सप्तपुरी में हरिद्वार-ऋषिकेश:तब मिलाता है यहाँ अश्वमेध यज्ञ का फल

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हरिद्वार=ऋषिकेश

saptapuree-mein-haridvaar-rshikeshtab-milaata-hai-yahaan-ashvamedh-yagy-ka-phalहरिद्वार भारत का महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थल है। इसे भारत की सप्त पुरियों में सम्मिलित किया गया है। इस स्थल पर गंगा नदी का होना इसे और महत्त्वपूर्ण बना देता है। चार कुंभ के मेलों में से एक मेला यहां भी छ : वर्ष या बारह वर्ष के पश्चात् लगता है। हरिद्वार को गंगाद्वार, कुशावर्त, मायापुरी, कनखल, ज्वालापुर और भीमगोड़ा आदि नामों से भी जाना जाता है। यहाँ जो एकत्र होकर कोटितीर्थ में स्नान करता है, उसे पुंडरीक यज्ञ का फल मिलता है।

हरिद्वार=ऋषिकेश

वह अपने कुल का उद्धार कर देता है। वहां एक रात निवास करने से सहस्र गोदान का फल मिलता है। सप्तगंगा, त्रिगंगा और शक्रावर्त में विधिपूर्वक देवर्षि पितृ तर्पण करने वाला पुण्यलोक में स्थान पाता है, तत्पश्चात् कनखल में स्नान करके तीन रात उपवास करने वाला अश्वमेध यज्ञ का फलभागी व स्वर्गगामी होता है।

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सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।

गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे।

तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति ये मृतास्तेऽपुनर्भवाः।

अर्थात् गंगा सर्वत्र तो सुलभ है परंतु गंगाद्वार प्रयाग और गंगासागर-संगम में दुर्लभ मानी गयी है। इन स्थानों पर स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग लोक को चले जाते हैं और जो यहां शरीर त्याग करते हैं उनका तो पुनर्जन्म होता ही नहीं अर्थात् वे मुक्त हो जाते हैं।

 हरिद्वार की धार्मिक कथा

राजा भगीरथ के द्वारा मर्त्यलोक में गंगाजी को लाने पर राजा श्वेत ने इसी स्थान पर ब्रह्माजी की बड़ी आराधना की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने वर मांगने को कहा। राजा ने कहा कि यह स्थान आपके नाम से प्रसिद्ध हो और यहां पर आप भगवान विष्णु तथा महेश के साथ निवास करें, यहां पर सभी तीर्थों का वास हो। ब्रह्मा ने कहा ऐसा ही होगा। आज से यह कुंड मेरे नाम से प्रख्यात होगा और इसमें स्नान करने वाले परमपद के अधिकारी होंगे। ‘ तभी से इसका नाम ब्रह्मकुंड हुआ। चूंकि ब्रह्मकुंड हरिद्वार में स्थित है, अत : इसका महत्त्व स्वयं ही अधिक हो जाता है। कथा है कि इस कुंड में स्नान से मानव पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है।

हरिद्वार के दर्शनीय स्थल 

गंगाद्वार ( हर की पैड़ी ) , कुशावर्त, बिल्वकेश्वर, नीलपर्वत तथा कनखल – ये पांच प्रधान तीर्थ हरिद्वार में हैं। मान्यता है कि इनमें स्नान तथा दर्शन करने से पुनर्जन्म नहीं होता।

  • ब्रह्मकुंड या हर की पैड़ी : कहते हैं राजा विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि ने यहां तपस्या करके अमर पद पाया था। भर्तृहरि की स्मृति में राजा विक्रमादित्य ने पहले – पहल यह कुंड तथा पैड़ियां ( सीढ़ियां ) बनवाई थीं। इसीलिए इसका नाम ‘ हर की पैड़ी ‘ पड़ा। खास हर की पैड़ी के पास एक बड़ा – सा कुंड बनवा दिया गया है। इस कुंड में एक ओर से गंगा की धारा आती और दूसरी ओर से निकल जाती है। कुंड में कहीं भी कमर भर से ज्यादा गहरा जल नहीं है। इस कुंड में ही हरि अर्थात् विष्णु की चरणपादुका, मनसादेवी, साक्षीश्वर एवं गंगाधर महादेव के मंदिर तथा राजा मानसिंह की छतरी है। सायंकाल के समय गंगाजी की आरती की शोभा बड़ी सुंदर लगती है। यहां कुंभ के अवसर पर साधुओं का स्नान होता है। यहां पर प्रातः और सायंकाल विद्वानों के उपदेश होते हैं। गंगा की धारा सर्वदा उस कुंड को जल से पूर्ण रखती है। ब्रह्मकुंड के थोड़ी दूर उत्तर में ‘ सप्तधारा ‘ या ‘ सप्तस्रोत ‘ है। उसके पास एक सुंदर गोलाकार उपत्यका है। हरिद्वार के एक ओर हिमालय पहाड़ की पर्वतमाला है। पूर्व और पश्चिम की ओर से मिली हुई शिवालिक पर्वत की दो शाखाएं मनोहर दृश्य उपस्थित करती हैं। उन्हीं शाखाओं से हरिद्वार के द्वारदेश ‘ की रचना होती है। उपत्यका के बीच से भिन्न – भिन्न दिशाओं से सात धाराएं आकर उस स्थान की सुंदरता में वृद्धि करती हैं। यहां गंगाजी की प्रधान धारा ऋषिकेश की ओर से आती है। हरिद्वार में गंगाजी की चौड़ाई एक मील हो जाती है और नदी के किनारे पक्के घाटों तथा मंदिरों का सिलसिला शुरू होता है। यहां का जल अत्यंत स्वच्छ और शुद्ध है।
  • गऊघाटः ब्रह्मकुंड के दक्षिण में यह घाट स्थित है। यहां पर स्नान करने से गोहत्या का पाप दूर होता है। पहले यहां भंगी हत्यारे को जूते से मारता है, फिर स्नान कराता है। गोहत्या के लिए इतना बड़ा दंड पाने पर ही उसका उद्धार होता है।
  • कुशावर्त घाट: यह घाट गऊघाट से दक्षिण में पड़ता है। यहां दत्तात्रेयजी ने तप किया था। यहां पितरों को पिंडदान किया जाता है।

हरिद्वार के अन्य स्थल

  • नीलधारा : नहर के उस पार नीलपर्वत के नीचे वाली गंगा की धारा को नीलधारा कहते हैं। वास्तव में नीलधारा ही गंगा की मुख्य धारा है। हरिद्वार के घाटों पर बहने वाली धारा नहर के लिए कृत्रिम रूप से लाई गई धारा है। इस धारा में से नहर के लिए आवश्यक पानी लेकर शेष पानी नहर के बगल में कनखल के पास इसी नीलधारा में मिला दिया जाता है। नीलपर्वत के नीचे नीलधारा में स्नान करके पर्वत पर नीलेश्वर महादेव के दर्शन करने का बड़ा माहात्म्य है। कहते हैं कि शिवजी के नील नामक एक गण ने यहां पर शंकरजी की प्रसन्नता के लिए घोर तपस्या की थी। इसलिए इस पर्वत का नाम नीलपर्वत, नीचे की धारा का नाम नीलधारा तथा उसने जिस शिवलिंग की स्थापना की, उसका नाम नीलेश्वर पड़ा।
  • बिल्वकेश्वर : स्टेशन से हर की पैड़ी के रास्ते में जो ललतारो नदी पर पक्का पुल पड़ता है, वहीं से बिल्वकेश्वर महादेव की बाईं ओर रास्ता जाता है। रेलवे लाइन के उस पार बिल्व पर्वत है, उसी पर बिल्वकेश्वर महादेव हैं। मंदिर तक जाने का रास्ता सुगम है। बिल्वकेश्वर महादेव की दो मूर्तियां हैं- एक मंदिर के अंदर और दूसरी मंदिर के बाहर। पहले यहां पर बेल का बहुत बड़ा वृक्ष था, उसी के नीचे बिल्वकेश्वर महादेव की मूर्ति थी। इसी पर्वत पर गौरीकुंड है। बिल्वकेश्वर महादेव की बाईं ओर गुफा में देवी की मूर्ति है। दोनों मंदिरों के बीच एक नदी है जिसका नाम शिवधारा है।
  • कनखल : कनखल में स्नान का बड़ा माहात्म्य है। नीलधारा तथा नहर वाली गंगा की धारा, दोनों यहां आकर मिल जाती हैं। सभी तीर्थों में भटकने के बाद यहां पर स्नान करने से एक खल की मुक्ति हो गई थी, इसलिए ऋषि – मुनियों ने इसका नाम ‘ कनखल ‘ रख दिया। हर की पैड़ी से कनखल 5 किलोमीटर दूर है। हरिद्वार की भांति यह भी एक बड़ा कस्बा है। यहां भी बाजार हैं।
  • दक्षेश्वर महादेव : मुख्य बाजार से दक्ष प्रजापति मार्ग पर एक किलोमीटर आगे जाने पर दक्ष प्रजापति का मंदिर मिलता है, जहां अपने पति शिव के अपमान से आहत होकर सती ने प्रजापति दक्ष की यज्ञवेदी में विवरण कूदकर अपने प्राण गंवाए थे। इसका विस्तृत आप शक्तिपीठ वाले प्रखंड देखें।
  • हरिहर आश्रम: दक्षेश्वर मंदिर जाने वाले मार्ग पर है – हरिहर आश्रम। इस आश्रम में कदंब का एक विशाल वृक्ष है, जिसके नीचे बारह ज्योतिलिंगों के प्रतीक रखे हुए हैं। इसकी परिक्रमा करना पुण्यदायी माना जाता है। आश्रम में भगवान शिव का पारदलिंग है, जिसके दर्शन कर मन को असीम शांति मिलती है।
  • सतीकुंड: दक्षेश्वर से एक किलोमीटर दूर पश्चिम में सतीकुंड है। कहते हैं कि यहां सती ने शरीर त्याग किया था और दक्ष प्रजापति ने भी यहीं तप किया था। इस कुंड में स्नान का बड़ा ही माहात्म्य है।
  • भीमगोड़ा : हर की पैड़ी से उत्तर की ओर पहाड़ के नीचे होकर जो सड़क ऋषिकेश को जाती है उसी पर यह तीर्थ है। पहाड़ी के नीचे एक मंदिर है। उसके आगे एक चबूतरा तथा कुंड है। कुंड में पहाड़ी सोते का पानी आता है। कहा जाता है कि भीमसेन ने यहां तपस्या की थी और उनके गोड़ा ( पैर के घुटने ) टेकने से यह कुंड बन गया था और इसी कारण इसका यही नाम पड़ गया। यहां स्नान का बड़ा माहात्म्य है।
  • चंडीदेवी और मनसादेवी: हरिद्वार मुख्यत : दो पहाड़ियों के बीच स्थित है। इन दोनों पहाड़ियों को चंडी पहाड़ और मनसा पहाड़ कहते हैं। इन दोनों पहाड़ियों पर ही एक – एक देवी मंदिर है। चंडी पहाड़ पर चंडीदेवी और मनसा पहाड़ पर मनसादेवी। दोनों पहाड़ियों पर चढ़ने के लिए सुगम मार्ग हैं। आजकल हरिद्वार से मनसादेवी और चंडी देवी मंदिर तक जाने के लिए एक रोपवे बहनखटोला भी है।
हरिद्वार से तीर्थों की दूरी

  •  हरिद्वार से बदरी विशाल 340 किलोमीटर
  • हरिद्वार से बदरीनाथ  332 किलोमीटर
  • हरिद्वार से गंगोत्री 269 किलोमीटर
  • हरिद्वार से यमुनोत्री 246 किलोमीटर
  • हरिद्वार से केदारनाथ 249 किलोमीटर
  • हरिद्वार से फूलों की घाटी 287 किलोमीटर
  • हरिद्वार से उत्तरकाशी 172 किलोमीटर
  • हरिद्वार से हेमकुंड 288 किलोमीटर
  • हरिद्वार से जोशीमठ 275 किलोमीटर
  • हरिद्वार से देवप्रयाग 92 किलोमीटर

 

रिद्वार से केदारनाथ के बीच पड़ने वाले तीर्थस्थान

हरिद्वार से रुद्रप्रयाग 193 किलोमीटर

रुद्रप्रयाग से अगस्त्यमुनि 19 किलोमीटर

अगस्त्यमुनि से कुंडचट्टी 15 किलोमीटर

कुंडचट्टी से  गुप्तकाशी 5 किलोमीटर

गुप्तकाशी से नारायणकोटि 3 किलोमीटर

नारायणकोटि से रामपुर 20 किलोमीटर

रामपुर से सोनप्रयाग 5 किलोमीटर

सोनप्रयाग से गौरीकुंड 5 किलोमीटर

( यहां तक की यात्रा बस द्वारा की जाती है। )

गौरीकुंड से रामबाड़ा 7 किलोमीटर

रामबाड़ा से गरुड़चट्टी 4 किलोमीटर

गरुड़चट्टी से केदारनाथ 3 किलोमीटर

हरिद्वार से बदरीनाथ के बीच पड़ने वाले तीर्थस्थान

हरिद्वार से ऋषिकेश 24 किलोमीटर

ऋषिकेश से देवप्रयाग 70 किलोमीटर

देवप्रयाग से श्रीनगर 35 किलोमीटर

श्रीनगर से रुद्रप्रयाग 34 किलोमीटर

रुद्रप्रयाग से कर्णप्रयाग 31 किलोमीटर

कर्णप्रयाग से चमोली 32 किलोमीटर

चमोली से जोशीमठ 48 किलोमीटर

जोशीमठ से गोविंदघाट 20 किलोमीटर

गोविंदघाट से  हनुमानचट्टी 13 किलोमीटर

हनुमानचट्टी से देवदर्शनी 13 किलोमीटर

देवदर्शनी से बदरीधाम 2 किलोमीटर

यात्रा मार्ग

हरिद्वार  उत्तराखंड ( बदरीनाथ, केदारनाथ, ऋषिकेश, यमुनोत्री – गंगोत्री आदि तीर्थक्षेत्र ) का प्रवेश द्वार कहलाता है। इसे हिमालय का भी प्रवेशद्वार कहते हैं। दिल्ली से हरिद्वार लगभग 262 किलोमीटर दूर है। दिल्ली से दिन में अनेक बसें हरिद्वार के लिए रवाना होती हैं। यहां से ऋषिकेश केवल 24 किलोमीटर दूर है। ऋषिकेश से देवप्रयाग, कीर्तिनगर और श्रीनगर होती हुई बस रुद्रप्रयाग जाती है। केदारनाथजी जाने वाले यात्री यहीं उतर जाते हैं। आगे बदरीनाथ के मार्ग पर बस जाती है। गंगोत्री और यमुनोत्री के लिए ऋषिकेश से नरेंद्रनगर होती हुई धरासू तक बस जाती है। यमुनोत्री जाने वाले यात्री धरासू से स्यानाचट्टी तक बस द्वारा जा सकते हैं और गंगोत्री जाने वाले यात्री धरासू से दूसरी बस द्वारा लंकाचट्टी तक जा सकते हैं।

ऋषिकेश

हरिद्वार से इसकी दूरी लगभग 24 किलोमीटर है। इस स्थल की प्रसिद्धि का कारण है कि प्राचीनकाल में ऋषि व मुनिजन राक्षसों के घोर उपद्रवों से सताए जाते  थे। तब भगवान ने उनका संहार किया और ये पावन क्षेत्र ऋषि – मुनियों को योगतप हेतु प्रदान किया। ऋषियों की साधना – स्थली होने के कारण इसका नाम ऋषिकेश प्रसिद्ध हो गया।

धार्मिक कथा 

ऋषिकेश में देवदत्त नामक ब्राह्मण ने घोर तपस्या की, लेकिन वह विष्णु और शिव को अलग – अलग मानता था। इसी भेदबुद्धि के कारण इंद्र एक अप्सरा के द्वारा उसकी तपस्या भंग करने में सफल हो गए। उसने पुनः भगवान शिव की तपस्या की। शिव ने प्रकट होकर कहा कि तुम मुझे विष्णु ही समझो। मुझे और विष्णु को जब तुम समान भाव से देखोगे, तभी तुम्हें सिद्धि मिलेगी। तुमने मुझमें और विष्णु में भेद समझा, तभी तुम्हारी तपस्या भंग हो गई और कोई फल न निकल सका। उसके बाद देवदत्त की लड़की रुरु ‘ ने घोर तपस्या की। भगवान ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए। रुरु ‘ ने भगवान से यहीं अवस्थित होने की प्रार्थना की। भगवान ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। फलतः ऋषिकेश में भगवान सदा विद्यमान रहते हैं। इसका दूसरा पौराणिक नाम ‘ कुब्जाम्रक ‘ है। कहा जाता है कि 17 वें मन्वंतर में रैभ्य मुनि को भगवान विष्णु ने आम के वृक्ष में दर्शन दिए थे। रैभ्य मुनि कुबड़े थे। इसी से इसका नाम कुब्जाम्रक पड़ा।

ऋषिकेश के प्रमुख स्थल -.

  • त्रिवेणी घाट : गंगा का पवित्र घाट, जहां यात्री स्नान करके धन्य होते हैं।
  • रघुनाथ मंदिर : त्रिवेणी घाट पर स्थित और स्नान के पश्चात् इसमें पूजा का विधान है।
  • भरत मंदिर : यह प्राचीन तथा विशाल मंदिर है। इसकी बनावट बौद्ध मंदिर जैसी कलात्मक है।
  • कैलाश आश्रम : संत – महात्माओं का प्राचीन स्थल, जहां विद्वान संत – महापुरुषों के दर्शन और संत्सग होते है।
  • मुनि की रेती : गंगा तट पर वन का क्षेत्र, जहां पर अनेक संत – महात्मा पेड़ों की छाया में व झाड़ियों में रह कर ईश्वर चिंतन व जप – तप करते हैं।
  • लक्ष्मण झूला : गंगा के पार जाने हेतु प्राचीन काल में यह रस्सों से बना झूला या पुल था, पर वर्तमान में लोहे आदि का प्रयोग करके इसे मजबूत बना दिया है, पर हिलता वह आज भी है।
  • राम झूला : गंगा पर दूसरा पुल जो लोहे के रस्सों से बना है और लक्ष्मण झूला से लंबा है। इसी से गंगा पार करके स्वर्ग आश्रम, गीता भवन आदि में पहुंचा जाता है।
  • स्वर्ग आश्रम : ये प्राचीन आश्रम काली कमली बाबा के द्वारा निर्मित है और प्राचीनकाल में ठहरने हेतु इसे सबसे उत्तम माना जाता था। यहां यात्री के ठहरने, खाने आदि की उत्तम व्यवस्था है और इसके साथ – साथ इस ट्रस्ट के द्वारा साधु – महात्माओं को मुफ्त भोजन आदि उपलब्ध कराया जाता है।
  • गीता आश्रम : इसकी स्थापना स्वामी वेदव्यासजी ने की थी। यह दर्शनीय स्थल है। यहां से धार्मिक पत्रिका ‘ गीता संदेश ‘ प्रकाशित होती है।
  • परमार्थ निकेतन : यह नवीन स्थल है, जो अनेक मंजिलों का है और सुंदर तथा दर्शनीय है। इसमें कई सुंदर झांकियां लगाई जाती हैं तथा प्रतिदिन सत्संग होता है। इसके अतिरिक्त भी सैकड़ों दर्शनीय स्थान, आश्रम व मंदिर आदि इस नगर में हैं, जिन्हें देख कर यात्री प्रसन्न हो जाते हैं।

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