करवीर शक्तिपीठ: दर्शन मात्र से पापों का नाश

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ह पावन शक्तिपीठ महाराष्ट्र में अवस्थित है। वर्तमान में कोल्हापुर ही करवीर क्षेत्र है। यहां पुराने राजमहल के पास खजानाघर है। इसके पीछे महालक्ष्मी का विशाल मंदिर है। इसे लोग अम्बा जी का मंदिर भी कहते हैं। इस मंदिर के घेरे में महालक्ष्मी निज मंदिर है। मंदिर का प्रधान भाग नीले पत्थरों का बना है। इसके पास में ही पद्म सरोवर,काशी तीर्थ और मणिकर्णिका तीर्थ है। यहां काशी विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि देव मंदिर हैं। यहां का महालक्ष्मी मंदिर ही शक्तिपीठ माना जाता है। यहां भगवती सती के शरीर के तीनों नेत्र यहां गिरे थे । यहां की शक्ति महिषमर्दिनी और भैरव क्रोधीश हैं। यहां भगवती महालक्ष्मी का नित्य निवास माना जाता है। स्कन्द पुराण में भगवतीकी महिमा का उल्लेख है। वर्णन कुछ इस प्रकार है- अर्थात पुत्र, काराष्ट्र देश का विस्तार दस योजन है। यह देश दुर्गम है। उसके बीच में काशी आदि से भी अधिक पवित्र श्री लक्ष्मी निर्मित पांच कोस का करवरी क्षेत्र है। यह क्षेत्र बड़ा ही पुण्यमय और दर्शन मात्रसे पापों का नाश करने वाला है। इस क्षेत्र में वेदपारगामी ब्राह्मण और ऋषिगण निवास करते हैं। उनके दर्शन मात्र से सारे पापों का क्षय हो जाता है।

मान्यता के अनुसार, नगर में कोई भी विवाह आदि मंगल काम होता है तो पहला निमंत्रण देवी के चरणों में समर्पित किया जाता है और मंगल कार्य सम्पन्न होने पर प्रत्येक परिवार देवी का दर्शन, पूजन करता है।

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योजनं दश हे पुत्र काराष्ट्रो देशदुर्धर:।।
तन्मध्ये पंचकोशंच काश्याद्यादधिकं भुवि।
क्षेत्रं वै करवीराख्यं क्षेत्रं लक्ष्मीविनिर्मितम्।।
तक्षेत्रं हि महत्पुण्यं दर्शनात् पापनाशनम्।
तक्षेत्रे ऋषय: सर्वे ब्राह्मणा वेदपारगा:।।
तेषां दर्शनमात्रेण सर्वपापक्षयो भवेत।

भावार्थ- पुत्र, काराष्ट्रदेश का विस्तार दस योजन है। यह देश दुर्गम है। उसी के बीच काशी आदि से भी अधिक पवित्रश्री लक्ष्मी निर्मित पांच कोस का करवीर क्षेत्र है। यह क्षेत्र बड़ा ही पुण्यदायी और दर्शन मात्र से पापों का नाश करने वाला है। इस क्षेत्र में वेदपारगामी ब्राह्मण और ऋषि निवास करते हैं। उनके दर्शन मात्र से सभी पापों का क्षय हो जाता है।

कोल्हापुर पौराणिक करवीरक्षेत्र है, जो स्वयं भगवती महालक्ष्मी द्वारा निर्मित है।

‘देवीगीता’ में यह कहा गया है-

‘कोलापुरे महास्थानं यत्र लक्ष्मी: सदा स्थिता।’
भावार्थ-  ‘कोलापुर’ या ‘कोल्हापुर’ एक महान पीठ है, जहां महालक्ष्मी सदैव विराजती हैं। विभिन्न  पुराणों एवं आगम ग्रन्थों में इस शक्तिपीठ की महिमा और प्रशंसा पायी जाती है। तंत्रचूडामणि के अनुसार करवीर में देवी सती के तीनों नेत्रों का पतन हुआ था। यहाँ की शक्ति महिषमर्दिनी और भैरव क्रोधीश हैं। यहाँ का महालक्ष्मीमंदिर ही महिषमर्दिनी स्थान है-

करवीरे त्रिनेत्रं मे देवी महिषमर्दिनी।
क्रोधीशो भैरवस्तत्र…………………..।।

यहां की जगदम्बा को ‘करवीरसुवासिनी’ या ‘कोलापुरनिवासिनी’ भी कहा जाता है।  महाराष्ट्र में इन्हें ‘अम्बाबाई’ कहते हैं। महालक्ष्मी का यह सर्वश्रैष्ठï सिद्घपीठ है। यहां पांच नदियों के संगम से एक नदी बहती है, जिसे ‘पंचगंग’ कहा जाता है। यह नदी आगे चलकर समुद्रगामिनी महानदी कृष्णा से जा मिली है। ऐसी पवित्र पंचगंग सरिता के तीर पर जगन्माता महालक्ष्मी का नित्यनिवास है।

‘निपुरारहस्य, माहात्म्यखण्ड’ के 48वें अध्याय में भारत के प्रमुख 12 देवीपीठों का उल्लेख और उनका माहात्म्य वर्णित है, जिसमें ‘करवीरे महालक्ष्मी’ कहा गया है। इसी प्रकार देवी भागवत और मत्स्यपुराण में वर्णित 108 दिव्य शक्तिस्थानों में भी ‘करवीरे महालक्ष्मी’ कहा गया है। ‘करवीरमाहात्म्य’ में इस सिद्ध स्थान को प्रत्यक्ष ‘दक्षिण काशी’ कहा गया है। स्कन्दपुराण के ‘काशीखण्ड’ के अनुसार महर्षि अगस्त्य और उनकी पत्नी पतिव्रता लोपामुद्रा के साथ काशी से दक्षिण आये और यहीं बस गये, इसलिये इसे ‘काशी से किञ्जत श्रेष्ठ’ कहा गया है। वाराणसी में भगवान शिव केवल ज्ञानदायक ही हैं, किन्तु कारवीर क्षेत्र में ज्योतिरूप केदारेश्वर (ज्योतिबा) ज्ञानप्रद तो हैं ही, भोग-मोक्षप्रदायिनी महालक्ष्मी भी यहां निवास करती हैं। इस तरह भुक्ति-मुक्तिप्रद होने से इस स्थान का माहात्म्य काशी से अधिक माना गया है-

सिद्घिबुद्घिप्रदे देवि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी।
मंत्रमूर्तें सदा देवि महालक्ष्मि मनोस्तु ते।।

(महालक्ष्म्यष्टक-4)

इस स्तोत्र से भी सिद्ध है कि यहां की देवी भुक्ति और मुक्ति दोनों को देने वाली है। इसलिए इस क्षेत्र के माहात्म्य में यह श्लोक पाया जाता है-

वाराणस्याधिकं क्षेत्रं करवीरपुरं महत।
भुक्क्मिुक्तिप्रदं नृणां वाराणस्या यवाधिकम।।

भावार्थ- वाराणसी की अपेक्षा इस करवीरक्षेत्र का माहात्म्य यव (जौ) भर अधिक ही है, क्योंकि यहां भुक्ति और मुक्ति दोनों मिलते हैं। देवी का श्रीविग्रह वज्रमिश्रित (हीरे से मिश्रित) रत्नशिला का स्वयम्भु और चमकीला है। उसके मध्यस्थित पद्मरागमणि भी स्वयम्भू है, ऐसा विशेषज्ञों का स्पष्ट मत है। प्रतिमा अत्यन्त पुरातन होने से बहुत घिस गयी थी। इसलिए सन 1954 ई. में कल्पोक्त विधि से मूर्ति में वज्रलेप-अष्टबन्धादि संस्कार किये गये। उसके पश्चात अब श्रीविग्रह सुस्पष्ट दिखायी पड़ता है।

देवी का ध्यान मार्कण्डेयपुराणान्तर्गत ‘देवीमाहात्म्य’ ‘श्रीदुर्गासप्तशती’ के ‘प्राधानिक रहस्य’ में जैसा वर्णित है, ठीक  वैसा ही है। प्राधानिक रहस्योक्त वह ध्यान इस प्रकार है-

मातुलंग गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती।
नागं लिंग च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि।।

इसका भाव यह है कि चतुर्भुजा जगन्माता के हाथों में मातुलुंग, गदा, ढाल और पानपात्र है। मस्तक पर नाग, लिङ्गï और योनि है।
स्वयम्भू मूर्ति में ही सिर पर किरीट उत्कीर्ण होकर विराजते हैं। शेषफणों ने उस पर छाया की है। साढ़े तीन फुट ऊंची यह प्रतिमा आकर्षक और अत्यन्त सुंदर है। इसका दर्शन करते ही भावुक भक्तह्दय अत्यन्त उल्लसित हो उठता है। देवी के चरणों के पास उनका वाहन ‘सिंह’ प्रतिष्ठित है।
‘लक्ष्मीविजय’ तथा ‘करवीरक्षेत्रमाहात्म्य’ ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि अतिप्राचीन काल में ‘कोलासुर’ नामक एक असीम सामथ्र्यवाला दैत्य भूमि के लिये भारभूत हो गया था। वह देवताओं द्वारा भी अजेय था तथा साधु-सज्जनों को अत्यन्त कष्टï देता था। अन्तत: उससे संत्रस्त देवताओं ने महाविष्णु की शरण ली। उसे पहले से ही वर प्राप्त था कि स्त्रीशक्ति के अतिरिक्त कोई भी उसका वध नहीं कर सकता। इसलिए भगवान विष्णु ने अपनी ही शक्ति स्त्रीरूप में प्रकट कर दी और वही ये महालक्ष्मी हैं। सिंहारूढ़ हो महादेवी करवीर नगर में आ पहुंचीं और वहां कोलासुर नामक दैतय के साथ उनका घमासान युद्ध  हुआ। अन्त में देवी ने इस दैत्य का संहार कर दिया और उसे परमगति प्रदान की।
मरने के पूर्व असुर देवी की शरण में आया, इसलिये देवी ने उससे वर माँगने के लिए कहा। उसने कहा-‘इस क्षेत्र को मेरा नाम प्राप्त हो।’ भगवती ‘तथास्तु’ कहा और उसके प्राण भगवती में लीन हो गये। देवता आनन्दमग्न हो उठे। बहुत बड़ा विजयोत्सव मनाया गया। देवताओं ने देवी की बार-बार स्तुति की। तभी से देवी इसी स्थान पर प्रतिष्ठिïत हो गयीं और ‘करवीरक्षेत्र’ को ‘कोलापुर’ की संज्ञा भी प्राप्त हुई। समर्थ स्वामी रामदास ने भी महालक्ष्मी की स्तुति करते समय उन्हें ‘कोलासुरविमर्दिनी’ कहा है।


पद्मपुराण के करवीरमाहात्म्य में भी इस स्थान के विषय में लिखा है कि ‘करवीर’ नामक यह क्षेत्र 108 कल्प प्राचीन है और इसकी ‘महामातृक’ संज्ञा है, क्योंकि यह आद्या मातृशक्ति का मुख्य पीठस्थान है।
काशी की ही तरह यहां भी पंचगंग, कालभैरव आदि पंचक्रोशी स्थान हैं। अतएवं इस क्षेत्र को ‘दक्षिण काशी’ कहा जाता है। यहाँ ‘एकवीरा’ ‘रेणुका’ देवी का एक अत्यन्त जाग्रत स्थान है। ये देवी भी अनेक परिवारों की कुलदेवता के रूप में प्रसिद्घ हैं। इसके निकट भगवान दत्तात्रेय का सिद्घस्थान है, जहां, मध्यान्ह स्नान के बाद योगिराज दत्तात्रेय नित्य तप-पूजा एवं देवी की स्तुति करने के लिए आते हैं-‘कोल्हापुरजपादर:’ (दत्तात्रेयवज्रकवच) इस कारण इस स्थान का माहात्म्य और बढ़ जाता है।
अब महालक्ष्मी के प्रधान मंदिर के प्राकारगत प्रमुख देवताओं के भी दर्शन करें। देवी के सामने मंडप में सिद्घिविनायक हैं तो देवी के दोनों ओर महाकाली और महासरस्वती के मंदिर हैं। यहां आद्यशंकराचार्य द्वारा स्थापित विशाल चक्रराज श्रीयंत्र है। मंदिर के ऊपर की दो मंजिलों में भी अनेक देवता हैं और देवी के शिरोभागपर (दूसरी मंजिल में) शिव मंदिर हैं। देवी मंदिर के परिक्रमा के मार्ग पर असंख्य देवी-देवता हैं।
महालक्ष्मी का यह मंदिर अत्यन्त पुरातन, भव्य, सुविस्तृत और मनोहर शिल्पकला का आदर्श बनकर खड़ा है। इसकी वास्तुरचना चक्रराज (श्रीयंत्र) या सर्वतोभद्रमंडल पर अधिष्ठित है, ऐसा विशेषज्ञों का मत है। यह पांच शिखरों ओर तीन मंडपों से सुशोभित है। गर्भगृहमण्डप, मध्यमंडप और गरुडमंडप और गरुडमंडप ये मण्डपत्रय हैं। प्रमुख एवं विशाल मध्यमंडप में बड़े-बड़े, ऊंचे और स्वतंत्र स्तम्भ हैं। इसके अलावा मुख्य देवालय के बाहर सैकड़ों स्तम्भ वास्तुशिल्प से उत्कीर्ण हैं। ये सभी स्तम्भ और सहस्त्रों मूर्तियाँ शिल्प तथा कलाकृतियों से सजी हुई हैं और  भव्य एवं नयनाभिराम हैं। गर्भागारस्थित चांदी और सोने के सामान, आभूषण, जडि़त-जवाहर आदि देखने पर आँखें चौंधिया जाती हैं, ऐसा वैभवसम्पन्न यह देवस्थान हैं।
उपासना-यहां महालक्ष्मी की उपासना व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों रूपों में होती है। पाद्यपूजा, षोडशोपचारपूजा और महापूजा-जैसे विविध प्रकार के अर्चन प्रतिदिन चलते रहते हैं। भोग में मिष्ठान, पूर्णन्न और खीर प्रमुख हैं। अभिषेक के समय श्रीसूक्तका अधिकारिक पाठ किया जाता है। परम्परानुसार प्रात:काल ‘काकड-आरती’ से लेकर मध्यरात्रि के शय्या-आरती (सेज-आरती) तक अखण्डरूप में पूजन-अर्चन, शहनाई, सनई, चौघड़ा, स्तोत्रपाठ, आरतियाँ, गायन-वादन, भजन-किर्तन आदि कुछ-न-कुछ कार्यक्रम चलते ही रहते हैं। नित्य उपासना भी उत्यन्त वैभव के साथ शास्त्रोक्त पद्धति से की जाती है।
वैसे यहाँ मंदिर में सभी त्यौहार मनाये जाते है, लेकिन  विशेष रूप से  दुर्गा पूजा व नवरात्र के त्यौहार मनाये  जाते  है। मंदिर का आध्यात्मिक वातावरण श्रद्धालुओं के दिल और दिमाग को शांति प्रदान करता है।

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