मनुष्य का स्वभाव है कि वह स्वयं को अज्ञानी नहीं समझता है। अज्ञानता जितनी अधिक होती है, व्यक्ति स्वयं को उतना ही अधिक विद्वान समझने की भूल कर बैठता है, जो उसमें अहंकार का बीज रोपित करता है। अहंकार का यही स्वरूप आज समाज में चारों ओर देखा जा सकता है, किसी से बात कीजिए वह आपको ज्ञान बघारता मिल जाएगा। मानो उससे ज्ञानी कोई है ही नहीं सृष्टि में। वास्तव में देखा जाए तो जिन्हें तत्वज्ञान हो जाता है, वह स्वयं को विद्वान समझने की भूल नहीं करते हैं, वह जीव व जीवन का सार जान लेते हैं और उसी के अनुरूप संयमपूर्ण व धर्म संगत आचरण जीवन में उतारते हैं। ज्ञान मनुष्य के विचारों की जड़ता को मिटाता है।
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मनुष्य का यह स्वभाव मेरे एक मित्र पर भी हावी था, आधुनिकता की चकाचौंध में वह भौतिकवाद को ही सर्वस्व मानता था। कालांतर में उसका रुझान अध्यात्म की ओर हुआ। अनायास ही ज्ञानार्जन और साधना के पथ पर वह आगे बढ़ने लगा। ज्ञानार्जन और साधना में लगा मेरा वह मित्र धीरे धीरे साधना की ओर बढ़ने लगा था, पर अज्ञानता ने उसका पीछा अभी भी नहीं छोड़ा था। हालाकि, साधना के पथ पर चलते हुए उसके विचारों में अभूतपूर्व परिवर्तन हुए थे। वह धीरे-धीरे विचारशील बनने लगा था। भोग विलास और इंद्रिय सुख से धीरे-धीरे उसका रुझान भी कम होने लगा, अपने वैचारिक बदलाव का आकलन करने के लिए वह अपने एक अग्रज के पास पहुंचा, जो आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत संपन्न में थे, शास्त्रोक्त ज्ञान भी था। वहां पहुंचकर उसने अपने अग्रज से तमाम विषयों पर या यूं कहें कि धार्मिक विषयों पर वार्तालाप किया और अपने संशय को दूर करने का प्रयास किया। जिस प्रकार से वह साधना करता था, उसके बारे में उसने यानी मेरे मित्र ने अपने अग्रज को बताया और मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहा। मेरा वह मित्र ईश्वर के विभिन्न नामों का उच्चारण अपनी दैनिक पूजा में किया करता था। उसे इस प्रकार पूजा करते हुए देख कर मेरे मित्र के अग्रज ने उससे कहा कि तुम अपने पूर्व काल में किए गए कर्मों का ध्यान करो, संभवत तुम्हें अपने कर्मों के निम्न कोटि के होने का भान हो जाएगा। तुम्हारे में जो यह परिवर्तन हो रहा है, वह भगवत कृपा है और भगवत कृपा तुम्हें इसलिए प्राप्त हो रही है क्योंकि तुम उन भगवान के नामों का दैनिक पूजा में उच्चारण कर रहे हो, उन नामों का उच्चारण करके तुम अपनी साधना को आगे बढ़ा रहे हो, संभवत यही वजह है कि तुम्हारी आत्मा का उत्थान हो रहा है। कुछ समय तक मेरा मित्र अपने उस अग्रज के साथ रहा और बात आई-गई हो गई। मेरा मित्र जीवन में आगे बढ़ने लगा साधना के पथ पर लगा रहा। कालांतर में उसके वह अग्रज भी नहीं रहे, जिन के सानिध्य में रहकर वह ज्ञान पथ पर चलने को प्रेरित हुआ था। बहरहाल भगवत कृपा से उसकी मति में शुद्धता आ गई थी, वह विचारशील बन गया था, यह कहना कि वह आध्यात्म के उच्चतम शिखर पर पहुंच गया है तो गलत होगा लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि विचार शीलता के प्रभाव के चलते वह धर्म और अधर्म की भेद को कुछ हद तक समझने लगा था। अब उसे अपने अग्रज कि कहीं वह बात भी स्मरण हो आई थी, जिसमें उन्होंने भगवत के नामों के उल्लेख के प्रभाव का वर्णन करते हुए यह कहा था कि जिन नामों का तुम स्मरण कर रहे हो, उसके प्रभाव से तुम्हारी आत्मा का उत्थान हो रहा है। अब उसे अपने अज्ञानी होने का बोध हो चुका था और उसे यह बात समझ में आ गई थी उसके पास जो भी ज्ञान है, वह बहुत कम है क्योंकि ज्ञान तो सृष्टि अनंत है और उसके पास जो भी ज्ञान है, जिसे वह संपूर्ण मानता था वह तो कुछ भी नहीं था, उसे और भी ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है। इस तत्व का ज्ञान होने पर वह अध्यात्म के पद पर आगे बढ़ चला है, वह कितना सफल होगा यह तो भविष्य ही तय करेगा, लेकिन इतना तो तय है जीवन की इस यात्रा ने उसे ज्ञानी होने के दंभ से मुक्ति जरूर दिला दी थी। वह जान चुका था, ज्ञान का अनंत स्वरूप तो वह ईश्वर की भक्ति ही है, जिस पर भगवत कृपा होगी, उसे ज्ञान की प्राप्ति स्वाध्याय व आत्म विश्लेषण से स्वतः होती जाएगी।
भृगु नागर