विश्वेश्वर ( विश्वनाथ) हैं सहज ही मुक्ति देने वाले: विश्वनाथ मंदिर के साथ करें विशालाक्षी देवी शक्तिपीठ के भी दर्शन

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ऐसी मान्यता है कि यह धार्मिक नगरी भगवान शिव को समर्पित है और उनके त्रिशूल पर स्थित है। इस त्रिशूल के तीन शूल हैं। उत्तर में ओंकारेश्वर, मध्य में विश्वेश्वर तथा दक्षिण में केदारेश्वर है। और ये तीनों ही गंगा तट पर स्थित हैं। वाराणसी का विस्तार गंगा नदी के दो संगमों वरुणा और असी नदी से संगम के बीच बताया जाता है। इन संगमों के बीच की दूरी लगभग 2.5 मील है। इस दूरी की परिक्रमा हिन्दुओं में ‘पंचकोसी यात्रा’ या ‘पंचक्रोशी परिक्रमा’ कहलाती है और इसे विशेष रूप से शुभ फलदायी माना जाता है। यह भी माना जाता है कि वाराणसी का निर्माण सृष्टि रचना के प्रारम्भिक चरण में ही हुआ था। पुराणों में वाराणसी को ब्रह्मांड का केंद्र माना गया है। 

विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग का एक नाम विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग भी है। यह ज्योतिर्लिंग काशी शहर के मध्य में स्थित है। अत : काशी विश्वनाथ नाम से प्रख्यात है। काशी का आधुनिक नाम वाराणसी है। गंगा, वरुणा और असी जैसी पावन नदियों के बीच में बसी हुई वाराणसी नगरी भारत ही नहीं, संसार के भी प्राचीनतम नगरों में से एक है। बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक विश्वनाथ के होने से ही वाराणसी का महत्त्व नहीं है, बल्कि वाराणसी की गिनती सप्तपुरियों और त्रिस्थली में भी की जाती है। कहा जाता है कि प्रलयकाल में भी काशी का लोप नहीं होता। इसे स्वयं भगवान शिव त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टिकाल में पुन: नीचे उतार लेते हैं। भारत के लगभग सभी बड़े शहरों से सीधा वाराणसी आया – जाया जा सकता है। रेल और बस सेवा हर शहर से उपलब्ध है। इलाहाबाद से वाराणसी 126 किलोमीटर है और मुगलसराय से केवल 17 किलोमीटर। वाराणसी हवाई अड्डा भी है, जहां से दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, लखनऊ आदि सीधे जुड़े हैं। सनातन धर्मशास्त्रों में उल्लेखित तीन सर्वश्रेष्ठ तीर्थस्थलों को त्रिस्थली कहते हैं। परलोक में मुक्ति और मोक्षप्राप्ति के लिए ‘ त्रिस्थली ‘ में पिंडदान का विधान है। ऐसे तीन तीर्थस्थल हैं – प्रयागराज, काशीधाम और गया।

काशी है सृष्टि का आदिस्थल 

काशी को सृष्टि की आदिस्थली भी माना जाता है। अगस्त्य ऋषि के द्वारा की गई विश्वेश्वर की आराधना प्रसिद्ध है। कालांतर में इसके अनेक नाम रहे हैं, जैसे – अविमुक्त क्षेत्र, आनंदकानन, महाश्मशान, रुद्रावास, काशिका, तपस्थली, मुक्तिभूमि, शिवपुरी और त्रिपुरारि राजनगरी आदि। काशी उत्पत्ति विषय में अगस्त्यजी ने श्री स्कंद से पूछा था, जिसका उत्तर देते हुए श्री स्कंद ने उन्हें बताया कि इसी प्रश्न का उत्तर हमारे पिता महादेवजी ने माता पार्वती को दिया था। उन्होंने कहा था कि महाप्रलय के समय जगत् के संपूर्ण प्राणी नष्ट हो चुके थे, सर्वत्र घोर अंधकार छाया हुआ था। उस समय सत स्वरूप ब्रह्मा के अतिरिक्त सूर्य के नक्षत्र, ग्रह, तारे आदि कुछ भी नहीं थे। केवल एक ब्रह्मा का ही अस्तित्व था, जिसे शास्त्रों में एकमेवाद्वितीयम कहा गया। ब्रह्मा का न तो कोई नाम है और न रूप, इसलिए वह मन – वाणी आदि इंद्रियों का विषय नहीं बनता है। वह तो सत्य है, ज्ञानमय है, अनंत है, आनंद स्वरूप और परम प्रकाशमान है। वह निर्विकार, निराकार निर्गुण, निर्विकल्प तथा सर्वव्यापी माया से परे तथा उपद्रव से रहित परमात्मा कल्प के अंत में अकेला ही था|  कल्प के आदि में उस परमात्मा के मन में ऐसा संकल्प उठा कि मैं एक से दो हो जाऊं। यद्यपि वह निराकार है, किंतु अपनी लीला शक्ति का विस्तार करने के उददेश्य से उसने साकार रूप धारण कर लिया । परमेश्वर के संकल्प से प्रकट हुई व ऐश्वयं गुणों से भरपूर सर्वज्ञानमयी सर्वस्वरूप द्वितीय मूर्ति सबके लिए वंदनीय थी। महादेव ने पार्वतीजी से कहा- प्रिये निराकार परमब्रह्म की वह द्वितीय मूर्ति मैं ही हूं।

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काशी में स्वयं परमेश्वर ने ही अविमुक्त लिंग की स्थापना की थी, इसलिए उन्होंने अपने अंशभूत हर शिव को यह निर्देश दिया कि तुम्हें इस क्षेत्र का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए। यह पंचक्रोशी लोक कल्याण करने वाली कर्मबंधनों को नष्ट करने वाली, ज्ञान का प्रकाश करने वाली तथा प्राणियों के लिए मोक्षदायिनी है। यद्यपि ऐसी कथा है कि ब्रह्माजी का एक दिन पूरा हो जाने पर इस जगत् का प्रलय हो जाता है, फिर भी अविमुक्त काशी क्षेत्र का नाश नहीं होता है, क्योंकि उसे भगवान परमेश्वर शिव अपने त्रिशूल पर उठा लेते हैं। ब्रह्माजी जब नवीन सृष्टि प्रारंभ करते हैं तो उस समय भगवान शिव काशी को पुनः भूतल पर स्थापित कर देते हैं। कर्मों का कर्षण नष्ट करने के कारण ही इस क्षेत्र का नाम काशी है, जहां अविमुक्तेश्वर लिंग हमेशा विराजमान रहता है। संसार में जिसको कहीं गति नहीं मिलती है, उसे वाराणसी में गति मिल जाती है। महापुण्यमयी पंचक्रोशी करोड़ों हत्याओं के दुष्फल का विनाश करने वाली है। भगवान शंकर की यह प्रिय नगरी समान रूप से भोग और मोक्ष को प्रदान करती है। कालाग्नि रुद्र के नाम से विख्यात कैलासपति शिव अंदर से सतोगुणी तथा बाहर से तमोगुणी कहलाते हैं। यद्यपि वे निर्गुण हैं, किंतु जब सगुण रूप में प्रकट होते हैं तो शिव कहलाते हैं। रुद्र ने पुनः पुन : प्रणाम करके निर्गुण शिव से कहा- विश्वनाथ महेश्वर नि:संदेह मैं आपका ही हूं । मुझ आत्मज पर आप कृपा कीजिए। मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, आप लोककल्याण की कामना से जीवों का उद्धार करने के लिए यहीं विराजमान हों। इसी प्रकार स्वयं अविमुक्त  ने भी शंकरजी से प्रार्थना की और कहा- देवाधिदेव महादेव वास्तव में आप ही तीनों लोकों के स्वामी हैं और ब्रह्मा तथा विष्णु आदि के द्वारा पूजनीय हैं। आप काशीपुरी को अपनी राजधानी के रूप में स्वीकार करें। मैं यहां स्थिर भाव से बैठा हुआ सदा आपका ध्यान करता रहूंगा। सदाशिव आप उमासहित यहां सदा विराजमान रहें और अपने भक्तों का कार्य – सिद्ध करते हुए समस्त जीवों को संसार सागर से पार कराएं। इस प्रकार भगवान शिव अपने गणों सहित काशी में विराजमान हो गए। तभी से काशी सर्वश्रेष्ठ हो गई।

तीर्थस्थल का महत्त्व

  • पंचक्रोशी काशी इस लोक में कल्याणदायिनी, कर्मबंधन का नाश करने वाली, ज्ञानदात्री तथा मोक्ष को प्रकाशित करने वाली मानी गई है। कर्मों का कर्षण करने से ही इस पुरी को काशी कहते हैं।
  • ‘ मत्स्यपुराण ‘ में वाराणसी जप – ध्यान – ज्ञान रहित दुखी प्राणियों का तारक तथा अविमुक्त क्षेत्र है।
  • यह विश्वास प्रचलित है कि यहां आए प्रत्येक व्यक्ति की मनोकामना शिव शंकर पूर्ण करते हैं।

‘ ऋग्वेद ‘ में भी महिमा का गान

काशी संसार की सबसे प्राचीन नगरी मानी जाती है। ‘ ऋग्वेद ‘ के तृतीय और सप्तम मंडल में इसका उल्लेख मिलता है। विश्वनाथ के मूल मंदिर की परंपरा अतीत के इतिहास के अज्ञात युगों तक चली गई है। कहा जाता है कि इस मंदिर की पुनर्स्थापना शंकर के अवतार भगवान आद्य शंकराचार्य ने स्वयं अपने करकमलों से की थी। इस मंदिर की ध्वजा सोने की बनी हुई है। और यह मंदिर बड़ा भव्य और सुंदर है। मंदिर का शिखर लगभग साठ फीट ऊंचा है। शिखर दो तलों का है, पर इसकी कलाकारी में एक बड़ा शिखर और उसके नीचे क्रमश : छोटे होते गए अनेक शिखर हैं, जो मंदिर को एक भव्यता प्रदान करते हैं। शिखर के नीचे ही मुख्य शिवलिंग एक चौकोर स्थल के अंदर स्थित है, जहां यात्री दूध, जल, बेलपत्र , फूल आदि चढ़ाकर पूजा अर्चना करते हैं। मंदिर के परिसर में भी अनेक मर्तियां अवस्थित है।

मंदिर प्रांगण के मंदिर

मंदिर परिसर में सौभाग्य गौरी, श्रृंगार गौरी, गणेशजी , अविमुक्तेस्वर महादेव व सत्यनारायण आदि के मंदिर अवस्थित है।

मंदिर के पास के स्थल

  • अन्नपूर्णा देवी का भव्य मंदिर पास ही स्थित है। शनि महाराज का मंदिर भी गली में है। अन्नपूर्णा की पश्चिम गली में टुंडिराज गणेश मंदिर है।
  • ज्ञानवापी एक कूप है, जिसका जल पवित्र माना जाता है और इसके पास ही बड़ी नंदी की मूर्ति है। इसी के पास दंडपाणि जी का छोटा मंदिर है।
  • मुख्य सड़क के पास एक आदिविश्वेश्वर का नवीन मंदिर है। इसी के कुछ आगे लांगलीश्वर मंदिर है, जहां विशाल शिवलिंग स्थित है।

काशी के अन्य पवित्र स्थल

  • पवित्र कुंड: यहां लगभग नौ मुख्य कुंड हैं और प्रत्येक स्थान पर मंदिर हैं- कुरुक्षेत्र कुंड सिद्ध कुंड, कृमि कुंड, राम कुंड, मातृ कुंड, पितृ कुंड, लक्ष्मी कुंड , मंदाकिनी कुंड, पिशाचमोचन कुंड आदि।
  • इसके अतिरिक्त काल भैरव, भूत भैरव व बटुक भैरव के मंदिर हैं।
  • दुर्गाजी , सिद्धदा दुर्गा, काशी देवी, धूपचंडी आदि के भी मंदिर हैं।
  • महादेव के मंदिरों में कृतिवाकेशर, तिलमाडेश्वर आदि हैं।
  • कुछ स्थान जैसे गोरखनाथ, कबीर चौरा, गोपाल मंदिर भी नगर में हैं।
दो मुख्य मंदिर ख्याति प्राप्त 

संकट मोचन मंदिर: जहां हनुमानजी की सुंदर मूर्ति स्थापित है। कहा जाता है कि इसकी स्थापना तुलसीदासजी ने की थी। इसके पास ही राममंदिर है।

विशालाक्षी मंदिर : गंगा नदी के किनारे मणिकर्णिका घाट के पास यह मंदिर स्थित है। ‘ तंत्र चूड़ामणि ‘ के अनुसार 52 शक्तिपीठों में से यह एक शक्तिपीठ नगर में है। यहां सती का कर्णकुंडल गिरा था। शक्ति विशालाक्षी या मणिकर्णी है और भैरव काल भैरव हैं।

पवित्र गंगा के घाट

काशी के घाट हजारों साल से काशी की महिमा और गंगा का गुणगान संसार में करते रहे हैं। गंगा यहां इस प्रकार आकर उत्तरवाहिनी हुई हैं कि काशी के घाटों को अर्द्ध चंद्राकार रूप धारण करना पड़ा है। ऐसा अन्यत्र कहीं नहीं है। काशी के इन जीवंत घाटों पर आज भी कथा, कीर्तन, प्रवचन, भाषण, साहित्यिक गोष्ठियां दर्शन – विवेचन आदि सब कुछ सुना और देखा जा सकता है|

गंगातट के विभिन्न घाटों पर विभिन्न राज्यों की बस्तियां मिलती हैं। ब्रह्म घाट, पंचगंगा घाट और दुर्गा घाट में महाराष्ट्रीय समाज, मणिकर्णिका घाट, गाय घाट में पंजाबी, राम घाट, भोंसला घाट और सिंधिया घाट में गुजराती, दशाश्वमेध घाट और अहिल्याबाई घाट में बंगाली तथा केदार घाट, हनुमान घाट और हरिश्चंद्र घाट में दक्षिणी समाज की बस्तियां हैं। वैसे तो काशी के घाटों पर, विशेषकर दशाश्वमेध घाट पर साल भर मेला – सा लगा रहता है, परंतु विशेष पर्वो पर घाटों की छटा देखने योग्य होती है। दशहरे पर दशाश्वमेध घाट पर दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन, कार्तिक मास में पंचगंगा घाट का स्नान, कार्तिक की पूर्णिमा को गंगा तट की दीप – मालिका, दुर्गा घाट की मुक्की, पंचगंगा घाट की कुश्ती, तुलसी घाट की नाग नथैया विशेष आकर्षक हैं।

भारत की जीवन – गंगा, काशी में अपना उन्मुक्त हास्य बिखेरती हैं। काशी के घाट युगों से गंगा की शोभा निहार रहे हैं। तट की विशाल अट्टालिकाएं गंगा के दर्पण में अपना मुख निहारती है। हजारों विद्युत दीप और आकार दीप गंगा की आरती उत्तारते हैं।

इस समय इन घाटों की संख्या लगभग 80 है। इन पक्के घाटों का निर्माण आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व बताया जाता है। ऐतिहासिक प्रमाणों से यह पता चलता है कि आज के वर्तमान घाट भारत के पूर्व राजाओं की देन हैं। इन घाटों का अधिकांश श्रेय काशी नरेश श्री बलवंत सिंह को है, जिन्होंने भारत के विभिन्न देशी राजाओं को गंगा तट पर घाट बनवाने को आमंत्रित किया था, किंतु कुछ ऐतिहासिक दस्तावेजों से इस बात का भी निष्कर्ष निकलता है कि इन घाटों का निर्माण मराठों के काल में हुआ था। असी से लेकर राजघाट के बीच में बने अनेक घाटों के नाम समय – समय पर बदलते रहे हैं। घाटों का विवरण इस प्रकार है:

अस्सी घाट : यह घाट पहले कच्चा था। अब यह घाट पक्का हो चुका है। इस घाट के ऊपर जगन्नाथजी का मंदिर है। इस घाट से लोग पंचकोसी की यात्रा आरंभ करते हैं।

तुलसी घाट : इस घाट के ऊपर तुलसीदासजी का मंदिर है। यहां उनकी खड़ाऊं अभी तक सुरक्षित है। काशी स्थित संकट मोचन मंदिर का निर्माण भी गोस्वामी तुलसीदास ने ही कराया था|

शिवाला घाट : यह घाट महाराज बलवंत सिंह के कोषाध्यक्ष पंडित बैजनाथ मिश्र ने बनवाया था। यह घाट अभी तक अच्छी दशा में है। घाट पर बारादरी, महल और मंदिर भी हैं। इस घाट का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। इसी घाट पर ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों के साथ महाराज चेतसिंह का युद्ध हुआ था और वह खिड़की के रास्ते गंगा में कूदकर लापता हो गए थे। इस पर कंपनी ने अपना अधिकार कर लिया और बाद में पेंशन पाने वाले मुगल बादशाह के वंशजों को दे दिया था। बहुत दिनों बाद काशी नरेश ने इसे फिर खरीदा, मरम्मत कराई और मंदिर का जीर्णोद्धार कराया|

हनुमान घाट : यह घाट पक्का है। घाट के ऊपर हनुमानजी का मंदिर है। यहीं पर नागाओं का जूना अखाड़ा मठ है। यहां दक्षिण भारतीयों की बस्ती है।

हरिश्चंद्र घाट : यह काशी के प्रमुख घाटों में है इस घाट पर विद्युत शवदाह गृह भी है, इसे श्मशान घाट के नाम से भी लोग जानते हैं।

दशाश्वमेध घाट : यह घाट वाराणसी की चौपाटी घाटों में है। नागरिकों के लिए घूमने – फिरने की यही एक जगह है। यह सबसे प्रसिद्ध और पावन घाट माना जाता है। यह एक चौड़ी सड़क से शहर से मिला हुआ है। काशी के पंच तीर्थों में इसका भी एक स्थान है। काशीखंडानुसार शिव प्रेषित ब्रह्मा ने यहीं पर दस अश्वमेध यज्ञ किए। शिवरतस्यानुसार यहां पहले रुद्रसरोवर था, परंतु गंगा आगमन के बाद पूर्व में गंगापार, दक्षिण में दशहरेश्वर, पश्चिम में अगस्त्य कुंड और  उत्तर में सोमनाथ इसकी चौहद्दी बने। यहां प्रयागेश्वर का मंदिर है। सन् 1929 में रानी पुटिया के मंदिर के नीचे खुदाई में अनेक यज्ञकुंड निकले थे। त्रितीर्थी में यहां स्नान करना अनिवार्य है।

अहिल्याबाई घाट: इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने यह घाट बनवाया था। घाट के ऊपर इंदौर राजघराने का मकान भी है।

मणिकर्णिका घाट : इस घाट को इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने सन् 1795 में बनवाया था। कहा जाता है कि घाट पूरी तरह बन नहीं पाया था कि बीच में ही महारानी का देहांत हो गया। अत: घाट का एक हिस्सा अधूरा ही रह गया, जो अभी तक उसी तरह पड़ा हुआ है। इस घाट के ऊपर मणिकर्णिका का कुंड है। इस कुंड में प्राकृतिक जलस्रोत है, जिससे निरंतर निर्मल जल निकलता रहता है। काशी के पंचतीर्थों में इसका भी स्थान है। विश्वास किया जाता है कि इस कुंड में विष्णु प्रतिबिंब दिखाई देता है। गंगाजी के अर्द्धचंद्र में मध्य बिंदु पर यह स्थित है। यह काशी का सबसे प्राचीन घाट माना जाता है। कथा है कि विष्णु के कान की बाली यहां गिरी थी, जिससे इस घाट का नाम मणिकर्णिका पड़ा है। वहां चरण पादुका बनी हुई है, जिसे विष्णुजी का पद – चिह्न में विष्णु कहा जाता है।

मुंशी घाट : यह घाट नागपुर के दीवान मुंशी श्रीधर नारायण द्वारा बनवाया गया। काशी के घाटों में यह घाट दर्शनीय है। इसमें पत्थर की कारीगरी बहुत आकर्षक है।

मानमंदिर घाट : यह घाट जयपुर के राजा मानसिंह ने बनवाया है। घाट के ऊपर महल भी है। इस महल का एक कमरा अपनी कलात्मक बनावट के लिए प्रसिद्ध है। सन् 1633 ई . में राजा मानसिंह के वंशज जयसिंह ने यहां ज्योतिष संबंधी वेधशाला का निर्माण कराया था। भारतीय संस्कृति की निर्माणस्थली होने के कारण यहां मेलों और उत्सवों की संख्या बहुत अधिक है। सूर्य और चंद्रग्रहण के अवसरों पर भारी संख्या में भक्तगण इस तीर्थस्थान पर गंगा के पावन जल में स्नान करके अपने को स्वर्ग का अधिकारी मानते हैं।

यहां की रामलीला का विशेष महत्त्व है। नाटी इमली का भरत मिलाप अपने करुण दृश्य के लिए बहुत प्रसिद्ध है।
स्नान के संबंध में विशेष
  • यात्री नाव द्वारा गंगा पार जाएं और वहां स्वच्छ जल में स्नान का आनंद उठाएं। रात्रि में आरती, दीपदान आदि जो इसी घाट पर होता है दर्शनीय हैं।
त्रिस्थली ( गया – प्रयाग-काशी )सनातन धर्मशास्त्रों में उल्लेखित तीन सर्वश्रेष्ठ तीर्थस्थलों को त्रिस्थली कहते हैं। परलोक में मुक्ति और मोक्षप्राप्ति के लिए ‘ त्रिस्थली ‘ में पिंडदान का विधान है। ऐसे तीन तीर्थस्थल हैं – प्रयागराज, काशीधाम और गया। गया को इन तीनों तीर्थस्थलों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। गया प्रमुख पितृमुक्ति तीर्थ है। पुराणों में मुक्ति के लिए चार उपाय हैं- 1 ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति, 2 गया में श्राद्ध, 3. गोहत्या का निवारण, और 4. कुरुक्षेत्र में निवास करना।

इन्हीं चार उपायों में गया में श्राद्ध ही मुक्ति हेतु सबसे महत्त्वपूर्ण है, इसलिए यहीं पर पितरों का श्राद्ध किया जाता है और उन्हें तृप्त किया जाता है।

 

काशी विश्वनाथ की महिमा, यहां जीव के अंतकाल में भगवान शंकर तारक मंत्र का उपदेश करते हैं

 

द्बादश ज्योतिर्लिंगों के मंदिर और स्थान परिचय

 

भैरव तब बने काशी के कोतवाल, उनके दर्शन के बिना काशी विश्वनाथ के दर्शन हैं अधूरे

 

काशी में मृत्यु होने पर इसलिए मिलता है मोक्ष

 

विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग: उत्तर में ऊॅँ कार-खंड, दक्षिण में केदार- खंड व मध्य में विश्वेश्वर खंड

गया: ‘पितृ तीर्थ’ में स्वयं के भी श्राद्ध का विधान, पितरों को मिलती है मुक्ति

त्रिस्थली प्रयागराज: यहाँ पिंडदान से देवी-देवता पितरों को देते हैं मोक्ष

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