प्रथम पूज्य गणेश जी: इसे कोई अस्वीकार कैसे करता ?

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एक बार देवताओं में विवाद हो गया कि उनमें प्रथम पूज्य कौन है? जब परस्पर कोई निर्णय नहीं हो सका तो वे परम पिता ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी ने कहा कि जो पृथ्वी की प्रदक्षिणा करके सबसे पहले मेरे पास आएगा। वही अब से प्रथम पूज्य माना जाएगा। देवराज इंद्र अपने ऐरावत हाथी पर चढ़कर दौड़े, अग्निदेव ने अपने भेड़ें को भगाया, धनाधीश कुबेर ने अपनी ढ़ोनेवाले कहारों को दौड़ाने की आज्ञा दी। वरुणदेव का वाहन ठहरा मगर, इसलिए उन्होंने समुद्र का रास्ता चुना। सब देवता अपने-अपने वाहनों से दौड़ते हुए चल पड़े।

सबसे पीछे रह गए गणेश जी। एक तो उनका तुन्दिल भारी-भरकम शरीर और दूसरा उनका वाहन मूषक। उन्हें लेकर चूहा आखिर कितना दौड़ता? गणेश जी के मन में प्रथम पूज्य बनने की लालसा कम नहीं थी, इसलिए अपने को सबसे पीछे देखकर उदास हो गए। संयोग की बात है कि हमेशा इधर-उधर भ्रमण करने वाले देवर्षि नारद वीणा बजाते वहां से निकले। गणेश जी को उदास देखकर उन्होंने पूछा कि पार्वती नंदन, आप इतने दुखी क्यों है? तब गणेश जी उन्हें सारा वृतांत कह सुनाया। नारद जी हंस पड़े, बोले कि बस गणेश जी में उत्साह आ गया। वे उत्कष्ठा से पूछ उठे कि हे नारद जी, कोई युक्ति है क्या? देवर्षि नारद बोले कि बुद्धि के देवता के लिए भी युक्तियों का अभाव , ऐसा कह कर नारद जी फिर हस कर बोले कि आप जानते ही है कि माता साक्षात पृथ्वी रूपा होती है और पिता परमात्मा के ही रूप होते हैं। इसमें भी आपके पिता उन परम तत्व के भीतर तो अनन्त-अनन्त ब्रह्माण्ड है। गणेश जी को अब कुछ और सुनने-समझने की जरूरत नहीं थी।

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वे सीधे कैलाश पहुंचे और भगवती पार्वती की अंगुली पकड़कर छोटे शिशु के समान खींचने लगे और बोल कि माता, पिता जी तो समाधिमग्न है, अब पता नहीं उन्हें उठने में कितने युग बीतेंगे, तुम ही चलकर उनके वामभाग में तनिक देर के लिए बैठ जाओं माता। इस पर भगवती पार्वती हंसती हुईं जाकर अपने ध्यानस्थ आराध्य के समीप जाकर बैठ गईं, क्योंकि उनके मंगलमूर्ति कुमार इस समय कुछ पूछने और बताने की मुद्रा में नहीं थे। वे अत्यन्त उतावली में थे और केवल अपनी बात पूरी करने का आग्रह कर रहे थे।

गणेश जी ने भूमि पर लेटकर माता-पिता का प्रणाम किया, फिर चूहे पर बैठे और सात बार दोनों की प्रदक्षिणा कर ली। प्रदक्षिणा करके पुन:साष्टांग प्रणाम किया और माता कुछ पूछे, इससे पहले उनका मूषक उन्हें लेकर ब्रह्मलोक चल पड़ा। वहां ब्रह्माजी को अभिवादन करके वे चुपचाप बैठ गए। सर्वज्ञ सृष्टिकर्ता ने एक बार उनकी ओर देख लिया और अपने नेत्रों से ही मानो स्वीकृति दे दी। बेचारे देवता वाहनों को दौड़ाते हए पूरी शक्ति से पृथ्वी की प्रदक्षिण यथाशीघ्र पूर्ण करके एक के बाद एक ब्रह्मलोक को पहुंचे। जब सब देवता एकत्र हो गए तो ब्रह्माजी ने कहा कि श्रेष्ठता न शरीर बल को दी जा सकती है और न ही वाहन के बल को।

श्रद्धासमन्वित बुद्धिबल ही सर्वश्रेष्ठ है और उसमें भवानी नंदन श्री गणेश ही अग्रणी सिद्ध हो चुके है। देवताओं ने पूरी बात सुन ली और तब चुपचाप गणेश जी के सम्मुख मस्तक झुका दिया। देवगुरु बृहस्पति ने उस समय कहा था कि सामान्य माता-पिता का सेवक और श्रद्धा रखने वाला भी पृथ्वी प्रदक्षिण करने वाले से श्रेष्ठ है, फिर गणेश जी ने जिनकी प्रदक्षिणा की है, वे तो विश्वमूर्ति हे, इसे कोई अस्वीकार कैसे करेगा? कथा का सार यह है कि यदि बुद्धि का सही उपयोग किया जाए तो सृष्टि में कुछ भी असंभव नहीं है। बुद्धि के साथ धर्म निष्ठा और समर्पण को भी इस कथा में उद्घाटित किया गया है।

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