भगवान शिव, जिन्हें महादेव, शंकर, भोलेनाथ और पशुपतिनाथ जैसे अनेक नामों से जाना जाता है, सनातन धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक हैं । उन्हें सृष्टि के संहारकर्ता, पालक और आदि स्रोत के रूप में पूजा जाता है । उनके विविध स्वरूप उनकी अनंत लीलाओं और ब्रह्मांडीय भूमिकाओं को दर्शाते हैं। यह रिपोर्ट भगवान शिव के ‘गिरीश’ स्वरूप पर केंद्रित है, जो उनकी स्थिरता, अचल प्रकृति और कैलाश पर्वत से उनके गहरे संबंध का प्रतीक है। इस विश्लेषण में, गिरीश स्वरूप को प्रसन्न करने वाले विशिष्ट मंत्रों, उनके अर्थ, महत्व और जाप की विधि पर विस्तृत चर्चा की गई है, ताकि भक्तगण श्रद्धा और ज्ञान के साथ अपनी उपासना कर सकें।
भगवान शिव का ‘गिरीश’ स्वरूप उनकी अद्वितीय विशेषताओं और ब्रह्मांडीय भूमिका को दर्शाता है। यह नाम और उससे जुड़े गुण शिव की गहन दार्शनिक स्थिति को उजागर करते हैं।
“गिरीश” शब्द दो संस्कृत शब्दों के मेल से बना है: ‘गिरि’ जिसका अर्थ है ‘पहाड़’, और ‘ईश’ जिसका अर्थ है ‘स्वामी’ या ‘भगवान’ । इस प्रकार, गिरीश का शाब्दिक अर्थ “पहाड़ों के स्वामी” या “पर्वतों के भगवान” है । यह नाम विशेष रूप से भगवान शिव के निवास स्थान कैलाश पर्वत से उनके घनिष्ठ संबंध को दर्शाता है, जिसे अक्सर “हिमगिरि” (बर्फ का पहाड़) के रूप में वर्णित किया जाता है । यह नामकरण शिव के उस स्वरूप को इंगित करता है जो पर्वतों की विशालता और स्थिरता को धारण करता है।
कैलासशिखरप्रोद्यन्मणिमण्डपमध्यग:
गिरिशो गिरिजाप्राणवल्लभोऽस्तु सदामुदे ॥ ( शैवागम )
‘ कैलास के उच्चतम शिखर पर मणिमण्डप के मध्य में स्थित, पार्वती के प्राण वल्लभ भगवान् गिरीश सदा हमें आनन्द प्रदान करें। ‘
भगवान् शिव के निवास का वर्णन तीन स्थानों पर मिलता है। प्रथम भद्रवट – स्थान जो कैलास के पूर्व की ओर लौहित्यगिरि के ऊपर है। दूसरा स्थान कैलास पर्वत पर और तीसरा पूँजवान पर्वत पर है। वैसे तो भगवान् शंकर वैराग्य और संयम की प्रतिमूर्ति हैं, किन्तु उनकी सम्पूर्ण लीलाएँ कैलास पर सम्पन्न होने के कारण कैलास पर्वत उन्हें विशेष प्रिय है। कैलास पर्वत पर भगवान् रुद्र अपने तीसरे स्वरूप गिरीश के नाम से प्रसिद्ध हैं। शैवागम में तीसरे रुद्र का नाम गिरीश बताया गया है। कैलास पर्वत पर भगवान् रुद्र के निवास के दो कारण हैं। पहला कारण अपने भक्त तथा मित्र कुबेर को उनके अलकापुरी के सन्निकट रहने का दिया गया वरदान है और दूसरा कारण रुद्र की प्राणवल्लभा उमाका गिरिराज हिमवान के यहाँ अवतार है।
शिवपुराण एवं कालिदास के अनुसार जब भक्ति की प्रत्यक्ष प्रतिमा स्वरूपा भगवती सती ने प्रेम भक्ति का आदर्श दिखलाकर अपने उपास्यदेव भगवान् गिरीश के अनुकूल देह प्राप्त करने के लिए गिरिराज हिमालय की महिसि मेनका देवी की कुक्षि के माध्यम अवतार लिया और शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह उत्तरोत्तर युवावस्था की ओर बढ़ने लगीं, तब ठीक उसी समय महादेव गिरीश भी हिमालय के उसी प्रान्त में तपस्या के लिये पदार्पण किये। भगवान् गिरीश रुद्र तो विश्व – ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों की तपस्या के फलदाता हैं । भगवान् रुद्र को तपस्या की भला क्या आवश्यकता है? कालिदास कहते हैं कि आप्तकाम रुद्र ने भक्तिरूपा प्रेममूर्ति पार्वती देवी की मनोकामना पूर्ण करने के लिये ही हिमालय पर अपनी तपोलीला को प्रारम्भ किया था।
हिमवान्ने जब सुना कि जो सबके पूज्य हैं तथा देवता लोग भी जिन भगवान् गिरीश की नित्य पूजा किया करते हैं, वह स्वयं आकर हिमालय पर तपस्या कर रहे हैं, तब गिरिराज ने उनकी तपस्या के अनुकूल सेवा के लिये अपनी प्रिय कन्या पार्वती को नियुक्त किया। वह सुकेशी पार्वती पिता की इच्छानुसार महादेव गिरीश रुद्र की पूजा के लिये स्वयं ही पुष्प – चयन करती, आसन और वेदिकाको साफ – सुथरा रखती, जल और कुशादिका संग्रह करती थी। भगवती पार्वती द्वारा भगवान् गिरीश रुद्र की यह प्रेम भक्तिपूर्ण सेवा थी, इसमें कामनाकी कहीं गन्धमात्र भी न थी। महाकवि कालिदास के अमरकाव्य कुमार सम्भव और शिवपुराण में देवी पार्वती की इस भक्तिमयी सेवा का बड़ा ही सजीव चित्रण किया गया है। वास्तव में कामारि शंकर का पार्वती जी की भक्ति – कामना को सिद्ध करने के लिये जो तप – निरत स्वरूप है, वही गिरीश रुद्र का करुणामय रूप है।
आधिभौतिक रूप में इन्हीं भगवान् गिरीश की अग्निमूर्ति ( तेजोलिङ्ग ) अरुणाचल में अवस्थित है। कहा जाता है कि एक बार पार्वती जी ने भगवान् शंकर के नेत्रों को कौतुक में अपने हाथों से बन्द कर दिया, जिससे सर्वत्र अन्धकार गया, क्योंकि सूर्य और चन्द्र भगवान् रुद्र के नेत्र हैं| इससे सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों के प्राणों के लिये संकट उपस्थित हो गया| इसके पश्चात् प्रायश्चित्तस्वरूप पार्वती जी ने शिवकाञ्ची और अरुणाचल में कठोर तपस्या की । तदनन्तर अग्नि शिखा के रूप में तेजःस्वरूप एक अलौकिक लिङ्ग का प्रादुर्भाव हुआ। जिससे जगत का अन्धकार दूर हो गया। यही अग्नि स्वरूप गिरीश रुद्र का तेजोलिङ्ग है । कार्तिक पूर्णिमा के समय यहाँ दर्शनार्थियों की अपार भीड़ होती है।
शिवजी का दुर्वासावतार
अनसूया के पति ब्रह्मवेत्ता अत्रि ने एक बार पुत्र – कामना से पत्नी के साथ ऋक्षकूल पर्वत पर जाकर कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवता प्रकट हुए। त्रिदेवों ने कहा – ‘ अत्रि ! हम तुम्हारी तपस्या से परम प्रसन्न हैं। तुम अपने इच्छानुसार वर माँगो। हम त्रिदेवों के पास तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है। ‘ अत्रिने त्रिदेवों से उन्हीं के समान पुत्र की याचना की। त्रिदेव उनके यहाँ समय आने पर पुत्र रूप में प्रकट होने का वर देकर अन्तर्धान हो गये।
ब्रह्माजी के अंश से चन्द्रमा और विष्णु के अंश से दत्त उत्पन्न हुए। दत्तजी संन्यास – पद्धति को प्रचलित करने वाले माने जाते हैं। रुद्र के अंश से महामुनि दुर्वासा का अवतार हुआ। इन्होंने भगवन के भक्त की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिये एक बार भगवान् विष्णु के परम भक्त महाराज अम्बरीष की परीक्षा ली थी। एक दिन एकादशी व्रत के पारण के पूर्व महाराज अम्बरीष ने दुर्वासा जी को भोजन के लिये आमन्त्रित किया। इन्हें पहुँचने में विलम्ब हो गया। पारण का समय निकल रहा था। ब्राह्मणों की सलाह पर महाराज अम्बरीष ने भगवन के चरणामृत और तुलसी से पारण कर लिया। दुर्वासा जी ने जब सुना कि अम्बरीष ने बिना उनको भोजन कराये ही पारण कर लिया है, तब उन्होंने क्रोध में आकर कृत्या को प्रकट किया और उसे अम्बरीष को भस्म करने का आदेश दिया। पहले से ही अम्बरीष की रक्षा में तत्पर सुदर्शन चक्र ने कृत्या को भस्म कर दिया। उस समय शिवजी के आदेश से अम्बरीष के प्रार्थना करने पर सुदर्शन चक्र शान्त हुआ।
दुर्वासा जी ने भगवान् श्रीराम की भी परीक्षा की। एक बार यमराज मुनिवेष धारण करके श्रीराम के पास आये। उन्होंने श्रीराम के सामने यह शर्त रखी कि हमारे और आपके बीच वार्ता के समय यहाँ किसी को भी नहीं आना चाहिये। आप ऐसा आदेश कर दें कि यहाँ वार्ता के बीच यदि कोई आ जायगा तो उसे प्राणदण्ड मिलेगा। उसी समय अचानक कहीं से दुर्वासा जी आ गये और उन्होंने हठ करके वहाँ लक्ष्मण को भेज दिया , जिसके कारण श्रीराम ने तुरन्त लक्ष्मण का त्याग कर दिया। इन्होंने श्रीकृष्ण की परीक्षा की और उनको श्रीरुक्मिणी सहित रथ में जोता।
एक बार दुर्वासा दुर्योधन के यहाँ पहुँचे। दुर्योधन ने इनका कई दिनों तक यथोचित सत्कार किया। इन्होंने प्रसन्न होकर दुर्योधन से वर माँगने के लिये कहा। उसने दुर्वासा से वन में रहने वाले पाण्डवों के पास पहुंचकर उस समय भिक्षा करने का अनुरोध किया, जब पाण्डवों सहित द्रौपदी भोजन कर चुकी हो। दुर्वासाने दुर्योधन से पाण्डवों के पास उसी समय पहुँचने का वचन दिया। एक दिन पाण्डवों सहित द्रौपदी के भोजन कर लेने के बाद यह पाण्डवों के पास पहुंचे और उनसे बोले – ‘ मैं अपने शिष्यों सहित स्नान करने के बाद तुम्हारे यहाँ आ रहा हूँ। तुम तत्काल मेरे लिये भोजन की व्यवस्था करो। ‘ द्रौपदी के भोजन कर लेने के कारण सूर्य के द्वारा प्राप्त अक्षय पात्र खाली हो चुका था। पाण्डवों के पास दुर्वासा के कोप से बचने का कोई उपाय नहीं बचा था। अन्त में द्रौपदी ने श्रीकृष्ण को याद किया और उन्होंने पहुंचकर दुर्वासा के कोप से पाण्डवों की रक्षा की। इस प्रकार दुर्वासा मुनि ने अनेक विचित्र चरित्र किये।
गिरीश स्वरूप को प्रसन्न करने वाले विशिष्ट मंत्र
भगवान शिव के गिरीश स्वरूप को प्रसन्न करने के लिए कई मंत्र और स्तोत्र उपलब्ध हैं, जो उनके गुणों और महिमा का गान करते हैं।
1. “महादेव शंभो गिरीश त्रिशूल स्व इदम…” मंत्र
“महादेव शंभो गिरीश त्रिशूल स्व इदम…” मंत्र शिव भुजंगम स्तोत्र का एक भाग है, जिसकी रचना आदि शंकराचार्य ने की थी ।
इस मंत्र का पूर्ण पाठ इस प्रकार है: “ओ ओ ओ महादेव शंभो गिरीश त्रिशूल स्व इदम. समस्त विभाती ति य. स्मा. शिवा दन्य था दैव तम ना अभि. जाने.”
यह मंत्र भगवान शिव के परम स्वरूप को नमस्कार करता है।
- जाप के लाभ और महत्व: इस मंत्र का जाप शिव के प्रति गहरी श्रद्धा और एकाग्रता को बढ़ाता है। यह मानसिक शांति और स्थिरता प्रदान करता है, क्योंकि यह गिरीश के अचल स्वरूप का स्मरण कराता है। यह भक्तों को शिव के कल्याणकारी और सर्वव्यापी स्वरूप से जुड़ने में मदद करता है।
2. “गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं…” (वेदसारशिवस्तोत्रम् से)
यह श्लोक शिव के अनेक महत्वपूर्ण गुणों और स्वरूपों का एक साथ स्मरण कराता है, जिससे भक्त को शिव के समग्र रूप का अनुभव होता है।
- श्लोक का पूर्ण पाठ: “गिरीशं गणेशं गले नीलवर्णं गवेन्द्राधिरूढं गुणातीतरूपम्। भवं भास्वरं भस्मना भूषिताङ्गं भवानीकलत्रं भजे पञ्चवक्त्रम्।”
- वेदसारशिवस्तोत्रम् के संदर्भ में विस्तृत अर्थ: यह श्लोक वेदसारशिवस्तोत्रम् का तीसरा श्लोक है, जो आदि शंकराचार्य द्वारा रचित एक शक्तिशाली स्तोत्र है ।
- गिरीशं: कैलाशपति, पहाड़ों के स्वामी ।
- गणेशं: गणों के स्वामी (शिवगणों के अधिपति) ।
- गले नीलवर्णं: नीलकंठ, जिन्होंने विषपान किया ।
- गवेन्द्राधिरूढं: धर्म स्वरूप वृषभ (बैल नंदी) पर आरूढ़ ।
- गुणातीतरूपम्: अगणित गुणों वाले, गुणों से परे ।
- भवं भास्वरं: संसार के आदि कारण, प्रकाश स्वरूप ।
- भस्मना भूषिताङ्गं: भस्म से अलंकृत शरीर वाले ।
- भवानीकलत्रं: भवानी (पार्वती) जिनकी अर्धांगिनी हैं ।
- भजे पञ्चवक्त्रम्: मैं उन पंचमुख महादेव को भजता हूँ ।
- जाप के लाभ और महत्व: वेदसारशिवस्तोत्रम् का पाठ शत्रुओं से रक्षा, अद्भुत शक्ति का संचार, आत्मविश्वास में वृद्धि और लंबे समय से बीमार व्यक्ति को ठीक करने वाला माना जाता है ।
3. “गिराज्ञान गोतीत मीशं गिरीशं…” (रुद्राष्टकम से)
यह श्लोक शिव के असीम, निराकार और सर्व-नियंत्रक स्वरूप का ध्यान कराता है, जिससे भक्त को आध्यात्मिक उन्नति और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
- श्लोक का पूर्ण पाठ: “निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ज्ञान गोतीत मीशं गिरीशं॥ करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥”
- रुद्राष्टकम के संदर्भ में विस्तृत अर्थ: यह श्लोक रुद्राष्टकम का दूसरा श्लोक है, जो भगवान शिव की स्तुति में एक अत्यंत लोकप्रिय और प्रभावशाली स्तोत्र है ।
- निराकारमोंकारमूलं तुरीयं: निराकार, ओंकार के मूल (स्रोत), और तुरीय (तीनों गुणों – सत्व, रज, तम – से परे) ।
- गिरा ज्ञान गोतीत मीशं: वाणी, ज्ञान और इंद्रियों से परे ईश्वर ।
- गिरीशं: कैलाशपति (पहाड़ों के स्वामी) ।
- करालं महाकाल कालं: विकराल, महाकाल के भी काल (समय को भी नियंत्रित करने वाले) ।
- कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहं: कृपालु, गुणों के धाम, संसार (जन्म-मृत्यु के चक्र) से परे परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ ।
- जाप के लाभ और महत्व: रुद्राष्टकम का पाठ शिव की कृपा प्राप्त करने और सभी कष्टों को दूर करने में सहायक माना जाता है ।
Table 1: गिरीश स्वरूप के प्रमुख मंत्र और उनके संक्षिप्त अर्थ
शिव सहस्रनाम में गिरीश नाम का उल्लेख
शिव सहस्रनाम भगवान शिव के एक हजार नामों का संग्रह है, जो उनके विभिन्न गुणों, स्वरूपों और लीलाओं का वर्णन करते हैं। इन नामों में ‘गिरीश’ और उससे संबंधित अन्य नाम भी शामिल हैं, जो शिव के पर्वतों से संबंध को दर्शाते हैं।
गिरीश नाम की स्थिति और उसका महत्व
शिव सहस्रनाम में “गिरीश” नाम स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। उदाहरण के लिए, शिवपुराणान्तर्गत शिवसहस्रनामस्तोत्रम् में “गिरीशो गिरिजाधवः” (गिरीश जो गिरिजापति हैं) नाम संख्या 9 पर आता है । अन्य संबंधित नाम जैसे “गिरिरुह” (पर्वत पर रहने वाले) श्लोक संख्या 21 में पाया जाता है । “नित्य गिरी चरोमः” (नित्य पर्वत पर विचरण करने वाले) भी शिव सहस्रनाम का हिस्सा है । ये नाम शिव के कैलाश पर्वत पर निवास, उनकी स्थिरता और तपस्वी प्रकृति को सुदृढ़ करते हैं ।
सहस्रनाम में ‘गिरीश’ नाम और उससे संबंधित नामों की उपस्थिति शिव के व्यापक धार्मिक और भक्ति ढांचे को दर्शाती है। शिव सहस्रनाम, अपने स्वभाव से, दिव्य गुणों का एक व्यापक संग्रह है। इस विशाल संग्रह में “गिरीश” का समावेश इसके मौलिक महत्व को दर्शाता है, न कि केवल एक छोटे या अलग विशेषण के रूप में। यह इंगित करता है कि “पहाड़ों के भगवान” होने का गुण शिव की पहचान की एक मुख्य विशेषता है, जो उनके तप, स्थिरता और प्राकृतिक दुनिया पर सर्वोच्च प्रभुत्व का प्रतिनिधित्व करता है। सहस्रनाम का जाप करना, या उसमें गिरीश जैसे विशिष्ट नामों पर ध्यान करना, शिव के विभिन्न दिव्य गुणों की समग्र समझ और उनसे जुड़ाव प्रदान करता है। यह इस विचार को पुष्ट करता है कि उनके सभी रूप और गुण आपस में जुड़े हुए हैं और समान रूप से पूजनीय हैं। भक्त के लिए, गिरीश का आह्वान करना सर्व-समावेशी शिव के एक विशिष्ट पहलू का आह्वान करना है, जिससे उनकी भक्ति अभ्यास और देवता के बहुआयामी स्वरूप के प्रति उनकी सराहना गहरी होती है।
#गिरीश, #भगवानशिव, #कैलाश, #ShaivAgama, #Rudra, #Parvatiभक्ति, #GirishRudra,Girish Shiva, Kailash Shikhara, Shaivagama का रुद्र, कैलास पर्वत शिव, गिरीश तृतीय रुद्र, पार्वती भक्ति, तेजोलिङ्ग अरुणाचल, शिव पुराण कथाएं
भगवन शिव का शम्भु स्वरुप : लीला विस्तार को उत्पन्न किये विष्णु- ब्रह्मा










