नई दिल्ली, 26 अक्टूबर, (एजेंसियां)। दिल्ली विश्वविद्यालय, जो देश की छात्र राजनीति का सबसे बड़ा मंच माना जाता है, वहां अब कांग्रेस से जुड़ा छात्र संगठन एनएसयूआई (नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया) तेजी से कमजोर होता जा रहा है। जहां कभी एनएसयूआई का झंडा यूनिवर्सिटी कैंपस में सबसे ऊंचा लहराया करता था, वहीं अब हालात बदल चुके हैं। छात्र राजनीति के मैदान में राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रेरित संगठन अपनी पकड़ मजबूत कर रहे हैं, जबकि एनएसयूआई अपनी पुरानी साख और आधार दोनों खोता जा रहा है।
कभी दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (DUSU) के चुनावों में एनएसयूआई का बोलबाला था। कांग्रेस के युवा नेताओं का यही संगठन नर्सरी हुआ करता था। लेकिन पिछले एक दशक में परिदृश्य पूरी तरह बदल गया है। अब छात्रों का झुकाव कांग्रेस से जुड़े इस संगठन से हटकर भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) और कुछ हद तक अन्य राष्ट्रवादी समूहों की ओर बढ़ गया है।
एनएसयूआई की गिरावट के पीछे केवल संगठनात्मक कमजोरी नहीं, बल्कि वैचारिक भ्रम और जनसंपर्क की कमी भी मुख्य कारण है। छात्रों के मन में यह धारणा बन चुकी है कि एनएसयूआई न केवल निष्क्रिय है, बल्कि देश के मुद्दों पर अक्सर “कन्फ्यूजन” की स्थिति में रहती है। वहीं, ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे, जिनकी गूंज कभी विश्वविद्यालय परिसरों में सुनी गई थी, ने आम छात्र वर्ग को वामपंथी संगठनों से दूर कर दिया। यह घटनाएं एनएसयूआई के लिए भी नुकसानदेह साबित हुईं क्योंकि जनता के बड़े हिस्से ने इसे वामपंथी विचारधारा के करीब माना।
राष्ट्रवाद का उभार और वैचारिक बदलाव
देश के राजनीतिक परिदृश्य में राष्ट्रवाद का जो उभार हुआ है, उसने छात्र राजनीति को भी गहराई से प्रभावित किया है। आज के युवा अपने राष्ट्र, उसकी सुरक्षा और संस्कृति के प्रति ज्यादा सजग और भावनात्मक हैं। सोशल मीडिया पर देश विरोधी विचारों या विभाजनकारी नारों का विरोध सबसे पहले छात्र ही करते हैं। ऐसे माहौल में एनएसयूआई का कथित ‘सॉफ्ट वाम’ स्टैंड उसे नुकसान पहुंचा रहा है।
एनएसयूआई के कई पूर्व पदाधिकारी स्वयं स्वीकार करते हैं कि संगठन के भीतर राजनीतिक स्पष्टता की कमी है। न तो वह राष्ट्रवाद पर खुलकर बोलता है, न ही छात्रहितों पर मजबूत आंदोलन कर पाता है। दूसरी ओर, एबीवीपी लगातार कैंपस स्तर पर गतिविधियां चला रही है — चाहे वह फीस वृद्धि का विरोध हो, महिला सुरक्षा के लिए अभियान हो, या पर्यावरण संरक्षण से जुड़े आंदोलन।
वामपंथी संगठनों का सिमटता प्रभाव
दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) और अन्य प्रमुख शिक्षण संस्थानों में लेफ्ट यूनिटी और उससे जुड़ी छात्र इकाइयां भी पहले की तुलना में कमजोर हो चुकी हैं। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारों ने वामपंथी राजनीति को देशविरोधी छवि से जोड़ दिया, जिससे आम छात्र वर्ग उनसे दूर हो गया।
एनएसयूआई का संकट यह है कि वह वामपंथी विचारधारा से दूरी भी नहीं बना पाई और राष्ट्रवादी विचारों से निकटता भी नहीं दिखा पाई। यही दुविधा संगठन को लगातार पीछे धकेल रही है।
नेतृत्व संकट और संगठनात्मक कमजोरी
एनएसयूआई के वर्तमान नेतृत्व को न तो छात्र वर्ग में करिश्माई माना जाता है, न ही वे जमीनी स्तर पर सक्रिय दिखते हैं। जहां एबीवीपी के कार्यकर्ता नियमित रूप से कॉलेज परिसरों में उपस्थित रहते हैं और हर छोटे छात्र आंदोलन में शामिल होते हैं, वहीं एनएसयूआई के नेता केवल चुनाव के समय नजर आते हैं।
कई कॉलेजों में एनएसयूआई की यूनिटें निष्क्रिय हो चुकी हैं। स्थानीय छात्र नेताओं को न संसाधन मिलते हैं न मार्गदर्शन। यही कारण है कि संगठन धीरे-धीरे केवल नाम मात्र का रह गया है।
सोशल मीडिया पर भी पिछड़ रही है एनएसयूआई
आज का छात्र राजनीतिक विचार सोशल मीडिया के जरिए बनाता है। एबीवीपी, बीजेपी युवा मोर्चा और अन्य राष्ट्रवादी समूह डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर बेहद सक्रिय हैं। वे हर राष्ट्रीय या छात्र-संबंधी मुद्दे पर त्वरित प्रतिक्रिया देते हैं। एनएसयूआई इस मोर्चे पर काफी पीछे है। इसके सोशल मीडिया अकाउंट्स पर न तो नियमित अपडेट होते हैं, न ही आकर्षक कैंपेन चलाए जाते हैं।
राष्ट्रवादी भावना को समझने में असफल
छात्रों में राष्ट्रवाद अब भावनात्मक जुड़ाव का सबसे बड़ा माध्यम बन चुका है। चाहे सेना के प्रति सम्मान हो, या भारत के इतिहास और संस्कृति को लेकर गर्व — युवा वर्ग इसे अपनी पहचान का हिस्सा मानता है। एनएसयूआई की सबसे बड़ी गलती यही रही कि उसने इस राष्ट्रवादी भावनाओं को कभी गंभीरता से नहीं लिया। जबकि दूसरी ओर, एबीवीपी ने इसे अपने अभियान का केंद्र बना लिया।
भविष्य की राह
यदि एनएसयूआई को फिर से अपनी खोई जमीन हासिल करनी है, तो उसे वैचारिक स्पष्टता, संगठनात्मक सक्रियता और राष्ट्रहित से जुड़ी ठोस पहलें करनी होंगी। केवल कांग्रेस की युवा इकाई बने रहना अब पर्याप्त नहीं है। छात्रों को यह महसूस होना चाहिए कि संगठन उनके मुद्दों — जैसे शिक्षा, रोजगार, छात्रवृत्ति, और सुरक्षा — के लिए मैदान में है।
एनएसयूआई का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि वह आने वाले वर्षों में राष्ट्रवादी भावनाओं और छात्र हितों के बीच संतुलन कैसे बनाती है। फिलहाल, यह साफ है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में राष्ट्रवाद की लहर ने वामपंथी और कांग्रेस समर्थित छात्र राजनीति की जड़ें हिला दी हैं।










