मोदी का एक बड़ा दांव, सपा-बसपा का खेल खलास, कांग्रेस व रालोद को संजीवनी, मोदी को अपनी साख बचाने की अब चिंता

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भाजपा की विफलताओं को छिपाने के लिए चल सकते हैं मोदी यूपी विभाजन का बड़ा दांव
सपा पहले से ही विभाजन के विरोध में, उसका राजनैतिक अस्तित्व पर बढ़ेंगा खतरा
सपा का वोट बैंक जा सकता है कांग्रेस व रालोद की झोली में

कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र में भी छोटे राज्यों के गठन का समर्थन

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भृगु नागर, नई दिल्ली। कोरोनाकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को जबरदस्त झटका लगा है। राममंदिर, ट्रिपल तालाक व धारा-37० जैसे मुद्दे भी मोदी की छवि पर आघात लगने से बचा नहीं सके हैं।

भृगु नागर

ऐसे में देश के सबसे बड़े सूबे में होने वाले विधानसभा चुनाव मोदी के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होंगे, क्योंकि चुनाव यदि भाजपा के पक्ष में नहीं रहा तो मोदी के अगले प्रधानमंत्रित्व काल पर प्रश्नचिह्न् लग जाएंगे। ऐसे में मोदी एक बड़ा दांव चल सकते है, जिससे देश व प्रदेश के राजनैतिक समीकरण बदल जाएंगे और भाजपा का सूबे के सबसे बड़े प्रदेश पर कब्जा बरकरार रहे। मोदी का यह दांव यूपी का बंटवारा हो सकता है। मोदी के इस फैसले से सपा-बसपा सरीखे दलों का राजनैतिक खेल तो खलास होगा ही, साथ ही भाजपा-कांग्रेस व रालोद की बल्ले-बल्ले हो जाएगी। जानिए कैसे मोदी का यह दांव सपा-बसपा के जनाधार को सिमेटेगा? और रालोद व कांग्रेस के जनाधार के लिए संजीवनी बनेगा। भाजपा भी अपनी सियासी जमीन को बचाने में कैसे कामयाब होगी?

आज के राजनीतिक हालात में यूपी के बंटवारे का दांव राष्ट्रीय दलों के लिए नि:सदेह फायदे का सौदा हो सकता है, मोदी यह दांव आज के राजनीतिक हालात में खेल सकते है, क्योंकि अब यूपी में आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर हलचल शुरू हो गई है, ऐसे में मोदी अगर प्रदेश के बंटवारे दांव चलते हैं तो तय मानिए कि सपा-बसपा जैसे छोटे राजनैतिक दल हाशिये में चले जाएंगे। उनका राजनीतिक अस्तित्व ही खत्म होने की कगार पर पहुंच जाएगा, लेकिन भाजपा के अलावा किसी अन्य दल को मोदी के इस फैसले का लाभ मिलेगा तो वह होगी कांग्रेस, क्योंकि कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर अपना रुख पहले ही स्पष्ट कर चुकी है, वह यूपी के बंटवारे के पक्ष में खड़ी है।

मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में राम मंदिर, धारा 37०, सीएए, ट्रिपल तलाक और हिदुत्व से जुड़े मुद्दों पर बहुत बढ़त बनाई थी, लेकिन कोरोना महामारी, चीन के साथ बढ़ती तनातनी, तेजी से गिरती देश की अर्थव्यवस्था और बढ़ती बेरोजगारी पर सरकार पूरी तरह से फेल होती नजर आ रही है। यही वजह है कि अब मोदी सरकार चारों ओर से बड़ी मुसीबतों से घिरती जा रही है। हांल में ही कृषि क्षेत्र में सुधारों के नाम पर लाए गए तीन नए बिलों का भी किसान जबरस्त विरोध कर रहे हैं। इसी मुद्दे को लेकर एनडीए के सबसे पुराने सहयोगी अकाली दल ने तो मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर मोदी सरकार की कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न् लगा दिए हैं, क्योंकि शिव सेना के अलग होने को तो भाजपा ने किसी न किसी रूप में राजनीतिक रूप से कैश भी कर लिया है और कर भी रही है, क्योंकि शिव सेना पर सत्ता लोभ जैसा कलंक साबित करने में भाजपा किसी न किसी दृष्टि से कामयाब भी रही है।

इधर किसानों के लिए लाए गए बिलों को लेकर अब विपक्षी दलों को भाजपा पर हमलावर होने का मौका भी मिल गया है, जिससे वे अपने पक्ष में राजनीतिक हवा बनाने की कोशिश भी कर रहे हैं। विशेष तौर पर इन सब के बीच कांग्रेस को बढ़त मिली है और सपा- बसपा जैसे छोटे दल भी अपनी राजनीतिक जमीन बनाने की जुगत में लगे हुए हैं। अगर आज के राजनीतिक हालात पर गौर करें तो मोदी सरकार के हालात भी तेजी से 2०11 की मनमोहन सरकार की तरह होते जा रहे हैं। राजनीति के जानकार भी कुछ ऐसा ही मानते हैं, कि देश में अब मोदी की देश में सियासी जमीन खिसकनी शुरू हो गई है, इसे मोदी सरकार पर वक्त की मार ही कहेंगे कि इन परिस्थितियों में मोदी के प्रमुख सिपहसालार अमित शाह का स्वास्थ्य भी कुछ नाजुक ही चल रहा है। अरुण जेटली सरीख्ों संकटमोचक अब मोदी के पास नहीं है। ऐसे में मोदी के जरूरी हो गया है कि वह अपनी साख पार्टी के भीतर व बाहर दोनों स्थानों पर बनाए रखें, ताकि आने वाले समय में उनका वर्चस्व पार्टी के बाहर व भीतर कायम रहे। ऐसे में यूपी जैसे महत्वपूर्ण प्रदेश में आने वाले समय में चुनाव होने वाले हैं, जोकि भाजपा की साख निश्चित करेंगे और यह भी तय करेंगे कि केंद्र में काबिज भाजपा या मोदी सरकार भविष्य क्या है। इसी साख को येन-केन बचाना मोदी की बेचैनी का सबब बनी हुई है। ऐसे में मोदी एक ऐसा दाव चल सकते है, जिससे वह यूपी में अपनी पार्टी का जनाधार बचाने में कामयाम हो सकते है, साथ ही समाजवादी पार्टी व बहुजन समाजपार्टी का वजूद ही खतरे में डाल सकते है। मोदी के इस दांव चलने के बाद यह दल आक्रामक होने के बजाय अपने अस्तित्व को बचाने में जुट जाएंगे। राजनीति के जानकार मानते हैं कि मोदी राज्य के बंटवारे का प्रस्ताव आगामी विधानसभा चुनाव से पहले ला सकते है। राज्य के बटवारे के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी हमेशा से खिलाफ रही है, चूंकि उत्तर प्रदेश के बंटवारे के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर सपा हो रही है,इसलिए विभाजन के विरोध के कारण सपा स्वयं ही सिमट जाएगी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलग राज्य बनने से सपा का पहले दिन से ही यहां वजूद समाप्त हो जाएगा। उत्तर प्रदेश में सपा का वोट बैंक बैंक भी चार हिस्सों में बट जाएगा और वह केवल इटावा के आसपास के चंद जिलों की पार्टी बनकर रह जाएगीए क्योंकि पूर्वी एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी बचे कुछ बचे कुचे क्षेत्रों में इसका एकाधिकार समाप्त हो जाएगा। विभाजित प्रदेशों में स्थानीय यादव एक बाहरी प्रदेश के यादवों का नेतृत्व शायद ही स्वीकार करें। जिस तरह हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों ने कभी एक दूसरे के नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया। प्रदेश के विभाजन के बाद क्षेत्रीय दल एक प्रदेश में ही सिमट जाते हैं, जहां वे सबसे ज्यादा मजबूत होते हैं। उसके तमाम उदाहरण है, जैसे आंध्र प्रदेश के बंटवारे में भी ेदेखा गया है कि जहां चंद्रबाबू नायडू की पार्टी तेलंगाना राज्य से समाप्त हो गई और यही हाल लालू और नीतीश पार्टियों का बिहार के बंटवारे के बाद झारखंड में हुआ। उत्तराखंड बनने के बाद सपा बसपा की राजनीति भी यहां से समाप्त हो गई। देश में कोई ऐसा क्षेत्रीय दल नहीं है, जिसकी दो प्रदेशों में सरकार रही हो, यह दोनों ही केवल 2०25 लोक सभा सभा चुनाव से पहले अधिकतम छोटे प्रदेशों की पार्टियां बनकर सिमट जाएंगी। स्थानीय पार्टियों के लिए छोटे प्रदेशों में नए राजनीतिक समीकरणों को साध पाना असंभव होता है। पश्चिम से सपा को का एक बड़ा अल्पसंख्यक वोट बैंक उसे छोड़कर बसपा कांग्रेस और रालोद के पाले में खिसक जाएगा। रालोद जो पहले से ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने का मुद्दा उठाता रहा है। वह भी इस मुद्दे पर सपा के साथ खड़े होने का जोखिम नहीं उठाएगा, क्योंकि जनता का समर्थन पश्चिम उत्तर प्रदेश में अलग राज्य बनाने के साथ है। 2०12 के विधानसभा चुनाव से पहले बसपा खुद प्रदेश बंटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में पास करवा चुकी है। लिहाजा बसपा सुप्रीमो भी अब इसका विरोध चाहकर भी नहीं कर पाएंगे। चंद रोज पहले बिजनौर से बसपा सांसद मलूक नागर ने प्रदेश के बंटवारे के विषय को संसद में उठाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति को गरमा दिया है, राजनीतिक दलों में यह चर्चा है कि प्रदेश के बंटवारे के मुद्दे को को निश्चित रूप से मायावती के इशारे पर हवा दी गई है। जिस दल में बिना मायावती की इच्छा के पत्ता नहीं हिलता है, उसके एक सांसद का इतना बड़ा बयान बिना आलाकमान की मर्जी के कैसे दिया गया होगा? कहने वाले तो यह भी कह रहे हैं कि यह एक तीर वास्तव में मोदी के इशारे पर चलाया गया है। जानकारी के बता दें कि प्रदेश की जनता और नेताओं को प्रदेश के सभी हिस्सों पूर्वांचल, बुंदेलखंड, पश्चिम और अवध इन सब क्षेत्रों में बंटवारे की मांग को लेकर पूर्ण समर्थन अवश्य है।

इस मामले में संविधान के जानकार मानते है कि किसी भी प्रदेश का बंटवारा या उसकी सीमाएं बदलने का काम केंद्र सरकार के अधिकार में आता है। संविधान की धारा 3 के अनुसार केंद्र सरकार किसी भी राज्य की सीमा में बदलाव या बंटवारे के बिल को राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद संसद में सामान्य बहुमत के पास करवा कर बड़ी आसानी से कर सकती है। इस बिल को संबंधित प्रदेश सरकार को भी समर्थन और अनुमोदन के लिए भेजा जा सकता है लेकिन प्रदेश सरकार की राय या समर्थन कोई बाध्यकारी नहीं है। ऐसे में मोदी सरकार के लिए यूपी के बंटवारे का दांव आगामी विधानसभा चुनाव से पहले चला जा सकता है। मोदी का प्रदेश के बंटवारे का निर्णय इतना बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम होगा, जिसके पीछे मोदी सरकार को अन्य तमाम विफलताओं भी छुप सकती हैं। मोदी का यह दांव विपक्षी पार्टियों में हड़कंप मचा सकता है। मोदी के पास उत्तर प्रदेश का विभाजन एक ऐसा ब्रह्मास्त्र है, जिससे एक साथ कई निशाने साध सकते हैं। राजनीति के विश्लेषक मानते है कि मोदी यूपी के बंटवारे का दाव चल कर पार्टी व अपनी साख देश में बचा सकते है। इससे अगला प्रधानमंत्री बनने के रोड़े तो दूर होंगे ही, साथ ही यूपी पर पुन: कब्जा करने में कामयाब होंगे। जो कि भाजपा कार्यकर्ताओं के आत्मविश्वास बढ़ाने वाला होगा। साथ ही सपा-बसपा जैसे छोटे दलों के लिए अस्तित्व को खतरे में डालने वाला होगा। हां, यह जरूर है कि मोदी के दांव से रालोद व कांग्रेस को संजीवनी जरूर मिल सकती है, क्योकि दोनों की दल बंटवारे में पक्ष में खड़ी हैं। यह कहना गलत न होगा कि यूपी में कांग्रेस को फिर से अपनी सियासी जमीन तैयार करने का मौका मिल जाएगा। सूत्र बताते है कि कांग्रेस के आलाकमान को भी इस बात का विश्वास है कि जब तक इन छोटे दलों का नामोनिशान प्रदेश से नहीं समाप्त होगा, जब तक कांग्रेस यूपी में सियासी जमीन तैयार नहीं कर सकती है। सूत्र यह भी बताते हैं कि इसी को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस यूपी के विभाजन के पक्ष में है, उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी का प्रांतीय अधिवेशन 31 मार्च 2००8 को कानपुर में हुआ था, जिसमें कांग्रेस में छोटे राज्यों के गठन का पक्ष लिया था, यहां पारित प्रस्ताव में कहा गया था कि राजनीतिक दल जन भावनाओं को दरकिनार कर रहे हैं और छोटे राज्यों के गठन में रोड़ा अटका रहे हैं। 18- 19 मई 2०11 को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रांतीय अधिवेशन में भी छोटे राज्यों के गठन की पैरवी की गई थी, पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद ने भी प्रस्ताव को समर्थन किया था।
कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र में भी छोटे राज्यों के गठन का समर्थन किया गया है इसलिए कांग्रेस इस उत्तर प्रदेश के बंटवारे के पक्ष में ही रहेगी, क्योंकि कांग्रेस में संगठन के भीतर और बाहर दोनों ओर से ही यूपी के बंटवारे को लेकर आवाज होती रही है। इसका राजनीतिक लाभ भी कांग्रेस को मिल सकता है।

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Ved

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