आमलकी एकादशी का व्रत देता है परम सौभाग्य

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आमलकी एकादशी को लेकर तुलसीदास ने कहा है कि….. एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी की पुनि आध। तुलसी संगति साधु की, कटै कोटि अपराध।। इस दिन आंवले के वृक्ष के पास बैठकर भगवान का पूजन किया जाता है। एक बार एक राजा के राज्य में फाल्गुण शुक्ल एकादशी व्रत महात्म्य था। एक भूखा-प्यास व्याघ्र भी रात भर वहीं बैठा रहा। इस प्रकार अनजाने में ही उसने आमल की एकादशी का व्रत रख लिया और रातभर जागने के कारण जागरण का फल भी उसे अनजाने में मिल गया। दूसरे जन्म में वह एक बड़े राज्य का अधिकारी बना।

आमलकी एकादशी व्रत के पहले दिन व्रत करने वाले को दशमी की रात्रि में एकादशी व्रत के साथ भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए सोना चाहिए। आमलकी एकादशी के दिन सुबह स्नान करके भगवान विष्णु की प्रतिमा के समक्ष हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर संकल्प करें कि मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता और मोक्ष की कामना से आमलकी एकादशी का व्रत रखता हूं। मेरा यह व्रत सफलतापूर्वक पूरा हो, इसके लिए श्रीविष्णु मुझे अपनी शरण में रखें।

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इसके उपरांत ‘मम कायिकवाचिकमानसिक सांसर्गिकपातकोपपातकदुरित क्षयपूर्वक श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त फल प्राप्तयै श्री परमेश्वरप्रीति कामनायै आमलकी एकादशी व्रतमहं करिष्ये’ इस मंत्र से संकल्प लेने के पश्चात षोड्षोपचार सहित भगवान विष्णु की पूजा करें। भगवान की पूजा के बाद पूजन सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष की पूजा करें। सबसे पहले वृक्ष के चारों की भूमि को साफ करें और उसे गाय के गोबर से पवित्र करें।
पेड़ की जड़ में एक वेदी बनाकर उस पर कलश स्थापित करें।

इस कलश में देवताओं, तीर्थों और सागर को आमंत्रित करें। कलश में सुगंधी और पंच रत्न रखें। इसके ऊपर पंच पल्लव रखें, फिर दीप जलाकर रखें। कलश पर श्रीखंड चंदन का लेप करें और वस्त्र पहनाएं। अंत में कलश के ऊपर श्री विष्णु के छठे अवतार परशुराम की स्वर्ण मूर्ति स्थापित करें और विधिवत रूप से परशुरामजी की पूजा करें। रात्रि में भगवत कथा व भजन कीर्तन करते हुए प्रभु का स्मरण करें। द्बादशी के दिन सुबह ब्राह्मण को भोजन करवा कर दक्षिणा दें। साथ ही परशुराम की मूर्ति सहित कलश ब्राह्मण को भेंट करें। इन क्रियाओं के पश्चात परायण करके अन्न जल ग्रहण करें।

भगवान विष्णु ने कहा है जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं। उनके लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में जो पुष्य नक्षत्र में एकादशी आती है, उस एकादशी का व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है। इस एकादशी को आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता है।

आमलकी एकादशी व्रत कथा प्रसंग

इस एकादशी व्रत के प्रभाव से मनुष्य के पापकर्म कटते हैं, उसे अतुल्य वैभव व सौभाग्य की प्राप्ति होती है। जो भी मनुष्य श्रद्धाभाव से नियमित रूप से इस व्रत को करता है, उस पर प्रभु शीघ्र प्रसन्न होते है। शास्त्रों में यहां तक कहा गया है कि इस व्रत के प्रभाव से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। ब्रह्मांड पुराण में इस व्रत के महात्म्य का उल्लेख किया गया है।

फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को आमलकी एकादशी कहते हैं। आमलकी यानी आंवला को शास्त्रों में श्रेष्ठ स्थान मिला है। विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया। आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इसके हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है।

ब्रह्मांड पुराण में आवल की एकादशी का उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार मांधाता और वरिष्ठ संवाद के माध्यम से आवल एकादशी की महिमा का गुणगान किया गया है। एक समय  राजा  मान्धाता ने ऋषि वशिष्ट से विनय की और कहा कि मुझे ऐसा व्रत बताइयें, जिसके करने से मनुष्य का कल्याण हो जाता है। इस पर वशिष्ट जी ने प्रसन्न होकर कहा कि हे राजन मान्धाता जी, आपसे मैं एक अत्यन्त गोपनीय व्रत का वर्णन करता हूं, जो सभी प्रकार का मंगल प्रदान करने वाला है। इस व्रत का नाम है आमलकी एकादशी। यह व्रत बड़े से बड़े पाप का नाश करने वाला और एक हजार गायों के दान का पुण्य और मोक्ष प्रदान करने वाला है।

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पूर्व काल में वैदिश नाम के नगर में सभी वासी सुख व आनंद से वास करते थे। सभी वर्णों के लोग प्रसन्न और धर्म परायण होकर अपने-अपने धर्म का पालन करते थे। उस नगर में कोई भी पापात्मा और नास्तिक स्वभाव का नहीं था। सभी का चित्त धर्म में लगा रहता था। वेद ध्वनि का नगर में वास था। यहां वेद ध्वनि से गूंजती रहती थी। इस नगर में चंद्रवंशी राजा राज्य करते थे। इस चंद्रवशीय राजवंश में एक धर्मात्मा और पुण्यात्मा चैत्ररथ ने जन्म लिया। वह धर्म परायण के होने के साथ सभी शास्त्रों का ज्ञाता था। उनका चित्त ईश्वर में लीन रहता था। धर्म में ही उसका सदैव मन लगता था। उसके नगर भगवान विष्णु का पूजन विशेष रूप से होता था। सभी नगरवासी एकादशी का व्रत विधि पूर्वक रखते थे। एक समय बात है कि फाल्गुन शुक्लपक्षीय द्बादशी संयुक्ता आमल की एकादशी आयी। यह एकादशी महापुण्यदायी होती है, ऐसा जानते हुए नगर वासियों ने एकादशी का व्रत पूजन किया। एकादशी वाले दिन राजा प्रजा के साथ नदी में स्नानादि करके वहां बने भगवान विष्णु के मंदिर में जा पहुंचे।

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उन्होंने वहां सुगंधित जल कलश, छत्र, वस्त्र, पादुका आदि पंचरत्नों से सुसज्जित भगवान की स्थापना की। इसके बाद धूप-दीप प्रज्जवलित किया और आवल के साथ भगवान परशुराम की पूजा-अर्चना विधिविधान से की। अंत में उन्होंने प्रार्थना की कि हे परशुराम जी, रेणुका के सुखवर्धक, हे मुक्ति दाता, आपको नमस्कार है। हे आमलकी, हे ब्रह्मपुत्री, हे धात्री, हे पापनाशिनी, आपको नमस्कार है। आप मेरी पूजा स्वीकार करें। इस तरह से राजा ने प्रजाजन के साथ भगवान विष्णु व परशुराज जी का ध्यान-पूजन, कथा- श्रवण करते हुए रात्रि भर जागरण किया। जागरण में एकादशी की महिमा का गान और परशुराम जी के पावन चरित्र को सुनाया गया।

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उसी शाम को एक शिकारी शिकार करते हुए वहां आ पहुंचा और पिछले जन्मों के सुकर्मों के प्रभाव से वह वहीं रात्रि में रुक गया और भगवान दामोदर का दर्शन किया। पूरी रात्रि जागरण किया और हरिकथा को भी मन से सुना। चूंकि वह शिकार के दौरान कुछ खा नहीं पाया था,इसलिए उसने रात्रि भूखे ही वहां काटी। इस दौरान उसने एकादशी व्रत का महात्म्य भी सुना। प्रात: होने पर राजा व प्रजाजन नगर को चले गए और वह शिकारी भी अपने घर की ओर चला गया। उसने घर पहुंचकर ही समय पर भोजन आदि किया।

कुछ समय पश्चात शिकारी की मृत्यु हो गई। अनायास ही एकादशी व्रत करने के प्रभाव से उसके जीवन के पाप कर्म कट गए और उसने दूसरे जन्म में जयंती नामक नगरी में विदूरथ नाम के राजा के पुत्र वसुरथ के रूप में जन्म लिया। वह महान पराक्रमी, क्षमाशील और एक लाख गांवों में शास्त्रों का अध्यापन कार्य कराता हुआ शासन करने लगा। वह भगवान विष्णु का परम भक्त था। एक समय वह शिकार करने के लिए वन में गया और भटक गया। वन में घूमने वह अत्यन्त थक चुका था, सो वह वहीं वन में अपने बाहों का तकिया बनाकर सो गया। उसी समय पर्वतों में रहने वाले मलेच्छ यवन राजा के पास आए और उसकी हत्या की कोशिश करने लगे। उन्हें यह भ्रम हो गया था कि इसी के कारण वे वन में भटक रहे है। उनके माता-पिता, पुत्र और पौत्र को इसी राजा ने मारा है और इसी के कारण वे वन में भटक रहे हैं।

उन्होंने राजा को मारने के लिए शस्त्र प्रहार किए लेकिन वह राजा को छू भी नहीं सके। जब उनके अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गए तो भी वह भयभीत होकर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सके, तभी मलेच्छों ने देखा कि राजा के शरीर से दिव्यगंध से युक्त एक देवी प्रकट हुई। वह भीषण भृकुटियुक्ता, क्रोधित नेत्रा प्रतीत हो रही थी। देवी का यह विकट स्वरूप देखकर मलेच्छ इधर-उधर भागने लगे, तब देवी ने चक्र से उन मलेच्छों का वध कर दिया। थोड़ी देर बार राजा की आंख खुली तो वह वहां का रक्तरंजित माहौल देखकर आश्चर्यचकित हो उठा। वह काफी हद तक इसे लेकर भयभीत भी था। वह इसे लेकर विचार कर ही रहा था कि आखिर किसने उसकी रक्षा की है, तभी आकाशवाणी हुई कि भगवान केशव को छोड़कर शरणागत की रक्षा करने वाला भला कौन हो सकता है?

श्रीहरि ने ही तुम्हारी रक्षा की है। इसके उपरांत वह श्रीहरि के श्रीचरणों को नमन करते हुए वापस अपने राज्य में आ गया और धर्म परायण होकर राज्य करने लगा। वरिष्ठ जी कहते है कि जो मनुष्य आमल की एकादशी के व्रत का पालन करते हैं, वह निश्चित तौर पर विष्णुलोक यानी वैकुंठ लोक को प्रापत कर लेते हे। इसमें संशय नहीं है। यह व्रत मनुष्य के बड़े से बड़े पाप का नाश करने वाला है, जो मनुष्य भी श्रद्धा, भक्ति व नियम से यह व्रत करता है। वह निष्पाप होकर प्रभु की शरण को प्राप्त करता है।

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