भगवन शिव का शम्भु स्वरुप : लीला विस्तार को उत्पन्न किये विष्णु- ब्रह्मा

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शम्भु स्तुति

शम्भु

न जानामि योगं जपं नैव पूजां
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो। 

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श्रोत – श्रीरुद्राष्टकम् – 8

भावार्थ-    मै न तो योग जानता हूं, न जप और न पूजा ही. हे शम्भो, मैं तो सदा-सर्वदा आप को ही नमस्कार करता हूं. हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म के दु:ख समूहों से जलते हुए मुझ दुखी की दु:खों से रक्षा कीजिए. हे शम्भो, मैं आपको नमस्कार करता हूं.

श्रुति का कथन है कि एक ही रुद्र हैं जो सभी लोकों को अपनी शक्ति से संचालित करते हैं, अतएव वही ईश्वर हैं, वही सबके भीतर अन्तर्यामी रूप से स्थित हैं। आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक रूप से उनके ग्यारह पृथक् – पृथक् नाम श्रुति, पुराण आदि में प्राप्त होते हैं ।

शतपथब्राह्मण के चतुर्दशकाण्ड ( बृहदारण्यकोपनिषद् ) पुरुष के दस प्राण और ग्यारहवाँ आत्मा एकादश आध्यात्मिक रुद्र बताये गये हैं। अन्तरिक्षस्थ वायुप्राण ही हमारे शरीर में प्राणरूप होकर प्रविष्ट है और वही शरीर के दस स्थानों में कार्य करता है, इसलिये उसे रुद्रप्राण कहते हैं। ग्यारहवाँ आत्मा भी रुद्र प्राणात्मा के रूप में जाना जाता है। आधिभौतिक रुद्र पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, यजमान, पवमान, पावक और शुचि नाम से कहे गये हैं। इनमें आदि के आठ शिव की अष्टमूर्ति कहलाते हैं, शेष पवमान, पावक और शुचि घोर रूप है। आधिदैविक रुद्र तारा मण्डलों में रहते हैं। विभिन्न पुराणों में इनके भिन्न – भिन्न | नाम तथा उत्पत्तिके भिन्न – भिन्न कारण मिलते हैं ।

इस प्रकार भगवान् रुद्र  ही सृष्टि के आदि कारण हैं तथा सृष्टि के कण – कण में विद्यमान हैं।

ब्रह्मविष्णुमहेशानदेवदानवराक्षसाः

यस्मात् प्रजज्ञिरे देवास्तं शम्भुं प्रणमाम्यहम् ।। ( शैवागम )

‘ ब्रह्मा , विष्णु , महेश, देव, दानव , राक्षस जिनसे उत्पन्न हुए तथा जिनसे सभी देवों की उत्पत्ति हुई, ऐसे भगवान् शम्भु को मैं प्रणाम करता हूँ। ‘ भगवान् रुद्र ही इस सृष्टिके सृजन, पालन और संहारकर्ता हैं। शम्भु , शिव, ईश्वर और महेश्वर आदि नाम उन्हीं के पर्याय शब्द अर्थात् नाम हैं।

 

एक एवं रुद्रोऽवतस्थे न द्वितीयः ‘

और

‘ असंख्याता : सहस्त्राणि ये रुद्रा अधिभूम्याम् ‘

इस प्रकार एक रुद्र और असंख्यात रुद्रों के वर्णन तन्त्र – ग्रंथो में प्राप्त होते हैं।

इसका अभिप्राय यह है कि एक रुद्र अधिनायक ( मुख्य ) है और शेष रुद्र उनकी प्रजा हैं। पुराणों में इनकी उत्पत्ति का कारण प्रजापति के सृष्टि रच पाने की असमर्थता पर उनके मन्यु ( क्रोध ) और अश्रु को बताया गया है।

शिवपुराण में , देवताओं के असुरों से पराजित हो जाने के बाद कश्यप की प्रार्थना पर कश्यप और सुरभि के द्वारा इनके अवतार का वर्णन है। शैवागम में एकादश रुद्रों का नाम – शम्भु, पिनाकी, गिरीश, स्थाणु, भर्ग, सदाशिव, शिव, हर, शर्व, कपाली तथा भव बतलाया गया है।

एक समय आनन्दवन में रमण करते हुए आदि एवं प्रथम रुद्र भगवान् शम्भु के मन में एक – से – अनेक होने की इच्छा हुई। फिर उन्होंने अपने वाम भाग के दसवें अंग पर अमृत मलकर विष्णु को तथा दक्षिण भाग से ब्रह्मा को उत्पन्न किया। कुछ समय के बाद रुद्रमाया से मोहित होकर विष्णु और ब्रह्मा ने अपने कारण की खोज की, तब एक आदि – अन्तहीन ज्योतिर्लिङ्ग का दर्शन हुआ, जिसके ओर – छोर का पता लगाने में दोनों असमर्थ रहे। विष्णु और ब्रह्मा के स्तुति करने पर अपनी शक्ति उमा देवी के साथ भगवान् शम्भु प्रकट हुए।

उन्होंने ब्रह्मा से कहा कि मेरी आज्ञा से तुम सृष्टि का निर्माण करो और विष्णु उसका पालन करें। मेरे अंश से प्रकट होने वाले रुद्रदेव इस सृष्टि का संहार करेंगे। मैं ही इस सृष्टि का आदि कारण हूँ तथा तुम दोनों के रति – काल रुद्र भगवान् शम्भु को आधिभौतिक पृथ्वी – मूर्ति एकाग्र नाथ साथ रुद्र और सम्पूर्ण देव, दानव एवं राक्षसों का सृजनकर्ता हूँ। भगवान्  विष्णु मेरे बायें अंग से तथा तुम दाहिने अंग से प्रकट हुए हो, उसी प्रकार रुद्र मेरे हृदय से प्रकट होंगे। ऐसा कहकर भगवान् शम्भु अन्तर्धान हो गये।

प्रथम रुद्र भगवान् शम्भु की आधिभौतिक पृथ्वी – मूर्ति एकामनाथ ( क्षिति – लिङ्ग ) -के नाम से शिवकाञ्ची में है।

इस दिव्य विग्रह पर जल नहीं चढ़ाया जाता है, अपितु इसे चमेली के तेल से स्नान कराया जाता है। प्रति सोमवार को भगवान्की सवारी निकलती है। भगवती पार्वती ने शिवकाञ्ची में इस क्षिति – लिङ्ग की प्रतिष्ठा करके शम्भु – रुद्र की उपासना की थी। इस लिङ्ग के दर्शन मात्र से ऐश्वर्य की सिद्धि एवं अक्षय – कीर्ति की प्राप्ति होती है।

अगहन मास के सोमवार को शम्भुं रूप का पूजन विशेष फलदायी

अगहन मास के सोमवार को भगवान शिव के शम्भुं रूप का पूजन करना चाहिए। इस दिन ब्रह्म पुराण में रचित शम्भु स्तुति का पाठ करने से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। मान्यता है कि लंका पर चढ़ाई करने पूर्व भगवान श्री राम ने रामेश्वरम् में इसी स्तुति का पाठ किया था। भगवान शिव के आशीर्वाद से लंका पर विजय प्राप्त की थी। सोमवार के दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाते हुए शम्भुं स्तुति का पाठ करें। ऐसा करने से भगवान शिव अवश्य प्रसन्न होते हैं और आपकी सारी मनोकामनाएं पूरी करते हैं…….

शम्भुं स्तुति

नमामि शम्भुं पुरुषं पुराणं

नमामि सर्वज्ञमपारभावम् ।

नमामि रुद्रं प्रभुमक्षयं तं

नमामि शर्वं शिरसा नमामि ॥१॥

नमामि देवं परमव्ययंतं

उमापतिं लोकगुरुं नमामि ।

नमामि दारिद्रविदारणं तं

नमामि रोगापहरं नमामि ॥२॥

नमामि कल्याणमचिन्त्यरूपं

नमामि विश्वोद्ध्वबीजरूपम् ।

नमामि विश्वस्थितिकारणं तं

नमामि संहारकरं नमामि ॥३॥

नमामि गौरीप्रियमव्ययं तं

नमामि नित्यंक्षरमक्षरं तम् ।

नमामि चिद्रूपममेयभावं

त्रिलोचनं तं शिरसा नमामि ॥४॥

नमामि कारुण्यकरं भवस्या

भयंकरं वापि सदा नमामि ।

नमामि दातारमभीप्सितानां

नमामि सोमेशमुमेशमादौ ॥५॥

नमामि वेदत्रयलोचनं तं

नमामि मूर्तित्रयवर्जितं तम् ।

नमामि पुण्यं सदसद्व्यातीतं

नमामि तं पापहरं नमामि ॥६॥

नमामि विश्वस्य हिते रतं तं

नमामि रूपापि बहुनि धत्ते ।

यो विश्वगोप्ता सदसत्प्रणेता

नमामि तं विश्वपतिं नमामि ॥७॥

यज्ञेश्वरं सम्प्रति हव्यकव्यं

तथागतिं लोकसदाशिवो यः ।

आराधितो यश्च ददाति सर्वं

नमामि दानप्रियमिष्टदेवम् ॥८॥

नमामि सोमेश्वरंस्वतन्त्रं

उमापतिं तं विजयं नमामि ।

नमामि विघ्नेश्वरनन्दिनाथं

पुत्रप्रियं तं शिरसा नमामि ॥९॥

नमामि देवं भवदुःखशोक

विनाशनं चन्द्रधरं नमामि ।

नमामि गंगाधरमीशमीड्यं

उमाधवं देववरं नमामि ॥१०॥

नमाम्यजादीशपुरन्दरादि

सुरासुरैरर्चितपादपद्मम् ।

नमामि देवीमुखवादनानां

ईक्षार्थमक्षित्रितयं य ऐच्छत् ॥११॥

पंचामृतैर्गन्धसुधूपदीपैः

विचित्रपुष्पैर्विविधैश्च मन्त्रैः ।

अन्नप्रकारैः सकलोपचारैः

सम्पूजितं सोममहं नमामि ॥१२॥

 

भगवान् शम्भु का नन्दीश्वर अवतार

पूर्वकाल में शिलाद नामक एक धर्मात्मा मुनि थे। पितरों के आदेश से उन्होंने अयोनिज एवं मृत्युहीन पुत्र की प्राप्ति के लिये पहले इन्द्र और उसके बाद इन्द्र के कहने पर भगवान् शम्भु को प्रसन्नता के लिये कठिन तपस्या की। उनके तपसे प्रसन्न होकर महादेव ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने के लिये कहा। तब शिलाद मुनि ने उनसे कहा – ‘ प्रभो ! मैं आपके ही समान मृत्युहीन अयोनिज पुत्र चाहता हूँ। ‘

शिवजी ने कहा – ‘ तपोधन विप्र! पूर्वकाल में ब्रह्माजी के साथ मुनियों एवं देवताओं ने मेरे अवतार धारण करने के लिये तपस्या के द्वारा मेरी आराधना की थी। इसलिये समस्त जगत्का पिता होते हुए भी मैं तुम्हारे अयोनिज पुत्र के रूप में अवतार लूँगा तथा मेरा नाम नन्दी होगा। ‘ ऐसा कहकर कृपालु शिव अन्तर्धान हो गये।

कुछ समय बाद एक दिन यज्ञवेत्ताओं में श्रेष्ठ शिलाद मुनि यज्ञ करने के लिये यज्ञ – क्षेत्र जोत रहे थे। उसी समय उनके श्वेदबिन्दु से एक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह बालक युगान्तकालीन अग्नि के समान प्रभावान् था। शिलाद मुनि ने जब उस बालक को सूर्य के समान प्रभाशाली, त्रिनेत्र, जटा – मुकुटधारी, त्रिशूल इत्यादि आयुधों से युक्त, चतुर्भुज रुद्र रूप में देखा तो वे महान् आनन्द में निमग्न हो गये। शिलाद की कुटिया में पहुँचकर वह बालक रुद्र रूप को त्याग करके मनुष्य रूप धारण कर लिया। पुत्रवत्सल शिलाद मुनि ने उस बालक का जातकर्मादि संस्कार करके उसका नाम नन्दी रखा।

पाँचवें वर्ष में उन्होंने नन्दी को सभी वेदों तथा शास्त्रों का अध्ययन कराया। सातवाँ वर्ष पूरा होने पर मित्र और वरुण नामके मुनि शिवजी की प्रेरणा से उस बालक को देखने आये । उन्होंने शिलाद मुनि से कहा कि यद्यपि तुम्हारा पुत्र नन्दी सम्पूर्ण शास्त्रों का पारगामी विद्वान् है लेकिन अब उसकी आयु मात्र एक ही वर्ष शेष बची है। अपने पिता को चिन्तित देखकर नन्दी ने कहा पिताजी ! आप चिन्तित न हों । यमराज भी मुझे मारना चाहें तो भी मेरी मृत्यु नहीं होगी। मैं भगवान् शम्भु के भजनके प्रभाव से मृत्यु को जीत लूंगा। ‘

नन्दी ने इस प्रकार कहकर अपने पिता को सान्त्वना दी तथा भगवान् शंकर की प्रसन्नता के लिये तपस्या करने के लिये वन की राह ली।

वन में पहुँचकर नन्दी अपने हृदय में तीन नेत्र तथा दस भुजा और पाँच मुख वाले भगवान् सदाशिव का ध्यान तथा रुद्र – मन्त्र का जप करने लगा। नन्दी को अपने ध्यान और जप में तल्लीन देखकर उमा सहित महादेव प्रकट हुए। उन्होंने नन्दी से कहा – ‘ शिलादनन्दन ! तुमने बड़ा ही उत्तम तप किया । मैं तुम्हारी इस उत्तम तपस्या से परम सन्तुष्ट हूँ । तुम्हारे मन में जो अभीष्ट हो, वह वर माँग लो। ‘ महादेव जी के इस प्रकार कहने पर नन्दी ने भगवान् शंकरकी बड़े ही प्रेम से स्तुति की और भावविभोर होकर उनके चरणों में लेट गया ।

भगवान् शम्भु ने अपने चरणोंमें पड़े हुए नन्दी को उठाकर कहा वत्स नन्दी ! उन दोनों विप्रों को मैंने ही भेजा था। तुम्हें मृत्यु का भय कहाँ ; तुम तो मेरे ही समान हो। तुम अजर , अमर , दुःखरहित और अक्षय होकर मेरे गणनायक बनोगे । तुममें मेरे ही समान बल होगा और मेरे पार्श्वभाग में स्थित रहोगे। मेरी कृपा से जन्म, जरा और मृत्यु तुम पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे। ‘ यों कहकर कृपासागर शम्भु ने अपने गले में पड़ी हुई कमल की माला उतारकर नन्दी के गले में डाल दी। उस शुभ माला के गले में पड़ते ही नन्दी तीन नेत्र तथा दस भुजाओं से सम्पन्न हो गया तथा दूसरे शंकर – सा प्रतीत होने लगा । उसके बाद भगवान् शम्भु ने बड़े ही प्रेम से नन्दी का अपने गणाध्यक्ष के पद पर अभिषेक किया ।

पृथ्वीतत्त्वलिंग – कांचीपुरम् : यहाँ माता पार्वती ने कठोर तप किया था, यहाँ देवगर्भा शक्तिपीठ भी { दक्षिण भारत के पंचतत्त्वलिंग}

 

 

 

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