तीर्थ दर्शन और उनका महत्व: आत्मकल्याण के भाव से करनी चाहिए तीर्थ यात्रा

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हिंदुओं के जितने भी तीर्थ स्थल है, उससे सम्बन्धित आर्टिकल हमारे वेबसाइट में प्राथमिकता के साथ सजोये गए है, मकसद सिर्फ एक है कि हिंदू धर्म के विभिन्न पहलुओं से जन-जन से अवगत कराना। यह हमारी वेबसाइट को इसलिए भी महत्वपूर्ण पहलू प्रतीत होता है, क्योंकि अब समाज एकल परिवार की ओर बढ़ रहा है, जहां पीढ़ी दर पीढ़ी जाने वाला ज्ञान भी मिटता जा रहा है।

तीर्थ यात्रा सिर्फ धार्मिक स्थलों पर भ्रमण नहीं होता है, बल्कि यह एक आध्यात्मिक यात्रा होती है, जिसे तय करने के लिए अटूट भक्तिभाव और समर्पण की आवश्यकता होती है। ईश्वर के प्रति समर्पण भाव ही श्रद्धालुओं को दुर्गम यात्राओं की शक्ति प्रदान करता है। ईश्वरीय सत्ता के प्रति के समर्पण का भाव विभिन्न मंदिरों में यात्रा कर रहे श्रद्धालुओं में आम तौर पर देखा जा सकता हैं। जहां ऊंच-नीच का भेद भूलकर जयकारें लगाते चलते हैं।

हिंदू धर्म में तीर्थाटन का विशेष महत्व हमेशा से रहा है। धर्म के प्रति आस्था रखने वाले हर हिंदू की इच्छा होती है कि वह तीर्थ दर्शन को जाए। तीर्थ स्थल पर पहुंच कर ईश्वर के सामिप्य की अनुभूति करे। हिंदू धर्म में ईश्वर को साकार व निराकार दोनों रूपों में पूजा जाता है। दोनों का अपना महत्व है। कुछ मिलाकर कहें तो लक्ष्य एक है कि आत्म ज्योति को परम ज्योति में विलीन करना। आत्म चेतना को जागृत करना। प्रश्न यह है कि तीर्थो में ऐसा क्या है? जिसके लिए मनुष्य तमाम त्याग और बलिदान देने के लिए तैयार हो जाता है। खास बात यह है कि तीर्र्थाटन के लिए त्याग और बलिदान की परंपरा प्राचीन समय से चली आ रही है। श्रवण कुमार का उदाहरण लें तो वह अपने माता-पिता को कंधे पर उठाकर तीर्थ दर्शन के लिए ले जा रहा था। यात्रा के तमाम कष्ट सहें। फिर भी माता-पिता को तीर्र्थाटन के लिए निकला था। इस विश्व में जितने भी तीर्थ है। वह सभी भगवान और भक्तो के साथ से बने हैं। इसको इस साधारण भाषा में यूं समझ सकते है कि भक्त बिना भगवान नही, भगवान बिना भक्त नहीं, और इन दोनो के बिना तीर्थ नही।

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तीर्थयात्रा का उद्देश्य

तीर्थयात्रा का उद्देश्य है- अंत: करण की शुद्धि एवं उसके फलस्वरूप मानव जीवन का परम लक्ष्य भगवत्प्राप्ति । अत: शास्त्रों ने अन्तः करण की शुद्धि करने वाले साधनों को प्रकाश में लाने का विशेष प्रयत्न किया है । शास्त्रों में स्पष्ट कहा गया है कि जो लोग इंद्रियो को वश में नहीं रखते . जो लोभ, काम, क्रोध, दम विषयासक्ति को लेकर उन्हीं की आपूर्ति के उद्देश्य से तीर्थयात्रा करते हैं , उन्हें तीर्थदर्शन , स्नानादि का फल नहीं मिलता है।

पाप से तारने वाला ‘ तीर्थ’

‘ तीर्थ’ शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है जो ‘ त्र ‘ धातु में ‘थक ‘ प्रत्यय के योग से बना है । इसका अर्थ है- पाप से तारने वाला या भव सागर से पार उतारने वाला । संस्कृत भाषा की एक उक्ति भी तीर्थ शब्द का ऐसा ही अर्थ व्यक्त करती है-

तारयितुम समर्थः इति तीर्थः ।

अर्थात् जो तार देने या पार कर देने में समर्थ है , वही तीर्थ है ।
‘ तीर्थ ‘ शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है । साधारणतया तीर्थ उन्हीं स्थानों को मानने की परंपरा रही है जो या तो किसी नदी के किनारे किसी बड़े सरोवर तालाब या विस्तृत जलखंड के किनारे स्थित हों, जहां पहुंच कर व्यक्ति उनके पावन जल में स्नान कर अपना पापमोचन कर सके ।

‘ पद्मपुराण ‘ में भी एक स्थान पर इसी उक्ति का सत्यापन हुआ है गन्तव्यः
तस्मात् तीर्थेषु गन्तव्यः नर संसारभीरुभिः ।
पुण्योदकेषु सततं साधु श्रेणी विराजेषु ॥
किंतु इसी पुराण में एक अन्य स्थान पर गुरु तीर्थ , माता – पिता तीर्थ आदि का वर्णन भी आया है । गुरु शिष्य को शिक्षा प्रदान कर उसके अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर देता है, अतः शिष्य के लिए गुरु तीर्थ है । माता – पिता अपने पुत्र के इहलोक एवं परलोक को सुधारने में सबसे अधिक योगदान करते हैं , अतः पुत्र के लिए माता – पिता तीर्थ हैं। पत्नी के लिए उसका पति परमतीर्थ है ।

इसी प्रकार जिन स्थानों पर प्रसिद्ध मंदिर एवं पूजा – स्थल हैं, उन्हें भी तीर्थ कहा गया है। उन सरोवरों, कूपों को भी तीर्थ कहा गया है, जो किन्हीं पुण्य स्थानों या पूजा स्थलों से संबद्ध है । साधु-महात्मा, पुण्यात्मा, धर्मोपदेष्टा, संन्यासी आदि को भी तीर्थ की संज्ञा प्रदान की गई है । ऐसे महात्मा में जो परमहंस की स्थिति को प्राप्त हो गए उनके नामों के आगे तीर्थ शब्द जोड़ा जाने लगा, जैसे स्वामी रामतीर्थ स्वामी प्रेमानन्द तीर्थ आदि। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि प्राचीनकाल से ही तीर्थ हमारी आस्था व विश्वास के केंद्र रहे हैं। मनुष्य जीवन ही ऐसा है, जिसमें सदैव संघर्ष के क्षण आते रहते हैं । इन्हीं संघर्षशील क्षणों में मनुष्य भूले बिसरे उचित – अनुचित कार्य कर बैठता है , जो पुण्य – पाप का कारण बन जाते हैं । जब उसे अपने पाप- कृत्य का बोध होता है , वह बेचैन हो उठता है । वह अपने ऊपर एक नैतिक दवाव महसूस करने लगता है और शीघ्र उससे छुटकारा पाना चाहता है , जिससे उसका चित्त शांत हो सके । तब वह शास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट उपायों का आश्रय लेता है और तीर्थों की ओर दौड़ता है । यह तीर्थ ही मनुष्य के पापों का मोचन कर उसे भवसागर पार कराने में समर्थ हैं । इस पार से उस पार ले जाने की यात्रा तारने की यात्रा ही तीर्थयात्रा कहलाती है । इसे दूसरे शब्दों में आध्यात्मिक यात्रा भी कहा जा सकता है । तीरथ यात्रा का असली मकसद तो आत्मा का उद्धार करना और चेतना को जागृत करना है। आत्मा के कल्याण के लिए तीर्थ यात्रा करनी चाहिए, इससे जीव का सदैव कल्याण होता है। भोगों को प्राप्त करने की इच्छा के लिए तीर्थाटन नहीं करना चाहिए। कहने का आशय यह है कि तीर्थाटन में भाव का महत्व होता है, इसलिए भाव हमेशा ही आत्मकल्याण का ही होना चाहिए, जो भी जीव आत्मा के कल्याण के लिए श्रद्धा व भक्तिपूर्वक नियम का पालन करते हुए तीरथ यात्रा करते हैं। उसे मोक्ष की प्राप्ति के साथ अन्य लाभ भी होता है। उनका सदैव ही कल्याण होता है। अनुभव में यह भी आया है कि यदि सच्चे मन और आत्मकल्याण की भावना से तीर्थ यात्रा की जाती है और धर्मानुकूल आचरण करते हुए तीर्थ दर्शन किए जाते है तो मनुष्य उस यात्राकाल के दौरान एक अलग मानसिक उर्जा की अनुभूति भी करता है, जो उसे संसारिक भोगों से दूर कर निष्काम भाव से ईश्वर की आधारना के लिए प्रेरित करती है, जो कि उसके आत्मकल्याण में सहायक बनती है।

तरति संसार महार्णवं येन तत्तीर्थमिति ।

‘ स्कंदपुराण’ के काशीखंड में तीन प्रकार के तीर्थ कहे गए हैं-

तीर्थ प्रकार

1. स्थावर तीर्थः पृथ्वी पर स्थित समस्त तीर्थ- गंगोत्री, यमुनोत्री, गंगा, यमुना आदि नदियां , हिमालय, कैलास आदि पर्वत वृंदावन, नैमिषारण्य आदि वन अथवा ऐसे वन जहां आश्रम , गुरुकुल आदि रहे हैं , स्थावर तीर्थ कहे गए हैं ।
2. जंगम तीर्थ : ब्राह्मण एवं साधु – संन्यासी , ऋषि- महात्मा जंगम अर्थात् चलते – फिरते तीर्थ हैं ।
3. मानस तीर्थः सत्य , क्षमा , दया , इंद्रिय निग्रह , दान , धर्म , तप , ब्रह्मचर्य , ज्ञान , धैर्य आदि मानस तीर्थ कहे गए हैं ।

सभी तीर्थों में मानस तीर्थ ही सर्वश्रेष्ठ हैं । मानस तीर्थ ही अन्तः करण की विशुद्धि के कारक तत्त्व हैं । बिना अंतःकरण की शुद्धि के स्थावर तीर्थ का कोई फल नहीं प्राप्त होता। लोभी, लंपट, विषयी व्यक्ति बिना मन की शुद्धि के कभी भी भवसागर से पार नहीं हो सकते । प्रायः तीर्थस्थल एकांत , सुंदर , अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण पर्वतों की उपत्यकाओं , गुफाओं अथवा पवित्र नदियों के तट पर स्थित हैं । प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित तीर्थस्थलों में निवास कर रहे योगी – तपस्वीजनों की तेजस्विता एवं सज्जनों की पुण्यचर्या , पूजा – पाठ वहां के वातावरण को निरंतर पवित्रता प्रदान करते रहते हैं । ऐसे सिद्ध क्षेत्र में पहुंचकर तीर्थयात्रियों के मन को अदभूत शांति मिलती है , साथ ही पुण्यात्मा साधु – संतों के दर्शन एवं सत्संग से विचारों की शुद्धि एवं जीवन के चरम लक्ष्य को पाने की प्रेरणा मिलती है । तीर्थों को महत्ता वैदिक वाङ्मय से लेकर पुराणों तक निर्विवाद रही है । अथर्ववेद ‘ ( 18.4.5 ) में तीर्थों के माध्यम से महान् विपत्तियों को पार करने की बात उल्लिखित है । तीर्थ की महत्ता इसी में है कि उसके द्वारा व्यक्ति अपने संकटों से मुक्ति पा लेता है । इसके अतिरिक्त भी तीर्थों से अनेकविध फल प्राप्त होते हैं जैसे- पापों से निवृत्ति व पुण्यसंचय, मुक्ति या मोक्ष की प्राप्ति, देवकृपा की प्राप्ति, चारित्रिक विकास आध्यात्मिक जागरण , समष्टि कल्याण , सामाजिक समन्वय, सांस्कृतिक एकता, राष्ट्रीय एकता आदि । व्यक्ति को पूर्ण विश्वास है कि तीर्थों की यात्रा करने, वहां की नदियों, सरोवरों के पुण्य जल में स्नान करने से ईश्वर की अप्रत्याशित कृपा प्राप्त होती है , उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं । तीर्थों के कारण मनुष्य का चारित्रिक विकास भी होता है । पूर्ण समर्पित भाव से जब मनुष्य तीर्थों की ओर रुख करता है , तो उसके मन से नकारात्मक भाव तिरोहित हो जाते हैं। उसका मन सकारात्मक ऊर्जा से पूर्ण हो जाता है । काम – क्रोध, लोभ मोह आदि उसके मन से लुप्त हो जाते हैं एवं उसका मन पवित्र होकर स्वयं तीर्थरूप हो जाता है । चित्त की निर्मलता ही तीर्थ स्वरूप होने की सीढ़ी है ।
तीर्थ सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने में भी महत् भूमिका निभाते हैं । तीर्थों में आयोजित होने वाले महान स्नान पर्व , उत्सव , मेलों में विभिन्न जाति – संप्रदाय के लोग विभिन्न उद्देश्यों को लेकर उपस्थित होते हैं एवं पर्व को सफल बनाने में योगदान करते हैं । शैव , शाक्त , वैष्णव सभी हिंदू इन तीर्थों में आकर आपस का भेदभाव मिटाकर दूसरे की मदद करते हैं । इसी प्रकार तीर्थों में विभिन्न संस्कृतियों के लोग एकजुट होकर सांस्कृतिक एकता की मिसाल भी कायम करते हैं । वैसे भी भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता की पक्षधर रही है । प्रमुख तीर्थों में पर्वो के अवसर पर अनेक मत – मतानुयायियों का बिना किसी प्रकार के आपसी भेदभाव के एक साथ इकट्ठा होकर रहना सांस्कृतिक एकता का प्रमाण है।  प्रयाग के कुंभ मेले में कहीं नागा साधु , कहीं हठयोगी , कहीं ध्यान में स्थित संन्यासी तो कहीं तांत्रिक , कहीं भजन की लहरियां तो कहीं आध्यात्मिक प्रवचन कहीं मृदंग ताल तो कहीं नृत्य सब एकसाथ बिना आपसी भेदभाव के चलता रहता है । ये सांस्कृतिक एकता की मिसाल ही हैं । इसका कारण है कि हमारी संपूर्ण संस्कृति व कला तीर्थों में ही उपजी पली बढ़ी है । इसी कारण कुछ तीर्थों की महत्ता इतनी अधिक बढ़ी कि उन्हें तीर्थराज कहा जाने लगा । भारत में कतिपय धार्मिक संस्कारों को संपन्न करने के लिए भी कुछ स्थलों को तीर्थों की मान्यता प्रदान की गई है । उदाहरण के लिए हिंदूधर्म में अस्थि विसर्जन , पिंडोदक क्रिया , मुंडन संस्कार आदि जहां पर संपन्न होते हैं उन्हें तीर्थ की गरिमा प्रदान कर दी गई । यह देखते हुए तीर्थों की तीन श्रेणियां निर्धारित की गई हैं ।

1- नित्य तीर्थ

2- भगवदीय तीर्थ

3-  संत तीर्थ

काशी कैलास मानसरोवर आदि तीर्थों को नित्य तीर्थ कहा गया है इन तीर्थों में सृष्टि के प्रारंभकाल से ही दिव्य पावनकारिणी शक्ति रही है । इसी प्रकार गंगा , यमुना , नर्मदा ( रेवा ) गोदावरी एवं कावेरी नदियां भी नित्यतीर्थ मानी गई हैं । जिन – जिन स्थानों पर ईश्वर ने अवतार लिए , जहां उन्होंने कोई लीला की या जहां उन्होंने किसी भक्त को दर्शन दिए वे भगवदीय तीर्थ कहे जाते हैं। अयोध्या , मथुरा रामेश्वरम् आदि तीर्थ भगवदीय तीर्थ हैं । जो जीवनमुक्त , देहातीत , परम भागवत अथवा भगवत्प्रेम में तन्मय संत हैं , उनका शरीर भले ही पंचभूतिक तथा नश्वर हो , किंतु उस देह में संत के दिव्य गुण ओत प्रोत हैं । उनके शरीर से निरंतर दिव्य गुणों का प्रवाह होता रहता है । इस प्रकार ऐसे संत के चरण जहां – जहां पडते हैं . वह स्थान तीर्थरूप हो जाता है । संत की जन्मभूमि , साधनभूमि एवं निर्वाणभूमि भी तीर्थ हो जाती है इस प्रकार वे संत तीर्थ हो जाते हैं ।

1. चार धाम :  जहां ईश्वर का निवास हो . वही धाम कहलाया । शास्त्रों में वर्णित चार धाम वही हैं , जहां स्वयं श्री रमापति विष्णु ने अपने अवताररूप निवास किया । ये चार धाम हैं- 1 पूरब में जगन्नाथपुरी 2 पश्चिम में द्वारका , 3 उत्तर में बदरीनाथ 4 दक्षिण में रामेश्वरम् । इन चार धामों के अतिरिक्त उत्तराखंड ( पुराना नाम उत्तर प्रदेश ) में जिन चार धामों की मान्यता है , वे हैं- बदरीनाथ , केदारनाथ गंगोत्री एवं यमुनोत्री । इन चार धामों की तीर्थयात्रा करने से भी संपूर्ण तीर्थों का फल मिलता है ऐसा शास्त्रों में कहा गया है ।
2 सप्त पुरियां सात पुरियां- अयोध्या , मथुरा , काशी , हरिद्वार अवंतिका , कांचीपुरम् एवं द्वारका की गणना महत्त्वपूर्ण तीर्थों में की गई है ।
3. बारह ज्योतिर्लिंग पूरे भारत में शिव के बारह ज्योतिर्लिंग हैं जो भिन्न – भिन्न राज्यों में स्थित हैं । इनका भी तीर्थों में महत्त्वपूर्ण स्थान है । ज्योतिर्लिंग इस प्रकार हैं 1 सोमनाथ , 2 मल्लिकार्जुन 3 महाकालेश्वर , 4 वैद्यनाथ 5. ओंकारेश्वर , 6 भीमशंकर , 7 नागेश्वर , 8 काशी विश्वनाथ , 10 त्र्यम्बकेश्वर , 11 केदारनाथ , और 12 घुश्मेश्वर ।
4. पंच सरोवर भारत में पांच सरोवर हैं , जहां स्नान करने से मुक्ति मिलने की बात कही गई है । ये पांच सरोवर हैं -1 मानसरोवर 2 पुष्करसरोवर , 3 बिंदुसरोवर ( सिद्धपुर ) , 4 नारायणसरोवर और 5 चंपासरोवर
5 सप्त सरिताएं यद्यपि वेदों एवं पुराणों में अनेक नदियों की धार्मिक महत्ता वर्णित है , किंतु सप्त सरिताओं की महत्ता विशेष है । इनके पावन जल के स्पर्शमात्र से ही मनुष्य के सारे कल्मष धुल व उसे भवबंधन से मुक्ति मिल जाती है । ये सप्त सरिताएं इस प्रकार हैं- 1 गंगा , 2 यमुना 3 गोदावरी 4 सरस्वती 5 नर्मदा , 6 सिंधु और 7 कावेरी । इन पवित्र नदियों के तट पर अनेक छोटे – बड़े तीर्थ हैं जिनकी यात्रा , तदुपरान्त वहां पूजा – अर्चना करके यात्री पुण्यलाभ लेते हैं ।
6. देवी के 52 शक्तिपीठों का वर्णन किया गया है , साथ ही वहां पहुंचने के मार्ग व साधनों का भी वर्णन किया गया है ।

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7. देवी के जाग्रत प्रधान 12 विग्रह देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित देवी के 12 विग्रह हैं जो इस प्रकार है . 1 कामाक्षी देवी ( कांचीपुरम् ) 2 भ्रमराम्बा या भ्रामरी ( मलयगिरि ) 3 कुमारी ( कन्याकुमारी , केरल ) 4. अम्बा ( आनर्त , गुजरात ) 5 महालक्ष्मी ( कावरी , कोल्हापुर ) 6. कालिका ( मालवा , उज्जैन ) ललिता या अलोपी ( प्रयाग ) 8. विंध्यवासिनी ( विंध्याचल ) 9 विशालाक्षी ( वाराणसी ) 10 मंगलागौरी या मंगलावती ( गया ) 11 सुंदरी ( बंगाल ) और 12 गुह्यकेश्वरी ( नेपाल ) ।

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