गणेश जी का एकाक्षरी मंत्र, शीघ्र प्रसन्न होते हैं गणपति, चंद्रमा के संकटों को किया गणपति ने दूर

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गणेश पुराण के उपासना खंड में वर्णित एक कथा जो हमें संदेश देती है कि हमें अपने अग्रजो  के मान की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।

एक समय की बात है। कैलाश के शिव सदन मैं ब्रह्मा जी भगवान शिव शंकर के पास बैठे थे। उसी समय वहां देवर्षि नारद पहुंचे। उनके पास एक अति सुंदर फल था, जो देवश्री ने भगवान उमानाथ के कर कमलों में अर्पित कर दिया।

फल को अपने पिता के हाथ में देखकर गणेश और कुमार दोनों बालक उसे आग्रह पूर्वक मांगने लगे। तब शिवजी ने ब्रह्मा जी से पूछा-हे ब्राह्मन, फल एक है और उससे एक गणेश और कुमार दोनों चाहते हैं आप बताएं इसे किसे दूं?
चतुर्मुख ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया हे प्रभु! छोटे होने के कारण इस एकमात्र पल के अधिकारी तो षडानन ही हैगंगाधर ने फल कुमार को दे दिया। लेकिन पार्वती नंदन गणेश सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी पर कुपित हो गए।लोक पितामह ने अपने भवन पहुंचकर सृष्टि रचना का प्रयत्न किया तो गजवक्त ने अद्भुत विघ्न उत्पन्न कर दिया। वे अत्यंत उग्र रूप में विधाता के सम्मुख उपस्थित हुए। विघ्नेश्वर के भयानक स्वरूप को देखकर विधाता भयभीत होकर कांपने लगे।
गजानन की विकट मूर्ति और ब्रह्मा जी का भय और कंप देखकर चंद्रदेव अपने गणों के साथ हंस रहे थे। चंद्रमा को हंसते देख गजमुख को बहुत क्रोध हुआ। उन्होंने चंद्र देव को तत्काल ही श्राप देते हुए कहा कि हे चंद्र, अब तुम किसी के देखने योग्य नहीं रह जाओगे और यदि किसी ने तुम्हें देख लिया तो वह पाप का भागी होगा।
अब तो चंद्रमा श्रीहत, मलिन और दीन होकर अत्यंत दुखद हो गए। सुधाकर के प्रदर्शन से देव भी दुखी हुए। अग्नि और इंद्र आदि देवता गजानन के समीप पहुंचे और भक्ति पूर्वक उनकी स्तुति करने लगे। देवताओं के स्तवन से प्रसन्न होकर गजमुख ने कहा कि देवताओं मैं  तुम्हारी स्तुति से संतुष्ट हूं। वर मांग, मैं उसे अवश्य पूर्ण करूंगा।
बोले कि हे प्रभु आप चंद्रमा पर अनुग्रह करें,हमारी यही कामना है।
गणेश जी ने कहा कि देवताओं में अपना वचन मिथ्या कैसे कर दूं। पर शरणागत का त्याग भी संभव नहीं है। इसलिए अब तुम लोगों मेरी सुनो-जो जानकर या अनजाने में ही भाद्र शुक्ल चतुर्थी को गणेश जी का दर्शन करेगा, वह अभिशप्त होगा। उसे अधिक दुख भोगना पड़ेगा। प्रभु द्विरदानन वचन सुनकर देवता अत्यंत प्रसन्न हुए।उन्होंने पुनः प्रभु के चरणों में प्रणाम किया। उसके बाद वे चंद्रमा के पास पहुंचे और उन्होंने कहा कि चंद्र गजमुख पर हंसकर तुमने बहुत ही मूर्खता का प्रदर्शन किया है। तुमने परम प्रभु का अपराध किया और त्रिलोक संकटग्रस्त हो गया। हम ने त्रिलोकी के नायक सर्वगुरु गजानन को बड़े प्रयास से संतुष्ट किया है। इस कारण उन दयामय ने तुम्हें वर्ष में केवल एक दिन भाग्य शुक्ल चतुर्थी को और दर्शनीय रहने का वचन देकर अपना साथ अत्यंत सीमित कर दिया है। तुम भी उन करुणामय की शरण लो। उनकी कृपा से शुद्ध होकर यश प्राप्त करो।

देवेंद्र ने सुधांशु को गजानन के एकाक्षरी मंत्र का उपदेश दिया और फिर देवता वहां से चले गए। सुधाकर शुद्ध हृदय गजमुख के शरणागत हुए और वे पुण्यतोया जहान्वी के दक्षिणी तट पर गजानन का ध्यान करते हुए उनके एकाक्षरी मंत्र का जप करने लगे।संतुष्ट करने के लिए 12 वर्ष तक कठोर तप किया। इससे आदिदेव गजानन प्रसन्न हुए और उन पदमपभु गजानन केवल प्रभाव से सुधांशु पूर्ववत तेजस्वी, सुंदर और वंदनीय हो गए। इस तरह का पौराणिक प्रसंग यह संदेश देता है कि अपने बड़ों का उपहास करना मंगलकारी होता है।

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 गजानंद एकाक्षर मंत्र

‘’ऊँ गं गणपतये नमः।।‘

समस्त इच्छाओं की पूर्ति होती है सकट चौथ व्रत-पूजन से

 

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