कुरुक्षेत्र: यहाँ की उड़ी धूलि के कण पापी को देते हैं परम पद, भद्रकाली शक्तिपीठ भी

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kurukshetr: yahaan kee udee dhooli ke kan paapee ko dete hain param pad, bhadrakaalee shaktipeeth bheeकुरुक्षेत्र ( देवीकूप / भद्रकाली शक्तिपीठ ): कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्त्व अधिक माना जाता है। इसका ऋग्वेद और यजुर्वेद में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहाँ की पौराणिक नदी सरस्वती का भी अत्यन्त महत्त्व है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणों, स्मृतियों और महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र वह स्थल है, जहां पर कौरव और पांडवों की सेनाओं के बीच महाभारत युद्ध हुआ था। यही वह स्थान है, जहां भगवान कृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश देकर विश्व को जीवन दर्शन का एक चिंतन सत्य प्रस्तुत किया था।

धार्मिक महत्त्व 

इस पवित्र स्थान का इतिहास अत्यंत पुराना है। ‘ ऋग्वेद ‘ में ‘ कुरुश्रवण ‘ नाम के राजा का उल्लेख है। ‘ यजुर्वेद ‘ में इसे इंद्रदेव, विष्णुदेव, शिव तथा अन्य देवताओं की यज्ञ – भूमि बताया गया है। ‘ वामनपुराण ‘ में कुरुक्षेत्र का व्यापक वर्णन मिलता है कि महाराज कुरु ने किस प्रकार इसे धर्म, अध्यात्म एवं अष्टांग धर्म का स्थल बनाया। इस तीर्थ को सर्वकल्मषनाशन कहा गया है। ब्राह्मण ग्रंथों के काल में एक पुण्यभूमि के रूप में कुरुक्षेत्र का बड़ा महत्त्व था। उस समय यह स्थान वैदिक संस्कृति का केंद्रस्थल गिना जाता था। देवता लोग यहां पर बड़े – बड़े यज्ञ करते थे और कुरुक्षेत्र यज्ञों की वेदी के रूप में विख्यात था। सरस्वती नदी का महत्त्व प्राचीनकाल से ही है। विशेषकर जहां वह कुरुक्षेत्र में लुप्त हुई थी, उस जगह को तीर्थस्थल की तरह का महत्त्व महाभारत के समय से भी मिलता चला आ रहा है। ऋग्वेद में इस नदी को ‘ पतितपावनी ‘ , उच्च विचार तथा सत्यमुक्त मधुर भाषण की प्रेरणादायिनी जननी के रूप में वर्णित किया गया है। पुराणों के अनुसार, संख के पुत्र कुरु ने जो जगह सात कोस तक सोने के हल से जोती थी, उसे कुरुक्षेत्र के नाम से जाना जाता है। कुरु ने यहा पर उग्र तप किया और भूमि को जोता, जिससे इस भूमि पर देह छोड़कर उसे स्वर्ग में वास मिला। उसके इन प्रयासों को इंद्र ने पहले तो हंसी में उड़ा दिया, लेकिन बाद में उसके महत्त्व को स्वीकार किया। फिर भी दूसरे देवताओं ने बिना यज्ञ किए स्वर्ग – प्राप्ति के विषय में शंका दिखाई। अंत में इंद्र और कुरु के बीच ऐसा समझौता हुआ कि कुरुक्षेत्र में जो व्यक्ति तप करते हुए या युद्ध करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो, उसे स्वर्ग में स्थान मिलेगा। इस प्रकार यह स्थल युद्ध और तप की भूमि बना और तब से कुरुक्षेत्र का पर्याय धर्मक्षेत्र बना। ‘ महाभारत ‘ के वनपर्व के 83 वें अध्याय में, विषादयुक्त युधिष्ठिर ने कुरुक्षेत्र को एक अत्यंत पवित्र स्थान बताया है। इस विधान के अनुसार सरस्वती नदी के दक्षिण और उत्तर में फैले विस्तार को ‘ कुरुक्षेत्र ‘ कहा जाता है। वहां बसे हुए लोगों को स्वर्ग में वास करने के समान मानकर उन्हें भाग्यशाली माना जाता था।

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यज्ञिय वेदी

आरम्भिक रूप में कुरुक्षेत्र ब्रह्मा की यज्ञिय वेदी कहा जाता था, आगे चलकर इसे समन्तपञ्चक कहा गया, जबकि परशुराम ने अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध में क्षत्रियों के रक्त से पाँच कुण्ड बना डाले, जो पितरों के आशीर्वचनों से कालान्तर में पाँच पवित्र जलाशयों में परिवर्तित हो गये। आगे चलकर यह भूमि कुरुक्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई जब कि संवरण के पुत्र राजा कुरु ने सोने के हल से सात कोस की भूमि जोत डाली।

वन पर्व ने 83वें अध्याय में सरस्वती तट – कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख

यद्यपि वन पर्व ने 83वें अध्याय में सरस्वती तट पर एवं कुरुक्षेत्र में कतिपय तीर्थों का उल्लेख किया है, किन्तु ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों में उल्लिखित तीर्थों से उनका मेल नहीं खाता, केवल ‘विनशन’ एवं ‘सरक’ के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इससे यह प्रकट होता है कि वनपर्व का सरस्वती एवं कुरुक्षेत्र से संबन्धित उल्लेख श्रौतसूत्रों के उल्लेख से कई शताब्दियों के पश्चात का है।

100 तीर्थों के नाम

नारदीय पुराण ने कुरुक्षेत्र के लगभग 100 तीर्थों के नाम दिये हैं। इनका विवरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, किन्तु कुछ के विषय में कुछ कहना आवश्यक है। पहला तीर्थ है ब्रह्मसर जहाँ राजा कुरु संन्यासी के रूप में रहते थे।

कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा 48 कोस

कुरुक्षेत्र का पौराणिक महत्त्व अधिक माना जाता है। इसका ऋग्वेद और यजुर्वेद में अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहाँ की पौराणिक नदी सरस्वती का भी अत्यन्त महत्त्व है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणों, स्मृतियों और महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणिक सीमा 48 कोस की मानी गई है जिसमें कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त कैथल, करनाल, पानीपत और जींद का क्षेत्र सम्मिलित हैं। इसका ऋग्वेद और यजुर्वेद मे अनेक स्थानो पर वर्णन किया गया है। यहां की पौराणिक नदी सरस्वती का भी अत्यन्त महत्व है। सरस्वती एक पौराणिक नदी जिसकी चर्चा वेदों में भी है। इसके अतिरिक्त अनेक पुराणो, स्मृतियों और महर्षि वेद व्यास रचित महाभारत में इसका विस्तृत वर्णन किया गया हैं। विशेष तथ्य यह है कि कुरुक्षेत्र की पौराणीक सीमा 48 कोस की मानी गई है। वन पर्व में आया है कि कुरुक्षेत्र के सभी लोग पापमुक्त हो जाते हैं और वह भी जो सदा ऐसा कहता है- ‘मैं कुरुक्षेत्र को जाऊँगा और वहाँ रहूँगा।’

यहाँ की उड़ी हुई धूलि के कण पापी को परम पद देते हैं

इस विश्व में इससे बढ़कर कोई अन्य पुनीत स्थल नहीं है। यहाँ तक कि यहाँ की उड़ी हुई धूलि के कण पापी को परम पद देते हैं।’ यहाँ तक कि गंगा की भी तुलना कुरुक्षेत्र से की गयी है। नारदीय पुराण में आया है कि ग्रहों, नक्षत्रों एवं तारागणों को कालगति से (आकाश से) नीचे गिर पड़ने का भय है, किन्तु वे, जो कुरुक्षेत्र में मरते हैं पुन: पृथ्वी पर नहीं गिरते, अर्थात् वे पुन: जन्म नहीं लेते।

दर्शनीय स्थल
  • ब्रह्मा सरोवर या ब्रह्मसर : यह कुरुक्षेत्र का मुख्य सरोवर है, जो काफी विशाल है और चारों ओर पक्के परकोटे द्वारा घिरा हुआ है इसके मध्य में एक भव्य शिव मंदिर स्थित है। सोमवती अमावस्या के दिन लाखों यात्री यहां स्नान करते हैं। सरोवर के किनारे अच्छी सीढ़ियां हैं व रेलिंग भी लगी है, जिससे यात्री सरलता से इसमें स्नान कर सकते हैं। यहां पर तीर्थयात्री पिंडदान भी करते हैं।
  • सन्निहित सर : अपेक्षाकृत छोटा है और इस पर मात्र तीन ही घाट हैं। उसके पास ही लक्ष्मी नारायण का सुंदर मंदिर है। तीर्थयात्री इस सरोवर में श्राद्ध – तर्पण कार्य भी संपन्न करते हैं। ग्रहण के दिन इसमें भी लाखों यात्री स्नान करते हैं।
  • ज्योति सर : यह एक छोटा सरोवर है और ऐसी मान्यता है कि यहां श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीतारूपी प्रवचन दिया था। इसके चारों ओर आज भी बड़े – बड़े वटवृक्ष स्थित हैं। यहां कोई मंदिर नहीं है। इसके अतिरिक्त भी कुछ सरोवर यहां हैं, पर उनके संबंध में जानकारी कम हुई है।
  • भीष्म कुंड : कुरुक्षेत्र से लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर एक कुंड है। ऐसा माना जाता है कि युद्ध में भीष्म पितामह जब शर – शैय्या पर थे, तब उनके जल मांगने पर अर्जुन ने बाण मारकर इसी स्थान पर जल निकाला था, जिसकी जलधारा सोधे भीष्म पितामह के मुख में गिरी थी। इसे बाणगंगा के नाम से भी जाना जाता है।
  • भद्रकाली मंदिर ( शक्तिपीठ ) : यहां पर माता पार्वती की एड़ी गिरी थी तथा इसी स्थान पर एक भव्य भद्रकाली का मंदिर बना है, जो नगर के मध्य में ही स्थित है। इस शक्तिपीठ पर भक्तगण मिट्टी अथवा लकड़ी आदि के छोटे – छोटे घोड़े दान करते हैं।
  • बराह तीर्थ : वराह अवतार के समय वराह के रूप में भगवान विष्णु की खड़ी प्रतिमा इस मंदिर में स्थित है।
  • व्यास स्थली : यहां पर शुकदेव के विरह से व्यास ने मरने का निर्णय लिया था, पर देवताओं ने उन्हें ऐसा करने से रोक कर उनका जीवन बचाया। इस स्थान पर भी एक मंदिर है।
  • अस्थिपुर : इस नाम का स्थल भी नगर से कुछ दूर स्थित है और ऐसा माना जाता है कि इसी स्थान पर महाभारत के युद्ध में मारे गए योद्धाओं के शवों की दाह क्रिया की गई थी।
  • पृथूदक तीर्थ : यह करनाल जिले में पेहोवा के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर तेजस नामक वरुण का मंदिर है। उसमें ब्रह्मा आदि देवताओं ने देवों के सेनापति कार्तिकेय की प्रतिष्ठा की थी। इसके अतिरिक्त अनेक छोटे – बड़े मंदिर इस नगरी में हैं, जैसे स्थानेश्वर महादेव मंदिर, बिरला मंदिर, वाल्मीकि आश्रम, कमल नाभि मंदिर आदि। तीर्थयात्रियों व पर्यटकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए हरियाणा की विभिन्न संस्थाओं ने कुछ नवीन अत्यधिक आधुनिक स्थलों का निर्माण किया, जो महाभारत संबंधी जानकारियां तस्वीरों, मूर्तियों व विज्ञान यंत्रों द्वारा दर्शाते हैं। ये स्थान हैं : कृष्णा म्यूजियम व कुरुक्षेत्र पेनोरमा विज्ञान केंद्र। यहां पर ध्वनि और प्रकाश के माध्यम से गीता सार का सुंदर वर्णन किया जाता है। कल्पना चावला प्लेनेटोरियम भी यहां दर्शनीय स्थल हैं।

यात्रा मार्ग

हवाई अड्डा चंडीगढ़ व दिल्ली से यहां की यात्रा की जा सकती है। दिल्ली से 161 किलोमीटर है।

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