सभी पापों से मुक्ति दिलाने वाला सर्वपाप विनाशक स्तोत्र

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मनुष्य जीवन है, दिन ब दिन जटिल होता जा रहा है। विशेष तौर पर कलयुग में पाप बढ़ रहा है। हमारे जीवन में धर्म का लोप हो रहा है, जाने-अनजाने हमसे पाप होते रहते हैं। ऐसे में हम इन जाने-अनजाने किए पापों से मुक्ति कैसे पाए? आज हम इस सम्बन्ध में बताने जा रहे है। एक ऐसे स्तोत्र के बारे में, जिसका पाठ कर पापों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। इस स्तोत्र का वर्णन हमारे पुराणों में किया गया है। यह स्तोत्र अत्यन्त महिमाशाली माना गया है। आइये, जानते हैं, उस स्तोत्र के बारे, जिसके पाठ से पापों से मुक्ति प्राप्त होती है, और जीव पर भगवान विष्णु की असीम कृपा होती है।

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प्रायश्चित्तों के करने, स्तोत्र का पाठ करने तथा व्रत करने से पाए नष्ट हो जाता हैं-

अग्नि पुराण के 172 वें अध्याय के पहले अश्लोक में श्री पुष्कर जी ने कहा है-
परदार परद्रव्यजीवहिंसादिके यदा।
प्रवर्तते नृणां चित्त प्रायश्चित्तं स्तुतिस्तदा।

भावार्थ- जब मनुष्य का मन दूसरे की स्त्री, दूसरे के धन के हरण एवं जीवों की हिंसा करने में लगता है तो श्री भगवान विष्णु की स्तुति करने से उन पापों का प्रायश्चित हो जाता है। उन भगवान विष्णु की स्तुति इस प्रकार करनी चाहिए-

विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः।
नमामि विष्णं चित्तस्थमहंकारगतं हरिम् ॥2 ॥
भावार्थ- सम्पूर्ण जड़ व चेतन में व्यापक भगवान विष्णु को नित्य ही बारम्बार नमस्कार है । निज चित्त में स्थित व असमर्थ आत्मा में विद्यमान श्रीहरि भगवान विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ ।
चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम|
विष्णुमीडय्यमशेषेण ह्यनादिनिधनं विभुम् ॥3 ॥
भावार्थ- चित्त के भीतर विद्यमान, सम्पूर्ण जगत के नियामक अव्यक्त अनन्त किसी से भी पराजित नहीं होने वाले सबके द्वारा स्तुति योग्य, अतिरहित एवं व्यापक भगवान् विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।
विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुर्द्धिगतश्च यत्।
यच्चाहंकारगो विष्णुर्यद्विष्णुर्मयि संस्थितः ॥4 ॥
भावार्थ- जो भगवान विष्णु मेरे चित्त में स्थित हैं तथा मेरी बुद्धि में व्यापक हैं , जो भगवान विष्णु अहंकार में स्थित हैं तथा जो भगवान विष्णु मेरे भीतर अन्तर्यामी रूप में स्थित हैं।
करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च।
तत्यापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते ॥5 ॥
भावार्थ- चर एवं स्थावर समस्त जीवों के कर्मों को जो भगवान् विष्णु करते हैं वे सभी पाप उन भगवान विष्णु का चिन्तन करने मात्र से विनष्ट हो जाएं।

ध्यातो हरति यत्यापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात।
तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्रणतार्तिहरं हरिम् ॥6 ॥
भावार्थ- ध्यान करने मात्र से जो भगवान पापों को नष्ट कर देते हैं , स्वप्न में भावना करने से दर्शन देकर पापों को नष्ट करते हैं , उन शरणागत जीवों के कष्टों को दूर करने वाले भगवान विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।

जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने मस्यध:।
हस्तावलम्बनं विष्णुं प्रणमामि परात्परम् ॥7 ॥

भावार्थ- इस घोर अन्धकारमय निराधार संसार सागर में डूबने वाले जीवों को अपने हाथों का सहारा देने वाले परात्पर भगवान् विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ ।
सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षजः।
हृषीकेश हृषीकेश हषीकेश नमोऽस्तु ते ॥8 ॥
भावार्थ- हे समस्त स्वामियों के स्वामी हे विभो । हे परमात्मन् । हे अधोक्षज ।। हे हषीकेश । आपको नमस्कार है।
नृसिंहानन्त गोविन्द भूतभावन केशव।
दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाघं नमोऽस्तुते ॥१ ॥

भावार्थ- हे नृसिह । हे अनन्त । हे गोविन्द हे भूतभावन । केशव । मेरे जो दुरुक्त , दृष्कृत तथा मन से चिन्तित पाप हैं उन्हें आप विनष्ट कर दें, आपको नमस्कार है।
यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना।
अकार्य महदत्युग्रं तच्छमं नय केशव ॥10 ॥
भावार्थ- अपने चित्त के वशवर्ती होने के कारण मैंने जो कुछ पाप का चिन्तन किया है, अत्यन्त उग्र महान अकार्य कर्म किया है, हे केशव, उसे आप शान्त कर दें।

ब्रह्मण्यदेव गोविन्द परमार्थपरायण। ज
जगन्नाथ जगद्धातः पापं प्रशमयाच्युत ॥1 1॥
भावार्थ- हे ब्रह्मण्यदेव । हे गोविन्द । हे परमार्थपरायण भगवान् । हे जगन्नाथ । हे जगत का पालन करने वाले ! हे अच्युत । आप मेरे पाप को विनष्ट कर दें ।

यथाऽपराह्ने सायाह्ने मध्याह्ने च यथा निशि।
कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता ॥12 ॥
जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।
नामत्रयोच्चारणतः पापं यातु मम क्षयम् ॥13 ॥
भावार्थ- मैंने अपराह में सायंकाल या मध्याह्न में जो कुछ भी जाने अनजाने पाप कर्म किया, वह समस्त पाप श्री भगवान् के हृषीकेश, पुण्डरीकाक्ष व माधव तीन नामों के उच्चारण करने से विनष्ट हो जाएं।
शारीरं मे हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव।
पापं प्रशमयाद्य त्वं वाक्कृतं मम माधव॥14 ॥
भावार्थ- हे हषीकेश । हे पुण्डरीकाक्षा हे माधव मेरे जो भी शारीरिक अथवा वाचिक पाए हैं उन्हें आप शान्त कर दें।
विष्णावे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः।
नमामि विष्णं चित्तस्थमहंकारगतं हरिम्॥2 ॥

यद्भुञ्जन्यत्स्वपंस्तिष्ठन्गच्छञ्जाग्रद्यदा स्थितः।

कृतवान्पापमद्याहं काययेन मनसा गिरा ॥15 ॥

यत्स्वल्पमपि यत्स्थूलं कुयोनिनरकावहम् ।

तद्यातु प्रशमं सर्व वासुदेवानुकीर्तनात् ॥16 ॥

भावार्थ- मैंने भोजन करते हुए , सोते हुए , ठहरते हुए , चलते हुए , जागते हुए , बैठते हुए , जो कोई भी पाप शरीर , मन तथा वाणी से किया है , कुयोनि तथा नरक में गिराने वाले जो भी छोटे बड़े पाप हैं वे सब भगवान वासुदेव के नाम संकीर्तन से विनष्ट हो जाएं ।

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत्।
तस्मिन्प्रकीर्तिते विष्णौ यत्पापं तत्प्रणश्यतु ॥17 ॥
भावार्थ-हे जो परमधाम , परमब्राह्म तथा परमपवित्र है, उन भगवान विष्णु के नाम संकीर्तन से मरे जो भी पाप हों वे विनष्ट हो जाएं।
यत्प्राप्य न निवर्तन्ते गन्धस्पर्शादिवर्जितम् ।
सूरयस्तत्पदं विष्णोस्तत्सर्वं शमयत्वघम् ॥18 ॥
भावार्थ-दिव्यसूरिजन भगवान विष्णु के जिस गन्ध तथा स्पर्श आदि से रहित जिस पद को प्राप्त करके पुन : इस संसारचक्र में नहीं आते, वह मेरे पापों को प्रणष्ट करे।

पापप्रणाशनं स्तोत्रं  यः पठेच्छ्रणुयादपि।
शारीरैर्मानसैर्वाग्जैः कृतै पापैः प्रमुच्यते॥19 ॥
भावार्थ-इस पापविनाशक स्तोत्र को जो मनुष्य पढ़ता या सुनता है, वह अपने किए हुए शारीरिक, मानसिक व वाचिक पापों से मुक्त हो जाता है।

सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णां परं पदम्।
तस्मात्पापे कृते जप्यं स्तोत्रं सर्वाघमर्दनम् ॥20 ॥
भावार्थ-सभी पापों तथा ग्रहों से मुक्त होकर वह भगवान् विष्णु के परमपद को
जाता है । अतएव पाप करने पर इस सर्वपाप विनाशक स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।
प्रायश्चित्तमघौघाना स्तोत्र व्रतकृते वरम्।
प्रायश्चित्तै: स्तोत्रजपैर्व्रतैर्नश्यति पातकम्।
ततः कार्याणि संसिद्धय्य तानि वै भुक्तमुक्तये ॥21 ॥
भावार्थ-यह स्तोत्र पापों के प्रायश्चित के समान है, कृच्छ्र आदि व्रत करने वालों के लिए श्रेष्ठ है। प्रायश्चित्तों के करने, स्तोत्र का पाठ करने तथा व्रत करने से पाए नष्ट हो जाता है । अतएव उन्हें सिद्धि भोग तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रायश्चित्तों, स्तोत्रपाठों व व्रतों को करना चाहिए।

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