परहित के लिए प्राणत्याग करने वाले जटायु श्री राम के तब बने प्रिय

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जटायु का प्रसंग जब भी मन आता है, तो हर सहृदय व्यक्ति का अंतर्मन श्रद्धाभाव से भर जाता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जटायु ने बिना किसी स्वार्थ भाव से अपने प्राणों का बलिदान दिया और रामकथा में पावन स्थान पाया। न सिर्फ जटायु ने अपने जन्म को सार्थक बनाया, बल्कि परहित में बलिदान देकर परलोक को सद्गति के मार्ग पर प्रशस्त किया। एक ऐसा उदाहरण बने, जिन्हें युगों से याद किया जा रहा है।

त्रेतायुग का यह पावन चरित्र मन सदभाव का प्रसार करने वाला है। जटायु देव पुत्र थे। उनके भाई नाम सम्पाति था। यह वही सम्पाति थे, जो भगवान राम की सेना को समुद्र के तट पर मिले थे। जिन्हें जब ज्ञात हुआ कि उनके भाई जटायु ने भगवान श्री राम के काम के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया तो वे भी रामकाज में सहयोग करने को तत्पर हो गए। अब बात करते हैं, जटायु की तो उनका प्रसंग रामायण व राम चरित मानस में तब आता है, जब लंकापति रावण माता सीता का हरण कर रहा था, तब जटायु ने रावण को रोकने का प्रयास किया और अपने प्राणों का बलिदान दिया।

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हुआ यूं था कि जिस समय लंकापति रावण माता सीता का हरण करके आकाश मार्ग से पुष्पक विमान से वापस जा रहा था, तब जटायु ने रावण से युद्ध किया था। युद्ध में बलशाली रावण ने जटायु के पंख काट दिए थे, जिससे वह मरणासन्न होकर पृथ्वी पर गिर पड़े थे। भगवान श्रीराम और लक्ष्मण जब माता सीताजी की खोज कर रहे थे, तभी उन्होंने जटायु को मरणासन्न देखा। जटायु ने ही तब भगवान श्री राम को बताया कि रावण सीता का हरण करके लंका ले गया है और वही प्राण त्याग दिये। राम-लक्ष्मण ने उनका दाह संस्कार, पिडदान और जलदान आदि किया।

……जटायु के भाई सम्पाति के पंख तब फिर जमे

प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए थे, एक नाम गरुड़ था और दूसरे का अरुण था। अरुण सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे। बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मण्डल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लम्बी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु तो बीच रास्ते से ही लौट आये, लेकिन सम्पाती उड़ते ही गये। सूर्य के सन्निकट पहुंचने पर सूर्य के प्रखर ताप से सम्पाती के पंख जल गये और वे समुद्र तट पर गिर कर चेतना शून्य हो गये। चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में सीता की खोज करने वाले बन्दरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया।

तब जटायु पंचवटी में रहने लगे

इस घटना के बाद जटायु पंचवटी में आकर रहने लगे। एक समय आखेट के समय राजा दशरथ से इनका परिचय हुआ था, तब ये महाराज दशरथ के अभिन्न मित्र बन गये थे। वनवास के समय जब भगवान राम पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, उस समय जटायु से उनका परिचय हुआ। भगवान श्रीराम अपने पिता दशरथ के मित्र जटायु का सम्मान अपने पिता के समान ही करते थे।

श्री राम अपनी पत्नी सीता के कहने पर कपट-मृग मारीच को मारने के लिये जब गये, उस समय लक्ष्मण भी सीता के कटुवाक्य से प्रभावित होकर राम को खोजने के लिये निकल पड़े। दोनों भाइयों के चले जाने के बाद आश्रम को सूना देखकर लंकापति रावण ने सीता का हरण कर लिया और बलपूर्वक उन्हें रथ में बैठाकर आकाश मार्ग से लंका की ओर चल दिया।


सीताजी ने रावण की पकड़ से छूटने का पूरा प्रय‘ करने किया, लेकिन असफल रहने पर करुण विलाप करने लगीं। उनके विलाप को सुनकर जटायु ने रावण को ललकारा। गिद्धराज जटायु का रावण से भयंकर संग्राम हुआ, लेकिन अन्त में रावण ने तलवार से उनके पंख काट डाले। जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़े और रावण सीता जी को लेकर लंका की ओर चला गया। इस घटना के पश्चात जब भगवान श्री राम लक्ष्मणजी के साथ सीताजी की खोज करने के लिये खर-दूषण के जनस्थान की ओर चले तो मार्ग में उन्होंने विशाल पर्वताकार शरीर वाले जटायु को देखा। उसे देख कर राम ने लक्ष्मण से कहा कि भैया! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इसी जटायु ने सीता को खा डाला है। मैं अभी इसे यमलोक भेजता हूँ।

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ऐसा कह कर अत्यन्त क्रोधित राम ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और जटायु को मारने के लिये आगे बढ़े। राम को अपनी ओर आते देख जटायु ने कहा कि आयुष्मान! अच्छा हुआ कि तुम आ गये। सीता को लंका का राजा रावण हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले गया है और उसी ने मेरे पंखों को काट कर मुझे बुरी तरह से घायल कर दिया है।

तब जटायु ने पूरा वृतांत बताते हुए कहा कि सीताजी की पुकार सुन कर मैंनें उसकी सहायता के लिये रावण से युद्ध भी किया। ये मेरे द्बारा तोड़े हुए रावण के धनुष उसके बाण हैं। इधर उसके विमान का टूटा हुआ भाग भी पड़ा है। यह रावण का सारथि भी मरा हुआ पड़ा है, लेकिन उस लंकापति रावण ने मुझे मार-मार कर मेरी यह दशा कर दी। वह रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। मैंने तुम्हारे दर्शनों के लिये ही अब तक अपने प्राणों को रोक रखा था। अब मुझे अन्तिम विदा दो। इस बारे में सुनकर भगवान श्रीराम के नेत्र भर आये। उन्होंने जटायु से कहा कि तात! मैं आपके शरीर को अजर-अमर तथा स्वस्थ कर देता हूं, आप अभी संसार में रहें।

जटायु ने तब कहा कि श्रीराम! मृत्यु के समय तुम्हारा नाम मुख से निकल जाने पर अधम से अधम प्राणी भी मुक्त हो जाता है। आज तो साक्षात तुम स्वयं मेरे पास हो। अब मेरे जीवित रहने से कोई लाभ नहीं है। भगवान श्रीराम ने जटायु के शरीर को अपनी गोद में रख लिया। उन्होंने पक्षिराज के शरीर की धूल को अपनी जटाओं से साफ किया।

जटायु ने उनके मुख-कमल का दर्शन करते हुए उनकी गोद में अपना शरीर छोड़ दिया। जटायु के प्राणहीन रक्तरंजित शरीर को देख कर राम अत्यन्त दु:खी हुए और लक्ष्मण से बोले कि भैया! मैं कितना अभागा हूं। राज्य छिन गया, घर से निर्वासित हुआ, पिता का स्वर्गवास हो गया, सीता का अपहरण हुआ और आज पिता के मित्र जटायु का भी मेरे कारण निधन हुआ। मेरे ही कारण इन्होंने अपने शरीर की बलि चढ़ा दी। इनकी मृत्यु का मुझे बड़ा दु:ख है। तुम जा कर लकड़ियां एकत्रित करो। ये मेरे पिता तुल्य थे, इसलिये मैं अपने हाथों से इनका दाह संस्कार करूँगा।

राम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण ने लकड़ियां एकत्रित कीं। दोनों ने मिल कर चिता का निर्माण किया। भगवान राम ने पत्थरों को रगड़ कर अग्नि निकाली। फिर द्बिज जटायु के शरीर को चिता पर रख कर बोले कि हे पूज्य गृद्धराज! जिस लोक में यज्ञ एवं अग्निहोत्र करने वाले, समरांगण में लड़ कर प्राण देने वाले और धर्मात्मा व्यक्ति जाते हैं, उसी लोक को आप प्रस्थान करें। आपकी कीर्ति इस संसार में सदैव बनी रहेगी। यह कह कर उन्होंने चिता में अग्नि प्रज्वलित कर दी। थोड़ी ही देर में जटायु का नश्वर शरीर पंचभूतों में मिल गया। इसके पश्चात दोनों भाइयों ने गोदावरी के तट पर जाकर दिवंगत जटायु को जलांजलि दी।

त्रेता के बाद द्बापर युग बीत गया, कलयुग चल रहा है, लेकिन जटायु की कीर्ति आज भी धरती पर विद्यमान है। उसका बलिदान आज भी नमन किया जाता है। उनकी पारलौकिक गति का वर्णन मिलता है। किस प्रकार से जटायु ने अमरता को त्याग दिया और राम काज के लिए बलिदान को स्वीकार किया। जब कि जटायु चाहते तो भगवान श्री राम से अमरता का वर प्राप्त कर सकते थ्ो, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, इसके स्थान पर उन्होंने उस राम नाम के महत्व को समझा और प्राण त्याग दिए।

उन्होंने प्राण त्याग कर राम के नाम की महिमा का मंडन किया। राम नाम के महत्व को जगत के सामने स्वीकारा। इस मिथ्या जगत का मोह न करके राम नाम के सहारे स्वयं को तारने का प्रयास किया। उन्होंने राम के नाम का महत्व कहते हुए यहां कह दिया कि जिस राम के नाम से मरते हुए जीव को सदगति प्राप्त हो जाती है, वह राम स्वयं मेरे सम्मुख मौजूद है तो मेरे जीवित रहने का क्या अर्थ है?

मेरी मृत्यु के समय तो वह प्रभु राम स्वयं साक्षात रूप में मौजूद है तो मुझे अपने पारलौकिक गति की चिंता की आवश्यकता ही नहीं है। श्री राम नाम की महिमा को उद्घाटित करता यह प्रसंग इस दृष्टि से भी प्रासंगिक है। कलयुग में राम नाम के सहारे ही अधम से अधम जीव सदगति प्राप्त कर लेता है। ऐसे भगवान श्री राम कलयुग में जीवों को सहजता से मोक्ष प्रदान करने वाले है तो क्यों हम भी भगवान श्री राम का नाम लेकर स्वयं का जीवन धन्य बनाए। सदगति को प्राप्त करें।

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