मथुरा की  प्राचीन चामुण्डा शक्तिपीठ: भूतेश्वर महादेव मथुरा के क्षेत्रपाल

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1895

थुरा नगरी का भारतवर्ष में अत्यधिक धार्मिक महत्व है, भगवान श्री कृष्ण ने यहां लीलाएं की और असुरों का अंत किया, यहां पर बृंदावन पीठ भी है और साथ में मथुरा में चामुंडा शक्तिपीठ भी है। जिसका सम्बन्ध भगवान भूतभावन सदाशिव से है, जो जगत कल्याण के निहित लीलाएं करते है। भूतेश्वर महादेव मथुरा के लोकजीवन में सर्वप्रमुख और सर्व प्राचीन महादेव हैं। जब तक इनका दर्शन न किया जाये, तब तक मथुरा-यात्रा सफल नहीं होती। वैसे तो व्रजमण्डल भगवान श्री कृष्ण की भक्ति का केन्द्र रहा है, साथ ही यदि व्रज के प्राचीन इतिहास, पुरातत्व और लोकजीवन की परम्परापर दृष्टिपात किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि शक्ति उपासना की दृष्टि से भी ‘व्रजमण्डल’ और उसके केन्द्र मथुरा का महत्व कम बिल्कुल भी नहीं है।

श्रीमद्भागवत में व्रज में प्रचलित शक्ति-उपासना के प्रमाण विभिन्न स्थान पर मौजूद हैं। श्री कृष्ण को पति के रूप में पाने के लिए गोपकन्याएँ कात्यायनी का व्रत-अनुष्ठïान करती थीं। श्रीमद्भागवत में एक और महत्वपूर्ण संदर्भ है कि एक बार नन्दबाबा के नेतृत्व में सभी व्रजगोपों ने बैलगाडिय़ों पर सवार होकर भगवती की ‘जात’ देने के लिए ‘अम्बिका वन’ की यात्रा की थी। वहां उन्होंने सरस्वती नदी में स्नान करके भगवान शंकर (भूतेश्वर) और जगदम्बा (चामड़) का पूजन अर्चन किया था। वर्तमान मथुरा नगर के उत्तर-पश्चिम में ‘मथुरा-वृदावन रेलवे लाइन’ के ‘मसानी स्टेशन’ के आस -पास का क्षेत्र अम्बिका वन कहा जाता है। जो ‘मसानी’ श्मशानी शब्द का अपभ्रंश है। यहां श्मशान  रहा होगा, मसानी का मंदिर आज भी मौजूद है। भूतेश्वर महादेव मथुरा के क्षेत्रपाल हैं, महाभैरव हैं। स्नान, दान, तर्पण, अनुष्ठïान, व्रत-उपवास आदि में यहां जो संकल्प बोला जाता है, उसमें मथुरा मण्डल को ‘भूतेश्वरक्षेत्रे’ कहा जाता है। सामान्य लोकभाषा में लागे मथुरा के कोतवाल के रूप में भूतेश्वर का स्मरण करते हैं। भूतेश्वर महादेव मथुरा के लोकजीवन में सर्वप्रमुख और सर्व प्राचीन महादेव हैं। जब तक इनका दर्शन न किया जाये, तब तक मथुरा-यात्रा सफल नहीं होती। वाराहपुराण कहा गया है कि एक बार महादेवजी ने एक सहस्त्रवर्षपर्यन्त घोर तप किया, तब प्रसन्न होकर भगवान विष्णु  ने उनसे वर माँगने को कहा। इस पर भगवान  महादेव जी ने कहा कि आप अपनी मथुरापुरी में रहने के लिए मुझे जगह दीजिए। श्री विष्णु ने सहर्ष वरदान दिया कि आप यहां क्षेत्रपति होकर रहिये। भूतेश्वर के समीप ही श्रीकृष्ण का जन्मस्थान है। मथुरा-दिल्ली रेलवे की बड़ी लाइन पर भूतेश्वर महादेव नामक एक स्टेशन भी बनाय गया है। भूतेश्वर लेकर गोकर्णेश्वरमंदिर तक जिसे सरस्वती संगम तीर्थ भी माना जाता है, दुर्गा के अनेक प्राचीन मंदिर हैं।

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भूतेश्वर मंदिर में ही दाहिनी ओर लगभग साठ-सत्तर सीढिय़ाँ उतर कर भूगर्भ-गुफा में भगवती के दर्शन होते हैं, इन्हें पातालेश्वरी कहा जाता है। यह गुफा, भूतेश्वर मंदिर के साधना-केन्द्र की प्राचीनता को प्रमाणित करती है। इसे ‘उमापीठ’ करने की भी मान्यता है। इसी प्रकार बरसाना शक्तिपीठ की भी प्रसिद्घि है। एक दूसरी परम्परा में चामुण्डा को ‘उमापीठ’ माना गया है। यहाँ भगवती के कुछ और भी प्राचीन स्थान हैं-महाविद्या, सरस्वती, योगमाया तथा पथवारी आदि। धूरकोट नाम से प्रसिद्घ इस क्षेत्र में अनेक टीले, कुण्ड, सरोवर तथा कूपों के भग्रावशेष हैं, जो यहां की प्राचीनता सिद्घ करते हैं।

सरस्वती नदी इस भूखण्ड में प्रवाहित होती हुई यमुना में मिलती थी, इस बात के प्रमाण पुराण साहित्य में मिलते हैं। सरस्वतीनदी का प्रवाह सूखने की कहानी बहुत बड़ी है और उसके संबंध में विद्वानों ने बहुत अनुसंधान कार्य किया है, लेकिन मथुरा की लोकश्रुति में दो बातें उल्लेखनीय हैं, एक तो मथुरा की परिक्रमा में सरस्वतीकुण्ड की महिमा है। परिक्रमार्थी सरस्वतीकुण्ड पर पहुंचकर ‘थाम’ लते हैं। चालीस वर्ष पहले तक (जबसे कुण्ड का पानी सूख गया है, उससे पहले तक परिक्रमार्थी यहां आचमन और मार्जन भी करते थे। दूसरी बात है-बहुलावन से आने वाले बरसाती पीने के प्रवाह को स्थानीय लोग आज भी सरस्वती-नाला कहते हैं। इससे इस मान्यता को बल मिलता है कि नन्दगोप ने यहीं सरस्वती में स्नान करके भगवती की ‘जात’ दी थी, भूतेश्वर तो सरस्वती के तट पर ही हैं।
इस मान्यता की चर्चा करना बहुत आवश्यक है कि महाविद्या मथुरा का बहुत प्राचीन शक्तिपीठ है और माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मïाणों के यहाँ विवाह में जो शाखोच्चार किया जाता है उसमें गया जाता है-

‘श्रीकुलदेवि महाविद्ये वरदे त्वत्प्रसादात।’

जनश्रुति के अनुसार नन्दबाबा ने भगवती का अर्चन यहीं किया था। यहां साम्राज्यदीक्षित-जैसे तंत्र-उपासकों ने साधना की थी। देवीभागवत में भारतवर्ष के 108 शक्तिपीठों का प्रसंग है, वहाँ मथुरा में ‘देवकीपीठ’ का उल्लेख है। श्रीकृष्णजन्मस्थान के निकटस्थ महाविद्यामंदिर की पहचान प्राचीन देवकीपीठ के रूप में की जाती है। लेकिन तांत्रिक उपासकों के बीच में जब-जब 51 महापीठों की चर्चा हुई, तब-तब चामुण्डाका उल्लेख आया।
तंत्रचूडामणि’ नामक ग्रन्थ के अनुसार भगवान शंकर सती के शव को सिर पर रखकर ले जा रहे थे, तब इस स्थान पर केशपाश (जूड़ा)-का पतन हुआ। इसे मोलिशक्तिपीठ माना जाता है। हालांकि तंत्रचूड़ामणिका वाक्य है- ‘भूतेशो भैरवस्तत्र उमानाम्री च देवता।’ उमा नाम से तो इस बीच कोई प्राचीन मंदिर है नहीं, वैसे उमा सामान्य रूप से जगदम्बा का वाचक है। इसलिए चामुण्डा को उमापीठ की मान्यता तांत्रिकों में प्रचलित है। यदि चामुण्डाजी के विग्रह में मुख को देखें तो योनिमण्डल की आकृति दिखायी देती है और योनि का प्रतीक तंत्र का मूल प्रतीक है, हालांकि योनि और त्रिकोण में कोई भेद नहीं है।
महाविद्या में जो प्रतिमा है, वह नीलसरस्वती के ध्यान के अनुसार विराचित है। पातालेश्वरी में भी प्रतिमा है। इन तथ्यों पर विचार करने पर प्रतीत होता है कि चामुण्डा ही तंत्रचूड़ामणि द्वारा उल्लिखित शक्तिमहापीठ  है। ‘वृन्दावने’ शब्द भी एक संकेत है। चामुण्डाजी वृन्दावन मथुरा मार्ग पर स्थित है। चामुण्डा जी के समीप ही गणेशटीला है, जो उच्छिष्टï गणपति का साधनापीठ है। भैरव-भूतेश्वर, चामुण्डा-उमा तथा उच्छिष्टï गणपति-

यह तांत्रिकसाधना की त्रिपुटी बनी है। तंत्रचूड़ामणि का उल्लेख तांत्रिकसाधना से जुड़ा है।
यह उल्लेखनीय है कि ‘योगिनीह्दय’ तथा ‘जानार्णव’ के अनुसार जहां ऊध्र्वभाग के अङ्गï गिरे, वहां वैदिक तथा दक्षिण मार्ग की और ह्दय से निम्र भाग के अङ्गïों के पतनस्थल वाम मार्ग की साधना के केन्द्र हैं। तंत्रशास्त्र में 51 पीठों से 51 मातृकावर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है। ‘क्ष’ वर्ण का केन्द्र होने के कारण इसे ‘क्षत्रपीठ’ भी कहा जाता है। चामुण्डा लोकमाता हैं। चामड़ नाम से व्रज क गाँव-गाँव में पूजास्थान बने हुए हैं। वैयाकरण लोग ‘चामुण्डा’ शब्द का अर्थ ब्रह्मïविद्या बतलाते हैं। मार्कण्डयपुराण में चण्ड-मुण्ड का वध करने के कारण चामुण्डा शब्द की सिद्घि मिलती है।

यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा तत्मुपागता।
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि॥

दुर्गा कवच में चामुण्डा को शव वाहना कहा गया है। शव का अर्थ शून्य अर्थात सदाशिव है। भगवती महात्रिपुरसुंदरी का पञ्चासन भी सदाशिव का है। जब ‘श्रीयंत्र’ का आवरण-अर्चन किया जाता है तो भूपुर की दूसरी रेखा में चामुण्डा का अर्चन किया जाता है।
बाणभटï्ट ने अपनी कादम्बरी में चामुण्डा (चामड़)-के मंदिर का विस्तृत वर्णन किया है। हर्षचारित में भी विन्ध्यवन के एक जंगली गाँव का वर्णन करते हुए बाणभटï्ट ने चामुण्डादेवी का उल्लेख किया है। चामुण्डा को शबर-निषाद-संस्कृति की देवी के रूप में अत्यन्त प्राचीन लोकपरम्परा से मान्यता प्राप्त है। व्रज के लोकजीवन में आज भी पशुओं की रक्षा के निमित्त ‘चमड़भेंट’ चढ़ायी जाती है। इस समय जो अनुष्ठïान किया जाता है, उसे किसानलोग ‘चामडिय़ा टंटघंट’ कहते हैं। लोकजीवन की ये परम्पराएं चामुण्डा की आस्था की प्राचीनता प्रमाणित करती हैं। इस प्रकार ‘चामुण्डा’ नामक साधनास्थल मथुरा का वह प्राचीन शक्तिपीठ है, जिसकी गणना भारतवर्ष के 51 महापीठों में की गयी है। मथुरा की यह प्रचाीन शक्तिपीठ भक्तों को कष्टों से मुक्ति करती है। उनके दर्शन मात्र से मनुष्य को अतुल्य पुण्य की प्राप्ति होती है। सनातन ग्रंथों में उनकी महिमा का वर्णन विस्तार से किया गया है। 51 शक्तिपीठों ने चामुंडा शक्तिपीठ को स्थान प्राप्त है।

 

 

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