धन–वैभव एवं यश–कीर्ति की मिथ्या कल्पनाओं में भटके व्यक्तियों को मृत्यु-रहस्य उद्घाटित नहीं हो सकता। सांसारिक बंधनों में फंसे हुए लोगों को अन्तर्मुख होने का अवसर ही नहीं मिल पाता और मृत्यु के स्वामी यमराज उदघोषणा करते हैं कि: ऐसे व्यक्ति बारंबार यमयात्रा में बंधते रहते हैं। जब तक कि आत्म ज्ञान न प्राप्त हो जाये, यह जन्म–मृत्यु का चक्र चलता ही रहता है। प्राचीन श्रुतियों ने स्वर्ग की परिकल्पना अवश्य की किन्तु अन्य धर्मों की भांति उसे नित्य शाश्वत नहीं माना। हिन्दू और बौद्ध धर्मों को छोड़ कर अन्य सभी धर्मों में स्वर्ग को ही सर्वोच्च स्थान मिला, किन्तु भारतीय श्रुतियों के अनुसार स्वर्ग अथवा पितृलोक की रूपरेखा भी व्यक्ति के विचारों के अनुसार बना करती है। कुछ पुण्य कर्मों के कारण जीव मृत्यु के उपरान्त चाहे स्वर्ग भले ही पहुँच जाये, किन्तु पुण्य की समाप्ति होते ही स्वर्ग से च्युत होकर पुनः इसी मृत्यु लोक में आ जाता है। सभी सद्गुणों एवं पुण्य कर्मों की एक सीमा है। फलतः स्वर्ग-निवास की अवस्था सीमित ही रहा करती है।
भारतीय दर्शन में स्वर्ग की नित्यता का स्थान व्यावहारिक रूप से असम्भव माना गया है। अनाथि एवं अनन्त को ही नित्य कहते हैं। वेदान्त-दर्शन के अनुसार स्वर्ग कदापि नित्य एवं शाश्वत नहीं हो सकता। क्योंकि स्थान, काल एवं कार्य–कारण की परिधि में आने वाली वस्तु अस्थायी एवं नश्वर होती है। समस्त सांसारिक सुख, काल की सीमा में आबद्ध हैं। वे सर्वदा एक जैसे स्थिर नहीं रहते। स्वर्गीय सुख भी सांसारिक सुख के समरूप हैं। यह हो सकता है कि स्वर्गीय सुख सांसारिक अपेक्षा कुछ अधिक समय तक टिके, किन्तु कालक्रम से उसकी भी परिसमाप्ति निश्चित है। जीवन की अधूरी इच्छायें व्यक्ति को किसी भी लोक से खींच कर इसी लोक में लाती हैं।
नचिकेता ने नित्य अमर तत्व के विषय में प्रश्न किया। सांसारिक वस्तुएं क्षण–भंगुर हैं। अपनी अन्तः स्थिति का ज्ञान प्राप्त करने के बाद व्यक्ति समग्रता से नित्य–अनित्य–वस्तु–विवेचन करके परमानन्द प्राप्त कर सकता है। अमर तत्व वह है जो परिवर्तन के नियम से परे हो। स्थान एवं काल के सामंजस्य में परिवर्तित होने वाली सभी वस्तुएं अनित्य एवं नाशवान हैं। स्थान, काल एवं कार्य–कारण की परिधि से ऊपर उठकर अमर तत्व को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।
हम सब की मृत्यु अवश्यंभावी है क्योंकि हम सभी किसी एक विशिष्ट स्थान एवं काल में पैदा हुए हैं। और यही बात संसार की सभी वस्तुओं के विषय में भी सत्य है। सम्पूर्ण विश्व स्थान, काल तथा कार्य–कारण के नियम से अनुशासित है। यही कारण है कि नश्वर जगत जन्मबद्धता से परिपूरितनीय है। साक्षियों ने यह अनुभव किया कि स्थान, काल एवं कार्य–कारण के नियमों से परे परम–तत्व ही इस संसार का मूल–बिन्दु है तथा उसी को प्राप्त करना जीवन का परम लक्ष्य है। वहां तक मृत्यु की पहुँच नहीं। आत्मा के अभिनाशी स्वभाव को जान लेने वाला व्यक्ति ही मृत्यु–रहस्य का बोध कर पाता है। मृत्यु का साक्षात्कार विनाश नहीं अपितु और भी परमगम्भीर सत्य हेतु का बदल जाना मात्र है। समस्त परिवर्तनों के अन्तरतत्त्व में वह अमर–तत्व हमारे भीतर ही निहित है। सामान्यता लोग अमर–पद की प्राप्ति में कोई रुचि ही नहीं रखते।
स्वयं-निर्मित समस्याओं में उलझे होने के कारण उन्हें यह विचार करने तक का अवसर नहीं प्राप्त होता कि अगर–अमर आत्मा नाम की कोई वस्तु होती भी है या नहीं? जबकि वही हमारा परम–स्वरूप है। आश्चर्य है कि “बहुत थोड़े ही लोगों को आत्म एवं परमात्म–चर्चा सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता है और उनमें से कुछ ही ऐसे हैं जो सुनने के उपरान्त भी महसूस पाते हैं।” अमर तत्व को प्राप्त हेतु आध्यात्मिक–अभ्यास में गुरु का योग्य एवं अनुभवी होना उतना ही आवश्यक है जितना कि शिष्य का योग्य गुरु एवं अधिकारी शिष्य का मिलन स्वयमेव एक महान उपलब्धि है। किंतु ऐसे शुभावसर कम ही आते हैं। आध्यात्मिक गुरुजन, सामान्य धर्मोपदेशकों एवं शिक्षकों से सर्वथा भिन्न होते हैं। जिनको स्वयं आत्म–साक्षात्कार नहीं हुआ वे दूसरों को सत्य के विषय में क्या बता सकते हैं? महान ज्ञानी गुरु के द्वारा उपदिष्ट होने पर भी मलीन बुद्धि वाला साधक आत्मज्ञान का ग्रहण नहीं कर पाता। विशुद्ध आत्मज्ञान की प्राप्ति के पूर्व साधक को शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास के सोपान–क्रम से होकर आगे बढ़ते रहना पड़ता है। विविध दार्शनिक विषयों पर प्रवचन करने में परम–पटु विद्वान लोग भी, सत्य और असत्य सम्बन्धी प्रश्नों में भ्रमित हो जाते हैं। पुस्तकीय ज्ञान से ही अमर आत्मतत्व का साक्षात्कार नहीं हो सकता। ध्यान और समझ के मार्ग से अपने ही भीतर उसे अनुभव के द्वारा जाना जा सकता है।
साक्षात अनुभव के लिए योग–साधना परमावश्यक है। समाधि की स्थिति में होने वाले आत्मानुभव से ही व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। आत्मानुभव के अनन्तर ही साधक शरीर, इन्द्रिय एवं मन की दासता से मुक्त होकर अमर–रस–पान कर पाता है। उस उच्च स्थिति में प्राप्त योगी के लिए जन्म और मृत्यु एक सदृश्य है। वह नित्य ही ईश्वरीय दिव्य–लोक में निवास करता है। यह अनुभव, उस स्थिति को प्राप्त गुरुओं की कृपा से ही सम्भव है, एकमात्र पुस्तक पढ़ने से नहीं।
एक सच्चे गुरु में, शिष्य के आध्यात्मिक नेत्र खोलने तथा उसके हृदय एवं मन को निर्मल तथा संस्कृत करने की क्षमता होती है। हृदय, मन तथा बुद्धि के बिना शुद्ध हुए, सद्गुरु का भी प्रयास निष्फल हो जाता है। वैराग्य एवं मुमुक्षुत्व के बलवाले साधक विविध आध्यात्मिक स्तरों से होकर परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। सच्चे साधक की प्रवृत्ति, सामान्य लोगों से सर्वथा भिन्न होती है। साधारण व्यक्ति तो सांसारिक सुखों, धन, मान–सम्मान आदि के पीछे भागता है या अपनी ही इच्छाओं का दास बना रहता है। किन्तु मुमुक्षु उन विषयों से विरक्त हो कर अपनी तन्मयता, पवित्रता तथा विवेक के बल से सत्य की प्राप्ति में अनवरत प्रयत्नशील रहता है।
केवल तर्क एवं शास्त्रार्थ के माध्यम से मृत्यु–रहस्य का बोध सम्भव नहीं। इस विषय में कोई वैज्ञानिक प्रमाण भी नहीं प्रस्तुत किया जा सकता क्योंकि वह इन्द्रिय–प्रत्यक्ष का विषय नहीं। इन्द्रियाँ की वहाँ तक पहुँच नहीं। वह अमर–अमर आत्मतत्त्व सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। वैज्ञानिक प्रयोगों तथा तर्कसंगत विवादों से उस रहस्य का उद्घाटन सम्भव नहीं क्योंकि उन समस्त साधनों की एक सीमा है। उस सीमा को पार करने बाद उनकी कोई गति नहीं रह जाती। वैज्ञानिक अनुसंधानों के माध्यम से आत्मा की अमरता के विषय में आज तक कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका। मानव–सभ्यता को जब काल से ही जन्म–मृत्यु के सम्बन्ध में विचार–विनिमय होता चला आ रहा है। किन्तु सत्य क्या है—यह निश्चित न हो सका। बौद्धिक–विकास चाहे कितना भी हो जाये, किन्तु आध्यात्मिक जागृति के बिना आत्मा की अमरता का अपरोक्ष ज्ञान सम्भव नहीं। सौभाग्य–वश जब साधक एक आत्मविद् गुरु के चरणों में पहुँच कर अध्यात्म–पथ में दीक्षित हो, यथोपदिष्ट विधि से साधना करता है तब उसे साक्षात् अनुभूति होती है और अन्ततः वह समस्त संशयों से निवृत्त हो आत्म–ज्ञान में अवस्थित हो जाता है।