गुरुतत्व का वैदिक रहस्य भाग-3,एक वैदिक कालीन प्रसंग

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सूत जी बोले- गुरुवर! नारद से वह ब्रह्म विज्ञान किसने प्राप्त किया? हे व्यास जी आगे का वृतांत सुनाइयें। इस कथा से मुझे बड़ा ही आनंद प्राप्त हुआ है।
व्यास जी बोले- हे सूत,, उसी समय मैं भी बड़ा अशांत होकर ज्ञान के तत्व सक्षात्कार के लिए व्याकुल हो रहा था।
यह सुनकर सूत जी आश्चर्यपूर्वक बोले- गुरुवर! आपको अशांति? क्या आपको भी अपूर्णता का अनुभव हुआ?
हां सूत! मुझे भी अशांति हुई। एक लाख मंत्रों को सरल रूप में महाभारत में समाविष्ट कर एक लक्ष श्लोक की रचना की। उन श्लोकों को लिखने के लिए मैंने गणेश जी के तप रूपी वेतन से उन्हें संतुष्ट किया। आदि देव पूज्य अनादि गणपति को कष्ट होने के कारण मेरा चित्त में अशांति व्याप गई थी।

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सूत जी बोले- प्रभुवर! गणेश को आपने लोकोपकार के  कष्ट दिया था।
व्यास जी बोले- हे सूत! देवताओं को कष्ट देना महाअशांति का कारण है। चाहे वह कष्ट स्वार्थ के कारण दिया जाए या परामर्थ के कारण दिया जाए। मैं परम अशांत होकर हिमालय पर्वत पर भ्रमणशील था। उन्हीं दिनों हिमालय पर्वत की श्रंखला पर ही मुझे देवर्षि नारद के दर्शन हो गए। नारद जी मेरी आशंति अवस्था देखकर दयार्द हो उठे। वह स्वयं अशांति का अनुभव कर चुके थे, अत: वो मुझपर सहज रूप से कृपालु हो गए और मुझे श्रद्धावनत एवं दुखी देखकर उन्होंने मुझे परम गुह्य तत्व का उपदेश किया। उनके ज्ञानोपदेश से मेरे हृदय में ब्रह्मविज्ञान का धवल प्रकाश आलोकिक हो उठा। मैं कृत-कृत्य हो गया, उसी आनंद सागर सर्वदा निमग्न रहता हूं। यहां इस पर्वतीय गुहा में परमानंद की तरह तरंगों में तरंगित रहता हूं।

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हे सूत! अब मैं तुम्हें वहीं ब्रह्म विज्ञान सुनाउंगा, जो शंकर से सनकादिक ने प्राप्त किया था। सनकादिकों से नारद को और नारद से मुझे प्राप्त हुआ था।
इस प्रकार व्यास जी द्बारा ब्रह्मविज्ञान की गुरुपरम्परा सुनकर सूत जी को परम आनंद प्राप्त हुआ और बोले- गुरुवर इस परमकल्याणप्रद ब्रह्मविज्ञान को सुनने के लिए मेरा लालच बढ़ रहा है। परन्तु इससे पूर्व मेरी कुछ शंकायें है, उनका भी निराकरण कर दीजिए।
व्यास जी बोले- सूत तु अपनी समस्त शंकाओं का नि:संकोच वर्णन करो। सूत बोले- प्रभो, इस जगत व्यवहार का स्वरूप वस्तुत: क्या है? यह इतना बड़ा विश्व कैसे बना? यह संसार किस ओर जा रहा है? इसकी स्थिति कहां है? चराचर विश्व का क्या गन्तव्य है? इस विश्व का एक तृण भी स्थिर नहीं है। इसमें प्रतिक्षण परिवर्तन क्यों होते रहते हैं?

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परिवर्तन होने पर भी जगत व्यवहार पूर्ववत क्यों स्थायी रहता है। संसार के लोग अंधों की भांति एक दूसरे के पीछे दौड़ते जाते हैं। इन सबका क्या कारण है?
व्यास जी बोले- हे सूत! मैं तुम्हें ब्रह्मविज्ञान सुनाउंगा। उसमें तुम्हारी सभी शंकाओं की निवृत्ति हो जाएगी। हे सूत! सुनो, सर्व प्राणि मात्र का लक्ष्य ‘आत्यन्तिक’ दुख की निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति है। परन्तु लक्ष्य सिद्धि प्राप्त क्यों नहीं होती है? इसका मूलतत्व मैं तुम्हें बताता हूं। कर्तव्यता रूप भूत ही इस लक्ष्य सिद्धि में परमबाधक है। मुझे अमुक कर्तव्य है, इस भाव के शेष रहने पर कदापि दुख: नाश नहीं हो सकता है। चंद्र से अग्नि और अग्नि से हिम उत्पन्न होना संभव है, परन्तु कर्तव्ययता शेष रहने पर दुख से निवृत्ति संभव नहीं है।
हे सूत! विचार करो कर्तव्य का भार ही सब दुखों का दुख है। इसके शेष रहने पर मानव को दुखाभाव व सुख प्राप्ति असंभव है। यदि कोई कर्तव्यता शेष रहने पर भी सुख का अनुभव करता है तो उसका वैसा ही समझना चाहिए, जैसे किसी व्यक्ति के समस्त शरीर के दग्ध होने पर चंदन के लेप का सुख का अनुभव होता है अथवा मृत्यु की ओर जाने वाले क्षय रोगी को मधुर संगीत सुनने में जो सुख की अनुभूति होती है, अथवा ये समझिये कि सूली पर चढ़े व्यक्ति को गंध, अक्षत, पुष्प से पूजित होने पर कैसा सुख का अनुभव होता है, अथवा पुत्र के शोक मृतक पुत्र में शोकाकुल पिता को मिष्ठान भोजन में कैसा सुख की अनुभूति होती है। संसार में वहीं सबसे सुखी है, जिसका कोई कर्तव्य शेष नहीं है। कर्तव्य शेष न रहने से जो अन्तर्बाह्य शांत हो गए हैं,वही सुखी है। कितना आश्चर्य है कि कोटि-कोटि कर्तव्य पर्वतों से पिसा हुआ मानव भी सुख की अभिलाषा करता है। हे सूत सर्वभौम चक्रवर्ती सम्राट से लेकर तुच्छ भिक्षुक तक सभी लोग कर्तव्यता पिशचनी के भयंकर पाश में बंधे हुए हैं। समस्त दुखों की मूल कर्तव्यता ही है।

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सनकादिकों को इसी कर्तव्यता ने दुख में डाला, नारद इसी से पीड़ित हुए थे और आज मैं भी उसी कर्तव्यता के कारण परम अशांत हो रहा, कर्तव्यता का भूत बड़ा भयंकर है। हे सूत! मैंने सर्वप्रथम संसार का प्रथम कारण बताया है। इसी कर्तव्यता से ही संसार उत्पन्न होता है। इसी को समझ लेना संसार को समझ लेना है और इससे मुक्त होना, संसार से मुक्त होना है।

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हे सूत! अब तुम भी इसी कर्तव्यता पिशाचनी से ग्रस्त हो। इससे मुक्त होने का उपाय करो। इतना कहकर व्यास जी मुस्करा उठे। परम शांत मुद्रा में वे विचारवान हो रहे थे।
विचार का महत्व
विचार एवास्ति परं निधानम्।
बीजंविशुद्धं सुख पादपस्य।।
तस्यैव शन्किर्हि नवाकं रश्य।
विचारवान्माति नरोधरायाम्।।

नोट- उपरोक्त लिखित श्लोक की फोटो नीचे है, सही उच्चारण में सहायक होगी, हिंदी व संस्कृत के वर्तनी भेद कारण थोड़ी भिन्नता है। सही उच्चारण के लिए निम्न फोटो को देखे- 

हे सूत! तुम इस कर्तव्यता से मुक्ति चाहते हो। अत: तुम धन्य हो।
श्री व्यास जी की बात सुनकर सूत जी के आनंदाश्रु छलक पड़े। वह करबद्ध होकर बोले- गुरुवर इस कर्तव्यता कृत्या के नाश का उत्तम उपाय बताइये, जिससे मैं सर्वान्ग शीतल होकर परम शांति का लाभ उठा सकूं। श्री व्यास जी बोले- हे सूत! कर्तव्यता का नाश विचार से होता है। यह कर्तव्यता, अविचार रूपी रात्रि में निवास करती है और जीवों को पीड़ित करती है। सुविचार रूपी सूर्योदय से ही इसका विनाश संभव है।

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अत: हे, सूत! तू विचारों का आश्रय लेकर विचारवान बनकर ही इस संसार में व्याप्त दुखों से मुक्ति प्राप्त कर पाएगा। विचार का कवच बन लेने के बाद तुझ पर काम, क्रोधादि किसी भी शत्रु का प्रहार न हो सकेगा। अविचारी व्यक्ति ही संसार के दलदल में फंसकर जन्म-मरण का क्लेश भोगते हैं। एक कथा कहता हूं। सूत! तुम उसे सावधान होकर सुनो-
एक बार कुछ यात्री यात्रा पर निकल पड़े और चलते-चलते विन्ध्याटवी में पहुंच गए। वहां घूमते-घूमते बहुत थक चुके थे। भूख प्यास से व्याकुल होकर खाने के लिए कुछ फल खोजने लगे। खोजने पर उन्हें एक स्थान पर कुचले हुए फल मिले। वह सोचने लगे कि ये तो काजू फल हैं। उनमे से कई साथियों ने कहा कि यह अज्ञात फल मत खाओ। आगे बढ़कर कहीं विश्वस्त फल खाये जाएं। परम भूख से व्याकुल होने के कारण उन्होंने अपने साथियों की बात नहीं सुनी तथा अन्य कोई विचार किए उन विषाक्त फलों का सेवन किया। उन फलों को खाने से सबका मस्तिष्क बिगड़ गया। वे इधर-उधर दौड़ने लगे। रात्रि में सघन वन में वे काटों पर, खाई- खन्दकादि में गिरते-पड़ते रहे। घायल हो गए। कुचला फलों के विष के कारण वे उन्मत हो चुके थे। परम कष्ट की अवस्था में वे आपस में लड़ने, मरने लगे थे। सभी के शरीर से रक्तपात हो रहा था। भगवत कृपा से प्रात: वो सब किसी प्रकार दुर्गम वन से बाहर निकल पाए, परन्तु उनकी बुद्धि, विष के प्रभाव से दूषित हो चुकी थी, अत: वे सब लक्ष्य से भटक चुके थे। आगे उन्हें एक नगर मिला। वहां वे राजा के भवन में घुस गए और उत्पात करने लगे।

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राजा ने उनकी दशा व अशिष्टता को देखकर बहुत क्रोध किया और अपने सेवकों से उन्हें पिटपाया। यातनाएं दी। तदोपरान्त कारागार में कैदी बनाकर बंद कर दिया। इस दृष्टान्त का सारांश यही है कि यह जीव यात्री है। संसार ही वह कंटक अरण्य है, जिसमें वह सपरिवार, अविचार से आकर सुख की खोज करते हैं और विषय रूपी विष फल खाकर आनंद की भूख मिटाना चाहते हैं। परन्तु क्षुदा तो मिटती नहीं, प्रत्युत उस विष फल के प्रभाव से उन्मत्त होकर नाना यातनाओं से पीड़ित होते हुए जरा-व्याधि, जन्म-मरण आदि कष्टको में फसकर कष्ट पाते रहते हैं। अंत में यमलोक पहुंचकर यमदूतों द्बारा नरक के कारागार में डाल दिए जाते हैं।
हे, सूत! यह सब अविचार का ही फल है। अविचार ही दुख का मूल है और सुविचार ही सुख की जड़ है। परम शांति के लिए विचार को ग्रहण की कीजिए।
सूत जी कहने लगे- हे गुरुदेव आपके इस उपदेश से बड़ी ही शांति मिल रही है। कृपया अब यह बताइये कि यह सुविचार सरिता हृदयमें कैसे तरंगित होगी।

लेखक विष्णुकांत शास्त्री
विख्यात वैदिक ज्योतिषाचार्य और उपचार विधान विशेषज्ञ
38 अमानीगंज, अमीनाबाद लखनऊ
मोबाइल नम्बर- 99192०6484 व 9839186484
आभार
1- ब्रह्म विज्ञान संहिता
2- ब्रह्मलीन स्वामी
स्वयं भू तीर्थ जी महाराज

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