ओह, कहां जा रहा हमारा समाज, यह क्या कर गए सो-कॉल्ड सेक्युलर…… अब अमीरी-गरीबी सम्बन्धों का आधार, विकृत हो रहा समाज

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समाज में बदलाव न आया है और न ही आएगा। समाज कल भी वही था, आज भी वही है और आने वाले कल में भी वही रहेगा। बदले हैं या फिर यूं कहें कि बदलाव आया है तो सिर्फ मापदंड में। सो-कॉल्ड सेक्युलर पहले जातिवादी व्यवस्था को लेकर भेदभाव की बातें उठाते थे। आजादी के बाद नए समाज व नए भारत की बातें करते थे, ऊंच-नीच के विरोध में तर्क-वितर्क- कुतर्क दिए जाते थे । कहा जाता था कि अब दौर बदल गया है, हर आदमी बराबर है, कोई न ऊंचा है और न ही नीचा है। सब बराबर है। ठीक बात भी होती थी। समाज में समता हो, सभी को बराबर समझा जाए। कोई जाति व धर्म से ऊंचा-नीचा न हो, सो-काल्ड सेक्युलर की बात सही भी थी और तर्कसंगत भी। देश में स्वीकार भी की गई, लेकिन अब देश की आजादी को सात दशक बीत चुके हैं। इन सात दशकों में अधिकतर समय एक दल विशे ष के शासन का रहा। जिसके पास आजादी के बाद पूरा मौका था, वह आजाद भारत में समाज को सही दिशा दे, जहां भेदभाव न हो, जिसकी परिकल्पना भी इस दल के नेताओं ने देश के सम्मुख किसी न किसी रूप में रखी थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और हुआ क्या?
खुद भेदभाव की समाजिक जमीन तैयार की

समाज को सुधारने या बदलाव का बीड़ा उठाने वाले इस दल ने खुद भेदभाव की सामाजिक जमीन तैयार की। इस विशेष दल ने वर्तमान के भेदभाव वाले समाज की नीव समाज के विशेष वर्ग और धर्म के तुष्टिकरण से रखी। उस दल के नेताओं ने जिस भारत के निर्माण का बीड़ा उठाया था, क्या वह आज का भारत है, जहां समता है। खैर अब हम यहां किसी राजनैतिक चर्चा में नहीं पहुंचेंगे, जो कि किसी दल विशेष के नीतिगत दोषों को उजागर करे, क्योंकि हमने यहां जो विषय चुना है, उसमें ऐसे भारत के निर्माण की परिकल्पना सो-कॉल्ड सेक्युलर ने देश की जनता के सम्मुख प्रस्तुत की थी, जिसका आधार समता था।

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देश की आजादी के सत्तर साल बाद भी समाज में समता तो नजर नहीं आती है, हां, ऊंच-नीच के मापदंड जरूर बदल गए है। अब जिस नए समाज में हम रह रहे है, वहां जाति के आधार पर ऊंच-नीच का दृष्टिकोण गौढ़ हो गया है। समाप्त हो गया कहना गलत होगा। या दूसरे में शब्दों में कहें तो नाम-मात्र का रह गया है। नए समाज में ऊंच-नीच का आधार आर्थिक हो गया है, जो कि उतना ही विष्ौला वृक्ष है और समाज को बांटने वाला है। अगर वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि किसान तीनों कृषि कानूनों का विरोध इसलिए कर रहे है, उन्हें आशंका है कि इससे देश का सम्पन्न पुंजीपति वर्ग देश की कृषि प्रणाली पर हावी हो जाएगा। किसानों को यह भी आशंका है कि पूंजीपति किसानों का शोषण करेंगे। बहरहाल यह तो ऊंच-नींच की खाई को दर्शाने वाला एक पक्ष ही है, जो कि सामयिक है, लेकिन यह पुष्टि करता है कि समाज में अमीर-गरीब की असल में खाई तो तैयार हुई है, उसका आधार पूरी तरह से आर्थिक ही है, जैसे पहले विवाह व मेलजोल जातिगत आधार पर करते थे , लेकिन अब इसका आधार पूरी तरह से आर्थिक हो गया है। अपवाद पहले भी थे , अब भी हैं। समाज में विवाह करने के लिए पहले दूसरे से गोत्र-जाति की जानकारी ली जाती थी, उसी के आधार पर ऊंच-नीच  व  विवाह निर्धारण होता था, लेकिन अब यह देखा जाता है कि जिससे विवाह किया जा रहा है, वह आर्थिक रूप से कितना सम्पन्न व सशक्त है या नहीं । समाज में एक नहीं अनेकों उदाहरण देखे जा सकते हैं। लेख में उदाहरण के रूप में किसी को लेने से उसकी प्राइवेसी प्रभावित हो सकती है। एक ब्राह्मण परिवार में ही मैंने देखा कि उनकी दोनों की पुत्रियों का विजातीय विवाह हुआ। यूपी का एक राजनीतिक परिवार जो यादव कुल से हैं, उनके घर में भी क्षत्रीय कुल में  विवाह हुआ। तमाम प्रशासनिक अधिकारी भी ऐसे उदाहरण देखे जा सकते है, जो विजातीय होते हुए भी विवाह बंधन में बंधे है। यहां विवाह का आधार जाति या कुल नहीं हो रहा है, बल्कि शुद्ध रूप से यह विवाह स्टेटस के आधार पर हो रहे हैं। इसे स्टेटस कहें या फिर दूसरे शब्दों में आर्थिक- सामाजिक सम्बलता।

आज समाज जिस दिशा में जा रहा है। उसमें विवाह सम्बन्ध बनाने के लिए यह भी अक्सर देखते पा रहे है, जहां लड़की का पिता या लड़की वाले यह देखते है कि उनकी पुत्री विवाह एकल परिवार में रहेगी या संयुक्त परिवार में। आज में दौर में लोग एकल परिवार को महत्व देते है। वर्तमान समाज की विडम्बना देखिये कि जब लड़की का विवाह करते है तो एकल परिवार ढूंढ़ते है, जब बहू लाने की बारी आती है तो संयुक्त परिवार में घुलने-मिलने वाली बहू ढ़ूंढ़ी जाती है।
मैं चूंकि एक पत्रकार हूं, सो मैंने इस सम्बन्ध में अपने पत्रकार मित्रों व अन्य साथियों से सम्बन्ध बात की तो कुछ ग्रामीण परिवेश से जुड़ें मित्रों का कहना था कि आज भी गांव जातिवादी व्यवस्था का असर है, लेकिन शहरी क्ष्ोत्र में रहने वाले अधिकांश मित्रों का कहना था कि विवाह में जाति व्यवस्था कुछ तक ध्यान मध्यम वर्ग में जरूर थोड़ा बहुत रखा जाता है, लेकिन समाज के उच्च वर्ग में जाति व गोत्र का ध्यान नहीं रखा जाता है। यहां सिर्फ आर्थिक व धर्म के आधार पर विचार किया जाता है।

रिश्तेदारी में भी स्टेटस- मेरे एक मित्र के पिता ग्रामीण परिवेश के थे, वह एक उच्च पदस्थ अधिकारी है। एक बार उसके पिता जी उसके यहां आये तो मेरे मित्र ने अपने ही पिता का ही परिचय एक एक रिश्तेदार के रूप में कराया। इस तरह के तमाम उदाहरण वर्तमान समाज में देखे जा सकते है, यानी अर्थवादी व्यवस्था में जाति व कुल सम्बन्धों का आधार नहीं है, बल्कि आर्थिक सम्पन्नता ही बनती जा रही है। मेरा एक परिचित परिवार मुम्बई में रहता है। उस परिचित मित्र की माता है, पिता जी नहीं रहे। उन परिचित ने पारिवारिक कलह से बचने के लिए माता को अन्यत्र रहने के लिए उनको मासिक खर्च देना मुनासिफ समझा। धन्य है ऐसा बेटा, धन्य है ऐसा समाज, उस बुजूर्ग महिला पर क्या बीतती होगी?, इस बुढ़ापे में अलग-थलग रहना और उम्र के अकेलापन सहना? यहीं परिचित की माता  धनाड्य होती तो क्या वह परिचित उसे इस तरह से छोड़ते? विचार कीजिये कि आजादी के बाद जो समाज देश में पनप रहा है, वह क्या है, कितना विचारवान है, वैसे इस समाज में अपवाद स्वरूप संयुक्त परिवार है, जहां संस्कार जिंदा हैं।

 सोचिये जिम्मेदार कौन है, देश का एक बड़ा राजनीतिक घराना है, जिनके सदस्यों में राजनीतिक दक्षता न होते हुए भी उन्हें राजनीति में सक्रिय रहना पड़ रहा है। उन्हीं के दल के योग्य नेता हाशिये पर हैं, तो ऐसे में सोचिये, कहा समाप्त हुई ऊंच- नीच, कहां हैं समता। कहां हैं योग्यता दायित्व प्राप्ति का साधन।

 

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