्रह्म की पर्याय इस महाशक्ति को तांत्रिक ग्रन्थों में विशेष प्रधानता दी गयी है। वास्तव में इन्हीं के दो रूपों का विस्तार ही इस महाविद्याओं के स्वरूप हैं। महानिर्गुण की अधिष्ठïात्री शक्ति होने के कारण ही इनकी उपमा अन्धकार से दी जाती है। महासगुण होकर वे सुन्दरी कहलाती हैं तो महानिर्गुण होकर काली। तत्वत: सब एक हैं, भेद केवल प्रतीतिमात्र का है। कादि और हादि विद्याओं के रूप में भी एक ही श्री विद्या क्रमश: काली से प्रारम्भ होकर उपास्या होती हैं। एक को संहार क्रम तो दूसरे को सृष्टि क्रम नाम दिया जाता है। देवी भागवत आदि शक्ति ग्रन्थों में महालक्ष्मी या शक्ति बीज को मुख्य प्राधनिक बताने का रहस्य यह है कि इसमें हादि विद्या की क्रमयोजना स्वीकार की गयी है और तन्त्रों विशेषकर अत्यन्त  गोपनीय तंत्रों में काली को प्रधान माना गया है। तात्विक दृष्टि से यहाँ भी भेदबुद्घि की सम्भावना नहीं है। सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा का तर्क दोनों से अभिन्न सिद्घ करता है। 

बृहन्नीलतन्त्र में कहा गया है कि रक्त और कृष्णभेद से काली ही दो रूपों में अभिष्ठिïत हैं। कृष्णा का नाम दक्षिणा है तो रक्तवर्णा का नाम सुन्दरी-

विद्या हि द्विविद्या प्रोक्ता कृष्णा रक्ता-प्रभेदत:।
कृष्णा तु दक्षिणा प्रोक्ता रक्ता तु सुन्दरी मता।।
उपासना के भेद से दोनों में द्वैत है, पर तत्व दृष्टि से अद्वैत है। वास्तव में काली और भुवनेश्वरी दोनों मूल-प्रकृति के अव्यक्त और व्यक्त रूप हैं। काली से कमला तक की यात्रा दस सोपनों में अथवा दस स्तरों में पूर्ण होती है। इस महाविद्याओं का स्वरूप इसी रहस्य का परिणाम है। 
दस महाविद्याओं की उपासना में सृष्टि क्रम की उपासना लोकग्राह्य है। इसमें भुवनेश्वरी को प्रधान माना गया है। यही समस्त विकृतियों की प्रधान प्रकृति है। देवी भागवत के अनुसार सदाशिव फलक है तथा ब्रह्मïा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर उस फलक या श्रीमंच के पाये हैं। इस श्रीमंच पर भुवनेश्वरी भुवनेश्वर के साथ विद्यमान हैं। सात करोड़ मंत्र इनकी आराधना में लगे हुए हैं। विद्वानों का कथन है कि निर्विशेष ब्रह्मï ही स्वशक्ति-विलास के द्वारा ब्रह्मïा, विष्णु आदि पंच आख्याओं को प्राप्त होकर अपनी शक्तियों के सान्निध्य से सृष्टि, स्थिति, लय, संग्रह तथा अनुग्रहरूप पंच कृत्यों को सम्पादित करते हैं। वह निर्विशेष तत्व परमपुरुष पद-वाच्य है और उसकी स्वरूप भूत अभिन्न शक्ति ही है भुवनेश्वरी।

महाविद्याओं के प्रादुर्भाव की अन्य कथाएं

काली– दस महाविद्याओं में काली प्रथम हैं। कालिकापुराण में कथा आती है कि एक बार देवताओं ने हिमालय पर जाकर महामाया का स्तवन किया। इस स्थान पर मातंग मुनि का आश्रम था। स्तुति से प्रसन्न होकर भगवती ने देवताओं को दर्शन दिया और पूछा कि तुम लोग किसकी स्तुति कर रहे हो? तत्काल उनके श्री विग्रह से काले पहाड़ के समान वर्ण वाली दिव्य महा तेजस्विनी ने प्रकट होकर स्वयं ही देवताओं की ओर से उत्तर दिया कि ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं। वे गाढ़े काजल के समान कृष्णा थीं, इसलिये उनका नाम काली पड़ा।


लगभग इसी से मिलती-जुलती कथा श्री दुर्गासप्तशती में भी है। शुम्भ-निशुम्भ के उपद्रव से व्यथित देवताओं ने हिमालय पर देवी सूक्त से देवी को बार-बार जब प्रणाम निवेदित किया, तब गौरी-देह से कौशिकी का प्राकट्य हुआ और उनके अलग होते ही अम्बा पार्वती का स्वरूप कृष्ण होगा। वे ही काली नाम से विख्यात हुईं-

तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत सपि पार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया।।
वास्तव में काली को ही नील रूपा होने से तारा भी कहा गया है। वचनान्तर से तारा नाम का रहस्य यह भी है कि वे सर्वदा मोक्ष देने वाली-तारने वाली हैं, इसलिये तारा हैं। अनायास ही वे वाकï् प्रदान करने में समर्थ है, इसलिये नीलसरस्वती भी हैं। भयंकर विपतियों से रक्षण की कृपा प्रदान करती हैं, इसलिये ये उग्रतारिणी या उग्रतारा है। 
नारद पंचराज के अनुसार-एक बार काली के मनमें आया कि वे पुन: गौरी हो जायें। यह सोचकर वे अन्तर्धान हो गयीं। उसी समय नारद जी उनसे सुमेरु के उत्तर में देवी के प्रत्यक्ष उपस्थित होने की बात कही। शिव की प्रेरणा पर नारद जी वहां गये और उन्होंने उनसे शिवजी से विवाह का प्रस्ताव रखा। देवी क्रुद्घ हो गयीं और उनकी देह से एक अन्य विग्रह षोडशी सुन्दरी का प्रकट्य हुआ और उससे छाया-विग्रह त्रिपुरभैरवी का प्राकट्य हो गया। 
मार्कण्डेयपुराण में देवी के लिये विद्या और महाविद्या दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है। ब्रह्मïा की स्तुति में महाविद्या तथा देवताओं की स्तुति में ‘लक्ष्मि जज्जे महाविद्ये’ सम्बोधन आये हैं। ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ तक पचास मातृकाएं आधारपीठ हैं, इनके भीतर स्थित शक्तियों का साक्षात्कार शक्ति-उपासना है। शक्ति से शक्तिमान का अभेद-दर्शन, जीवभाव का लोप और शिवभाव का उदय किंवा पूर्ण शिवत्व-बोध शक्ति-उपासना की चरम उपलब्धि है। 

बगला-बगला की उत्पत्ति के विषय में कथा आती है कि सत्ययुग में सम्पूर्ण जगत को नष्टï करने वाला तूफान आया। प्राणियों के जीवन पर संकट आया देखकर महाविष्णु चिन्तित हो गये और वे सौराष्टï्र देश में हरिद्रा सरोवर के समीप जाकर भगवती को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे। श्रीविद्या ने उस सरोवर से निकलकर पीताम्बरा के रूप में उन्हें दर्शन दिया और बढ़ते हुए जल-वेग तथा विध्यंसकारी उत्पात का स्तम्भन किया। वास्तव में दुष्टï वही है, जो जगत के या धर्म के छन्दका अतिक्रमण करता है। बगला उसका किंवा नियंत्रण करने वाली महाशक्ति हैं। वे परमेश्वर की सहायिका हैं और वाणी, विद्या तथा गति को अनुशासित करती हैं। ब्रह्मïास्त्र होने का यही रहस्य है। ‘ब्रह्मद्विषे शरवे हन्त वा उ’ आदि वाक्यों में बगलाशक्ति ही पर्याय रूप में संकेतित हैं। वे सर्वसिद्घि देने में समर्थ और उपासकों की वाञ्छाकल्पतरु हैं।
धूमावती-धूमावती देवी के विषय में कथा आती है कि एक बार पार्वती ने महादेव जी से अपनी क्षुधा का निवारण करने का निवेदन किया। महादवे जी चुप रह गये कई बार निवेदन करने पर भी जब देवाधिदेव ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया, तब उन्होंने महादेवजी को ही निगल लिया। उनके शरीर से धूमराशि निकली। तब शिव जी ने शिवा से कहा कि आपकी मनोहर मूर्ति बगला अब ‘धूमावती’ या ‘धम्रा’ कही जायेगी। यह धूमावती वृद्घास्वरूपा, डरावनी और भूख-प्यास से व्याकुल स्त्री-विग्रहवत अत्यन्त शक्तिमयी हैं। अभिचार कर्मों में इनकी उपासना का विधान है।

तारा-तारा और काली यद्यपि एक ही हैं, बृहन्नीलतन्त्रादि ग्रन्थों में उनके विशेष रूप की चर्चा है। हयग्रीव का वध करने के लिये देवी को नील-विग्रह प्राप्त हुआ। शव-रूप शिव पर प्रत्यालीढ मुद्रा में भगवती आरूढ हैं और उनकी नीले रंग की आकृति नीलकमलों  की भांति तीन नेत्र तथा हाथों में कैंची, कपाल, कमल और खड्ग हैं। व्याघ्रचर्म से विभूषिता उन देवी के कण्ठ में मुण्डमाला है। वे उग्रतारा हैं, पर भक्तों पर कृपा करने के लिये उनकी तत्परता अमोघ है। इस कारण वे महाकरुणामयी हैं। 

छिन्नमस्ता-‘छिन्नमस्ता’ के प्रादुर्भाव की कथा इस प्रकार हैं-एक बार भगवती भवानी अपनी सहचरियों-जया और विजया के साथ मन्दाकिनी में स्नान करने के लिए गयीं। वहां स्नान करने पर क्षुधाग्रि से पीडि़त होकर वे कृष्णवर्ण की हो गयीं। उस समय उनकी सहचरियों ने उनसे कुछ भोजन करने के लिए माँगा। देवी ने उनसे कुछ प्रतीक्षा करने के लिए कहा। कुछ समय प्रतीक्षा करने के लिए बाद पुन: याचना करने पर देवी ने देवी ने पुन: प्रतीक्षा करने के लिए कहा। बाद में उन देवियों ने विनम्र स्वर में कहा कि माँ  तो शिशुओं को भूख लगने पर तुरंत भोजन प्रदान करती हैं। इस प्रकार उनके मधुर वचन सुनकर कृपामयी ने अपने कराग्र से अपना सिर काट दिया। कटा हुआ सिर देवी के बायें हाथ में आ गिरा और कबन्ध से तीन धाराएं निकलीं। वे दो धाराओं को अपनी दोनों सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगीं, जिसे पीती हुई वे दोनों प्रसन्न होने लगीं और तीसरी धारा जो ऊपर की ओर प्रवाहित थी, उसे वे स्वयं पान करने लगीं। तभी से ये ‘छिन्नमस्ता’ कही जाने लगीं। 

त्रिपुरसुन्दरी-महाशक्ति ‘त्रिपुरा’ त्रिपुर महादेव की स्वरूपा शक्ति हैं। कालिकापुराण के अनुसार शिवजी की भार्या त्रिपुरा श्रीचक्र की परम नायिका हैं। परम शिव इन्हीं के सहयोग से सूक्ष्म- से-सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल रूपों में भासते हैं। महात्रिपुरसुन्दरी की रथवाहिनी हैं, ऐसा उल्लेख मिलता है।

इसी तरह अन्य देवियों के विषय में पुराणों में यथास्थान कथा मिलती है। वास्तव में काली, तारा, छिन्नमस्ता, बगलामुखी, मातंगी, धूमावती- ये रूप और विग्रह में कठोर तथा भुवनेश्वरी, षाडशी, कमला और भैरवी अपेक्षाकृत माधुर्यमयी रूपों की अधिष्ठïात्री विधाएँ हैं। करूणा और भक्तानुग्रहाकांक्षा तो सबमें समान हैं। दुष्टïों के दलन-हेतु एक ही महाशक्ति कभी रौद्र तो कभी सौम्य रूपों में विराजित होकर नाना प्रकार की सिद्घियाँ प्रदान करती हैं। इच्छा से अधिक वितरण करने में समर्थ इन महाविद्याओं का स्वरूप अचिन्त्य और शब्दातीत है, पर भक्तों और साधकों के लिए इनकी कृपा का कोष नित्य-निरंतर खुला रहता है। सच्चे भाव से यदि इन आदि शक्ति को नमन किया जाए, महाविद्याओं का जप, तप व पूजन-अर्चन किया जाए तो वह सहज ही भक्त पर कृपा करती है। उसे वह गति प्राप्त होती है, जो संसार में विरले जीव को ही प्राप्त होती है।

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