बद्रीनाथ धाम है मुक्तिधाम, जाने महिमा

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बद्रीनाथ धाम देश के पवित्रतम तीर्थो में से है। ये हिमालय में स्थित है। यह उत्तराखंड के बद्रीनाथ शहर में समुद्र तल से 3133 मीटर की उंचाई पर है। बद्रीनाथ मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है और माना जाता है कि उन्होंने इस पवित्र स्थान में तपस्या की थी। पौराणिक मान्यता के अनुसार जब देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को खुले में तपस्या करते देखा तो उन्हें विपरीत मौसम से बचाने के लिए बद्री वृृक्ष का रूप धर लिया, इसलिए मंदिर का नाम बद्री नारायण पड़ा। मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण गढ़वाल के राजाओं ने कराया था। भारत के उत्तर में, हिमालय की बर्फ से ढकी पर्वत श्रृंखलाओं की गोद में बसा पवित्र धाम बदरीनाथ समस्त हिन्दू जाति के लिए परम पवित्र व पूजनीय तीर्थस्थान है । हिंदू शास्त्रों के अनुसार, बदरीनाथ की यात्रा के बिना सारी तीर्थयात्राएं अधूरी हैं। बदरीनाथ एक मनोरम स्थल है ।बद्रीनाथ मंदिर को लेकर जो मान्यतायें हैं, हम उसी से अपने लेख की शुरुआत करने जा रहे हैं, बंद्रीनाथ धाम से सम्बन्धित इस लेख में हमने उन सभी पहलुओं को शामिल करने का प्रयास किया है, जो भक्तों की जिज्ञासाओं को शांत करने वाले हैं। उनके धर्म के प्रति ज्ञान को बढ़ा कर उनकी आस्था को मूर्त रूप देंगे। बद्रीनाथ मंदिर से सम्बन्धित मान्यताओ के अनुसार, जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हो रही थी , तो गंगा नदी 12 धाराओ में बट गयीं, इसलिए इस जगह पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से प्रसिद्ध हुई
और इस जगह को भगवान विष्णु ने अपना निवास स्थान बनाया और यह स्थान बाद में बद्रीनाथ कहलाया।
बद्रीनाथ मंदिर के बारे में एक मुख्य कहावत है कि-
जो जाऐ बद्री , वो ना आये ओदरी
अर्थात जो व्यक्ति बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है। उसे माता के गर्भ में नहीं आना पड़ता है।

हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में समुद्र – तल से लगभग 3122 मीटर की ऊंचाई पर लक्ष्मणगंगा और अलकनंदा के संगम स्थल के समीप यह पुण्यभूमि स्थित है । इस स्थान पर कभी ‘ बेर ‘ या ‘ बदरी ‘ की बेशुमार झाड़ियां थी , इसलिए इसे बदरीवन भी कहा जाता रहा है । यहां गर्म – ठंडे पानी के स्रोत भी हैं । शंकराचार्य के समय से इसे बदरीनाथ कहा जाता है । व्यासमुनि का जन्म भी बदरीवन में हुआ यहीं उनका आश्रम भी था । इसलिए वेदव्यास को बादरायण भी कहा जाता है । इसी आधार पर मुख्य मंदिर का नाम भी बदरीनाथ पड़ा । भारतीय संतों और महात्माओं ने उत्तराखंड की इस धरती को देवताओं और प्रकृति का मिलनस्थान माना है । कहा जाता है कि आदि युग में नर और नारायण ने त्रेतायुग में भगवान राम ने, द्वापरयुग में वेदव्यास ने तथा कलियुग में शंकराचार्य ने बदरीनाथ में धर्म और संस्कृति सूत्र पिरोये। बौद्धधर्म की स्थापना चीन ने भारत पर आक्रमण किया तथा बदरीनाथ को नष्ट – भ्रष्ट कर वहां स्थापित विष्णु – मूर्ति को नारद कुंड में डाल दिया । शंकराचार्य ने हिंदूधर्म के पुनरुत्थान के क्रम में उस प्रतिमा को उस कुंड से निकालकर गरुड़गुफा में स्थापित किया । चंद्रवंशी गढ़वाल नरेश ने यहां मंदिर – निर्माण कराया । उस मंदिर पर इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने सोने का शिखर चढ़ाया । तभी से यह तीर्थ भावात्मकता का आधार बना । दक्षिण के केरल के नंबूदरीपाद रावल ब्राह्मण ही इस प्रतिमा को छू सकते हैं तथा जगन्नाथपुरी उड़ीसा के तांबे के कड़े बदरीनाथ में चढ़ाए बिना भारत की तीर्थयात्रा पूरी नहीं होती।

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बदरीनाथ तीर्थस्थल का महत्त्व

बदरिकाश्रम में वास करने वाले विष्णुरूप हो जाते हैं । ऐसी मान्यता है कि लक्ष्मी जी यहा भोजन पकाती हैं और नारायण जी परोसते हैं । अतः सभी जाति धर्म और संप्रदाय के लोग एक पांत में बैठकर प्रसाद ग्रहण करते हैं । यात्रा और धार्मिक दृष्टि से बदरीनाथ का विशेष महत्त्व इसलिए भी है कि यह भारत का सबसे प्राचीन क्षेत्र है । इसकी स्थापना सतयुग में हुई । यहां प्राकृतिक सौंदर्य की दिव्यता के साथ – साथ आध्यात्मिक शांति भी मिलती है । यहा पूजा – अर्चना व दर्शन करके मानव पुनर्जन्म के बंधनों से मुक्त हो जाता है ।

मुख्य मंदिर और पर्वत शिखर

बदरीनाथ में नर और नारायण नाम के दो पर्वत शिखर है । इनके बीच पठारी स्थल पर यहां का मुख्य मंदिर स्थित है । मंदिर की पृष्ठभूमि में ऊंची नीलकंठ की चोटी बर्फ से ढंकी हुई दृष्टिगोचर होती है । बदरीनाथ विष्णु का धाम है । मंदिर अलकनंदा के दाहिने तट पर स्थित है । पत्थरों से बने मंदिर की ऊंचाई लगभग 15 मीटर है , जिसके ऊपर तीन स्वर्णकलश चमकते रहते हैं । मंदिर नारायण पर्वत की तलहटी पर अवस्थित है । इसका रंगीन बाहरी द्वार सिंहद्वार कहलाता है । इसकी सुंदरता व भव्यता देखने योग्य है । मुख्य मंदिर के दो प्रथम भाग है।

प्रथम भाग: में गरुड़, हनुमान और लक्ष्मी जी के छोटे – छोटे मंदिर स्थापित हैं । ये मंदिर प्रांगण के अंदर ही चारों ओर स्थित है । दूसरे भाग में श्री बदरीनारायण अर्थात विष्णु जी की काले पत्थर से निर्मित चतुर्भुजी प्रतिमा है । इनके मस्तक पर एक बड़ा हीरा  जड़ा हुआ है । इनके अगल बगल में  नर, नारायण, कुबेर, उद्धव व नारद की मुर्तियां स्थापित है . यही मुख्य वेदी है , जिसकी पूजा – अर्चना व  दर्शन करके मानव पुनर्जन्म के बंधनों से छूट जाता है । तीर्थयात्री श्री विष्णुजी को विभिन्न पूजाओं के लिए उचित दान देकर मंदिर के प्रबंधक से पर्ची प्राप्त करते हैं और उस पूजा की पंक्ति में लग जाते हैं । समय आने पर सभी यात्रियों को जिनके पास उस पूजा की पर्ची होती है। एक साथ प्रवेश दिया जाता है । मुख्य पुजारी भगवान की मूर्तियों का परिचय कराते हैं । इसके पश्चात सभी यात्रियों का नाम माइक पर पढ़कर सुनाते हैं और उसके बाद वह पूजा या पाठ प्रारंभ करते हैं , जैसे विष्णु सहस्त्र नाम आदि। ये पाठ सभी पूजारी श्रद्धा से करते हैं और यात्रीगण भी इसमें हिस्सा ले सकते हैं । मंदिर की  मूर्तियों के समक्ष एक छोटा सभा मंडप है जिसमें अनेक स्तंभ है और उन पर कसौटी पत्थर ( सोना परखने का पत्थर ) लगे हुए हैं यहाँ पर यात्री बैठकर पूजा करते हैं और दर्शनार्थी दर्शन करते हैं तथा प्रसाद आदि चढ़ाते हैं । मंदिर के पुजारी केवल केरल के नम्बूदरीपाद ब्राह्मण ही होते हैं और प्राचीनकाल से उनके वंशज ही  आज भी पूजा करते हैं । श्री बदरीनाथ मंदिर नारायण पर्वत की तलहटी में स्थित है और यहां पर्वत से प्रायः भारी हिमशिलाए खिसकती रहती हैं , परंतु आज तक मंदिर को हानि नहीं हुई है। श्री बदरीनाथ जी में पांच तौधे हैं , जो मंदिर के पास ही स्थित है –

1. तप्त कुंड: मुख्य मंदिर से नीचे उतरकर अलकनंदा नदी के किनारे एक छोटा कुंड स्थित है जो गर्म जल से भरा हुआ है । जल अत्यधिक गर्म है और यात्री कुछ मिनट ही इसमें स्नान कर पाते हैं । इस जल में नमक भी है । अतः प्राचीनकाल में जब यात्री पैदल यात्रा करके यहां पहुंचते थे तो इस कुंड में स्नान करने से पूरी थकान मिट जाती थी । इसी के पास महिलाओं हेतु अलग तप्त कुंड बना दिया गया है । यह चारों ओर से बंद है , जिससे महिलाएं इसका पूर्ण लाभ ले सकें । कुछ छोटे – छोटे कुंड और बना दिए गए हैं जिसमें ठंडा मिश्रित कम गर्म जल है और स्नान सरलता से हो जाता है और तप्त कुंड की भीड़ भी कम हो जाती है । मंदिर प्रशासन ने कुंड से लाकर अनेक बड़े – बड़े नल एक कतार में लग दिए हैं , जिसमें यात्री सुगमता से स्नान कर तप्त कुंड का लाभ प्राप्त कर लेते हैं ।

  1. प्रहलाद धारा: यह भी तप्त कुंड के समान गर्म जल की धारा वाला कुंड है, इसकी धारा एक कुंड में एकत्र कर ली जाती है पर इसका जल कम ऊष्म होता है
  2. कुर्मा धारा: इसका जल अत्यधिक ठंडा है और कुंडों के पास से ही बहती हुई अलकनंदा में मिल जाता है ।
  3. ऋषि गंगा: मंदिर के नीचे बहने वाली धार को ऋषि गंगा का नाम दिया गया है ।
  4. नारद कुंड : मंदिर के नीचे अलकनंदा से कुछ ऊपर एक कुंड है , जहां से श्री बदरीविशाल की मूर्ति निकाली गई थी । ऐसी मान्यता है कि अनेक प्राचीन मूर्तिया आज भी इसमें मौजूद हैं ।

श्री बदरीनाथ धाम के पास के तीर्थस्थल पास के तीर्थस्थल

बदरीनाथ धाम के आस – पास अनेक दर्शनीय स्थल है । सब तक पहुंचना संभव भी नहीं है । कहीं पर जाने की अनुमति भी नहीं है कुछ स्थल निम्न प्रकार हैं है

  1. ब्रह्म कपाल: तप्त कुंड से पहले सड़क पर आएं और वहां से कुछ दूर चलकर अलकनंदा के किनारे उतरने पर एक शिला स्थित है , जो ब्रह्म कपाल तीर्थ है और यात्री यहा पिंडदान करते हैं । इस तीर्थ के नीचे ही ब्रह्मकुंड है , जहां ब्रह्माजी ने तप किया था ।

2 चरण पादुका: मुख्य मंदिर के पीछे सीधे चढ़ने पर कुछ दूर चरण पादुका का स्थान आता है , यहा विष्णु भगवान के चरण – चिह्न हैं ।

3 उर्वशी मंदिर : चरण पादुका से ऊपर उर्वशी कुंड है, जहा से नल द्वारा जल बद्रीनाथ की दिया जाता है यहीं पास में उर्वशी का छोटा मंदिर है ।

  1. नीलकंठ शिखर: नारायण पर्वत के पीछे प्रात : यदि मौसम साफ हो तो एक तिकोनी अति सुंदर बर्फ की श्रेणी दिखलाई पड़ती है , जिसे नीलकंठ शिखर कहते हैं ।
  2. पंच शिला : ये पांच शिलाएं पृथक् – पृथक् स्थान पर स्थित हैं

( i ) गरुड़ शिला : जो अलकनंदा की ओर से मंदिर को स्थिरता प्रदान करती है , तप्त कुंड धारा इसी के नीचे से निकली है ।

( ii ) नारद शिला : तप्त कुंड से अलकनंदा की ओर जो बड़ी शिला है । वह नारद शिला है और इसी के नीचे नारद कुंड है ।

( iii ) मार्कंडेय शिला : अलकनंदा की धारा के मध्य में नारद कुंड के पास स्थित है ।

( iv ) नरसिंह शिला : नदी की धारा में सिंहाकार शिला है , जो नारद कुंड के पास ही है ।

( v ) वाराही शिला : अलकनंदा के जल में एक उच्च शिला है।

मुख्य मंदिर के आगे पर्वत श्रृंखलाओं में भी कुछ तीर्थस्थल हैं-
  1. माना घाटी : ये तिब्बत की ओर अंतिम ग्राम है । इस स्थान पर अनेक गुफाएं हैं । यहां पर भारतीय सेना के कैंप लगे हैं । यहां तक यात्री आ सकते हैं और निम्न तीर्थस्थलों का दर्शन कर सकते हैं ।
  2. व्यास गुफा : व्यास गुफा भी यहीं स्थित मानी जाती है , जहां ऋषि व्यास ने महाभारत की रचना की।
  3. मुचुकुंद गुफा : व्यास गुफा के पास पर्वत की चोटी पर यह गुफा स्थित है । ऐसा कहा जाता है कि श्रीकृष्ण भगवान के आदेश से मुचुकुंद राजा ने यहां घोर तप किया था।
  4. गणेश गुफा : यहां पर गणेशजी ने अपना लेखन संपन्न किया था।
  5. भीम शिला : माना के पास सरस्वती नदी की धारा अलकनंदा में मिलती है , वहीं अलकनंदा पर पुल के रूप में एक शिला रखी है , जिसे भीम शिला कहा जाता है ।
  6. वसुधारा प्रपात : सुरक्षा की दृष्टि से यहां जाने हेतु एस डी एम . जोशीमठ से अनुमति लेनी पड़ती है । मंदिर से लगभग पांच किलोमीटर पर एक जल प्रपात है , जिसमें जल कम गिरता है . बर्फ ज्यादा गिरती है । गर्मियों में इसके नीचे पूरा बर्फ का ग्लेशियर बन जाता है । यात्री यहां बर्फबारी का आनंद उठाते हैं । इसी ग्लेशियर से अलकनंदा की उत्पत्ति होती है ।
बदरीनाथ धाम की यात्रा मार्ग के तीर्थ

बदरीनाथ धाम की यात्रा वास्तव में ऋषिकेश से प्रारंभ होती है । तीर्थयात्री यहां से पैदल ही यात्रा करते थे और उन्हें मार्ग में अनेक तीर्थस्थल मिलते थे , जिनकी पूजा अर्चना करते हुए धाम की ओर प्रस्थान करते जाते थे । वर्तमान में चार पहिया वाहन बदरीनाथ धाम तक जाते हैं । अत : यात्री मार्ग के तीर्थस्थलों का लाभ नहीं उठा पाते हैं । जो यात्री निजी वाहन से जाते हैं , वे रास्ते में रुक – रुक कर प्रत्येक स्थान के दर्शन व पूजा – अर्चना कर सकते हैं । मार्ग के प्रत्येक तीर्थ स्थलों पर ठहरने व खान – पान की  उचित व्यवस्था है । जोशीमठ तक की यात्रा में निम्न तीर्थस्थल हैं

पंच प्रयाग : यात्रा मार्ग में जहां दो पवित्र नदियों का संगम होता है , उसे प्रयाग कहा जाता है और इस मार्ग में पांच स्थानों पर संगम होता है , अत : इसे पंच प्रयाग का नाम दिया गया है । ये निम्न हैं :

( i ) देव प्रयाग : यहां अलकनंदा नदी व भागीरथी नदी का संगम होता है । यहीं से गंगा नदी बन कर हरिद्वार व अन्य स्थानों तक प्रवाहित हो जाती है । इस संगम स्थल पर रघुनाथ जी का मंदिर स्थापित है ।

( ii ) रुद्रप्रयाग : यहां अलकनंदा नदी , मंदाकिनी नदी से मिलती है और संगम स्थल पर शिव मंदिर है तथा स्नान आदि की भी व्यवस्था है ।

( iii ) कर्णप्रयाग: यहां अलकनंदा नदी का मिलन पिंडा नदी से होता है ।

( iv ) नंद प्रयाग : यहां अलकनंदा नदी और मंदाकिनी नदी का संगम स्थल है ।

( v ) विष्णु प्रयाग : यहां अलकनंदा का संगम धौलीगंगा से होता है ।

जोशीमठ: पंच प्रयाग की यात्रा करके यात्रीगण जोशीमठ पहुंचते हैं । पहले इस स्थान का महत्त्व इस कारण था कि यहां से धाम तक पैदल जाना पड़ता था । यहां पर ठहरने की अच्छी व्यवस्था तब भी थी और आज भी है । यहां पर अनेक दर्शनीय तीर्थस्थल स्थापित हैं । वर्तमान में वाहन कुछ देर के लिए ही यहां रुकते हैं और उसके पश्चात् सीधे बदरीनाथ धाम तक चले जाते हैं । यहां के मुख्य दर्शनीय स्थल निम्न हैं :

श्री शंकराचार्य का मठ: यहां उत्तराखंड के शकंराचार्य का प्रसिद्ध मठ है जो दर्शनीय है ।

नरसिंह मंदिर : यहां भगवान नरसिंह जी की अद्भुत मूर्ति है जिसकी एक भुजा बहुत पतली है और यह निरंतर पतली होती जा रही है । ऐसा कहा जाता है कि जिस दिन यह हाथ मूर्ति से पृथक् हो जाएगा, उस दिन नर व नारायण पर्वत आपस में मिलकर बदरीनाथ का मार्ग बंद कर देंगे । उसके पश्चात् भविष्य बदरी के दर्शन किए जाएंगे ।

तपोवन व भविष्य बदरी; जोशीमठ से लगभग दस किलोमीटर पर एक सुंदर वन है , जहां गर्म जल का कुंड भी है और इसी के पास एक विष्णु मंदिर है । जहां नवीन विष्णु मूर्ति का प्राकृतिक रूप से निर्माण हो रहा है । इसी को भविष्य बदरी कहा जाता है । जब वर्तमान बदरीनाथ का मार्ग बंद हो जाएगा तो भविष्य बदरीनाथ की पूजा अर्चना प्रारंभ हो जाएगी। इसी के पास एक लता देवी मंदिर भी स्थित है । इस स्थान के वन को ही तपोवन कहते हैं , जहां पैदल ही जाना पड़ता है ।

अन्य मंदिर : जोशीमठ में अनेक देवी – देवताओं के छोटे – बड़े मंदिर स्थित हैं , जो दर्शनीय हैं । यहा से सात किलोमीटर पर वृद्ध बद्री नाम का मंदिर स्थित है । कर्णप्रयाग के पास ही आदि बदरी का मंदिर स्थित है ।

गोविंद घाट या पांडुकेश्वर

जोशीमठ यात्रा का प्रथम ठहराव गोविंदघाट होता है . जहा ध्यान बदरी या योग बदरी का मंदिर है तथा माना जाता है कि पांडवों का जन्म यहा हुआ था । इसकी जोशीमठ से दूरी 207 किलोमीटर है। यहां से यात्री पुष्प घाटी व गुरुद्वारा हेमकुंड की यात्रा भी कर सकते हैं । हेमकुंड साहिब यहां से ग्यारह किलोमीटर पैदल मार्ग है । घोड़ों से भी यात्री जा सकते हैं । वहां पर सिखों का पवित्र गुरुद्वारा है , जहा ठहरने हेतु धर्मशालाएं हैं। हेमकुंड साहिब के पास ही फूलों के घाटी स्थित है , जहां प्राकृतिक रूप से इतने विभिन्न प्रकार के पुष्प खिलते हैं कि उनका वर्णन संभव नहीं है। इस स्थान की खोज एक अंग्रेज नागरिक ने की थी ।

हनुमान चट्टी :  दूसरा ठहराव हनुमान चट्टी होता है . जहां एक प्राचीन छोटा हनुमान मंदिर है । यहाँ सभी वाहन आवश्यक रूप से रुक कर तथा प्रसाद ग्रहण  करके ही आगे की यात्रा प्रारंभ करते हैं । गोविंद घाट से इसकी दूरी 13 किलोमीटर है ।

विशाल बदरी व बदरीनाथ धाम:  वाहनों का अंतिम पड़ाव बदरीनाथ धाम के मंदिर के सामने अलकनंदा नदी की तरफ होता है । यहां से विशाल मंदिर के दर्शन होते हैं । पंच बदरी में बदरी विशाल पांचवां मंदिर है । हनुमान चट्टी से दूरी 2 किलोमीटर है । सभी वाहन प्रात : ऋषिकेश से चलकर पीपल कोटि या जोशीमठ में रात्रि विश्राम करके दूसरे दिन दोपहर तक ही बदरीनाथ धाम पहुंच पाते हैं । ( प्राचीन मार्ग स्थिति )

ठहरने के साधन

मार्ग में तथा मुख्य धाम और जोशीमठ में यात्रियों के ठहरने के लिए अनेक धर्मशालाएं और अतिथि निवास बने हैं । इसके अलावा स्थानीय पंडों द्वारा भी यात्रियों के रहने की व्यवस्था की जाती है । ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यहां मई – जून में भी काफी ठंड पड़ती है । अतएव गर्म ऊनी कपड़ों की आवश्यकता पड़ती है । यहां की भाषा हिंदी और पर गढवाली है ।

यात्रा मार्ग

वायु मार्ग हेतु जालीग्रांट हवाई अड्डा ही है . जहा से बदरीनाथ 317 किलोमीटर दूर है ।

रेल मार्ग हेतु पास का स्टेशन ऋषिकेश है , जहां से बदरी धाम की दूरी 293 किलोमीटर है । दूसरा मुख्य स्टेशन हरिद्वार है , जहां से बदरीनाथ धाम की दूरी 332 किलोमीटर है । काठगोदाम स्टेशन से भी कर्ण प्रयाग होते हुए बदरीनाथ धाम जाया जा सकता है । हरिद्वार सबसे सुविधाजनक स्थान है , जहां पर रेल से उतर कर बस , टैक्सी आदि से बदरीनाथ जाया जा सकता है । बदरीनाथ जाने के तीन मार्ग हैं

  1. हरिद्वार व ऋषिकेश से सड़क मार्ग द्वारा डेढ़ दिन में बदरीनाथ पहुंचा जाता है । यह सबसे सुविधाजनक रास्ता है ।

2 कोटद्वार से लखनऊ , देहरादून या पंजाब जाने वाली रेलें नजीबाबाद स्टेशन पर रुकती हैं । यहां से कोटद्वार स्टेशन 15 किलोमीटर है तथा रेल बदलनी पड़ती है । कोटद्वार से बसें वाया पौड़ी गढ़वाल होते हुए श्रीनगर गढ़वाल पहुंचती हैं , जहां से हरिद्वार बदरीनाथ मार्ग पकड़ लेती हैं । यह मार्ग कष्टकारी है । चढ़ाई ज्यादा हेने के कारन यात्री परेशान हो जाते है तथा समय भी  दो दिन लगता है ।

3 काठगोदाम यह नैनीताल , अल्मोड़ा रानीखेत जाने हेतु एक स्टेशन पड़ता है । यह पहाडों की तलहटी पर बसा है । यहां से पहाड़ों के रास्ते बसें रानीखेत होकर कर्णप्रयाग पहुंचती हैं । रास्ता सुंदर पर कठिन है । यदि यात्री रानीखेत भ्रमण करना चाहें तो इस मार्ग को अपना सकते हैं । कर्णप्रयाग से हरिद्वार मार्ग आ जाता है , जहां से दूरी मात्र 125 किलोमीटर रह जाती है ।

सावधानियां

1 मई में पर्याप्त ऊनी वस्त्र ले जाने चाहिए ।

  1. जून से सितंबर तक सामान्य ऊनी वस्त्र पर्याप्त होते हैं ।

3 अक्तूबर से नवंबर तक काफी ऊनी वस्त्रों की आवश्यकता होती है ।

4 सूखा खाद्य पदार्थ साथ ले जाना सुविधाजनक रहता है ।

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