…………साहेब का जूता

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सन 1933 की बात है, लाट साहेब (साहब) का फरमान आया कि वह 23- 12- 33 से 27- 12- 33 तक पांच दिन के दौरे पर मथुरा आ रहे हैं। फरमान पढ़ते ही चतुर्वेदी जी के होश उड़ गए और तुरन्त उन्होंने सभी को बुलाकर फरमान के बारे में बताया और कहा कि 23 से 27 तक लाट साहेब के रुकने की सभी व्यवस्थाएं सुनिश्चित कर दें और हर हाल में सभी तैयारियां दिनांक 15- 12- 33 तक आवश्यक पूरी कर ली जाएं।
चतुर्वेदी जी की कोठी में एक विशेष कक्ष वीवीआईपी के रुकने के लिए ही बनाया गया था, जिसमें अधिक आधुनिक ढंग की सभी सुविधाएं मौजूद थी। सभी तैयारियां जोरशोर से चलाई गईं और समय से पूर्व सभी व्यवस्थाएं तथा चाकचौबंद कर दी गईं। चतुर्वेदी जी ने सभी व्यवस्थाओं का जायजा लिया, जो कमियां थीं, उन्हें ठीक करावा दिया गया। पूरी कोठी दुलहन की तरह सज गई थी। सड़क पर लाल मोरंग फैला दी गई थी। किनारे की ईटों का लाल व सफेद रंग में रंग दिया गया था। लाट साहेब के लिए पांच घोड़ों की बग्गी तैयार की गई थी। लाट साहेब खाने के बहुत शौकीन थे। उनकी इच्छा को ध्यान में रखकर सभी व्यवस्थाएं कर दी गई।
23- 12- 33 को दोपहर लाट साहेब का काफिला काठी में पहुंचा। कोठी के विशेष कक्ष में लाट साहेब का भारतीय परम्परा के अनुसार आरती व फूलों से स्वागत किया गया। उसे देख कर लाट साहेब व मेम साहिबा बहुत खुल हो गए। सभी व्यवस्थाएं लाट साहेब की रुचि के अनुसार थी। सभी ठीक चल रहा था। दिनांक 25- 12- 33 का दिन बड़ा दिन था। उसमें चतुर्वेदी जी ने विशेष व्यवस्थाएं कर रखी थीं। जिसमें उन्होंने केसर की खीर व लाल पेड़ा लाट साहेब की विशेष पसंद थी। जिसे देखकर लाट साहेब बहुत खुश हुए और उन्होंने चतुर्वेदी जी से कहा कि 26- 12- 33 जी शाम को आप अपने परिवार के साथ उनके साथ चाय पीएंगे। लाट साहेब पूरे परिवार से मिलना चाहेंगे। हुक्म के अनुसार सभी परिवार समय पर शाम को लाट साहेब से मिलने पहुंच गया। परिवार में चतुर्वेदी जी की पत्नी जो भारतीय नारी थीं एवं उनका लड़का मदन मोहन चतुर्वेदी जो 18 वर्ष के थे, पहुंचें। लाट साहेब चतुर्वेदी परिवार से मिलकर बहुत खुश हुए। उन्होंने चतुर्वेदी जी से कहा कि आपके बेटे ने 12 वीं पास कर ली है, इसलिए उसको हम इग्लैंड पढ़ने को दो वर्ष के लिए भेजना चाहते हैं। आप लोग अपने परिवार में बात कर लें और 27 तारीख को अपने विचार मुझे बता दें तो मैं आपके लड़के को इग्लैंड भेजन की व्यवस्था कर दूं। घर आकर चतुर्वेदी जी ने अपने परिवार से बात की, सभी पुराने विचारों के होने के कारण उसको विदेश भेजने को सिवाय चतुर्वेदी जी के कोई तैयार नहीं था। चतुर्वेदी जी बहुत दुखी थे और सोच रहे थे कि इतना अच्छा मौका हाथ से नहीं जाना चाहिए। उन्होंने अपने सगे सम्बन्धियों को बुलाकर इस विषय में विचार किया और तय किया कि अगर लड़के को विदेश भेजना है तो लौटने पर उसका शुद्धिकरण करना होगा, तभी वह परिवार में शामिल हो जाएगा। उस समय यह धारण थी कि अगर कोई व्यक्ति विदेश जाना चाहेगा तो लौटने पर उसका यज्ञोपवीत व अन्य पूजा हवन आदि कर उसकी शुद्धि करने के बाद भोज दिया जाएगा एवं जाने से पूर्व लड़के की शादी करने के बाद ही उसे जाने दिया जाएगा। इन बातों पर विचार हुआ और सहमति बनी और तय किया गया कि 27 तारीख को लाट साहेब से लड़के के विदेश जाने के लिए कह दिया जाए और भेजने से पूर्व उसकी शादी कर दी जाए। 27 की सुबह चतुर्वेदी जी लड़के को लेकर लाट साहेब के पास गए और उनसे लड़के को बाहर भेजने की बात की। वह बहुत खुश हुए और उनसे कहा कि 1- 2- 34 को लड़के को लेकर आप दिल्ली पहुंचे और वहां से लड़के को दो वर्ष के लिए इग्लैंड भेज दिया जाएगा। 27 को लाट साहेब को विदा करने के बाद चतुर्वेदी जी को चिंता हुई कि ठीक एक माह बाद लड़के को भेज देना है, इसलिए शीघ्र ही उसकी शादी ही करनी होगी। 15- 1- 34 को उनकी शादी एक सीधी-साधी लड़की से कर दी गई और उस लड़की को मात्र थोड़ा अक्षर ज्ञान ही था। शादी के दो वर्ष बाद गौने की रस्म रख दी गई, क्योंकि मदन मोहन चतुर्वेदी दो वर्ष अपनी पढ़ाई खत्म कर स्वदेश लौटेगा। उनके लौटने के बाद ही यह रस्म निभाई जाएगी। 15 दिन का समय ऐसे ही बीत गया और 1- 2- 34 को मदन मोहन को लंदन के लिए विदाई दे दी गई। लंदन पहुंच कर उन्होंने बहुत मेहनत की और दो वर्ष की पढ़ाई पूरी कर ली। उनकी लगन देख उन्हें दो माह के लिए और रोक लिया गया। जिसमें उन्हें वनस्पति ज्ञान की शिक्षा दी गई। उन्होंने बड़ी लगन व मेहनत से पूरी की और पूरी यूनिवर्सिटी में टॉप किया। भारत लौटने पर उनको उनकी इच्छा के अनुसार वन विभाग में मिस्टर वॉटसन, जो उस समय वन विभाग के अच्छे पद पर आसीन थे, उनके अधीन रखा गया। मिस्टर वॉटसन मदन मोहन की लगन देख यह निर्णय लिया कि वह उन्हें एक काबिल फॉरेस्ट ऑफीसर बनाएंगे और उन्हें अपने साथ रखकर पूरी ट्रेनिंग देंगे और उन्होंने यह काम पूरा भी कर लिया। मिस्टर वॉटसन सभी काम उनसे लेने लगे और जरूरत पड़ने पर उनको समझा भी देते। स्वदेश लौटने पर मदन मोहन चतुर्वेदी का विधि पूर्वक शुद्धि करने के बाद ब्राह्मण भोज किया गया और उनका गौना भी कर दिया गया। वह अपनी पत्नी के साथ खुशी के साथ रहने लगे। लखनऊ में दिनभर वह मिस्टर वॉटसन के साथ रहकर कार्य करने लगे। अब उन्हें सरकारी बंगला रहने के लिए मिल गया। उसी में वह अपनी पत्नी के साथ रहने लगे। 1938 में उनके यहां एक लड़के का जन्म हुआ, वह बहुत खुश थे और दिन भर अपने कामोें में व्यस्त रहते। जब कि श्रीमति चतुर्वेदी पूजा करने के बाद अन्य कामों में व्यस्त रहतीं। वह हमेशा चतुर्वेदी की पसंद का ध्यान रखकर खाना बनाती एवं समय का भी पूरा ध्यान रखती। चतुर्वेदी जी समय के बड़े पाबंद थे। वह हर काम समय पर ही चाहते थे और उन्हें उस बात का संतोष था कि श्रीमति चतुर्वेदी बिना पढ़े लिखे होने पर भी सभी कार्य समय पर करती और किसी भी प्रकार की कमी व लापरवाही नहीं होने देती थीं।
सभी कुछ ठीक चल रहा था। सभी अंग्रेज अधिकारी चतुर्वेदी जी से खुश थे। वे विशेषकर वॉटसन के आंखों के तारे थे। वह उन्हें हर प्रकार से एक योग्य अधिकारी बना देना चाहते थे। समय बीता सन 1943 में चतुर्वेदी जी ने अपने लड़के को स्कूल भेजना शुरू कर दिया। पढ़ने में लड़का बहुत ही होनहार था और उसे सभी प्रकार की सुविधाएं भी थीं। वर्ष 1943 में इग्लैंड से लॉट साहेब का फरमान आया कि श्री वाटसन तुरंत आकर मिलें। फरमान के मिलते ही श्री वाट्सन इग्लैंड के लिए रवाना हुए। रवाना होने से पूर्व उन्होंने अपने विभाग के सर्वोच्च पद का चार्ज श्री मदन मोहन चतुर्वेदी को दे दिया,जबकि विभाग में उनसे सीनियर कई अंग्रेज अधिकारी मौजूद थे, मगर वॉटसन के सामने किसी की नहीं चलती थी, क्योंकि लाट साहेब से उनके बहुत ही अच्छे सम्बन्ध थे। वॉटसन साहेब ने इग्लैंड पहुंचकर चतुर्वेदी जी से बात की और हालचाल लिया तथा बताया कि अभी छह महीने उन्हें इग्लैंड में रहना पड़ेगा। वह अपने कार्यों को ठीक से अंजाम देते रहें। अगर कोई दिक्कत पेश आए तो उनसे बात कर ली जाए। चतुर्वेदी एक बुद्धिमान व मिलनसार अधिकारी थे। उन्होंने अपनी उसी काबलियत से सभी अधिकारियों को उनके विरुद्ध जाने का कोई मौका नहीं दिया। कोई भी समस्या पैदा नहीं होने दी।
वाटसन साहेब इग्लैंड से अपने कार्य निपटाने में व्यस्त थे। चार माह का समय बीत चुका था कि उनको लाट साहेब के जरिए सूचना मिली कि महारानी ने उनको बुलाया है। वह बहुत चिंता में थे कि महारानी ने क्यों बुलाया है। निर्धारित समय पर वह महारानी से मिलने उनके दरबार में पहुंच कर लाट साहेब ने उन्हें अपनी बगल की कुर्सी में बैठा दिया। तभी उनके पास एक सैनिक आकर रुका और लाट साहेब एवं श्री वाटसन को साथ चलने को कहा। वहां से वह दोनों पूरे राजकीय सम्मान के साथ रानी के पास पहुंचे। वहां पहुंचकर दोनों ने महारानी का अभिवादन किया। महारानी ने अपने पास बुलाकर लाट साहेब से कुछ कहा और उन्होंने श्री वाटसन को महारानी के सामने खड़ा कर दिया। महारानी ने खड़े होकर कहा कि श्री वाटसन की योग्यताओं को ध्यान में रखकर इस सम्मान के लिए बुलाया गया है और तभी महारानी ने खड़े होकर सैनिक को इशारे से कुछ कहा और उनका आदेश मिलते ही वह हरकत में आया और पास में रखे एक पैकेट को उठाया और महारानी का हाथ लगवाकर श्री वाटसन को दिया। चारों तरफ तालियों की गड़गड़ाहट हुई और काफी समय तक होती रही। श्री वाटसन अपना पैकेट स्टेज पर लिए खड़े थे और धन्यवाद कह रहे थे। पैकेट की शोभा देखने लायक थी। तीन तरफ मखमल लगा था और सामने शीशा था। जिसमें से साफ दिखाई दे रहा था कि एक निहायत ही खूबसूरत जूता जैसा कि आज से पहले देखने में नहीं मिला, देखकर सभी हैरान थे। तभी सैनिक ने घोषणा की कि महारानी को श्री वाटसन के सराहनीय कार्यों से खुश होकर यह नायाब तोहफा दिया है। श्री वाटसन को जूतों का बहुत शौक था और वह जहां भी जाते, अपनी पसंद का जूता लेते। महारानी को यह मालूम था। इसी को ध्यान में रखकर इनके लिए स्पेशल जूता बनाया गया। जैसा कि पहले न तो बना होगा और न ही बनेगा। सभी ने श्री वाटसन को बधाई दी और वह इग्लैंड का कार्य पूरा करके सन 1945 के अंत में भारत लौटे। विभाग वालों ने उनका जोरदार स्वागत किया और एक यादगार पार्टी का भी आयोजन किया। महारानी द्बारा दिए गए जूते को भी सभी ने देखा। सभी उसको ललचाई आंखों से देखते रहे। श्री चतुर्वेदी को मन वह जूता इतना भाया कि उन्होंने ठान लिया कि किसी भी प्रकार श्री वाटसन को खुश करके जूता पाने की कोशिश में लग गए। श्री वाटसन के भारत आने पर श्री चतुर्वेदी ने विभाग का चार्ज उन्हें दे दिया। श्री वाट्सन द्बारा बताए कार्यों को करने लग गए। उनका लक्ष्य यही था कि जूते को कैसे प्राप्त किया जाए और वह अक्सर वाटसन साहब की कोठी पर जाते तो उनकी दिली इच्छा रहती कि वह जूते की तारीफ एक बार आवश्य करते। तारीफ सुनकर वाटसन साहब उनको जूते के पास ले जाते और निकाल कर उन्हें दिखाते और कहते कि रूमाल से साफ करके उसे पुन: केस में रख दो। यह क्रम रोज का ही करीब-करीब बन गया था। जूतों के पास दो मखमल के रूमाल रखे रहते थे। जिनसे जूतों की सफाई दिन में कई बार होती रहती थी।
दिन बीत रहे थे, वर्ष 1946 भी अपनी अंतिम सांसे गिन रहा था। 26- 12- 1946 को वाटसन साहेब ने चतुर्वेदी जी को जंगल में शिकार पर चलने का हुक्म दिया और वह तैयार होकर वाट्सन साहेब के बंगले पर पहुंच गये। कुछ देर में दोनों अपनी रायफल के साथ जीप में बैठ गए। ड्रायवर को हुक्म दिया गया कि वह उन्हें रायबरेली के जंगल में ले चले। उसने जीप का मुख उस ओर मोड़ दिया और चल दिए। तीन घंटे के सफर के बाद वह जंगल के अंदर पहुंचे और ड्रायवर को हिदायत दी गई कि वह धीरे-धीरे जीप चलाए। वह दोनों अधिकारी बहुत सावधानी पूर्वक अपनी रायफल लिए चौकन्ने हो गए और देखने लगे और जीप धीरे-धीरे बढ़ रही थी। शांत वातावरण था। आगे श्री वाट्सन साहेब ने देखा कि एक हिरण खड़ा है और उसके पास ही छोटा बच्चा खड़ा था। वाट्सन साहेब ने हाथ के इशारे से ड्रायवर को संकेत किया तो जीप और धीरे हो गई, तभी वाटसन साहेब की रायफल गरज उठी और एक गोली हिरण के माथे पर लगी। वह उछला और धम्म से जीप के पास आ गिरा और तड़फने लगा। दोनों अधिकारी जीप से उतरे और हिरण के पास पहुंचे, तब तक वह दम तोड़ चुका था। बच्चा कुछ देर सहमा खड़ा रहा। इन लोगों को आते देख जंगल के अंदर छलांग लगाते हुए चला गया। तब तक ड्रायवर भी वहां पहुंच गया। वाटसन साहेब ने उसे आदेश दिया कि जीप को वह हिरण के पास तक ले आएं। वह जीप लेकर पहुंच गया। तीनों लोगों ने मिलकर हिरण को जीप में लादा और वापस लखनऊ को चल दिए। दोनों अधिकारी बहुत खुश थे। चतुर्वेदी जी उनके निशाने की बार-बार तारीफ किए जा रहे थे। वाटसन साहेब फूले नहीं समा रहे थे। शाम सात बजे के करीब जीप वाटसन साहेब के बंगले में पहुंची, जीप के रुकते ही बंगले में तैनात सभी कर्मचारियों ने जीप को घेर लिया और हिरण को उठाकर बरमादे में रख दिया, तब तक श्रीमति वाट्सन वहां पहुंचीं और हिरण देखकर बहुत खुश हुईं। वाटसन साहेब को उनके द्बारा लाए गए तोहफे से इतना खुश हुईं और उन्होंने अपनी खुशी का इजहार श्री वाटसन साहेब के माथे पर चूम कर किया।
थोड़ी देर में चतुर्वेदी जी ने इजाजत ली और अपने बंगले की ओर चल दिए। जैसे ही बंगले में दाखिल हुए उनके दोनों बच्चे कृष्ण मोहन व राधे मोहन उनसे लिपट गए और शिकार के बारे में पूछा। उन्होंने पूरी घटना सुना दी। दोनों बच्चे बड़ी लगन से सुन रहे थे, तभी छोटा बेटा राधे मोहन ने पूछा कि हिरण के बच्चे को अब कौन देखेगा और खिलाएगा। बच्चों को किसी प्रकार बहला-फूसला दिया गया, लेकिन यह बात उनके दिमाग से रह-रह कर आ रही थी। रात सोते में भी उनका ध्यान उसी ओर खिंच रहा था। सुबह हुई, वह फिर अपने कार्यों में व्यस्त हो गए। तभी वाटसन साहेब का चपरासी उनके पास आया और कहा कि साहेब ने आपको बुलाया है। उन्हें बड़ी खुशी हुई थी कि अब जूतों के पास पहुंचने का मौका मिल गया। वाटसन साहेब अपने ड्राइंग रूम में बैठे थे और कुछ उदास से लग रहे थे। चतुर्वेदी जी वहां पहुंचे और अभिवादन के पास उनके पास बैठ गए। बात शुरू कर दी कि इग्लैंड से लाटसाहेब का मैसेज आया है कि अब उन्हें किसी भी समय भारत छोड़कर अपने मुल्क जाना पड़ सकता है। सुनकर चतुर्वेदी जी को अंदरूनी खुशी हुई, मगर ऊपर से अफसोस जाहिर किया और कहा कि आप चले जाएंगे तो मेरा क्या होगा। मेरा हाल भी कही हिरण के बच्चे की तरह न हो जाए। उन्होंने कहा कि तुम घबराओं मत, मैं जाऊंगा तो तुम्हें अपनी जगह पावरफुल बनाकर जाऊंगा। बातों का सिलसिला रुका तो चतुर्वेदी जी उठे और जूते के केस के पास पहुंच कर उसे खोला और रुमालों द्बारा उन्हें बड़ी लगन से देखा और सफाई करने लगे। यह देख वाटसन साहेब ने कहा कि मेरे जाने के बाद तुम इस जूते के बिना कैसे रह पाओगे। बात आई-गई हो गई। वाटसन साहेब अपने कार्यों में व्यस्त हो गए। चतुर्वेदी जी अपने कार्यों में बार-बार यही सोचकर परेशान थे कि वाटसन साहेब के जाने के बाद वह किसी अन्य अधिकारी को अपना चार्ज न दे दें। यह सोच उठते-बैठते उनके दिमाग में बनी रही। समय बीत रहा था। मई 1947 के प्रथम सप्ताह लाट साहेब का आदेश वाटसन साहेब को मिला कि वह 14 अगस्त 1947 से पहले अपना चार्ज किसी योग्य इंडियन अधिकारी को सौंपकर इग्लैंड पहुंचे।
आदेश मिलते ही वाटसन साहेब दो दिन तक बंगले से बाहर नहीं निकले। उनको लखनऊ से बहुत लगाव था। देश छोड़ने की बात ने उन्हें हिलाकर रख दिया था। उन्होंने अपना दिल मजबूत किया और तय किया कि यहां का चार्ज श्री मदन मोहन चतुर्वेदी को ही देंगे, क्योंकि वह उनके बताए रास्ते विभाग की गाड़ी को सुचारू रूप से ले जाएंगे। इसी को आधार मानकर उन्होंने अपना चार्ज देने का पूरा मन बना लिया और कार्यवाही शुरू कर दी। एक सप्ताह के अंदर चार्ज नोट तैयार कर लिया। वाटसन साहेब के इधर के व्यवहार से विभाग के बड़े अधिकारियों में फुसफुसाहट शुरू हो गई। सिवाय चतुर्वेदी जी के किसी को भी सही बात का पता नहीं था। इसी उधेड़-बुन में जून का महीना भी बीत गया। जुलाई के प्रथम सप्ताह वाट्सन साहेब ने सभी अधिकारियों की मीटिंग बुलाई और कहा कि वह दिनांक 1- 8- 47 को अपना चार्ज मिस्टर चतुर्वेदी को देकर अपने वतन चले जाएंगे। चतुर्वेदी जी बहुत खुश थ्ो, मगर विभाग के अन्य सभी अधिकारी सोच में डूब गए। आखिरकार 1- 8- 47 की सुबह मिस्टर वाटसन ने अपना पूरा चार्ज श्री मदन मोहन चतुर्वेदी को सौप दिया और कहा कि मैं 3- 8-47 को अपने मुल्क को रवाना हो जाऊंगा। चतुर्वेदी जी चार्ज लेने के बाद वाटसन साहेब के साथ उनके बंगले में चले गए और ड्राइंग रूम में बैठकर बातचीत करने लगे और विभाग के विषय में बातचीत की और समझीं। उन्होंने बहुत हसरतभरी निगाहों से जूते के केस की तरफ देखा। यह देख वाटसन साहेब ने उनसे कहा कि वह जुते मुझे भी बहुत प्यारे हैं, मगर मैं ये देख पा रहा हूं कि तुमको भी यह बहुत पसंद हैं। जाओं और उनको देखों। चतुर्वेदी जी यही चाहते थे। वह उठे, जूते के केस के पास पहुंचे और खोला व खूब निहारा। उन्हें हाथ लेकर दोनों रुमालों से अच्छी तरह से साफ किया और फिर केस में रख दिया। यह सब वाटसन साहेब देख रहे थे। थोड़ी देर में चतुर्वेदी जी ने विदा मांगी और अपने बंगले की तरफ चल दिए। मन बहुत बोझिल था कि अब जल्द ही जूते उनसे बहुत दूर होने वाले थे। मन बहुत उदास था। श्रीमति चतुर्वेदी जिनको सभी माता जी व अम्मा जी कहते थे, उन्होंने श्री चतुर्वेदी जी से कहा कि चल कर खाना खा लंे। दोनों बच्चे भी आपका इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है, आप स्वयं व बच्चों को खाना खिला दें। वह जानती थीं कि एक बार न करने का मतलब अब वह खाना नहीं खायेंगे। इसके बाद उन्होंने बच्चों ने खाना खा लिया और उन्हें सुला दिया। इसी बीच चतुर्वेदी जी रात भर करवतें बदलते रहे और जूतों के बारे में सोचते रहे। अगले दिन 2- 8- 47 का दिन था। तीन को वाटसन साहेब से अपने देश को चले जाना था। सुबह उठे, तैयार हो ही रहे थे कि वाटसन साहेब का चपरासी आया और कहा कि आपको साहेब ने बुलाया है। वह तैयार थे ही और साथ में चल दिए। बंगले पर सामने ही वाटसन साहेब खड़े थे और उन्हें अपने साथ ड्राइंग रूम में ले गए। काफी बातें की। विभाग के विषय में समझाया। इसी बीच नौकर चाय लेकर आया और दोनों लोग चाय पीते हुए बातें करने लगे। अंत में वाटसन साहेब ने कहा कि कल मैं यहां से चला जाऊंगा और मैं यह चाहता हूं कि तुम्हें एक यादगार तोहफा दूं। तुम्हें जो भी पसंद हो, बतला देना तो मुझे खुशी होगी। आज अच्छी तरह सोचकर कल मुझे बतला देना। चाय पी और विदा लेकर घर की ओर चल दिए। मन में बहुत उथल-पुथल मच रही थी। घर आकर सीधे अपने कमरे में जाकर लेट गए। तभी माता जी आयीं और कहा कि अब तो आपकों खुश होना चाहिए कि कल से आप अपने विभाग के सबसे ऊंचे पद पर पहुँच जाएंगे। अब उदासी कैसी? बात सुनी और जवाब में इतना ही कहा कि कुछ थकान सी है। थोड़ा आराम कर लूंगा तो ठीक हो जाऊंगा। माता जी बात सुनकर बाहर आ गईं और अपने कार्यों में व्यस्त हो गईं। शाम को चतुर्वेदी जी उठे और बाहर लॉन में आकर बैठ गए। कुछ देर में उनके दोनों बच्चे भी उनके पास आकर बातें करने लगे। चाय आयी, सबने पी और सैर के लिए उठकर चल दिए। कुछ ही दूर गए थे, तभी उन्हें मिस्टर वाटसन दिखाई दिये। पास आने पर उन्होंने कहा कि मिस्टर चतुर्वेदी हम तुमसे बहुत खुश हैं, मुझे कल तुम्हारे जवाब का इंतजार रहेगा। बातें करते हुए वह अपने- अपने बंगले की ओर चल दिए।
बंगले में पहुंचकर चतुर्वेदी जी सोच में डूबे हुए थे। सोच यही थी कि तोहफे में क्या मांगे, जो उन्हें पसंद था, वह वाटसन साहेब को भी बहुत पसंद था, मगर बतलाना तो था ही। इसी उधेड़बुन में बिस्तर पर आकर लेट गए और करवटें बदलने लगे। दिमाग में में बस एक ही बात घूम रही थी कि कौन सी चीज मांगी जाए। रात कब बीत गई, पता नहीं चला। सुबह जल्दी-जल्दी तैयार हुए और वाटसन साहेब के पास जाने के पहले पक्का इरादा कर लिया था कि उनसे यादगार के तौर पर जूतें ही मांग लूंगा। आधे -अधूरे मन से नाश्ता किया और चल दिए। वाटसन साहेब के पास जा पहुंचे और वाटसन साहेब उनसे बहुत गर्मजोशी से उनसे मिले। वही अपने पास ड्राइंग रूम में बैठा लिया और कहा कि कौन सी चीज तुम्हें पसंद है, तुरंत बतलाइयें।
जिससे मैं अपना किया वायदा पूरा कर सकूं। मैं बड़े पशोपेश में था कि कैसे अपने दिल की इच्छा बतलाऊ। तभी उनकी आवाज आयी, कि तुमने क्या सोचा है, तुरन्त बतलाओं। उनकी बात सुनकर मेरी कहने की हिम्मत हुई। मैंने कहा कि मुझे आप अपने जूते जो आपको महारानी से मिले थे, वहीं देने की कृपा करें। मैं उन्हीं के सहारे अपने कामों को सुचारू रूप से चला सकूंगा। उसके लिए मैं आपका पूरी उम्र एहसानमंद रहूंगा। वाटसन साहेब सुनकर थोड़ा सकते में आ गए और फिर सोच कहने लगे कि तुम्हारी मांग को पूरा करना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल है। फिर भी मैं अपने वायदे से बंधा हूं, इसलिए तुम्हारी मांग को पूरा करते हुए वह जूते तुम्हें दे रहा हूं। तभी उन्होंने चपरासी रामदीन को आवाज दी और कहा कि जूतों वाले केस को उठा कर लाओ। तुरंत ही उनके हुक्म की तामील हुई और जूते लाकर वाटसन साहेब के पास आया। उन्हें जूते वाले केस को लेकर चतुर्वेदी जी को दिया और कहा कि इनको देना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल होते हुए भी मैं तुम्हें दे रहा हूं। मुझे उम्मीद है कि तुम इनका ध्यान ठीक से रखोंगे और इनको कभी अपने से अलग नहीं करोंगे। जूतों के पैकेट को लेकर चतुर्वेदी जी अपने बंगले की ओर चल दिए। बड़े खुश थे और गर्व से उनका सिर ऊंचा उठा हुआ था। घर पहुंचकर उन्होंने ड्राइंग रूप में जूतों को ठीक से सजाकर रख दिया। तभी उनके दोनों बच्चे भी आ गए और जूतों को देखकर बहुत खुश हुए। दूसरे दिन सुबह वह उठे तैयार हुए और जूते के पास पहुंचकर उनको साफ किया और काफी देर तक उन्हें निहारते रहे। तभी उनकी पत्नी आईं और कहा कि सुबह-सुबह भगवान के भजन के बजाय आप इन जूतों को ही देखते रहते हैं, यह ठीक नहीं है। इसका उन पर कोई असर नहीं हुआ। धीरे-धीरे समय बीतता गया, इसमें कमी नहीं आई, बल्कि इनका शौक बढ़ता गया। ……………………………. क्रमश: ……………………………. लेखक- अश्विनी कुमार नागर

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